Wednesday, December 25, 2019

यह शहर तुम्हारा नहीं

पिछले कुछ दिनों की घटनाओं पर अंतरतम से उदित उद्गार... 
 यह शहर तुम्हारा नहीं 

 जला दो इस शहर को, 
यह शहर तुम्हारा नहीं ।
 मिटा दो इन गलियों को 
इनमें तुम कभी खेले नहीं । 

 मार दो अपने ही
बंधु-बांधवों को ही, 
प्यार तुमसे उन्होंने
कभी किया ही नहीं ।

 माँ भारती के 
पुत्र तुम सब, 
माँ के भाल को उजाड़ते, 
झिझकते क्यों नहीं । 

 क्या थे, क्या से क्या 
हो गए तुम!! 
हाथ में खंजर , 
कलम क्यों नहीं । 

 देश के भविष्य तुम,
भविष्य तुम्हारा होगा
मनमस्तिष्क को खोलकर 
सोचते क्यों नहीं । 


तोड़ना बहुत ही 
आसान है बंधु, 
दिलों को जोड़ने का सुकून 
पाते क्यों नहीं । 

 सिसकती, तड़पती 
उजड़ी जिंदगियों को, 
फिर से बसाने का 
संकल्प लेते क्यों नहीं !! 

 मत भूलो नफ़रतों ने 
उजाड़ी हैं अनेकों जिंदगियां 
दिलों में घोलकर कडुवाहट
सुकून तुम भी पाओगे नहीं ।

 प्यार के दो पल गुजारो 
अपनों के संग, 
सच कहती है सुधा, 
द्वेष कहीं रहेगा नहीं । 

@ सुधा आदेश

Saturday, November 30, 2019

कब तक जलेगी नारी...

कब तक जलेगी नारी...

 एक कोलाहल थमता नहीं 
दूसरा आकर तन-मन को 
 शिथिल कर देता है ..

 संज्ञाशून्य हो जाती है 
चेतना बार-बार 
मन को यही आक्रोश 
 मथने लगता है, 
 आखिर कब तक जलेगी 
 संसार की निर्मात्री नारी , 
कब थमेगी नृशंषता, 
कब तक हमें बेबस चीखें
द्रवित करेगी।

 कब इंसान जानवर से 
इंसान बनेगा , 
कब तक केंडल मार्च 
निकालकर मन को
 सांत्वना देते रहेंगे ? 

 उत्तर है किसी के पास ...!! 
चुप रहकर, 
आँख मूंद कर 
 क्या हम स्वयं 
नृशंषता के 
 भागीदार नहीं बन रहे हैं ?

 एक आवाज नहीं, 
 हजारों आवाज चाहिए 
 अपराधी को कटघरे तक 
 पहुंचाने के लिये... 
मौत के बदले सिर्फ मौत 
 इससे कम कुछ नहीं !! 

 @सुधा आदेश

Friday, November 22, 2019

ऐसा मजाक उचित नहीं

ऐसा मजाक उचित नहीं विवाह का स्वागत समारोह था...अनिमेष और अपराजिता मेहमानों का गर्मजोशी से स्वागत करने में लगे हुए थे । बेमेल जोड़े को देखकर लोगों में कानाफूसी प्रारंभ हो गई थी...। अनिमेष की पारखी नजरों से लोगो के चेहरे पर छाया व्यंग्य छिपा न रह पाया । उसे डर था तो सिर्फ इतना कि ये बातें अपराजिता के कानों में न पड़ जायें किन्तु अपराजिता को उसी निश्चल मुस्कान के साथ मेहमानों का स्वागत करते देख वह निश्चिंत हो गया । लगभग तीन हफ्ते पूर्व ही उनका विवाह हुआ था । एक हफ्ता अपने रिश्तेदारों के साथ व्यतीत करने के पश्चात् वे मधुयामिनी हेतु ऊटी चले गये थे । दिन रात पंख लगाकर उड़े जा रहे थे पर कभी तो समय को रूकना पड़ता ही है , यही उनके साथ भी हुआ । खुशियों के पलों को अपनी स्मृतियों में सहेजे जब अनिमेष काम पर लौटा तो उसके मित्रों ने भी पार्टी की माँग कर डाली । वस्तुतः उनका विवाह पैतृक निवास पर हुआ था । विवाह में उसके एक दो मित्रों के अतिरिक्त अन्य कोई सम्मिलित नहीं हो पाया था अतः उनकी भावनाओं का सम्मान करने के लिये उसे इस स्वागत समारोह का भी आयोजन करना पड़ा । अनिमेष एक आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी था...गोरा रंग, लंबा एवं छरदरा बदन, मधुर एवं सौम्य स्वभाव के कारण वह किसी को एक ही नजर में आकर्षित कर लेने में सक्षम था किंतु अपराजिता दोहरे बदन की, सांवले रूप रंग की सामान्य कदकाठी की नवयौवना थी । इसके बावजूद उसके मुख पर आत्मसंतोष, संपन्नता, शालीनता की वैभवपूर्ण मुस्कान सुशोभित थी जो सभी को आकर्षित कर रही थी किंतु फिर भी वह कहीं से अनिमेष के अनुरूप नहीं लग रही थी । अनिमेष के कई मित्रों का मत था कि श्री रामचंद्रजी तो अपने माता-पिता की आज्ञा को शिरोधार्य कर सिर्फ चौदह वर्षो के लिये वन को गये थे पर कलियुग के इस श्रीराम ने दहेज लोलुप अपने माता-पिता के सामने अपनी सारी कामनायें गिरवी रख दी हैं । बलि का बकरा बन गया है बेचारा...। अनिमेष इन सब आक्षेपों को नजरअंदाज कर अपनी चिरपरिचित मुस्कान के साथ प्रत्येक आने जाने वाले मित्रों से अपराजिता का परिचय करवा रहा था और अपराजिता भी उसके हर इशारे पर मर मिटने को तैयार प्रतीत हो रही थी । पार्टी समाप्त होते-होते रात्रि के ग्यारह बज गये थे । लगभग सभी मेहमान चले गये थे । अनिमेष के चार पाँच अभिन्न मित्र ही बचे थे । उन्होंने साथ बैठकर खाना प्रारंभ किया । हँसी मजाक का जो दौर प्रारंभ हुआ, वह समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रहा था कि वेटर ने आकर होटल बंद करने की सूचना दी तब आभास हुआ कि बहुत देर हो गई है, अब घर चलना चाहिये । अपराजिता नई नवेली होते हुए भी सबसे ऐसे घुल मिल कर बातें कर रही थी कि लग ही नहीं रहा था कि वह सबसे पहली बार मिल रही है । यह दुनिया भी अजीब है, कोई बात हो या न हो किंतु आलोचक बाल की खाल निकालने को आतुर रहते हैं । यही कारण था कि बाहर निकलते हुये अनिमेष के मित्र पाल ने अचानक फुसफुसा कर कहा, ‘ यार,तू तो चढ़ गया सूली पर, कहाँ तू कहाँ वह, कुछ तो देखा होता ।’ ‘ हाँ यार, तू बीबी लाया है या मोटी...।’ वह कुछ कह पाता तभी वर्मा बोल उठा । आगे के शब्द उनकी हँसी में दब कर रह गये । अनिमेष ने सकपका कर अपराजिता को देखा । उसे श्रीमती सुजाता पाल और रीता वर्मा से हँस-हँस कर बातें करते देख उसने संतोष की साँस ली । वह चाहता तो पाल और वर्मा पर अपना आक्रोश प्रकट कर सकता था...आखिर क्या हक है उन्हें उसकी पत्नी के बारे में ऐसा कहने का....पर अपराजिता के सामने ऐसा वैसा कहकर तमाशा खड़ा नहीं करना चाहता था अतः चुप रह गया । एकाएक उसे अपने इन मित्रों से वितृष्णा सी हो आई जो उसकी भावनाओं के साथ उसकी नवविवाहिता पत्नी का भी सम्मान नहीं कर पा रहे हैं । अपराजिता चाहे जैसी भी हो, अब उसकी पत्नी है । वह उसके साथ जबरदस्ती नहीं वरन् समस्त सामाजिक रस्मों को निभाकर आई है...फिर जब उसे या उसके घर वालों को उसके रंगरूप पर कोई आपत्ति नहीं है तो इनको ऐसी बातें करने का क्या हक है ? यह सच है कि अपराजिता दुनिया के मापदंडो के अनुसार खूबसूरत नहीं है । माना उसका शरीर बेडौल है पर उसकी जो अदा उसे भाई थी वह थी उसकी बड़ी-बड़ी आँखें, चेहरे पर खेलती निरंतर मुस्कान, खनकती हँसी तथा उससे भी अधिक उसका सामाजिक, राजनीतिक विषयों पर पूर्ण आधिपत्य वरना लड़कियों को उसने सदा गहने, कपड़ों और खाने के संबंध में ही बातें करते पाया है । विवाह के लिये उसकी सहमति मिलने पर उसके पिताजी ने पुनः उसे अपने निर्णय पर विचार करने को कहा था...। यहाँ तक कि उसकी बहन आकांक्षा ने उसे अपने निर्णय पर अटल पाकर इस बेमेल विवाह पर अपनी नाक मुँह सिकोड़ते हुये कहा था, ‘ दिल लगा गधी से तो परी क्या चीज है ।’ ‘ दीदी, एक स्त्री होते हुए, एक स्त्री के लिये आप ऐसा कैसे कह सकती हो...? हर स्त्री का अपना एक सौन्दर्य होता है....शायद इसी सौन्दर्य ने मुझे आकर्षित किया है । अगर ऐसा ही था तो पहले आप लड़की देख लेतीं अगर आप सबको पसंद आ जाती तो फिर मुझे दिखाते...। दीदी, बिना किसी विशेष कमी के किसी को देखकर मना करना क्या उस लड़की के प्रति अन्याय नहीं है…? जहाँ तक मोटापे का प्रश्न है, वह तो कुछ कसरतों द्वारा कम भी हो सकता है....फिर जब जीवन मुझे उसके साथ बिताना है तो किसी अन्य को आपत्ति क्यों ?’ अनिमेष ने दीदी की बात सुनकर किंचित क्रोध से कहा था । ‘ यह लड़की पूरी जादूगरनी है । पता नहीं क्या जादू कर दिया है उसने आप पर जो एक ही मुलाक़ात में आपको दीवाना बना दिया है ।’ उसकी बातें सुनकर दीदी ने मुँह बनाकर कहा । अनिमेष को अपनी बहन की सोच पर हैरानी हुई थी...आखिर एक स्त्री ही, एक स्त्री की दुश्मन क्यों बन जाती है ? इसके बावजूद उसे इस बात की खुशी थी कि उसके माँ पिताजी ने उसके निर्णय एवं सोच का स्वागत किया था । अपराजिता साइकोलोजी में एम.ए. कर रही थी । इस वर्ष उसका अंतिम वर्ष था । सदा प्रथम आने वाली अपराजिता चाहती थी कि परीक्षा के पश्चात् उसका विवाह हो किन्तु उसके दादाजी जो रोगशैया पर अंतिम साँसे गिन रहे थे, उनकी इच्छा थी कि उनके जीवनकाल में ही उनकी पोती का विवाह हो जाये । यह बात और है कि विवाह के पश्चात उनकी रूकती साँसों में जान आ गई थी । परीक्षा में लगभग तीन महीने बाकी थे अतः आते वक्त वह अपनी किताबे भी साथ ले आई थी । अनिमेष के आफिस जाते ही वह पढ़ाई में जुट जाती थी जिससे कि शाम का समय वह उसके साथ बिता सके । अनिमेष के आफिस से आते ही कभी मूवी, कभी कहीं बाहर घूमने जाने का कार्यक्रम बन जाता, फिर वहाँ से किसी होटल में खाकर ही लौटते...। अपने मित्रों के बार-बार बुलाने पर भी वह उनके घर यह सोचकर जाना टालता रहता कि कहीं फिर कोई अप्रिय बात न कह दे । एक बार तो वह चुप रह गया पर शायद दुबारा कुछ बोलने पर वह अपनी जुबान पर काबू न रख पाये...उसके रूख पर कुछ मित्रों ने रोष भी जताया था पर वह यह कहकर टालता रहा अभी अपराजिता परीक्षा की तैयारी कर रही है, अतः निकलना ही नहीं चाहती । अपराजिता के अनुसार पढ़ाई के अतिरिक्त खाना और सोना ही उसके मुख्य शौक हैं अतः शरीर के रखरखाव पर उसने कभी विशेष ध्यान ही नहीं दिया । इकलौती संतान होने के कारण बिजनिसमैन पिता ने उसकी सभी जायज नाजायज मांगे पूरी की थीं । बढ़ते मोटापे तथा खाने के अपराजिता के शौक पर माँ टोकती तो उसके पिता कहते,‘ खाने के लिये कभी टोका मत करो मेरी बेटी को , तुम्हें क्या मालूम अन्न के लिये कितने लोग तरसते हैं...पता नहीं कैसी किस्मत लेकर आई है...कम से कम जब तक हमारे पास है तब तक उसे अपने सारे शौक पूरे कर लेने दो ।’ अपराजिता के पिता को अनिमेष के बारे में अपने मित्र दयानंद से पता चला था । बेटी के विवाह के लिए चिंतित अपराजिता के पिता रामनाथ अनिमेष के घर आने का समाचार सुनकर अपनी बेटी का रिश्ता लेकर उसके घर आये । अनिमेष के आकर्षक व्यक्तित्व को देखकर उन्हें लगा कि उन्होंने यहाँ आकर भूल की है, शायद यहाँ रिश्ता न हो पाये किंतु फिर भी उन्होंने ऊपरी मन से दूसरे दिन लड़का-लड़की की मुलाकात का समय निश्चित कर लिया । अपराजिता को देखकर अनिमेष के माता-पिता सरला और दिनेश ने अपने पुत्र की इच्छानुसार इस संबंध की स्वीकृति दी तो रामनाथ जी को यह सोचकर अत्यंत आश्चर्य हुआ कि साधारण रूप रंग वाली उनकी कन्या में उन्होंने ऐसा क्या देखा कि अपने आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी पुत्र के लिये उनकी पुत्री का हाथ स्वीकार कर लिया । फिर सोचा कि उन पर लक्ष्मी की कृपा शायद इस संबंध की स्वीकृति का कारण हो या उनकी पुत्री के भाग्य में ही इतना सुदर्शन वर लिखा है । एक छोटी सी मुलाकात में ही अपराजिता भी अनिमेष इतना प्रभावित हुई कि उस जैसा पति, सहचर और सखा पाकर गर्वोन्मुख हो उठी थी । अपराजिता के पिता को सुखद आश्चर्य हुआ जब वर पक्ष की ओर से कोई डिमांड नहीं रखी गई...उनकी यह सोच कि उन्होंने उनकी लड़की को, उनके ऊपर लक्ष्मी की कृपा के कारण पसंद किया, गलत सिद्ध हो गई थी । यही कारण था कि उन्होंने विवाह में कोई कमी नहीं रखी थी । सभी बरातियों की खूब आवभगत की गई तथा सभी बारातियों को विदाई में एक-एक गिन्नी दी जिसके कारण सभी बाराती अत्यंत खुश हुए थे । सच बात तो यह थी कि बहू से भी ज्यादा लोग विवाह में हुई सजावट, स्वागत सत्कार का ही जिक्र कर रहे थे । पंद्रह दिन कैसे बीत गये पता ही नहीं चला । अपराजिता का छोटा भाई धीर उसे आकर ले गया । अनिमेष का जीवन फिर नीरव हो चला था...यद्यपि मित्रों के कटाक्षों ने उसे घायल कर दिया था पर रहना तो उसे उनके ही साथ था । वह अपने मित्रों को चाहकर भी नहीं समझा सकता था कि वास्तव में अपराजिता मानसिक रूप से अत्यंत ही सुलझी, नये से विचारोंयुक्त विदुषी महिला है, अत्यधिक मोटापे के अतिरिक्त अपराजिता किसी बात में किसी से कम नहीं है...। सच तो यह है कि उसे अपराजिता के बाह्य सौन्दर्य की अपेक्षा आंतरिक सौन्दर्य ने मोहित किया है...। उस पर अपराजिता को अपनाने के लिये न तो अपने माता-पिता की तरफ से कोई दवाब पड़ा था और न ही ससुराल वालों की तरफ से धन का लालच दिया गया था । यह बात और है कि अपनी पुत्री की खुशी के लिये उसके माता-पिता ने दिल खोलकर खर्चा किया था....पर दुनिया वालों को किसी की पसंद और नापसंद से क्या मतलब है उसे तो सिर्फ व्यंग्य करने और हँसी उड़ाने का बहाना चाहिये । देखते-देखते तीन महीने बीत गये । आज अपराजिता को आना था । वह उसे लेने स्टेशन गया । मन में हर्ष और विषाद के मिले जुले लक्षण थे । हर्ष इसलिये था कि उसकी प्रियतमा...उसकी पत्नी आ रही है और विषाद इसलिये कि कहीं किसी के कटाक्ष पर वह मासूम कली मुरझाने न लगे । मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है अतः परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को ढालना ही श्रेयस्कर है । मनुष्य को शारीरिक सौन्दर्य की अपेक्षा गुणों से सम्मान मिलना चाहिये....वह सुनता रहा शायद इसीलिये लोग सुनाते रहे । अब यदि किसी ने कुछ भी कहने की चेष्टा की तो वह तुरंत ही टोक देगा चाहे वह उसका अभिन्न मित्र ही क्यों न हो ? पत्नी के मानसम्मान की रक्षा करना उसका दायित्व है...इस दृढ़निश्चय के साथ मन के बवंडर को शांत करने का प्रयास कर रहा था कि ट्रेन के आने की सूचना मिली । ए.सी. कोच उसके सामने आकर ही रूकी । वह डिब्बे में चढ़ने ही वाला था कि धीर सामान लेकर उतरा । उसके साथ उतरी दुबली पतली महिला को देखकर वह आश्चर्यचकित रह गया । वह महिला और कोई नहीं, उसकी अपराजिता थी...सुगठित देह, साँवलेपन में भी मुख पर अद्वितीय सौन्दर्य छाया हुआ था । ‘ जीजाजी घर नहीं चलना क्या ?’ उसको विमुग्ध अपराजिता को निहारते देख धीर ने कहा । ‘ हाँ....क्यों नहीं...।’ अनिमेष अपराजिता पर से नजरें हटाते हुये बोला । अपराजिता उसके मनोभावों को समझकर शर्मसार हो गई । कायाकल्प के बारे में जब उसने अपराजिता से पूछा तो उसने कहा कि वास्तव में विवाहोपरान्त ही उसे सुगठित शरीर सौष्ठव का महत्व समझ में आया अतः यहाँ से जाने के पश्चात् उसने हैल्थ क्लब ज्वाइन कर लिया । पढ़ाई के साथ-साथ कुछ कसरतें तथा खाने पर मन के अंकुश ने उसके स्वप्न को साकार कर दिया । धीर के जाने के कुछ दिन पश्चात् अपराजिता के आग्रह पर उसने पाल और वर्मा को सपरिवार खाने पर आमंत्रित किया । इस पार्टी को सफल बनाने के लिये उसने पाकशास्त्र का पूरा ज्ञान बिखेर दिया । तरह-तरह के व्यंजन....पनीर बटर मसाला, मलाई कोफ्ता, खोया मटर, दही बड़ा, स्वीट डिश में फ्रूट क्रीम, तरह-तरह के सलाद इत्यादि... । अपराजिता को देखकर उसके मित्र आश्चर्यचकित रह गये । सुजाता पाल मजाक में कह उठी,‘ लगता है हमारी बहन पति वियोग में दुबली हो गई ।’ ‘ कुछ भी कहो, रूप निखर आया है । ’ कहते हुये सुजाता की बात का समर्थन रीता वर्मा ने भी कर दिया । खाना खाकर वे सब खाने की प्रशंसा किये बिना रह नही सके । पूरी पार्टी की आकर्षण का केंद्र अपराजिता ही थी और उसकी प्रशंसा सुन-सुनकर अनिमेष आत्म विभोर हो रहा था । आखिर विदा की बेला भी आ गई । विदा के समय वर्मा के अभिवादन के उत्तर में अपराजिता बोली,‘ क्यों भाई साहब, आपके मित्र बीबी ही लेकर आये हैं, मोटी काली भैंस तो नहीं...।’ प्रश्न सुनकर वर्मा के साथ-साथ अनिमेष और अन्य सभी चौंक गये...रीता वर्मा का सिर जहाँ शर्म से झुक गया वहीं निरूत्तर और असहाय स्वर में वर्मा ने कहा,‘ क्या आपने सुन लिया था भाभी ....? सारी भाभी....वह तो मैं मजाक कर रहा था ।’ ‘ भाई साहब, क्या आप भी मजाक कर रहे थे....?’ अपराजिता ने वर्मा के निकट खड़े पाल की ओर देखकर कहा । अपराजिता की बात सुनकर सुनकर पाल भी सकपका गया । वहीं उसकी पत्नी सुजाता क्रोध से उसकी ओर देखने लगीं । ‘ आपके लिये वह मजाक होगा पर आपके उस एक वाक्य ने मेरी जिंदगी बदल दी ।’ कहकर वह चिरपरिचित अंदाज में हँस दी । फिर थोड़ा रूक कर बोली,‘ भाई साहब, मैं आप दोनों को अपमानित नहीं करना चाहती थी, सिर्फ यह अहसास दिलाना चाहती थी कि इंसान का बाह्य रंग रूप, कद काठी तो ईश्वरीय देन है....मानव निज प्रयत्नों द्वारा जन्मप्रदत्त विकृतियों मे परिवर्तन अवश्य ला सकता है किंतु उसको इंगित करते हुए किसी को मानसिक पीड़ा पहुंचाने वाला कटु सत्य अनजाने में भी कभी किसी को भी नहीं कहना चाहिए । ' ‘ भाभीजी, माफ कर दीजिए....दरअसल वह मैंने मजाक में कहा था...।’ दोनों के मुँह से एक साथ निकला । ' ऐसा मजाक क्यों भाईसाहब , जो दूसरे के दिल को छलनी कर दे । शब्दों की अपनी मर्यादा होती है, एक लक्ष्मण रेखा होती है उसका उलंघन पीड़ा तो पहुंचाएगा ही । मैंने आपके शब्दों को अपनी ताकत बनाकर स्वयं में बदलाव कर लिया पर सब शायद ऐसा न कर पाएं...अवसादग्रस्त होकर अगर कोई अतिवादी कदम उठा लें तो दोषी कौन होगा ?' श्री पाल और वर्मा जहाँ अपने कहे पर पछता रहे थे वहीं सुजाता और रीता का सिर शर्म से झुका जा रहा था । वे सभी चले गये थे पर अनिमेष सोच रहा था....जो बात वह स्वयं नहीं कह पाया वही बात उसकी पत्नी ने कितने खूबसूरत तरीके से कह दी...। उसे महसूस हो रहा था कि पत्नी के रूप में अपराजिता को पाने का उसका फैसला गलत नहीं था । एकाएक उसे अपने फैसले पर गर्व हो आया और उसने अपराजिता को अपने आगोश में ले लिया । सुधा आदेश

