Monday, December 23, 2013
चिरंतन सत्य
सफलता के हिंडोले में उड़ान भरता
इतना मगरूर है आदमी,
निज छाया को पहचानने से भी
इंकार कर रहा है आज आदमी।
विवशताओं की तमस में
इतना छिप गया है आज आदमी,
जिम्मेदारियों से अनकहे ही
नाता तोड़ रहा है आज आदमी।
सफलता तो आती-जाती है
अपने तो अपने है
अच्छे या बुरे,
क्यों भूल रहा है आज आदमी।
रोशनी जितनी आती जाती है पास
अत्यधिक रोशनी की
तलाश में उतना ही
तड़प रहा है आज आदमी।
सुखी जीवन का मूलमंत्र
निस्वार्थ कर्म किये जा
क्यों नहीं समझ
पा रहा आज आदमी।
जीवन है क्षणभंगुर
शीशे जैसा नाजुक फिर भी
मृगमरीचिका के पीछे
क्यों भाग रहा है आज आदमी।
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