Monday, November 2, 2015

जैसा मैंने अब तक सुना समझा और जाना है, लेखक सवेदनशील होता है । शायद यही कारण है दुनिया में घटती कोई भी अच्छी बुरी घटना उसे आंदोलित कर देती है तथा उसकी लेखनी चल पड़ती है...पर पिछले कुछ दिनों की घटनायें मन को परेशान कर रही है...क्या लेखक वामपंथी या दक्षिणपंथी होता है ? उसी के चश्मे से वह समाज में व्याप्त अनाचार और दुराचार के विरुद्ध लेखनी चलाता है वरना सबका साथ सबका विकास का नारा देने वाले प्रधान मंत्री का मात्र डेढ़ साल के शासन का ऐसा विरोध...क्या एसी घटनाये पहले इस देश में नहीं हुई थीं ? क्या समाज में अचानक असहिशुता पैदा हो गई । जनसमाज तो वही है जो आज से दशकों पूर्व था । एक आदमी अचानक देश में अराजकता कैसे फेला सकता है ? अगर ऐसा हुआ है तो उसमें उस आदमी या दल का नहीं समाज का दोष है । समाज एक दिन में नहीं बनता, उसे बनने में सदियाँ लग जाती है । यह सच है की हर व्यक्ति अपनी-अपनी विचारधारा अपनाने को स्वतंत्र है पर लेखक का दायित्व आम जन से अलग है । उसे निष्पक्ष रहते हुए समाज के उत्थान तथा भाईचारे के महत्व को ध्यान रखते हुए अपनी लेखनी को बल प्रदान करना चाहिए । लेखक को समाज को जोड़ने का प्रयत्न करना चाहिये न की तोड़ने का । आज मुझे यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी समाज को जोड़ने की बजाय अपनी करनी से देश में नफरत भड़काने का कार्य कर रहे है । सदियों से हम आपस में ही लड़ते रहे...शायद इसी कारण हमे गुलाम रहना पड़ा । जो देश या देशवासी अपनी मूल जड़ों से नाता तोड़ लेते है, अपनी ही संस्कृति पर गर्व करने के बजाय उसका मज़ाक बनाते है वह देश या समाज कभी उन्नति नहीं कर सकता । शायद अपनी इसी कमजोरी के कारण ही हम पिछड़े रह गए..। हमारे देश को दो दलीय व्यवस्था चाहिये...कांग्रेस ने 60 वर्षो तक इस देश में शासन किया है फिर भी हम पिछड़े है...आखिर क्यों ? किसी दल का विरोध करते हुए यह मत भूलिये कि कोई भी चाहे वह नरेंद्र मोदी हो या कोई और जब तक सब को साथ लेकर नहीं चलेगा,शासन नहीं कर पाएगा । एक को संतुष्ट करने के प्रयास में दूसरे को असंतुष्ट कर सामाजिक भेद-भाव के साथ असहिशुंता को ही जन्म देगे जो किसी भी समाज के लिए घातक है ।