वेनिस... फिल्मी कैनवास जैसा एक खूबसूरत शहर

वेनिस... फिल्मी कैनवास जैसा के खूबसूरत शहर ‘समंदर पर खड़ी एक शानदार नगरी जिसकी बहती और बल खाती लहरें, उसकी सड़कें और तंग गलियाँ हैं और जिसके खारे जल की जड़ी उसके महलों के संगमरमर से जा लिपटती हैं ।’ अंग्रेज कवि सैमयल रॉजर्स ने सन् 1822 में कहा था । आखिर हम अपने गंतव्य स्थल वेनिस पहुँच गये । एक शहर जो पानी में तैरता है , फिल्मी कैनवास जैसा लगता है, जिसकी फिजाओं में रोमांस गूँजता है, ऐसी है यह शानदार नगरी वेनिस । सैकड़ों वर्ष पुराना आर्किटेक्चर, पानी से भरी संकरी गलियाँ, तैरती किश्तियाँ, छोटे-छोटे दीपों को जोड़ते खूबसूरत पुल, लजीज वेनिशियन खाना, सैलानियों की भीड़, सचमुच ख्वाबों की नगरी है वेनिस...। वेनिस क्रूसी टर्मिनल से वाटर शटल से हमें सेंट मार्क स्कावयर जाना था । इसमें लगभग 45 मिनट लगने थे । इस बीच मैं वेनिस के बारे में जानने के लिये यात्री बुकलेट पढ़ने लगी... वेनिस इटली की उत्तरी पूर्वी सीमा पर स्थित वेनिटो रीजन की राजधानी है जो एडिफयाटिक सागर में स्थित है । इटेलियन और वेनीशियन भाषाओं में इसका नाम लागुना वेनेटा झील है । कहा जाता है कि वेनिस का निर्माण रोमन सभ्यता के पतन के बाद हुआ था । यह 118 छोटे-छोटे आइसलैंड को मिलाकर बना है । ये आइसलैंड कैनालों द्वारा अलग-अलग हैं तथा 400 छोटे-छोटे पुलों से जुड़ा है । इस शहर की संरचना इतनी अनूठी है कि मुख्य वेनिस छह सौ वर्षो से लगभग वैसा ही है । पानी में एक आईलैंड की तरह तैरते शहर की खूबसूरती किसी को भी आकर्षित कर सकती है । पानी में तैरते द्वीप की तरह लगने वाला यह शहर कई मायनों में अपनी प्राकृतिक छटा और खूबसूरती के कारण दुनिया के अन्य शहरों से अलग है । इस शहर में करीब 120 द्वीप हैं । उनके बीच नहरें हैं, पुल हैं । इस शहर को या तो नावों से घूमा जा सकता है या पैदल । यहाँ स्थित हर घर का दरवाजा पानी में खुलता है । घर के बाहर ही नाव रहती है जिसके द्वारा आवागमन होता है । वेनिस यूरोप का सबसे बेस्ट सिटी है । यह शहर कभी सोता नहीं है । लोगों की आवाजाही यहाँ सदैव लगी रहती है । पूरी तरह पानी पर बसा यह शहर सैलानियों में इतना लोकप्रिय है कि ढाई लाख से कम आबादी वाले शहर में हर वक्त कम से कम 50,000 पर्यटक हमेशा मौजूद रहते हैं । गलियों के अतिरिक्त यहाँ पर सड़कों की भूमिका में नहरें हैं, जिनमें नाव चलती हैं जिन्हें गोंडोला कहते हैं । इन नहरों पर चार सौ पुल बने हैं जो शहर के एक छोर को दूसरे सिरे से जोड़ते हैं । नहरों के किनारे आलीशान इमारतें बनी है जो प्राचीन वेनिस की याद दिलातीं हैं । ये इमारतें दलदली भूमि पर बनी हैं जो लकड़ियों के सहारे टिकी हुई हैं । वेनिस की सबसे बड़ी नहर ग्रांड नहर एस शेप में है जो पूरे शहर को दो भागों में बाँटती है । ढाई मील फैली यह नहर सोलह फीट गहरी है । यहाँ की एक गली को दुनिया की सबसे पतली गलियों में शुमार किया जाता है जिसकी चैड़ाई 53 सेंटीमीटर है । प्रत्येक वर्ष वेनिस में डेढ़ करोड़ टूरिस्ट आते हैं । दुनिया की पहली गे्रजुएट महिला एलेना लुक्रजिया कोरनारो पिस्कोपिया जिसका जन्म 1646 में हुआ था, वेनिस की रहने वाली थीं । वह 25 जून 1678 में ग्रेजुएट हुईं । दुनिया का पहला पब्लिक कैसीनो वेनिस में 1638 में बना । वेनिस में व्यापार और आवागमन के लिये गोडोला बोट के जरिये होता है । गोंडोला बोट 35॰5 फीट लंबी तथा 4ण्5 फीट चैड़ी होती हैं । इनका वजन 1,500 700 किलोग्राम होता है । ये आठ तरह की लकड़ी...लाइम,ओक,वालनट,चेरी, फीर, लार्च, एलम, महागोनी के 280 हाथसे बने टुकड़े से बनाई जाती है । इसको बनाने में लगभग दो महीने लगते हैं । एक गोंडोला वोट की कीमत 38,000 यूरो आती है । जैसे-जैसे हमारी शटल आगे बढ़ रही थी, समंदर के दोनों किनारों पर सालों पुरानी ऐतिहासिक इमारतें दिखाई देने लगीं जो तेरहवां से अठारवीं शताब्दी के दौरान बनाई गई थीं । खाना खाते हुये लंच समाप्त होते ही हमारा गंतव्य भी आ गया । हम शटल से सेंट मार्क स्कावयर पर उतरे तथा सबसे पहले संत मार्क बैसीलिका, मुरेनो ग्लास फैक्टरी देखने गये । मुरेनो ग्लास फैक्टरी के प्रवेश द्वार से अंदर प्रवेश करते ही एक हाॅल आये । इस हाॅल में एक बड़ा सा शीशे का घोड़ा रखा हुआ था । आगे बढ़े तो एक छोटे से कमरे में दस पंद्रह मिनट के शो के द्वारा बताया जा रहा था कि कैसे शीशे को पिघला कर मूर्तियाँ बनाई जाती हैं । इसके बाद साथ ही बने शो रूम में 24 कैरेट सोने के काम के बने बहुत मंहगे फूलदान, वाइन ग्लास, काफी सेट ज्यूलरी सेट के अलावा कुछ गिफ्ट आइटम भी देखे । वेनिस का मुरानो बीडस, या वेनेशियन ग्लास दुनिया भर में मशहूर हैं । एक और दीप बुरानो में में लेस और कढ़ाई का काम होता है । वैसे तो इटली का हर शहर मंहगा है लेकिन वेनिस यूरोप का सबसे मंहगा शहर है । किसी भी सामान की यूरो में कीमत को, रूपये में कनवर्ट करने पर खरीदने की हिम्मत नहीं होती । हम फैक्टरी से बाहर निकलकर थोड़ा आगे बढ़े तो अचानक पानी बरसने लगा । हम वहीं किनारे शेड में बैठ गये । देखा बहुत सारी कुर्सी पड़ी थीं वहाँ कोई शो होने वाला था । छाता हमारे पास नहीं था अतः हमने पाँच यूरो में एक छाता खरीदा वरना वहीं बैठे रह जाते । सामने बहुत बड़ी इमारत दिखाई दे रही थी । हमें बताया गया कि यह इस शहर का प्रसिद्ध रोमन कैथोलिक सेंट बैसीलिका कैथेड्रल चर्च है । यह इटालियन बीजान्टिन आर्कीटेक्ट का बेहतरीन उदाहरण है । यह चर्च पियाजा सेन मार्को के पूर्वी भाग में स्थित है तथा डोज पैलेस से मिला हुआ है । यह ग्यारहवीं शताब्दी से वेटिनीटियन धन और शक्ति का प्रतीक बना हुआ है । इसको सोने का चर्च भी कहा जाता है । आज की इस इमारत का निर्माण 1063 में हुआ था । समय पर इसमें बहुत परिवर्तन हुये किन्तु इसकी मूल आंतरिक संरचना वैसी ही है । कैथेड्रल के अंदर दसवीं शताब्दी में बनी संत माइकेल की सोने के पानी चढ़ी भव्य मूर्ति है । इसके अंदर बने डोम में उकेरी कलाकृतियाँ बेहतरीन आर्ट का अनुपम उदाहरण है । इस चर्च के ऊपर वेनिस के प्रतीक एवं संरक्षक संत मार्क की मूर्ति है तथा इसके नीचे शेर की पंख वाली सुनहरे रंग की मूर्ति है । यह संत और वेनिस का प्रतीक चिन्ह है । इस चर्च का पश्चिमी बाहरी भाग तीन भागों में बंटा है । सेंट मार्क बैसीलिका की बालकनी में घोड़े के जोड़े बने हुये हैं । घोड़े की मूर्तियाँ 1204 में लगीं थीं । नेपोलियन द्वारा इन्हें 1797 में पेरिस ले जाया गया किन्तु 1825 को इन्हें वेनिस को लौटा दिया । इनकी मरम्मत कर 1970 में इन्हें सेंट मार्क के म्यूजियम में रख दिया गया । कैथेड्रल में आज पीतल की बनी इनकी प्रतिकृति रखी हुई है । चर्च के बायीं ओर स्थित माक्र्स क्लाॅक टावर दर्शकों के आकर्षण का केंद्र है । यह वेनिस के पुनःजागरण काल का बेहतरीन नमूना है । इसमें लगी घड़ी पंद्रहवीं शताब्दी की है । इसकी मैकेनिज्म में समय--समय पर सुधार हुये । यह घड़ी ऐसी जगह स्थित है जो दूर से दिखाई देती है तथा वेनिस की ऐश्वर्य और प्रसिद्धि की परिचायक है । इसमें स्थित सीढ़ियों द्वारा इसकी छत तक पहुँचा जा सकता है । इस चौक में 323 फीट ऊँचा एक बेल टावर तथा और दो खूबसूरत कालम पर लायन आफ वेनिस की मूर्ति और हाथ में भाला लिये खड़े सेंट थियोडोर खड़े हैं । सेंट मार्क स्क्वायर के पास ही डाज पैलेस और कोरेर म्यूजियम है । वेनिस की खूबसूरती के बीच यह भी एक सच है कि यह सिटी हर वर्ष 0.8 से लेकर 1 मिलीमीटर तक समुद्र में समा रहा है । डोकाल पैलेस में सत्रहवीं शताब्दी तक अपार्टमेंन्ट, शहर के कोर्टरूम तथा जेल थी जो ‘ ब्रिज आफ साई ’ ( दुख का पुल ) से डोज पैलेस से जुड़े थे । अब डोकाल पैलेस वेनिस नेटवर्क के सिविक संग्रहालय का हिस्सा बन गया है । वेनिस में बहुत सारे पुल हैं जो बारोक वास्तुकला से बने हैं पर इनमें 1600 में बना रोमांटिक ब्रिज आफ साई है । इसे एन्टोनियो मारिया द्वारा डिजाइन किया गया है । सफेद पत्थर से बना यह पुल रियो दि प्लाजो से गुजरता हुआ न्यू प्रिजन से जुड़ता है । न्यू प्रिजन से इसके द्वारा डोज पैलेस में स्थित कैदियों से पूछताछ वाले कमरे तक पहँुचा जा सकता है । इसे दुख का पुल शायद इसलिये कहा जाता है कि कैदी इस पुल से गुजरते हुये आखिरी बार वेनिस के सौन्दर्य को देख पाते हैं । यह 36 फीट चैड़ा है । पास से देखेंगे तो पायेंगे कि इसकी बाहरी संरचना में कई चेहरे बने हैं जिनमें एक को छोड़कर सभी उदास हैं । यह कहा जाता है कि खुश चेहरे वाली मूर्ति इस पुल की अभिभावक है । कहा जाता है गोन्डोला राइड के समय जो युगल इस पुल के नीचे से गुजरते हुये किस करता है उसका प्यार और खुशी अनंत काल तक रहती है । हमने भी गोंडोला राइड की । पुलों के नीचे से गुजरती यह राइड बेहद रोमांचक थी । तीसरी शताब्दी में रोमन राज्य को स्थिर रखने के लिये राजा डिओसेलेटियां ने अपने अधीनस्थ चार शासक के नियम को लागू किया । उनकी स्मृति में इन चार राजाओं का प्रतीक एक चार मुख वाली मूर्ति इस बैसीलिका के दक्षिणी पश्चिमी भाग में लगाई गई है । शाम हो रही थी । हमें शटल से वापस लौटना था । अंततः खूबसूरत यादों को दिल में बसाये हम अपने होटल लौट आये । सुधा आदेश

Thursday, November 14, 2019

महाराष्ट्र अप डेट

महाराष्ट्र अप डेट... मैया, मैं तो चंद्र खिलौना लेहूँ... इसी पंक्ति की तरह उद्धव ठाकरे अपनी जिद पर अड़े हैं । एक समय था जब बड़े-बड़े नेता बाला साहेब से मिलने मातोश्री जाया करते थे जबकि आज उनके बेटे अपने पुत्र की ताजपोशी के लिये घाट-घाट का पानी पी रहे हैं पर उनकी प्यास बुझ ही नहीं रही है ।

Wednesday, November 13, 2019

बोधिसत्व

बोधिसत्व 

 अपने क्लीनिक से डाक्टर विनय लौट रहे थे कि उनके देखते ही देखतेे तेज गति से जाती कार ने एक साइकिल सवार को टक्कर मारी तथा बिना रूके , बिना यह देखे कि किसी को चोट आई है या नहीं, वह कार तेजी से चली गई...। साइकिल सवार नीचे गिर कर मछली की तरह तड़पने लगा....। एक बार उन्होंने सोचा कि वह भी औरों की तरह आँख बंद कर चले जायें । वैसे भी उन्हें काफी देर हो चुकी थी, घर में सब उनका इंतजार कर रहे होंगे...आज उनके भाई का जन्मदिन है किंतु उनके संस्कारशील मन ने मस्तिश्वक को हावी होने से रोक दिया....। गाड़ी किनारे खड़ी करके वह वहाँ पहुँचे किन्तु जैसे ही उनकी नजर उस आदमी पर पड़ी वह चौंक गये....चौड़ा ललाट, बड़ा सा तिलक, बड़ी-बड़ी आँखें, गेरूए वस्त्र....हां यह वही तो है जो उनके सामने न रहते हुए भी उनके घर पर इतना हावी हो चुका था कि शनैः शनैः उनकी सारी खुशियाँ तिरोहित होती चली गई थीं । एक बार मन हुआ कि वह उसे ऐसे ही तड़पता हुआ छोड़कर चले जाएं किन्तु वह एक डाक्टर थे, उनके लिये कर्तव्य भावनाओं से ऊपर था अतः मन पर काबू रखकर उन्होंने उसे पास खड़े आदमियों की सहायता से गाड़ी में डाला तथा क्लीनिक की ओर वापस चल पड़े....। नर्सिंग होम पहुँचते ही उन्होंने नर्स को आपरेशन की तैयारी करने के लिये कहा । उसी समय फोन की घंटी बज उठी,‘ कहाँ हैं आप ? मैं कब से इंतजार कर रही हूँ । याद है आज विमल का जन्मदिन है और आपने उसे ट्रीट देने का वायदा किया था ।’ सुजाता की आवाज थी । ‘ याद है डियर, पर अभी कुछ समय लगेगा । एक इमरजेंसी आपरेशन करना है, इसीलिये रूकना पड़ रहा है । ऐसा करो कि तुम लोग चले जाओ तथा मेरे लिये खाना पैक करा कर ले आना । ’ विनय ने सहज स्वर में कहा । यह विनय के लिये कोई नई बात नहीं थी....। अक्सर ऐसा होता था किन्तु उन्हें सुजाता, अपनी पत्नी पर गर्व था...। .वह उन स्त्रियों में से नहीं थी जो उनके कामों में बाधा बने वरन् वह सदा ऐसी स्थितियों में उन्हें भला बुरा कहने के बजाय उनके पेशे की गुरूता को समझकर उन्हें सहयोग देते हुए प्रोत्साहित करती रही थी....। हाँ यह बात अलग है कि देर सबेर होने पर वह आम स्त्रियों की तरह चिंतिंत होकर जब तब फोन कर उनकी खोज खबर लेती रहती थी किन्तु उनके देर सबेर घर आने पर उसने कभी क्रोध नहीं किया था ...यह उसके उनके प्रति अतिशय प्रेम का भी परिचायक होने के साथ इस बात का भी द्योतक था कि वह उसके कार्य में बाधक नहीं वरन सहायक बनना चाहती थी । उसी के प्रयत्नों का फल है कि आज उनका अपना नर्सिग होम है....सारी अत्याधुनिक सुविधाएं है....किन्तु यह सब होते हुए भी कुछ ऐसा था उनकी जिंदगी में, जिसने उनकी सारी खुशियों को हर लिया था....। विनय को वह दिन याद आया जब वह विवाह के पश्चात पहली बार माँ के आग्रह करने पर वह औऱ सुजाता माँ के साथ हनुमानगढ़ी दर्शन के लिये गये थे । मंदिर में पूजाकर प्रसाद बांटने के पश्चात वे कार मे आकर बैठे ही थे कि एक हृष्ट-पुष्ट नौजवान आया तथा अपने भीख माँगने वाले कटोरे को आगे करते हुए बोला,‘ माँजी, तुम्हारे बच्चे दूधों नहायें, पूतों फलें, तुम्हारा सुहाग अमर रहे....भगवान तुम्हारा भला करें ।’ माँ ने उसका आशय समझकर पैसे निकालकर देने चाहे तो विनय ने उन्हें रोकते हुए कहा,‘ माँ, भीख देने की आवश्यकता नहीं है....हट्टा कट्टा तो है।’ फिर उस व्यक्ति की ओर मुखातिब होकर कहा,‘ तुम हट्टे-कट्टे नौजवान हो । तुम्हें इस तरह भगवान के नाम पर भीख माँगना शोभा नहीं देता । मुझे अपने क्लिीनिक में काम के लिये तुम्हारे जैसे आदमी की आवश्यकता है यदि चाहो तो इस पते पर आ जाना ।’ इसके साथ ही विनय ने उसे अपना विजिटिंग कार्ड देना चाहा किन्तु उसकी पेशकश को मानना तो दूर वह आगबबूला हो उठा तथा बोला,‘ नहीं देना हो तो मत दो....। हम ब्राहमण है भीख माँगकर गुजारा कर लेंगे किन्तु कहीं किसी की नौकरी नहीं करेंगे....। दान देना महादान है शायद तुम नहीं जानते जो ब्राहमणों का अपमान करता है या दान देने में आना कानी करता है, उनके कुटुम्ब में कोई पानी देने वाला भी नहीं बचता है ।’ उसका बड़बड़ाना चालू था, उसकी व्यर्थ की बातों से बचने के लिये उसने कार स्टार्ट कर दी थी किन्तु माँ तथा पत्नी की आँखों में छाया भय उससे छिप न सका था । जब विनय ने उन्हें तसल्ली देनी चाही तो माँ बिगड़ते हुए बोली,‘ अरे, ब्राहमण ही तो था....दो चार रूपये दे देते तो क्या बिगड़ जाता पर तुम आजकल के लड़कों को तो दान पुण्य की बातें समझ में ही नहीं आती ।’ ‘ माँ यहाँ दान-पुण्य की बात नहीं है, बात हैं अकर्मण्यता को बढ़ावा देने की....। बिना कोई काम किये धर्म के नाम पर पैसा लेने वालों से मुझे सख्त चिढ़ है....। वैसे भी मैंने पैसे नहीं दिये तो क्या हुआ, उसे एक अच्छी नौकरी का आफ़र तो दिया था लेकिन तुमने देखा नहीं उसने कितनी बेहरमी से मेरी पेशकश ठुकरा दी....। सम्मान की जिंदगी जीने की अपेक्षा इन्हें ऐसी जिंदगी गुजारने में पता नहीं क्या आनंद आता हैं ? ’विनय ने अपना पक्ष रखते हुए कहा । ‘ वस्तुतः नौकरी में तो वह बंध जाता है जबकि भीख माँगना तो उनकी अपनी मर्जी है....न कोई मेहनत और न ही कोई तनाव....। माँ जैसे लोग तो हर जगह ही मिल जाते हैं....इसलिये आजकल भीख माँगना भी पेशा बनता जा रहा है । एक ऐसा पेशा जिसमें न हींग लगे और न फिटकरी पर रंग भी चोखा....।’ कहते हुए विनय के छोटे भाई विमल ने भी अपना ज्ञान बिखेरते हुए कहा । ‘वह जरूर कोई सिद्ध पुरूष या महात्मा था । तुमने देखा नहीं उसके चेहरे पर कितना तेज था ।’ माँ जो उस गेरूए वस्त्रधारी के वचनों से डरी हुई थी, ने बेचैन होकर कहा । ‘ ममा, अगर वह कोई सिद्ध पुरूष या महात्मा होता तो भीख न मिलने पर अपशब्द न कहता....भीख माँगना तो उनका पेशा है ।’ एक बार फिर विमल ने कहा । ‘ चुप रह....जैसा तेरा भाई वैसा ही तू, तुम लोगों से तो कुछ कहना ही व्यर्थ है ।' माँ ने झल्लाकर कहा । फिर मंदिर की ओर हाथ जोड़ते हुए क्षमायाचना के स्वर में बोली,‘ हे ईश्वर, मेरे इन दोनों नादान बच्चों का अपराध क्षमा करना ।' माँ का वर्षो से देखा यह रूप देखकर विनय और विमल मुस्करा दिये किन्तु आश्चर्य तो उन्हें तब हुआ जब सुजाता ने भी माँ का समर्थन करते हुए उन्हें ही दोष दिया था....। माँ तो कम पढ़ी लिखी धर्म भीरू महिला थी किन्तु सुजाता तो पढ़ी लिखी थी । सुजाता से कारण पूछा तो बोली,‘तुम लोग तो पुरूष हो इसलिये स्त्री मन को नहीं समझ पाओगे....। स्त्री एक माँ है, पत्नी है, बहन है, बेटी है....वह कभी अपने बच्चों, पति, पिता और भाई का बुरा नहीं चाहती । उनके ऊपर आई किसी विपत्ति की कल्पना ही उसका सुख चैन छीन लेती है....। विवाह होते ही जहाँ वह अनेक बंधनों में बंधती है वहीं कभी अपने सुहाग, कभी अपनेे परिवार की रक्षा तथा सुख और शांति के लिये अनेको व्रत उपवास रखती है....। स्वयं कष्ट सहकर दूसरों के भले की चाहना संस्कारशील मन या सदियों से पोषित संस्कारों का ही फल है । अब इसे तुम चाहे कुफल समझो या सुफ़ल, यह तुम्हारे ऊपर निर्भर है ।' अभी कुछ ही दिन हुए थे कि उसके नये बनते नर्सिग होम की दीवार गिर गई जिसके कारण काम करता हुआ एक मजदूर बुरी तरह घायल हो गया....। इस घटना को अभी कुछ ही दिन बीते थे कि एक दुर्घटना में विमल के हाथ में फ्रेक्चर हो गया । यही नहीं पिताजी को भी हाई ब्लडप्रेशर के कारण एक दिन बैठे-बैठे चक्कर आ गया तथा उन्हें अस्पताल में भरती करवाना पड़ा। माँ ने इन सब घटनाओं को उस ब्राहमण के श्राप से जोड़कर उसे दोष देते हुए नवग्रह शांति हेतु पूजा करवा दी । जैसे ही उसके नर्सिग होम का उद्घाटन हुआ सुजाता ने भी नवांकुर के आने की सूचना देकर उनकी खुशी को दुगणित कर दिया । एक बार फिर घर में खुशियों ने दस्तक दे दी । माँ ने सुजाता को यह न करो वह न करो के बंधन में बांध दिया… । उसका विशेष ख्याल रखा जाने लगा....। यहाँ तक कि माँ उसे कहीं अकेले आने जाने भी नहीं देती थीं । उनके व्यवहार को देखकर एक दिन विनय ने हँसते-हँसते कहा,‘ माँ, सुजाता बच्ची नहीं है, वह अपना ख्याल रख सकती है । ‘ मैं जानती हूँ लेकिन इस समय वह अकेली नहीं है वरन् हमारे वंश की पोषिता भी है....अतः इसकी उचित देखभाल मेरी जिम्मेदारी ही नही, मेरा कर्तव्य भी है वैसे भी वर्षों बाद हमारेे घर में नन्हें मुन्ने की किलकारियां गूँजेंगी....। जब यह हमें इतना सुख देगी तो क्या मैं इसका इतना सा भी ख्याल नहीं रख सकती ?’ माॅं ने प्यार से उसे निहारते हुए कहा था । किन्तु होनी को कौन टाल सकता है....माँ के अतिशय देखभाल के बावजूद एक दिन सुजाता बाथरूम मे पैर फिसल जाने के कारण गिर गई और इसके साथ ही गर्भपात हो गया....। नवग्रह शांति के पश्चात भी इस घटना का होना माँ को विचलित कर गया तथा उस श्राप को याद कर वह रोने लगी । विनय चाहकर भी माँ को सांत्वना नहीं दे पाया वस्तुतः इस बार की घटना ने उसेे भी असंतुलित कर दिया था क्या सचमुच उसकी वंशबेल नहीं फ़लेगी....? क्या दुखी मन से दिया श्राप क्या सचमुच लग जाता है ? अंर्तमन ने उसे टोका....वह दुखी कहाँ था…?.वह तो उन जैसे लोगों का पेशा है । वे लोगों की मानसिकता से भलीभांति परिचित होते हैं तभी पहले चिकनी चुपड़ी बातें करके लोगों को फँसाते हैं, यदि उससे बात न बने तो उल्टा सीधा बोलते हैं जिससे डर कर लोग उनकी झोली में कुछ न कुछ तो डाल ही दें....। वास्तव में बड़ा ही अच्छा नुस्खा है लोगों की भावनाओं से खेलने का....। वह स्वयं को भले समझा ले लेकिन माँ को समझना बेहद कठिन था । शायद यही कारण था कि पिछले लगभग एक वर्ष में हुई हर बुरी घटना को उस व्यक्ति के साथ जोड़कर देखने की माँ की आदत पड़ गई थी । चाहे अस्पताल दीवार गिरी हो या विमल का स्कूटर एक्सीडेंट में हाथ में फ्रेक्चर हुआ हो । पिताजी की बीमारी हो या बहन विनीता के विवाह में आती रूकावट हो....और अब यह घटना....। वह आदमी सामने न रहते हुए भी उनके परिवार पर बुरी आत्मा की तरह छाया हुआ था....। सुजाता निर्लिप्त थी । पिताजी अवश्य विमल का पक्ष लेते लेकिन पता नहीं क्यों बार-बार होती दुर्घटनाओं के कारण उसके आत्मविश्वास में भी कमी आती जा रही थी....। कभी-कभी उसे माँ की बात सच लगने लगती किन्तु जब उसकी तार्किक बुद्धि उसके बेसिरपैर के विचारों पर अंकुश लगाती तब वह सामान्य हो जाता किन्तु फिर कोई नई घटना जन्म ले लेती तब यत्न से दबाये नागफ़नी एक बार फिर उग कर उसे दंशित करने लगते...। अन्य अवसरों की तरह इस बार भी उसने मन के विचारों को यह सोचकर झटकने का प्रयास किया कि ऐसी सब घटनाएं आम आदमियों के जीवन का हिस्सा हैं । सुख-दुख इंसानी जीवन के दो पहलू हैं....भला इन सबका उस आदमी की उलटी सीधी बातों से क्या मतलब ? ‘ सर, आपरेशन की पूरी तैयारी हो चुकी है....।’ नर्स ने आकर सूचना दी । ‘ठीक है, मैं आता हूँ ।’ कहकर वह ऑपरेशन करने चल दिया किन्तु उसके किसी घर वाले के न आने से वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे....? उस आदमी के मोबाइल से घर का नंबर देखकर उसने उसके घरवालों को फोन करवा दिया था किंतु अब तक कोई नहीं आया था....। मरीज की हालत बेहद नाज़ुक थी । एक पैर के घुटने के नीचे का हिस्सा बुरी तरह क्रश हो चुका था तथा दूसरे पैर में भी फ्रेक्चर था । यदि तुरंत आपरेशन नहीं किया तो पैर को घुटने के नीचे काटना भी पड़ सकता था....। विधि का कैसा विधान है कि जिस आदमी की वजह से उसके घर की सुख-शांति भंग हो गई थी वही आज उसके रहमों करम पर पड़ा है....। वह चाहता तो उसे देखकर वहीं मरने के लिये छोड़ सकता था लेकिन वह डाक्टर है, उसका काम जान बचाना है जान लेना नहीं....। अपने विचारों को झटकते हुए आपरेशन थियेटर में गया तथा चार घंटे के अथक प्रयत्नों से उसने उसकी टूटी टांग को जोड़ दिया....। जब वह आपरेशन थियेटर से बाहर आया तो देखा उस आदमी की पत्नी और बेटा , जो बाहर खड़े बेसब्री से उसका इंतजार कर रहे थे, दौड़कर आये । उससे सांत्वना पाकर वह उसे ढेरों असीस देने लगे....। विनय थका हारा घर पहुँचा....उसने सारी घटना विस्तार से माँ को बताई ...। ‘ क्या वही आदमी था ? तूने ठीक से पहचाना....।’ सारी घटना सुनकर माँ ने पूछा । ' हाँ माँ, उसको पहचानने में भूल कैसे हो सकती है ।' विनय ने उत्तर दिया । ‘ जब वह अपने ऊपर आई विपदा को नहीं टाल पाया तो दूसरों के जीवन में होने वाली अच्छी बुरी घटनाओं के लिये कैसे दोषी हो सकता है....सच जीवन में होने वाली कोई भी घटना मात्र संयोग होती है न कि किसी के श्राप का कुफ़ल ।’ विनय की बात सुनकर गहरी सांस लेकर माँ ने कहा । शायद अब माँ को समझ में आ गया था कि शब्द सिर्फ शब्द ही होते हैं....। ऐसे साधू, महात्मा और फ़कीरों के शब्द उनके मन की कुंठा,आक्रोश तथा समाज के प्रति नफ़रत का प्रतिफ़ल होते हैं....। अपना प्रयोजन सिद्ध न होने पर ऐसे शब्दों का प्रयोग कर, लोगों पर मनोवैज्ञानिक दवाब बनाकर,अपना मतलब साधना ही उनका एक मात्र उद्देश्य होता है....। उस समय माँ के तनावरहित चेहरे को देखकर लगा जैसे सदियों के तनाव से उन्हें मुक्ति मिल गई है। इसके साथ ही दिलों में बेवजह ही उग आये नागफ़नियों ने सच्चाई की कड़ी घूप में झुलसकर असमय ही दम तोड़ दिया । दूसरे दिन जब विनय नियमानुसार अपने नर्सिंग होम के मरीजों को चैक करने के क्रम में उस आदमी के कमरे में गया तोे वह होश में आ चुका था । डॉक्टर के रूप में विनय को देखकर वह अचानक संकुचित हो उठा … ‘ अब कैसे हो ? दर्द तो ज्यादा नही है ।’ उसकी मुखमुद्रा पर ध्यान दिये बिना विनय ने शांत स्वर में पूछा । विनय का आत्मीय स्वर सुनते ही वह फफक-फफक कर रोने लगा तथा दुखित स्वर में अपना अपराध स्वीकर करते हुए कहा, ‘ डाक्टर साहब, आप महान हो । यदि आप मुझे यहाँ नहीं लाते तो शायद मैं वहीं तड़प-तड़पकर दम तोड़ देता....। शायद आपने नहीं पहचाना मैं वही आदमी हूँ जिसने आपके भीख न देने पर आपके पूरे परिवार के लिये अपशब्द कहे थे....लेकिन तब मैं आपके मन में छिपी मानवता को नहीं पहचान पाया था । आपने न केवल मेरी मदद की वरन् मेरा अपने इस नर्सिग होम में आपरेशन भी किया....बिना यह जाने कि मैं गरीब आपका बिल भी चुका पाऊँगा या नहीं। ’ ‘ मैंने एक डाक्टर....उससे भी बढ़कर एक इंसान का कर्तव्य निभाया है लेेकिन तुमने मुझे पहचान कैसे ? वहाँ तो रोज ही सैकड़ों लोग नित्य दर्शन के लिये आते हैं ।’ विनय ने अनजान बनते हुए पूछा । ‘ आप सच कह रहे हैं डाक्टर साहब, मंदिर में नित्य ही सैकडों लोग दर्शन के लिये आते हैं लेकिन नौकरी का आफ़र तो कोई नहीं देता....। तब मैं अनपढ़ , गंवार आपकी बात कहाँ समझ पाया था....!! जब बिना कुछ करे ही दानदक्षिणा के रूप में पाये धन से काम चल जाता है तो काम क्यों करें ? जैसे विचार उस समय मन में घर जमाये हुए थे....किन्तु आपके जाने के पश्चात सोचा तो लगा कि आप ठीक ही कह रहे हैं....। भीख-भीख ही होती है....। मेहनत की कमाई से खाई रोटी ही इज्जत की रोटी कहलाती है....। फिर मेरा बच्चा भी है, उसे भी पढ़ाना है....। आपके जाने के पश्चात मैंने आपको ढूँढने की बहुत कोशिश की किन्तु अब जब मिले हैं तो भी इस स्थिति में ।’ ‘ अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है...यदि चाहो तो पैर ठीक होते ही काम पर आ जाना ।’ विनय ने सहज भाव से कहा था लेकिन चाहकर भी नहीं कह पाया कि जैसे तुम हमें नहीं भूल पाये वैसे ही हम भी तुम्हें कहाँ भूल पाये थे....!! तुम्हारी अर्नगल बातों ने अनजाने ही हमारे मन मेें भी अज्ञात डर के ऐसे बीज बो दिये थे जिसके कंटीले पौधे उगकर न जीने दे रहे थे और न ही मरने....। पता नहीं कैसा मनोवैज्ञानिक दबाब था जिसके कारण सब कुछ जानते समझते हुए भी वह कुछ दिनों से अपने स्वभाव के विपरीत आम आदमियों की तरह जरा सी परेशानियों से घबराकर उल्टा सीधा सोचने लगा था....। वह भटक गया था या शायद ऐेसा अपनों के लिये अतिशय प्रेम के कारण होता रहा हो....। उसे रह-रहकर सुजाता के कहे वह शब्द भी याद आये जो उसने स्त्रीमन की व्याख्या करते हुए कहे थे....। अब वे बीते कल की बातें हैं....। कल भले ही भीषण झंझावातों से भरा रहा हो लेकिन आने वाले कल के सूरज की नई किरणें मन में छाये अँधेरों को अवश्य दूर करेंगी....जिससे कि फिर कभी ऐसे विचार मन पर हावी न हों....। मन में इस विश्वास के आते ही उसका बोधिसत्व से साक्षात्कार हुआ । एकाएक विनय को लगा कि वह गहरे अंधकूप में गिरने से बाल-बाल बच गया है....। सच है कुछ हादसे जीवन से कुछ छीन लेते हैं तथा वहीं कुछ हादसे नुचे तुड़े जीवन को नया आयाम दे जाते हैं । सुधा आदेश

Sunday, November 10, 2019

सुव्यवस्था ही घर की शोभा है ।

सुव्यवस्था ही घर की शोभा है सुव्यवस्थित घर आपकी कार्यक्षमता में वृद्धि करता है इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती । कल्पना कीजिये आप थके हारे ऑफिस से लौटे हैं, दो क्षण आराम करना चाहते हैं किंतु बेड पर कपड़ों का अंबार हो , चादर ठीक से न बिछी हो तो थकान के बावजूद आप आराम नहीं कर पायेंगे । आपकी झुंझलाहट क्रोध में बदल जायेगी तथा आपका क्रोध घर भर में सबको अस्तव्यस्त कर देगा । यही हालत किचन की है । मान लीजिये आप चाय बनाने जा रही हैं, गैस पर पानी चढ़ा दिया । अब न चीनी का डिब्बा मिल रहा है न चाय का या चाय की पत्ती ही समाप्त हो गई है , अब आपको चाय की पत्ती लेने जाना पड़ेगा तभी चाय बन पायेगी... मेरे कहने का अर्थ है जिसको बनाने में पांच मिनट का समय लगना चाहिये उसमें दस मिनट लगना , या बिना पीये ही रह जाना, आपकी ऊर्जा का ह्रास करेगा साथ ही मूड भी खराब होगा । अगर आपने किचन तथा अन्य आवश्यकताओं में लगने वाले समान की पूरी योजना उचित तरीके से की है, हर चीज रखने की जगह निर्धारित कर ली है तथा उसे उसी जगह रखने की आदत डाल ली है तो विश्वास मानिये आपके काम का समय कम होगा तथा आप अपना समय अन्य कार्यो में लगा सकती हैं । अक्सर मैंने महिलाओं को कहते सुना है क्या करें, समय ही नहीं मिलता ...। हर व्यक्ति को काम करने के लिये चौबीस घंटे ही मिलते हैं अगर आप नियोजित तरीके से काम करें तो कोई कारण नहीं कि आप अपने लिये समय न निकाल पायें । कुछ लोग कहते हैं घर को घर ही रहने दें, उसे शो रूम न बनायें । ऐसा कहने वाले भी किसी मेहमान के आने पर घर को व्यवस्थित करने लगते हैं । जब मेहमान के आने घर व्यवस्थित होने की मानसिकता है तो घर के सभी सदस्यों को अपना सामान निर्धारित स्थान पर रखने की आदत डालकर, थोड़े से प्रयास से घर को सदा व्यवस्थित रखकर अपनी ऊर्जा को बचाना क्या उचित नहीं है ? साफ-सुथरा घर किसे अच्छा नहीं लगता लेकिन सफाई की सनक में घर भर को परेशान करना उचित नहीं है । धैर्य रखें, अच्छी आदत को अपनाने में समय लगता है । कोई माने या न माने , मेरे विचार से सुव्यवस्था ही घर की शोभा है । सुधा आदेश

Saturday, November 9, 2019

जहाँ चाह वहाँ राह

जहां चाह वहाँ राह सुजय को एक मल्टीनेशनल कंपनी द्वारा अमेरिका के न्यूजर्सी में काम करने के लिये नियुक्ति पत्र मिलने का समाचार सुनकर उसके माता-पिता की खुशी का ठिकाना नहीं रहा । खुश भी क्यों न होते आखिर आज वह योग्य पुत्र के योग्य माता-पिता बन गये है । उनका बेटा विदेश जायेगा यह उन जैसे मध्यमवर्गीय परिवार के लिये गर्व का विषय है । बहन सपना अपने भाई की इस उपलब्घि पर खुश होने के साथ दुखी भी थी क्योंकि उसे भाई के दूर जाने के कारण पढ़ाई में व्यवधान के साथ अपने जीवन में सूनापन दस्तक देता प्रतीत होने लगा है । जबसे उसने होश संभाला था तबसे उसने भाई को अपने आस-पास ही पाया है वरना उसके माता-पिता अपने कार्य के सिलसिले में ही इतना व्यस्त रहते थे कि कभी-कभी उसे लगता था कि उनके जीवन में बच्चों के लिये कोई जगह है भी या नहीं । पढ़ाई में भी जब भी उसे कोई समस्या होती वह भाई सुजय के पास जाती, वह उसे चुटकियों में हल करने के साथ इतनी अच्छी तरह समझाता कि फिर उसे दुबारा पूछने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी । दसवीं बोर्ड में उसके अपेक्षा से कम नम्बर आने पर वह बहुत उदास हुई थी तब भाई ने उसे यह कहकर दिलासा दी थी कि दुखी होने की बजाय नम्बर कम क्यों आये इस पर चिंतन मनन कर, उन कारणों का निवारण करने का प्रयास करो...। जीवन में आई किसी विफलता से घबराना नहीं चाहिए वरन् उससे सीख लेते हुये अपने हौसले को बनाये रखना चाहिये । इसके साथ ही जीवन में अपना लक्ष्य निर्धारित कर, उसे पाने के लिये सतत प्रयत्नशील रहो । सदा याद रखो विषम परिस्थितियों में भी हौसला रखने वालों की कभी हार नहीं होती । भाई के हौसलों का ही परिणाम था आई.आई.टी. करते ही मल्टीनेशनल कंपनी द्वारा नियुक्ति मिलना । वह अपने कारण भाई की खुशी में बाधक नहीं बनना चाहती थी अतः उसने भी माता-पिता के साथ भाई के भाल पर टीका लगाकर उसे जीवन की नई पारी प्रारम्भ करने के लिये खुशी-खुशी विदा किया । सुजय ने न्यूजर्सी पहुँचकर अपना कार्यभार संभाल लिया । कम से कम इतना संतोष था कि संचार के साधनो के कारण अब दूरी, इतनी दूरी नहीं रह गई है । लगभग रोज ही सुजय से फोन पर या वीडियो कॉल के जरिये बात होती ही रहतीं । उसका हाल चाल पता लगता रहता । सुजय को कुछ ही दिनों में लगने लगा था कि यहाँ....इस देश में, उसकी राह इतनी आसान नहीं है जितनी कि वह सोच रहा था । उसके कुछ सहयोगी विशेषकर जॉन उस पर नस्लवादी टिप्पणी करते हुये कभी उसके बात करने के तरीके पर तो कभी उसके रंग पर तो कभी उसके खानपान के तरीके पर व्यंग्य करते हुये उसे दोयम दर्जे का इंसान साबित करने में तुला हुआ था जबकि उसके अन्य साथी चुप रहकर एक तरह से परोक्ष रूप से उसका समर्थन ही कर रहे थे । यही बात उसे कचोटती रहती थी जिसके कारण उसकी कार्यक्षमता प्रभावित होने लगी थी । कभी-कभी उसे लगता कि कहीं वह वास्तव में इस विकसित देश में मिसफिट तो नहीं है या ये लोग एक विदेशी द्वारा उनके देश की कंपनी में नौकरी हथियाये जाने के कारण कुंठित हैं । बार-बार उसके प्रश्न से परेशान उसके अंतर्मन ने एक दिन उससे कहा... ‘ तुम मिसफिट नहीं हो वरन् तुम्हारे सहयोगी ही तुम्हारी योग्यता से ईष्र्याग्रस्त होकर तुम पर नस्लवादी टिप्पणी करते हुये तुम्हारे मन में हीनभावना पैदा करना चाहते हैं । माना भारतीय होने के कारण तुम्हारा बात करने का लहजा उनसे अलग है पर योग्यता में तुम उनसे कमतर नहीं हो...। क्या इसका तुम्हें भान नहीं है ? इस तरह निराश होकर तुम उनकी बातों को ही सिद्ध कर रहे हो । तुम्हीं तो कहा करते थे कि हौसले रखने वालों की कभी हार नहीं होती फिर अब यह कैसी दुविधा ? दुविधा से बाहर निकल कर लक्ष्य के प्रति ध्यान केन्द्रित करो...आज जो तुम्हारे कार्य में बाधा बन रहे हैं वही एक दिन तुम्हारी प्रशंसा करेंगे ।’ अंतर्मन की आवाज सुनकर उसका आत्मविश्वास बढ़ा जिसके कारण वह अपने सहयोगियों की फब्तियाँ सुनकर भी चुप रहकर अपना काम करता रहता । एक ऐसे ही दिन जब जॉन उसके खाने के तरीके को लेकर उसका मजाक बना रहा था तब कुछ ही दिन पूर्व ही उसके प्रोजेक्ट को ज्वाइन करने वाली उसकी सहयोगी क्रिस्टीना ने जॉन को न केवल रोका वरन अन्य सहयोगियों को भी उसका साथ देने के लिए टोका । अब तो जब भी ऐसा होता क्रिस्टीना ढाल बनकर खड़ी हो जाती । धीरे-धीरे सहयोगियों के रूख में भी परिवर्तन आता गया । अब वे भी उसके साथ बराबरी का व्यवहार करते हुये उसे सहयोग देने लगे । धीरे-धीरे क्रिस्टीना के साथ उसकी दोस्ती बढ़ती गई । उसे जानकर आश्चर्य हुआ कि जब वह मेट्रिक में थी तब उसके माता-पिता उसकी तथा उसकी छोटी बहन की परवाह किए बिना अलग हो गये तथा उन दोनों ने ही दूसरा विवाह कर लिया । कुछ महीनों तक उसके पिता उन्हें पाकेट मनी देते रहे बाद में उन्होंने भी किनारा कर लिया । तब उसने नौकरी करते हुये न केवल अपनी पढ़ाई जारी रखी वरन् अपनी छोटी बहन कैथरीना को भी संभाला । छोटी बहन कैथरीना को पिछले माह ही हावर्ड कालेज में जॉब मिला है । उसे पढ़ाने का बहुत शौक है अतः उसने वहाँ लेक्चर का पद स्वीकार कर लिया । लगभग दो वर्ष पश्चात् प्रोजेक्ट के पूरा होने पर सुजय ने दो हफ्ते की छुट्टियों के लिये आवेदन किया । क्रिस्टीना को पता चला तो उसने भी यह कहकर साथ चलने की पेशकश की कि उसने भारत और उसकी संस्कृति के बारे में बहुत सुना है, वह एक बार भारत भ्रमण करना चाहती है विशेषकर प्यार की निशानी ताजमहल देखना चाहती है । सुजय उसे मना करके उसे आहत नहीं करना चाहता था क्योंकि उसने ही न केवल उसे अपने सहयोगियों के बीच सम्मानित स्थान दिलवाया वरन् उसके आत्मविश्वास को भी खंडित करने से रोका था । उसे क्रिस्टीना को अपने साथ ले जाने में कोई आपत्ति नहीं थी पर वह पर अपने माँ-पापा की वजह से सशंकित था । आखिर उसने माँ को बता ही दिया कि उसकी मित्र भी उसके साथ आ रही है । ‘ मित्र... वह भी एक लड़की । कहीं कुछ छिपा तो नहीं रहा है हमसे ? ’ पारंपरिक अंदाज में माँ ने रियेक्ट करते हुये सशंकित स्वर में पूछा । ‘ नहीं माँ, ऐसा कुछ नहीं है हमारे बीच...हम सिर्फ एक अच्छे दोस्त हैं ।’ उसने कहा । ‘ ठीक है...ठीक है लेकिन यह दोस्ती, दोस्ती तक ही सीमित रहनी चाहिये, मुझे विदेशी मेम बहू के रूप में स्वीकार्य नहीं है ।’ कहकर उसका उत्तर सुनने से पूर्व ही माँ ने फोन रख दिया । नियत समय पर घर पहुँचने पर ठंडेपन से माँ को स्वागत करते देख सुजय का मन बुझ गया । उसे लग रहा था क्रिस्टीना उसके घर के लोगों के बारे में कोई गलत धारणा न बना ले क्योंकि उसके मन में भारत की ‘ अतिथि देवो भवः ’ की मूर्ति विराजमान है । सुजय को इस बात की प्रसन्नता थी कि उसकी बहन सपना क्रिस्टीना की सारी आवश्यकताओं को समझते हुये उसका साथ देने की भरपूर कोशिश कर रही है । यद्यपि भारत आने से पहले क्रिस्टीना ने उससे साधारणतया प्रयोग में आने वाले कुछ हिंदी के शब्द सीखे थे पर अब सपना के सानिध्य में अपने हिंदी ज्ञानवर्धन करने में लगी हुई थी । सपना भी उसके हिंदी के प्रति लगाव देखकर उसके साथ सहयोग कर रही थी । माँ जब पूजा करती तब क्रिस्टीना उन्हें बड़े ध्यान से देखती तथा सपना से मंदिर में रखी विभिन्न मूर्तियों के बारे में पूछती । सपना भी उसकी हर जिज्ञासा का उत्तर देती थी । माँ के विरोध करने के बावजूद सुजय ने किसी तरह उनको मनाकर क्रिस्टीना को आगरा, जयपुर, उदयपुर घूमने का कार्यक्रम बना ही लिया । जयपुर में जहाँ हवा महल तथा किलों को देखकर क्रिस्टीना अभिभूत थी वहीं झीलों के शहर उदयपुर ने उसका मन मोह लिया । ताजमहल देखकर वह कह उठी, ‘ वाह ! अति सुंदर...क्या कोई किसी को इतना प्यार कर सकता है कि वह उसकी याद में इतना सुंदर मेमोरियल बनवा दे ?’ ‘ सुजय क्या तुम मुझसे विवाह करोगे ? मैं भारत में रहकर ही तुम्हारे साथ अपना जीवन बिताना चाहती हूँ ।’ अचानक क्रिस्टीना ने उससे लिपटते हुये कहा । ‘ भारत में...। ’ अचकचाकर सुजय ने कहा । ‘ हाँ भारत में...लेकिन तभी जब हमें यहाँ अपनी पसंद का कोई काम मिलेगा ।’ यद्यपि सुजय के मन में क्रिस्टीना के प्रति इस तरह के भाव पनपे थे पर वह जानता था ऐसा संभव नहीं है । माँ-पापा इस संबंध के लिये कभी तैयार नहीं होंगे । माँ-पापा से इस संबंध में बात करने से कोई फायदा नहीं था । अगर कुछ कर सकती थी तो केवल सपना ही...उसने सपना को अपने मन की बात बताई । उसने माँ-पापा के सामने उनकी पैरवी भी की । एक समय ऐसा भी आया कि पापा ने बेमन से ही सही उनके इस संबंध के लिये अपनी स्वीकृति दे दी पर माँ नहीं मानी । वे लौट आये थे । समय के साथ सपना का विवाह तय हो गया । वह विवाह में सम्मिलित होने गया । माँ ने उसे विवाह योग्य लड़कियों की फोटो दिखाई पर उसने उन्हें देखने से भी मना कर दिया । उसने सिर्फ इतना कहा...‘माँ आप जानती हैं, मेरे दिल में कोई बसा है, मैं उससे प्यार करता हूँ । किसी से प्यार करूँ किसी से विवाह... यह मुझसे नहीं हो पायेगा । ऐसा करके मैं किसी को धोखा नहीं देना चाहता । मैं और क्रिस्टीना आपकी सहमति का अभी तक इंतजार कर रहे हैं ।’ ‘ इंतजार कर, मेरा फैसला बदलने वाला नहीं है ।’ दो टूक शब्दों में यह कहते हुये माँ ने अपनी मानसिकता बता दी थी कि अभी भी वह अपनी जिद छोड़ने को तैयार नहीं हैं । माँ के नकारने के बावजूद क्रिस्टीना ने हार नहीं मानी । वह हिंदी सीखने का प्रयास करने के साथ ही साथ भारतीय खानपान को भी अपनाने का भरपूर प्रयास करने लगी । एक दिन वह उससे अपने किसी आवश्यक काम के संदर्भ में जाने की बात कर छुट्टी लेकर चली गई । ‘ सुजय जितनी जल्दी हो सके तू घर आ जा ।’ एक दिन माँ ने फोन कर उससे कहा । ‘ माँ घर में सब ठीक है न ।’ उसने घबराकर पूछा था । ‘ सब ठीक है, बस तू जल्दी घर आ जा ।’ माँ ने अपनी बात दोहराई थी । माँ के मना करने के बावजूद सुजय ने बार-बार उनके आग्रह का कारण जानना चाहा क्योंकि चार वर्षो के विदेश प्रवास के दौरान माँ ने इस तरह से उससे कभी आग्रह नहीं किया था । वह बार-बार यही कहती रही कि तू घर आ जा फिर बता दूँगी । सुजय ने क्रिस्टीना को घर जाने की बात बताने के लिये फोन किया पर उसका फोन स्विच आफ बता रहा था । वैसे भी जाते समय उसने उससे कहा था तुम मुझे फोन मत करना जब मुझे अवसर मिलेगा मैं ही फोन कर लिया करूँगी । पिछले महीने भर से उससे कान्टेक्ट न कर पाने के कारण वह चिंतित भी था । कैथरीना को फोन कर उससे पूछा तो उसने भी कह दिया कि उसे पता नहीं, अब अचानक जाना...वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे ? आखिर क्रिस्टीना के लिये मैसेज छोड़कर वह घर के लिये चल दिया । यात्रा के दौरान पूरा समय उसका इसी उहापोह में बीता कि माँ ने उसे क्यों बुलाया है...!! कहीं पापा की तबियत तो खराब नहीं है । अगर ऐसा है तो माँ ने उसे बताया क्यों नहीं ? ‘ तू परेशान होगा, इसलिये नहीं बताया होगा ।’ अंतर्मन ने कहा । ‘ क्या मैं बच्चा हूँ ?’ ‘ माँ के लिये उसका पुत्र या पुत्री सदैव बच्चे ही रहते हैं ।’ चौबीस घंटे की यात्रा के दौरान मन बेहद परेशान रहा । घर पहुँचकर बेचैनी से घंटी बजाई...दरवाजा माँ ने ही खोला । उनके पीछे क्रिस्टीना को खड़ा देखकर वह चौंक गया । ‘ बहुत दिन आजाद घूम लिया । अब बेड़ियाँ पहनने के लिये तैयार हो जा । अगले हफ्ते तेरा विवाह है ।’ वह कुछ पूछ पाता, उससे पहले ही माँ ने कहा । ‘ विवाह पर किससे ?’ अनजान बनते हुये उसने पूछा । ‘ कह तो ऐसे रहा है जैसे तुझे पता ही नहीं...अरे, क्रिस्टीना को देखकर भी तुझे आभास नहीं हुआ...। तेरा विवाह क्रिस्टीना से है...बहुत प्यारी बच्ची है । मैंने इससे कह दिया है तुझे जैसे रहना हो इस घर में रहना । हमारी ओर से कोई बंदिश नहीं है । बस तू मेरे इस नादान बच्चे का ख्याल रखना ।’ माँ ने उसके चेहरे पर चपत लगाते हुये प्यार से कहा तथा क्रिस्टीना की ओर देखकर मुस्करा दीं । घर के अंदर आकर अवसर पाकर उसने क्रिस्टीना से माँ के अंदर आये परिवर्तन के बारे में पूछा तो उसने मुस्करा कर कहा,‘ प्यार देकर ही प्यार पाया जा सकता है । इस बात को हम स्त्रियाँ ही समझ और समझा सकती हैं । माँ ने मेरे दिल की सच्ची बात सुनी और हमारे रिश्ते को मंजूरी मिल गई । मुझे तुम्हारे साथ माँ-पापा और एक प्यारी बहन भी मिल गई । आज मैं बहुत खुश हूँ । ’ आखिर चार वर्षो की जद्दोजेहद के पश्चात् उनके प्यार को माँ-पापा का आशीर्वाद मिल ही गया । सच अगर दो दिल मिल जायें तो सात समुंदर की दूरियाँ भी मायने नहीं रखतीं...अंततः सरहदें टूट ही जाती हैं । सपना और उसके पति धीरज ने विवाह का इंतजाम संभाल लिया था । आखिर विवाह का दिन भी आ गया । क्रिस्टीना की बहन कैथरीना भी विवाह में सम्मिलित होने आ गई थी । वह भी बहन का घर संसार को देखकर बहुत ही खुश थी । खूब धूमधाम से उनका विवाह हुआ । विवाह वाले दिन क्रीम कलर के सुनहरे जरी के काम वाले लंहगे में सुजय के बगल में खड़ी क्रिस्टीना परी से कम नहीं लग रही थी । नाते रिश्तेदारों और पड़ोसियों से क्रिस्टीना की प्रसंशा सुनकर माँ बाग-बाग हो रही थीं । कुछ दिन माँ-पापा के पास रहकर आखिर उन्हें अपनी कर्मभूमि लौटना पड़ा । अब उन्होंने भारत में अपने योग्य काम खोजने की शुरूवात के साथ अपनी कंपनी में भी वापस अपने देश लौटने की इच्छा जताते हुए आवेदन कर दिया ।

 इस बीच क्रिस्टीना ने आग्रहकर माँ-पापा को अमेरिका बुलाया तथा उसने और सुजय ने उन्हें अमेरिका के मुख्य पर्यटन स्थल...नियाग्रा फाल, स्टेचू आफ लिबर्टी, वाशिंगटन डी.सी. तथा फ्लोरिडा का डिस्नेवर्ड भी घुमा दिया । वह सपना और धीरज को भी बुलाना चाहती थी किंतु धीरज अपने कार्य के सिलसिले में इतना व्यस्त था कि वह समय ही नहीं निकाल पाया । आखिर दो वर्ष पश्चात् सुजय और क्रिस्टीना का प्रयास रंग लाया, उनकी इच्छापूर्ण हुई । उन दोनों को उनकी कंपनी ने भारत में रहकर कार्य करने की इजाजत दे दी । कहते हैं जहाँ चाह है वहाँ राह भी निकल ही आती है । सुधा आदेश

Friday, November 8, 2019

पेशानी पर टंगा प्रश्न

पेशानी पर टंगा प्रश्न सुरेखा को अनियंत्रित हालत में घर में प्रवेश करते देखकर अरुणा ने चौंक कर पूछा,’ क्या हुआ सुरेखा ?’ ‘अब क्या और कैसे बताऊँ ?’ कहकर सुरेखा सिर पर हाथ रखकर बैठ गई । ‘संभालो स्वयं को फिर बताओ हुआ क्या है?’ अरुणा ने उसे पानी का ग्लास पकड़ाते हुए कहा । ‘जब अपना ही सिक्का खोटा हो तो दोष किसको दूँ ?’ ‘पहेलियां ही बुझाती रहोगी या कुछ बताओगी भी ।' ‘नमन लिव इन में रह रहा है !’ ‘क्या ? कब से ?’ इस बार चौंकने की बारी अरुणा की थी । ‘चार पाँच महीने हो गए पर मुझे अभी हफ्ते भर पहले पता चला । न जाने क्या-क्या ख्बाब देखे थे सब मिट्टी में मिला दिये । आज मन बहुत परेशान था अतः तेरे पास चली आई ।' ‘अच्छा किया …जो भी निर्णय करना सोच समझ कर करना । आज की पीढ़ी अपने मन की करती है । वे बालिग हैं, आत्मनिर्भर हैं…झुकना तो हमें ही पड़ेगा ।’ ‘तुम ठीक कह रही हो मैं और अजय तो इस संबंध को स्वीकारने को तैयार हूँ पर वे अभी विवाह नहीं करना चाहते । उनका मत है अभी वे पूरी तरह सैटल नहीं हैं ।’ ‘तुमने उन्हें ऊँच-नीच नहीं समझाई !!’ ‘सब कहकर देख लिया. नमन कहता है कि हम बच्चे नहीं हैं । अपना भला बुरा समझते हैं.’ ‘और वह लड़की…क्या नाम है उसका ।’ ‘प्रिया का भी यही मानना है । वह भी अभी पारिवारिक जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहती ।' ‘तुमने उसके माता-पिता से बात की ।’ ‘बात की थी । वे भी अपनी बेटी की जिद के सामने विवश हैं ।’ ‘सच आज के बच्चों को पालना उन्हें संस्कार देना टेढ़ी खीर है । तेरा तो बेटा है…तेरी बात सुनकर मुझे अपनी बेटी सुवर्णा की चिंता होने लगी है ।’ ‘माना मेरा बेटा है पर मैं स्त्री होने के नाते उस बेटी के माता-पिता के दर्द से कैसे अनभिज्ञ रह सकती हूँ जो अपनी बेटी के बिना किसी संबंध के किसी गैर मर्द के साथ रहने का दर्द झेल रहे हैं । इस स्तिथि के लिये कहीं न कहीं मैं भी दोषी हूँ जो अपने पुत्र को स्त्री का सम्मान करना नहीं सिखा पाई । बस अब तो एक ही कामना है कि नमन प्रिया को धोखा न दे । अच्छा अब चलती हूँ ।' अपनी प्रिय सखी सुरेखा की आँखों में झलक रहे आँसुओं को देखकर अरुणा सोच रही थी कि हमारी पीढ़ी बच्चों के कदम से कदम मिलाकर चलना चाहती है पर पता नहीं कब, कहाँ चूक हो जाती है जो न वे हमें समझ पाते हैं न ही हम उन्हें...यहाँ तक कि शारीरिक सुख की खातिर आज वे सामाजिक और नैतिक मूल्यों की धज्जियाँ उड़ाने से भी नहीं चूक रहे हैं । आखिर कहाँ जा रहे हैं हम ? एक प्रश्न टंग गया था उसकी पेशानी पर ...जिसका कोई उत्तर उसके पास नहीं था । सुधा आदेश

Wednesday, November 6, 2019

संतुष्टि

संतुष्टि अक्सर नीलिमा अपने घर के सामने की सड़क पर एक युवक को गाय चराने के लिए जाते हुए देखा करती थी । मैले कुचैले कपड़े, नंगे पैरों के बावजूद उसके ओंठ कुछ न कुछ गुनगुनाते रहते थे । चेहरे पर सदा एक निर्दोष मुस्कान खिली रहती थी । उसको देखकर कभी-कभी लगता कि वह इतनी तंगहाली में भी इतना खुश कैसे रह लेता है जबकि वह स्वयं सारी सुख-सुविधा होने के बावजूद खुश नहीं रह पाती थी । बच्चे बाहर पढ़ रहे थे । पति अमित चार दिन के टूर पर गये थे । घर में करने के लिये कुछ नहीं था अतः नीलिमा अपने बागवानी के शौक को पूरा करने के लिये बगीचे में पानी देने लगी । अचानक उसका पैर पाइप में उलझ गया और वह गिर पड़ी । संयोग था कि उसी समय वह युवक अपनी गाय को चराने जा रहा था । उसकी आवाज सुनकर वह दौड़ा-दौड़ा आया तथा उसे उठाते हुये कहा ‘ आंटी चोट तो नहीं लगी ।’ ‘ नहीं बेटा...।’ ‘ क्या नाम है बेटा तुम्हारा ?’ ‘ सोना....। ‘ ‘ बहुत अच्छा नाम है । ‘ ‘ ओ.के. आंटी अब मैं चलूँ ।’ ‘ रूको बेटा, मैं अभी आई । ’ कहकर नीलिमा घर के अंदर गई । बाहर आकर नीलिमा ने सोना को चाकलेट के साथ कुछ रूपये दिये... ‘ आंटी हम गरीब जरूर हैं पर भिखमंगे नहीं...मेरे पास दो-दो माँ है फिर मुझे इन सबकी क्या आवश्यकता है ? मेरी सारी आवश्यकतायें वे पूरा कर देतीं हैं ।’ कहते हुये उसने उसकी गिफ्ट लेने से इंकार कर दिया । ‘ दो-दो माँ...।’ ‘ हाँ...एक मेरी माँ तथा दूसरी मेरी शालू माँ...।’ उसने गाय की ओर इशारा करते हुये कहा तथा चला गया । नीलिमा को सोना की संतुष्टि का रहस्य पता चल गया था । सुधा आदेश

Tuesday, November 5, 2019

दम तोड़ती योग्यता

दम तोड़ती योग्यता ‘ प्रिंसीपल साहब हम अपने पुत्र दीपक को पूरी फीस देकर इस स्कूल में पढ़ा रहे हैं फिर भेदभाव क्यों ?’ अमित शंकर ने प्रिंसीपल की इजाजत पाकर सीट पर बैठते हुये कहा । ‘ मैं कुछ समझा नहीं...भेदभाव...कैसा भेदभाव...?’ प्रिंसीपल ने आश्चर्य से पूछा । ‘ आपकी नाक के नीचे ये सब हो रहा है और आपको पता ही नहीं है ।’ व्यंग्य से अमित शंकर ने कहा । ‘ आप क्या कहना चाह रहे हैं, ठीक से कहिये...पहेलियाँ न बुझाइये ‘ मेरा बेटा दीपक क्रिकेट अच्छा खेलता है पर उसका स्कूल की क्रिकेट टीम में नाम नहीं है !! क्या केवल इसलिये कि वह दलित का बेटा है ?’ अमित शंकर की आवाज में क्रोध झलक रहा था । ‘ ऐसा कैसे हो सकता है ? मैं अभी खेल शिक्षक को बुलाकर पूछता हूँ ।’ कहते हुये उन्होंने घंटी बजा दी । चपरासी विजय के आते ही उन्होंने उससे खेल शिक्षक अविनाश को बुलाने का आदेश दिया । अविनाश के आते ही प्रिंसीपल साहब ने कहा... ‘ दीपक के पिताजी अमितजी कह रहे हैं कि आप बच्चों के साथ भेदभाव करते है । दीपक क्रिकेट खेलने में अच्छा है पर आपने उसे स्कूल की क्रिकेट टीम में नहीं रखा ।’ ।।‘ दलित होने के कारण...’ अमित शंकर जोड़ा । ‘ सर, आरोप सरासर गलत है । दीपक से अच्छे अन्य बच्चे खेल रहे हैं । दीपक को भी मैं ट्रेनिंग दे रहा हूँ । अगर वह अच्छा खेलेगा तो उसे भी टीम में सम्मिलित कर लिया जायेगा । हम केवल योग्यता देखते हैं जाति नहीं...हमारे लिये सब बच्चे बराबर हैं । हमें अपनी टीम को अव्वल बनाना है जिससे दूसरे स्कूलों के साथ खेलकर जीत हासिल कर सके । ’ ‘ यह सच नहीं है...आपने मेरे बेटे को अच्छा खेलने के बावजूद केवल दलित होने के कारण स्कूल की टीम में नहीं लिया ।’ अमित ने अविनाश की बातों को नकारते हुये कहा । ‘ जो मैंने कहा है, वही सच है सर...। अगर आपका यही मत है तो अगर प्रिंसीपल साहब आदेश दें तो कल पता लगाता हूँ कि इस स्कूल में कितने दलित छात्र हैं । उनकी एक अलग टीम बनाई जा सकती है जिससे किसी दलित बच्चे के माता-पिता को कोई शिकायत न हो । कम से कम क्रिकेट में तो आरक्षण नहीं होना चाहिये...योग्यता अभी तक सर्वोपरि रही है और होनी ही चाहिये । ’ न चाहते हुये भी अविनाश का स्वर तिक्त हो गया तथा उसने निराशा में हाथ जोड़ दिये । ‘ मैं देख लूँगा...आपको और आपके स्कूल को भी...।’ कहते हुये अमित शंकर चले गये । दूसरे दिन सभी प्रमुख अखबारों की हैडलाइन थी...शहर के प्रतिष्ठत स्कूल में छात्रों के साथ भेदभाव...। पूरा वाकया पूरे जोर-शोर से छपा था । पन्द्रह दिन के अंदर ही न केवल दीपक को स्कूल की क्रिकेट टीम में शामिल कर लिया गया वरन् पिछले पाँच वर्षो से स्कूल का खेलों में अद्वितीय प्रदर्शन करने के बावजूद अविनाश को नौकरी से हाथ धोना पड़ा । मैनेजमेंट कुछ नहीं कर पाया क्योंकि अमित शंकर के दलित कार्ड के आगे सभी विवश थे । सुधा आदेश

निःशब्द

निःशब्द समीर के हाथ से खाने की प्लेट गिर गई । सीमा कमली को फर्श साफ करने का निर्देश देते हुये पुनः समीर के लिये प्लेट लगाने लगी । कमली ने फर्श पर गिरा खाना एक पोलीथीन में डाला तथा तथा गांठ मारकर एक कोने में रख दिया । ‘ कमली खाने को फेंक दो, किनारे क्यों रख दिया ।’ सीमा ने पूछा । ‘ भौजी, ठीक ही बा, जमीन अभी ही तो पोंछे बा । घर ले जाब, अपने बबुआ को खिलाब देब, उसके नसीबबा में ऐसा खाना कहाँ ?’ कमली की बात सुनकर वह निःशब्द रह गई । विकास के स्थानांतरण के कारण उन्हें इस छोटे से कस्बे में आये तीन महीने हुये थे । उसने सुना तो था इस इलाके में गरीबी बहुत है पर इतनी होगी उसने कल्पना भी नहीं की थी । वह बचा खाना गाय या कुत्ते को खिला देती थी पर इन्हें यह सोचकर नहीं देती थी कि कहीं इनकी आदत न बिगड़ जाये । एकाएक उसने निर्णय किया अब घर में जो भी बनेगा वह कमली के बबुआ को अवश्य देगी ।

Friday, November 1, 2019

रिश्तों की बुनाई

रिश्तों की बुनाई ‘दादी आप कितना अच्छा स्वेटर बुना करती थीं...मुझे आज भी याद है जब हम पढ़ते थे तब आप हमारे पास रजाई में बैठकर हमारे लिये नई-नई डिजाइन के स्वेटर बुना करती थीं ।’ पल्लवी ने दादी की रजाई में घुसकर उनसे चिपकते हुये कहा । ‘ बेटा वह दिन और ही थे । अपने हाथ से स्वेटर बुनकर पहनाना सुकून देता था । फिर तुम पहन भी तो लेती थीं मेरे हाथ का बुना स्वेटर ।’ ‘ सच कहतीं हैं आप दादी, आपके बनाये स्वेटरों की डिजाइन तो सुन्दर रहती ही थी इसके साथ उनमें आपके प्यार की जो गर्माहट थी वह बाजार के स्वेटरों में कहाँ मिलती ?’ ‘ बेटा जैसे हम स्वेटर बुनते थे वैसे ही रिश्तों को भी बुनते थे ।’ ‘ रिश्ते बुनना...आप क्या कह रही हैं दादी ?’ ‘ सच कह रही हूँ बेटा, रिश्तों के अनुसार ही हम रिश्तों में प्रेम के फंदे डालते थे, अगर गलत पड़ गया तो पुनः उसे उधेड़कर उसे ठीक कर अपने मनमाफिक बना ही लेते थे । इसलिये हमारे समय में रिश्ते आज की तरह टूटते नहीं थे । आज लोगों ने बुनना छोड़ दिया है शायद इसीलिये प्रेम के धागों को सहेज नहीं पा रहे हैं...।’ गहरी सांस लेते हुये दादी ने कहा । ‘ जा सो जा मेरी लाढ़ो...कल तेरा विवाह है ।’ उसे चुप देखकर दादी ने पुनः कहा तथा करवट बदल कर सो गई । कल तेरा विवाह है, जा सो जा...बार-बार दादी के गूँजते शब्दों के साथ बीते पलों की स्मृतियाँ उसे होटल के आरामदेह कमरे में भी निद्रा देवी की गोद में विश्राम करने से रोक रही थीं...अचानक उसे बीते पल याद आने लगे... ‘ जब देखो मुझे ही छुट्टी लेनी पड़ती है...क्या आपकी अपने बच्चे के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं है ?’ माँ ने पापा को उलाहना दिया था । ‘ मैं छुट्टी ले लेता पर आज मेरा प्रजेंन्टेशन है । प्लीज आज तुम रूक जाओ कल मैं छुट्टी ले लूँगा ।’ पापा ने माँ से आग्रह किया । ‘ रोज-रोज यही बहाना...तुम्हें क्या पता रोज-रोज छुट्टी लेने से आफिस में मेरी इमेज कितनी खराब हो रही है । राजीव तो जब तब कह ही देता है औरतों को इसीलिये कंपनी को रखना ही नहीं चाहिये क्योंकि वे बहाने मारकर काम से भागना चाहती हैं ।’ उनके जब-तब होते लड़ाई झगड़े उसके छोटे से मस्तिष्क को परेशान कर देते थे पर इसका उसके माता-पिता को जरा सा भी भान नहीं था । अंततः उसकी माँ ने नौकरी की बजाय उसे ही छोड़ना श्रेयस्कर समझा । माँ चली गई थी तबसे दादी माँ ने ही उसे संभाला है । उसे माँ की धुंधली तस्वीर ही याद है...। पहले विवाह की कड़ुवाहट के कारण दादी के बार-बार आग्रह के बावजूद पापा ने दूसरा विवाह नहीं किया । विदा के समय दादी के गले मिलते हुये उसने एक निर्णय लिया था कि वह भी दादी के समान रिश्तों को प्रेम के रंग से बुनेगी...। सुधा आदेश

Saturday, September 14, 2019

हिंदी दिवस

आज हिन्दी दिवस है...मुझे सदा आश्चर्य होता रहा है कि हमारी मातृभाषा के साथ राजभाषा भी हिन्दी है पर हर वर्ष इसके प्रचार और प्रसार के लिए हिन्दी दिवस मनाया जाता है क्यों...?कोई माने या न माने यह सच है कि समय या शासक कोई भी रहा हो पर हिन्दी और हिन्दी साहित्य सदा से हमारे दिलों में राज करता रहा है...। इस सबके बावजूद अंग्रेजी मोह में हमारे ही भाई-बंधुओं ने हिन्दी को इतना दीन-हीन बना दिया है कि प्रत्येक वर्ष हिन्दी दिवस और हिन्दी पखवाड़ा मनाकर हम अपने कर्तव्य की इतिश्री समझने लगते है...यह भी एक संयोग ही है कि यह पखवाड़ा अक्सर पितरपक्ष में ही आता है...इस संयोग से प्रेरित होकर काफी पहले लिखी एक कविता आपके सम्मुख पेश है.... मेरा बारह वर्षीय पुत्र आकर बोला, ' ममा, कल हिन्दी दिवस है मैडम ने कुछ लिखकर लाने के लिए कहा है, प्लीज ममा कुछ लिखवा दो न...। ' मन में कुछ अकुलाने लगा... हिन्दी हमारी मातृभाषा है, राजभाषा है और हम इसके प्रचार और प्रसार हेतु हिन्दी दिवस मना रहे है... क्या धरोहर दे रहे है नवांकुरों को जिनकी जड़ें हम नित्य विदेशी भाषा से सींच रहे है । वर्ष में एक दिन हिन्दी दिवस मनाकर मात्रभाषा को कब्र से खोदकर खड़ा कर रहे है... ठीक उसी तरह जैसे पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए पितरपक्ष में एक दिन उनके लिए सुरक्षित रख देते है, उस दिन दान दक्षिणा देकर उन्हें स्मरण कर कर्तव्यों की इतिश्री समझ कर पुनः दिनचर्या में हो जाते है लीन...। @ सुधा आदेश

Saturday, August 10, 2019

एक प्रश्न

एक पार्टी की सरकार ने दो महीने में तीन तलाक और जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाने का फैसला ले लिया ... किन्तु कांग्रेस दो महीने के मंथन के बाद ,अभी भी गांधी फैमिली से इतर सोच ही नहीं पा रही है । राहुल नहीं तो प्रियंका ही सही । एक राष्ट्रीय पार्टी का यह हश्र !! वास्तव में सोचनीय है ।

Thursday, August 8, 2019

एक प्रश्न

कांग्रेस तथा कुछ अन्य विपक्षी दलों के नेताओ का कहना है कि धारा 370 हटाने से पहले कश्मीरियों से पूछना चाहिये था ... मैं एक नागरिक के तौर पर जानना चाहती हूँ कि धारा 370 लगाने से पूर्व क्या जम्मू कश्मीर के लोगों से राय ली गई थी ? सच तो यह है कि हर सरकार देश और देश के नागरिकों के लिये संविधान के तहत कुछ संशोधन करती है । अगर धारा 370 को हटाने से कश्मीर के भाई बंधु मुख्य धारा में सम्मिलित हो जाते हैं तो इसको कायम रखने का कोई औचित्य नहीं है ।

Wednesday, August 7, 2019

सुषमा स्वराज... मेरी पसंदीदा राजनेता

सुषमा स्वराज सहृदय राजनेत्री ही नहीं, सफल पत्नी तथा माँ भी थीं । चाहे वह विपक्ष में रही हों या सरकार में ,उनको सुनना मुझे सदा प्रिय रहा है । वह मेरी प्रिय राजनेता थीं जो सदा छल कपट से दूर रहीं । विदेश मंत्री के रूप में उन्होंने अपनी एक नई पहचान बनाई । देश विदेश का जो भी भारतीय अपनी फरियाद लेकर उनके पास पहुँचा, उसकी उन्होंने मदद की । यद्यपि उन्होंने चुनाव नहीं लड़ा न ही मंत्रिमंडल में वापस आई लेकिन उन्होंने कहा भी था कि वे राजनीति से सन्यास नहीं ले रही हैं । लेती भी कैसे राजनीति तो उनकी रग-रग में बसी थी यही कारण है कि अपनी मृत्यु से 4 घंटे पूर्व उन्होंने प्रधानमंत्री को ट्वीट कर धारा 370 हटाने के लिये बधाई संदेश देते हुए लिखा था...मैं इसी को सुनने के लिए तरस रही थी । ओजस्वी वक्ता तथा सफल विदेश मंत्री के रूप में सुषमा जी सदा याद की जायेंगी । ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे ... ॐ शांति ...

Friday, August 2, 2019

जीवन में मधुरस थोड़ा घोलें...

जीवन में थोड़ा मधुरस घोलें कटु वचनों का पीकर गरल नीलकंठ, विषपायी बन जायें जीवन में थोड़ा मधुरस घोलें । पीर पराई दिल में पेलकर दिल की सरहद खोलें जीवन में थोड़ा मधुरस घोलें । शिवत्व को पहचान कर जीवन सुरमय संगीत बनायें जीवन में थोड़ा मधुरस घोलें । इंसान की इंसान से कराकर पहचान आओ बम-बम बोलें जीवन में थोड़ा मधुरस घोलें । सुधा आदेश

Thursday, July 25, 2019

सखी आ गया सुखद सलोना सावन

सखी आ गया सुखद सलौना सावन पूरब दिशा की ओर से पुरबिया पवन का हसीन झोंका आकर गुनगुना गया कानों में सखी आ गया सुखद सलौना सावन । पश्चिम दिशा की ओर से श्वेत-श्याम मतवाले मेघों ने आकर मेघ मल्हार सुनाकर दीपित कर अवनि को दे गये संदेशा सखी आ गया सुखद सलोना सावन । मखमली बूंदे पावस की बिछड़ कर वारिद से दे गई सुगंध सौंधी-सौंधी सी सखी आ गया सुखद सलोना सावन । भाई-बहन के पावन प्रेम का प्रतीक कच्चे रेशम के धागों का लेकर त्यौहार सखी आ गया सुखद सलोना सावन । सावन सोमवार को नीलकंठ, त्रिपुरारी महादेव को लगाकर हल्दी चंदन पूजा अर्चना करती अप्सराएं धरा की मांग रही हैं वरदान अखंड सौभाग्य का अपरिमित प्यार का सखी आ गया सुखद सलौना सावन । हरियाली तीज पर रिम-झिम बोझारों के संग सोलह श्रृंगार कर प्यार के हिंडोले में उड़ान भरती अप्सराएं धरा की छेड़ रही हैं सुरलहरियाँ... सखी आ गया सुखद सलोना सावन । सुधा आदेश

Friday, July 12, 2019

बच्चों को मस्ती आई

पानी बरसा रिमझिम-रिमझिम गर्मी भागी, मौसम ने ली अंगड़ाई बच्चों को मस्ती आई बाहर निकलें, खेलें खेल... घर-घर से आवाज आई । अब न कोई रोकेगा, अब न कोई टोकेगा भरा पानी घर के आंगन में, चलो कागज की नाव बनायें दूर कहीं सैर को जायें । बारिश का यह मौसम अलबेला सबके मन को भाता, ठंडी-ठंडी बहती बयार पशु, पक्षी को दुलराती मधुर कोमल संगीत सुनाती । सूखी धरती,सूना उपवन, ओढ़ धानी चुनरिया, कल-कल बहती नदिया खुशियों से ले रही हिलोरें धरती पर नव जीवन छाया । खाएंगे अब गर्मागर्म पकोड़े साथ में हलवा, गर्म समोसे माँ को अपनी पसंद बतायें बारिश के मौसम का आओ हम आनंद उठायें ।

Tuesday, June 18, 2019

खो रही हैं बोलियाँ

खो रही हैं बोलियाँ 

 अजीब सा कलरव
 भागादौड़ी की कश्मकश 
न जाने कैसी बेचैनियां । 
खो रही हैं बोलियां 
नहीं हैं अब गर्मजोशियाँ । 

नन्हों के हाथ में मोबाइल 
मां-पिता व्यस्त कर्म चक्रव्यूह में 
नहीं रही अब गोदियाँ । 
 नहीं रही अब बोलियां 
नहीं सुनाता कोई लोरियां । 

 एक ही कमरा ,
एक ही पलंग 
चैटिंग में मस्त युगल 
बढ़ रही हैं दूरियां । 
 नहीं रही अब बोलियां 
नहीं रही गलबहियाँ । 

 समाज से कटे,भटके लोग
 नैतिकता का भी भान नहीं 
अजब-गजब मजबूरियां । 
 नहीं रही अब बोलियां 
बढ़ रहीं तन्हाइयां। 

 @सुधा आदेश

Monday, June 17, 2019

बेटियाँ

मेरी छोटी सी गुड़िया बड़ी हो गई छोड़कर दामन मेरा खड़ी हो गई । तोतली बोली से जो मुझे लुभाती थी कल तक मचलती थी छोटी-छोटी बातों पर, चाहतों को कैद कर सब्र हो गई ... मेरी छोटी सी गुड़िया छोड़कर दामन मेरा स्वतंत्र हो गई । स्वप्न आंखों में तिरने लगे हैं पग भी अब थिरकने लगे हैं लक्ष्य प्राप्त करने की धुन में वज्र हो गई... मेरी छोटी सी गुड़िया बड़ी हो गई छोड़कर दामन मेरा व्यस्त हो गई । स्वप्न पूरे हुए,लब गुनगुनाने लगे हैं पग थिरक-थिरक कर नया संसार रचाने लगे हैं मन की बगिया हरी भरी हो गई । मेरी छोटी सी बिटिया बड़ी हो गई छोड़कर दामन मेरा पतंग हो गई । स्वप्न पूरे हों,जिओ तुम अपनी जिंदगी, दुआओं का गुलदस्ता लिये साथ में मेरे घर की रौनक,अब दूसरे घर की रौनक बन गई... मेरी छोटी सी गुड़िया बड़ी हो गई छोड़कर दामन मेरा मगन हो गई । सुधा आदेश

Sunday, June 16, 2019

विश्वास का चीरहरण

विश्वास का चीरहरण पिछले कुछ दिनों से रमाकांत की तबियत ठीक नहीं चल रही थी । वे सो रहे थे । नमिता ने उन्हें जगाना उचित नहीं समझा...उसने स्वयं के लिये चाय बनाई तथा बाहर बरामदे में अखबार पढ़ते हुये चाय पीने लगीं । एक खबर पर उनकी निगाह ठहर गई...घर में काम करने वाले नौकर ने बुजुर्ग दम्पति की हत्या की...पुलिस ने उसे पकड़ लिया है तथा हत्या के कारणों की जाँच कर रही है । सरकार चाहे बच्चों और बुजुर्गों की सुरक्षा के कितने भी दावे क्यों न कर ले, जब तक हमारा सिस्टम न बदले, लोगों की मानसिकता न बदले, कुछ भी नहीं बदलने वाला...ओह ! न जाने कितना गिरेगा इंसान…!! कहते हुये उनके जेहन में बारह वर्ष पुरानी घटना उथल-पुथल मचाने लगी... ‘ आँटी, आप मूवी चलेंगी ।’ अंदर आते हुए शेफाली ने पूछा । ‘ मूवी...।’ ‘ हाँ आँटी, नाॅवेल्टी में ‘ परिणीता ’ लगी हुई है...।’ ‘ न बेटा, तुम दोनों ही देख आओ, मैं बूढ़ी तुम दोनों के साथ कहाँ जाऊँगी...?’ कहते हुए अचानक नमिता की आँखों में वह दिन तिर आया जब विशाल के मना करने के बावजूद बहू ईशा और बेटे विभव को मूवी जाते देख वह भी मूवी जाने की जिद कर बैठी थी... उसकी पेशकश सुनकर बहू तो कुछ नहीं बोली थी पर विभव ने कहा था,‘ माँ, तुम कहाँ जाओगी ? हमारे साथ मेरे एक दोस्त की फैमिली भी जा रही है, वहाँ से हम सब खाना खाकर ही लौटेंगे ।’ विभव के मना करने पर वह तिलमिला उठी थीं पर विशाल के डर से कुछ कह नहीं पाई थीं क्योंकि उन्हें व्यर्थ की तकरार बिल्कुल पसंद नहीं थी । उनके जाने के पश्चात् मन का क्रोध विशाल पर उगला तो उन्होंने शांत स्वर में कहा,‘ नमिता, गलती तुम्हारी है, अब वे बड़े हो गये हैं उनकी अपनी जिंदगी है फिर तुम क्यों बेवजह बच्चों की तरह उनकी जिंदगी में हमेशा दखलंदाजी करती रहती हो । अब जैसा तुम चाहोगी वैसा ही तो सदैव नहीं होगा, तुम्हें मूवी देखनी ही है तो हम दोनों किसी और दिन जाकर देख आयेंगे ।’ विशाल की बात सुनकर वह चुप हो गई थी...वैसे भी उनसे कुछ भी कहने से कोई फायदा नहीं था पर बार-बार दोस्त के लिये स्वयं को नकारे जाने का दंश चुभ-चुभ कर पीड़ा पहुंचा रहा था । ठंडे मन से सोचा तब लगा कि विशाल सच ही कह रहे हैं...कल तक उसकी अँगुली पकड़कर चलने वाले बच्चे अब सचमुच बड़े हो गये हैं...और उनमें बच्चों जैसी जिद पता नहीं क्यो आती जा रही है । उसकी सास अक्सर कहा करती थीं बच्चे बूढ़े एक समान लेकिन तब वह इस उक्ति का मजाक बनाया करती थी पर अब वह स्वयं भी जाने अनजाने उन्हीं की तरह व्यवहार करने लगी है....आखिर क्या आवश्यकता थी उनके साथ मूवी देखने जाने के लिये कहने की, जब वे स्वयं ही उससे चलने के लिये नहीं कह रहे थे । वही विभव था जिसे बचपन में अगर कुछ खरीदना होता या मूवी जानी होती तो पापा को स्वयं कहने के बजाय उससे सिफारिश करवाता था । सच समय के साथ सब कितना बदलता जाता है । अब तो उसे उसका साथ भी अच्छा नहीं लगता है क्यांेकि अब वह उसकी नजरों में दकियानूसी, पुरातनपंथी, या उसके शब्दों में ओल्डफैशन्ड हो गई है । जिसे आज के जमाने के तौर तरीके नहीं आते जबकि वह अपने समय में पार्टियों की जान हुआ करती थी, लोग उसकी जिंदादिली के कायल थे । समय के साथ उसमें परिवर्तन अवश्य आ गया है पर फिर भी उसने सदा समय के साथ चलने की कोशिश की है पर अब तो उनका व्यवहार देखकर उनके साथ कहंी जाने का मन ही नहीं करता है । किसी ने सच ही कहा है....बचपन में एक से पाँच वर्ष के बच्चे के लिये माँ से प्यारा कोई नहीं होता । बाल्याावस्था में पाँच से बारह वर्ष तक, माँ उसका आदर्श होती है किशोरावस्था तक पहुँचते-पहुँचते बात-बेबात टोकने वाली तानाशाह, यौवनावस्था में उसके बच्चों को पालने वाली धाय तथा बुढ़ापे में उनके लिये बोझ बन जाती है...आज शायद वह उनके लिये बोझ बन गई है । ‘ आँटी आप किस सोच में डूब गई हैं...प्लीज चलिए न, परिणीता शरतचंद्र के उपन्याास पर आधारित अच्छी मूवी है । आपको अवश्य पसंद आयेगी ।’ आग्रह करते हुए शेफाली ने कहा । शेफाली की आवाज सुनकर नमिता अतीत से वर्तमान में लौट आई...शरतचंद्र उसके प्रिय लेखक हैं । उसने अशोक कुमार और मीना कुमारी द्वारा अभिनीत पुरानी ‘परिणीता’ भी देखी है, उपन्यास भी पढ़ा है फिर भी शेफाली के आग्रह पर पुनः उस मूवी को देखने का लोभ संवरण नहीं कर पाई तथा उसका आग्रह स्वीकार कर लिया । उसकी सहमति पाकर शेफाली उसे तैयार होने का निर्देश देती हुई स्वयं भी तैयार होने चली गई । विशाल अपने एक निकटतम मित्र रविकांत के पुत्र के विवाह में गये थे । जाना तो वह भी चाहती थी पर उसी समय यहाँ भी उसकी सहेली की बेटी विवाह पड़ गया । विशाल ने कहा मैं रविकांत के पुत्र के विवाह में सम्मिलित होकर आता हँू तथा तुम यहाँ अपनी मित्र की पुत्री के विवाह में सम्मिलित हो जाओ, कम से कम किसी को शिकायत का मौका तो न मिले...वैसे भी उन्होंने हमारे सभी बच्चों के विवाह में आकर हमारा मान बढ़ाया था, इसीलिये दोनों जगह जाना आवश्यक है । विशाल के न होने के कारण अकेले बैठ कर बोर होती रहती या व्यर्थ हो आये सीरियलस में दिमाग खपाती रहती । अब इस उम्र में समय काटने के लिये इंसान करे भी तो क्या करे ? न चाहते हुए भी टी.वी. देखना एक मजबूरी सी बन गई है या कहिए मनोरंजन का एक सस्ता और सुलभ साधन यही रह गया है वरना आत्मकेंद्रित होती जा रही दुनिया में आज किसी के लिये, किसी के पास समय ही नहीं रहा है । वैसे भी आज जब अपने बच्चों को ही माता-पिता की परवाह नहीं रही है तो किसी अन्य से क्या आशा करना...? ऐसी मनःस्थिति में जी रही नमिता के लिये शेेफाली का आग्रह सुकून दे गया था अतः थोड़े नानुकुर के पश्चात् उसने उसका आग्रह स्वीकार कर लिया था । तैयार होते हुये अनायास ही मन अतीत की स्मृतियों में विचरण करने लगा । चार बच्चों के रहते वे दोनों एकाकी जिंदगी जी रहे हैं । एक बेटा शैलेश और बेटी निशा विदेश में, क्रमशः कनाडा और अमेरिका में हैं तथा दो विभव और कविता यहाँ मुंबई और दिल्ली में हैं...। दो बार विदेश जाकर शैलेश और निशा के पास भी वे रह आये थे लेकिन वहाँ की भाग दौड़ वाली जिंदगी उन्हें रास नहीं आई थी । विदेश की बात तो छोड़िये अब तो मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों का भी यही हाल है, वहाँ भी पूरे दिन ही अकेले रहना पड़ता था । आजकल तो जब तक पति-पत्नी दोनों न कमायें तब तक किसी का काम ही नहीं चलता है...भले बच्चों को आया के भरोसे या क्रेच में क्यों न छोड़ना पड़े !!! एक उनका समय था जब बच्चों के लिये इंसान अपना पूरा जीवन ही अर्पित कर दिया करता था पर आजकल तो युवाओं के लिये अपना कैरियर ही मुख्य है । माता-पिता की बात तो छोड़िये कभी-कभी तो उसे लगता है आज की पीढ़ी को अपने बच्चों की भी परवाह नहीं है । पैसों से वे उन्हें सारी दुनिया खरीद कर तो देना चाहते हैं पर उनके पास बैठकर, प्यार के दो मीठे बोल के लिये उनके पास समय नहीं है । बच्चों के पास मन नहीं लगा तो यहाँ बनारस अपने घर चले आये । जब विशाल ने इस घर को बनवाने के लिये लोन लिया था तब नमिता ने यह कहकर विरोध किया था कि क्यों पैसा बरबाद कर रहे हो, बुढ़ापे में अकेले थोड़े ही रहेंगे...चार बच्चे हैं वे भी हमें अकेले थोड़े ही रहने देंगे पर पिछले चार वर्ष इधर-उधर भटक कर अंततः अकेले रहने का फैसला कर ही लिया । किराये पर उठाया घर खाली कराकर रहने लायक बनवा लिया था । कभी बेमन से बनवाया घर अचानक बहुत अच्छा लगने लगा था । अकेलेपन की विभीषिका से मुक्ति पाने के लिये पिछले तीन महीने पूर्व घर का एक हिस्सा किराये पर दे दिया था । शशांक और शेफाली अच्छे सुसंस्कृत लगे, उनका एक छोटा बच्चा है । इस शहर में नये-नये आये थे । शशांक एक प्राइवेट कंपनी में काम करता है, उन्हें घर की आवश्यकता थी औैर हमें अच्छे पड़ोसी की, अतः रख लिया । अभी शशांक और शेफाली को आये हुए हफ्ता भर भी नहीं हुआ था कि एक दिन शेफाली ने आकर उनसे कहा, ‘आँटी अगर आपको कोई तकलीफ न हो तो बब्बू को आपके पास छोड़ जाऊँ, कुछ आवश्यक काम से जाना है, जल्दी ही आ जायेंगे ।’ उसका आग्रहयुक्त स्वर सुनकर पता नहीं क्यों वह मना नहीं कर पाई...उस बच्चे के साथ दो घंटे कैसे बीत गये पता ही नहीं चला । इस बीच न तो वह रोया न ही परेशान किया । उसने उसके सामने अपने पोते के छोड़े हुए खिलौने डाल दिये थे, वह उनसे ही खेलता रहा । उसके साथ खेलते और बातें करते हुए उसे अपने पोते विक्की की याद आ गई...वह भी लगभग इसी उम्र का है । उस बच्चे में वह अपने नाती, पोतों को ढँूढने लगी....उस दिन के बाद तो नित्य का क्रम बन गया, जिस दिन वह नहीं आता, वह स्वयं आवाज देकर उसे बुला लेती...बच्चा उन्हें दादी कहता तो मन भावविभोर हो उठता । धीरे-धीरे शेफाली भी उसके साथ सहज होने लगी थी । कभी कोई अच्छी सब्जी बनाती तो आग्रह पूर्वक उसे दे जाती । एक दिन उसने उसे अपने पैरों में दर्द निवारक दवा लगाते हुये देख लिया तो उसने उससे दवा लेकर आग्रहपूर्वक लगाई ही नहीं, नित्य का क्रम भी बना लिया । कभी-कभी वह उसके सिर की मालिश भी कर दिया करती थी । कभी-कभी उसे लगता इतना स्नेह तो उसे अपने बहू बेटों से भी नहीं मिला है, कभी वे उनके नजदीक भी आये तो सिर्फ इतना जानने के लिये कि उनके पास कितना पैसा है तथा कितना उन्हें मिलेगा !! शशांक भी आफिस से आकर उनका हालचाल अवश्य पूछता...बिजली, पानी और टेलीफोन का बिल वही जमा करा दिया करता था । यहाँ तक कि बाजार जाते हुए भी वह अक्सर उनसे पूछने आता कि उन्हें कुछ मँगाना तो नहीं है । उनके रहने से उनकी काफी समस्यायें हल हो गई थीं । कभी-कभी उसे लगता, अपने बच्चों का सुख तो उन्हें मिला नहीं पर इस बुढ़ापे में भगवान ने उनकी देखभाल के लिये इन्हें भेज दिया है । विशाल ने उसे कई बार चेताया कि किसी पर इतना विश्वास करना ठीक नहीं है पर वह उनको यह कहकर चुप करा दिया करती कि आदमी की पहचान है मुझे...ये सभ्रांत और सुशील हैं, अच्छे परिवार से हैं, अच्छे संस्कार मिले हैं वरना आज के युग में कोई किसी का इतना ध्यान नहीं रखता है । ‘ आँटीजी, आप तैयार हो गई, शशांक आटो ले आये हैं...।’ शेफाली की आवाज ने नमिता को विचारों के बबंडर से बाहर निकाला...आजकल न जाने क्या हो गया है, उठते-बैठते, खाते-पीते अनचाहे विचार आकर उसे परेशान करने लगते हैं । ‘ हाँ बेटी, बस अभी आई...।’ कहते हुए पर्स में कुछ रूपये यह सोचकर रखे कि मैं बड़ी हूँ , आखिर मेरे होते हुए मूवी के पैसे वे दें, उचित नहीं लगेगा । आग्रह कर मूवी की टिकट के पैसे उन्हें पकड़ाये...मूवी अच्छी लग रही थी । कहानी के पात्रों में वह इतना डूब गई कि समय का पता ही नहीं चला । इंटरवल होने पर उसकी ध्यानावस्था भंग हुई । इंटरवल होते ही शशांक उठकर चला गया तथा थोड़ी ही देर में पापकार्न तथा कोकाकोला लेकर आ गया । शेफाली और उसे पकड़ाते हुए यह कहकर चला गया कि कुछ पैसे बाकी हैं उन्हें लेकर आता हूँ । मूवी प्रारंभ होने भी नहीं पाई थी कि बच्चा रोने लगा... ‘ आँटी मैं इसे चुप कराकर अभी आती हूँ ।’ कहकर शेफाली भी चली गई । आधा घंटा हुआ, एक घंटा हुआ पर दोनों में से किसी को भी न लौटते देखकर मन आशंकित होने लगा....थोड़ी-थोड़ी देर बाद मुड़कर देखती पर फिर यह सोचकर रह जाती कि शायद बच्चा चुप न हो रहा हो, इसलिये वे दोनों बाहर ही रह गये होंगे । सच में छोटे बच्चों के साथ मूवी देखना कितना मुश्किल है, इसका एहसास है उसे... उसके स्वयं के बच्चे जब छोटे थे, तब टाफी, बिस्कुट सब लेकर जाने के बावजूद कभी-कभी इतना परेशान करते थे कि मूवी देखना ही कठिन हो जाता था । कभी-कभी तो उसे या विशाल को उनको लेकर बाहर ही खडे रहना पड़ जाता था...नतीजा यह हुआ कि उन्होंने कुछ वर्षो तक उन्होंने मूवी देखनी ही छोड़ दी थी । यही सोचकर अनचाहे विचारांे को झटक कर नमिता ने मूवी में मन लगाने का प्रयत्न किया...वह फिर कहानी के पात्रों में खो गई...अंत सुखद था पर फिर भी आँखें भर आई । आँखें पोंछकर वह इधर-उधर देखने लगी । इस समय भी शशांक और शेफाली को न पाकर वह सहम उठी । बहुत दिनों से वह अकेले घर से निकली नहीं थी अतः और भी डर लग रहा था । समझ में नहीं आ रहा था कि वे उसे अकेले छोड़कर कहाँ गायब हो गये ? बच्चा चुप नहीं हो रहा था तो कम से कम एक को तो अब तक उसके पास आ जाना चाहिए था । धीरे-धीरे हाल खाली होने लगा पर उन दोनों का कोई पता नहीं था । घबराये मन से वह अकेली ही बाहर चल पड़ी । हाल से बाहर आकर अपरिचित चेहरों में उन्हें ढूँढने लगी...धीरे-धीरे सब जाने लगे । अंततः एक ओर खड़ी होकर वह सोचने लगी कि अब वह क्या करे ? उनका इंतजार करे या आटो करके घर चली जाये...। ‘अम्मा, यहाँ किसका इंतजार कर रही हो....?’ उसको ऐसे अकेला खड़ा देखकर वाचमैन ने उनसे पूछा । ‘ बेटा, जिनके साथ आई थी, वह नहीं मिल रहे हैं ।’ ‘ आपके बेटा बहू थे...।’ ‘ हाँ...। ’ कुछ और कहकर वह बात का बतंगड़ नहीं बनाना चाहती थी । ‘ आजकल सब ऐसे ही होते हैं, बूढ़े माता-पिता की तो किसी को चिंता ही नहीं रहती है ।’ कहते हुये वह बुदबुदा उठा था । वह शर्म से पानी-पानी हो रही थी पर और कोई चारा न देखकर तथा उसकी सहानुभूति पाकर हिम्मत बटोर कर कहा,‘ बेटा, एक अहसान करेगा...।’ ‘ कहिए माँजी...।’ ‘ मुझे एक आटो रिक्शा लाकर दे दे...।’ उसने नमिता का हाथ पकड़कर सड़क पार करवाई और आटो में बिठा दिया । घर पहँुचकर जैसे आटो से उतर कर दरवाजे पर लगे ताले को खोलने के लिये हाथ बढ़ाया तो खुला ताला देखकर वह हैरानी में पड़ गई । वह हड़बड़ा कर अंदर घुसी तो देखा अलमारी खुली पड़ी है तथा सारा सामान जहाँ तहाँ बिखरा पड़ा है । लाखों के गहने और कैश गायब हैं....मन कर रहा था कि खूब जोर-जोर से रोये पर रोकर भी क्या करती ? उसे प्रारंभ से ही गहनों का शौक था जब भी पैसा बचता उससे वह गहने खरीद लाती । विशाल कभी उसके इस शौक पर हँसते तो कहती, ‘ मैं पैसा व्यर्थ नहीं गँवा रही हूँ , कुछ ठोस चीज ही खरीद रही हूँ ....वक्त पर काम आयेगी ।’ पर वक्त पर काम आने की बजाए उन्हें तो कोई और ही ले भागा । किटी के मिले पचास हजार उसने अलग से रख रखे थे । घर में कुछ काम करवाया था, कुछ होना बाकी था, उसके लिये कान्टक्टर को एडवांस देना था । विशाल ने किटी के रूपयों में से उसे देने के लिये कहा तो उसने यह कहकर मना कर दिया कि वह इससे अपने लिये कान की नई डिजाइन की लटकन खरीदेगी । कान्टक्टर को देने के लिये, जाने से पूर्व ही विशाल ने अस्सी हजार रूपये बैंक से निकलवाये थे...पर वायदा करने के बावजूद निश्चित तिथि पर वह न काम के लिये आया और न ही पैसे ही ले गया । यद्यपि पहले भी एक दो बार वह ऐसा कर चुका था । जब भी ऐसा होता, वह मजदूरों का रोना लेकर बैठ जाता कि काम करने के लिये मजदूर ही नहीं मिल रहे हैं । उसने अपनी सहेली की पुत्री के विवाह में पहनने के लिये लाकर से गहने निकलवाये थे पर विशाल के भी उसी समय विवाह में जाने के कारण वह उन्हें वापस नहीं रख पाई थी...सब एक झटके में चला गया । जहाँ कुछ देर पहले वह शशांक और शेफाली के बारे में सोच-सोचकर परेशान थी वहीं अब इस नई आई मुसीबत के कारण समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे ? फिर यह सोच कर कि शायद बच्चे के कारण शशांक और शेफाली अधूरी मूवी छोड़कर घर न आ गये हों, उन्हें आवाज लगाई । कोई आवाज न पाकर वह उस ओर गई, वहाँ उनका कोई सामान न पाकर अचकचा गई....खाली घर पड़ा था....बस उनका दिया पलंग और एक टेबल दो कुर्सी पड़ी थी । किचन का तो वैसे भी उनके पास ज्यादा सामान नहीं था...कपड़ों के अतिरिक्त बर्तन के नाम पर उनके पास एक कुकर, कड़ाही तथा दो प्लेट, कुछ कटोरी और ग्लास ही थे । राशन का सामान भी पोलीथीन की थैलियों में रखा देख एक बार उसने पूछा तो शेफाली ने झिझकते हुये कहा था,‘ आँटी, इनका नया जॉब है....ज्यादा कुछ खरीद नहीं पाये हैं, इन्हीं को धो-धोकर काम चला लेती हूँ ...।’ ‘ कोई बात नहीं बेटा, धीरे-धीरे सब आ जायेगा ।’ कहते हुये उसने उनका मनोबल बढ़ाया था । तो क्या यह सब उन्होंने किया...? अविश्वास से नमिता ने स्वयं से ही पूछा । उसे याद आया वह पल जब वह पडोसन राधा वर्मा के साथ विवाह में सम्मिलित होने के लिये निकल रही थी तब आदतन उसने शेफाली को आवाज लगाकर घर का ध्यान रखने के लिये कहा, तब उसने हसरत भरी नजर से उसे देखते हुए कहा था,‘ आँटी, बड़ा सुंदर हार है...।’ ‘ पूरे दो लाख का हीरा जड़ित हार है...।’ तब उसने बिना आगा पीछा सोचे स्त्रियोचित मानसिकता के साथ गर्व से कहा था । अब वह अपने बड़बोलेपन पर पछता रही थी । उन्हें कैश और जेवरों के बारे में सब पता था, तभी शायद उन्होंने यह साजिश रची थी । विश्वास न होने के बावजूद सारे सबूत उनकी ओर ही इशारा कर रहे थे । अब चोरी से भी ज्यादा दुख तो उसे इस बात का था कि जिन पर उसने विश्वास किया उन्हीं ने उसकी पीठ में खंजर भौंका । गलती उनकी नहीं उसकी थी जो विशाल के बार-बार समझाने के बावजूद वह उनकी मीठी-मीठी बातों में आ गई । अब पूरी तस्वीर एक दम साफ नजर आ रही थी... मूवी देखने का आग्रह करना, बीच में उठकर चले आना...सब कुछ उसके सामने चलचित्र की भाँति घूम रहा था । कितना शातिर ठग था वह...किसी को शक न हो इसलिये इतनी सफाई से पूरी योजना बनाई । उसे मूवी दिखाने ले जाना भी उसी योजना का हिस्सा था, उसे पता था कि विशाल घर पर नहीं है, इतनी गर्मी में कूलर एवं ए.सी.की आवाज में आस-पड़ोस में किसी को सुनाई देगा नहीं और वे आराम से अपना काम कर लेंगे तथा भागने के लिये भी समय मिल जायेगा । कहीं कोई चूक नहीं, शर्मिन्दगी या डर नहीं...आश्चर्य तो इस बात का था आदमी की पहचान का दावा करने वाली उसके अंदर की नमिता को, उनके साथ इतने दिन साथ रहने के बावजूद, कभी उन पर शक क्यों नहीं हुआ ? स्वयं को संयत कर विशाल को फोन किया...घटना की जानकारी देते हुये वह रोने लगी थी । उसे रोता देखकर उन्होंने उसे सांत्वना देते हुए पड़ोसी वर्मा के घर जाकर सहायता माँगने के लिये कहा । वह बदहवास सी बगल में रहने वाली राधा वर्मा के पास गई...राधा वर्मा को सारी स्थिति से अवगत कराया तो उसने कहा,‘ कुछ आवाजें तो आ रही थीं पर मुझे लगा कि शायद आपके घर में कुछ काम हो रहा है, इसलिये ध्यान नहीं दिया ।’ ‘ भाभीजी, अब जो हो गया सो हो गया, परेशान होने या चिंता करने से कोई फायदा नहीं है । वैसे तो चोरी गया सामान मिलता नहीं है पर कोशिश करने में कोई हर्ज नहीं है चलिये एफ.आई.आर दर्ज करा देते हैं ।’ वर्मा साहब ने सारी बातें सुनकर उससे कहा । पता नहीं वर्मा साहब की बातों में उसके लिये दुख था या व्यंग्य पर यह सोच कर रह गई कि जो सच है वही तो वह कह रहे हैं, अब ऐसे समय में दस लोगों की दस तरह की बातें तो सुननी ही पड़ेंगी...उनके साथ जाकर एफ.आई.आर. दर्ज करवाई । पुलिस इंस्पेक्टर ने नमिता के बयान को सुनकर कहा,‘ इस तरह के एक युगल की तलाश तो हमें काफी दिनों से है । कुछ दिन पहले हमने पेपर में सूचना भी निकलवाई थी तथा लोगों से सावधान रहने के लिये कहा था पर शायद आपने ध्यान नहीं दिया । वह कई जगह ऐसी वारदातें कर चुका है पर किसी का भी बताया हुलिया किसी से मैच नहीं करता शायद वह विभिन्न जगहों पर, विभिन्न वेशों में, विभिन्न नाम का व्यक्ति बनकर रहता है । वह कई भाषायें भी जानता है, क्या आप उसका हुलिया बता सकेंगी ? कब से वह आपके साथ रह रहा है ?’ नमिता को जो-जो पता था, उसकी सारी जानकारी पुलिस को दे दी...पुलिस ने जिस आफिस में वह काम करता था वहाँ जाकर पता लगाया तो पता चला कि इस नाम का कोई आदमी उनके यहाँ काम ही नहीं करता । उसकी बताई जानकारी के आधार पर बस स्टेशन और रेलवे स्टेशन पर भी उन्होंने अपने आदमी भेज दिये । पुलिस ने घर आकर मुआयना किया पर कहीं कोई सुराग नहीं मिल पाया यहाँ तक कि कहीं उनकी अँगुलियों के निशान भी नहीं पाये गये । ‘ लगता है यह वही युगल है जिसकी हमें तलाश है । बहुत ही शातिर चोर है पर कब तक बचेगा हमसे ? हम लोग कई बार सिविलियन से आग्रह करते हैं कि नौकर और किरायेदार रखते वक्त पूरी सावधानी बरतें । उसके बारे में पूरी जानकारी रखें...मसलन वह कहाँ काम करता है, उसका स्थाई पता, फोटोग्राफ इत्यादि...पर आप लोग तो समझते ही नहीं हैं...जब वारदात हो जाती है तब आते हैं ।’ इंस्पेक्टर ने आक्रोशित स्वर में कहा था । ‘ इंस्पेक्टर साहब, हमारा सामान तो मिल जायेगा ।’ इंस्पेक्टर की बातों को अनसुना कर नमिता ने पूछा । ‘ माँजी, कोशिश तो कर रहे हैं, आगे ईश्वरेच्छा...वैसे इतना कैश और जेवर घर में रखने की क्या आवश्यकता थी ? वह आपका किरायेदार था, इसका कोई प्रमाण है आपके पास...।’ ‘किरायेदार...इसका हमारे पास कोई प्रमाण नहीं है...।’ इन्कमटैक्स की पेचीदगी से बचने के लिये विशाल ने कोई एग्रीमेंट ही नहीं करवाया था । उनसे किराये की रसीद भी नहीं लेते थे । सच थोड़ी सी परेशानी से बचने के लियेे उन्होंने स्वयं को अपराधियों के हवाले कर दिया था । प्रारंभ में कुछ एडवांस देने के लिये अवश्य कहा था पर जब उन्होंने असमर्थता जताई, तो पता नहीं क्यों उनकी मजबूरी देखकर मन पिघल गया । उस समय यही लगा कि हमें पैसों की आवश्यकता तो है नहीं, हमें तो सिर्फ अपना सूनापन बाँटने या घर की रखवाली के लिये अच्छे लोग चाहिए । उनकी बातों से नफासत टपक रही थी । एक बच्चे वाला युगल था, संदेह की कोई बात ही नजर नहीं आई अतः ज्यादा जाँच पड़ताल किये बिना उन्हें रख लिया । उन्होंने जो बताया वही सच मान लिया, इंस्पेक्टर की बात सुनकर नमिता मन में सोचने लगी थी । ’ यही तो गलती करते हैं आप लोग...बिना एग्रीमेंट करवाये किरायेदार रख लेते हैं, एग्रीमेंट करवाया होता तो उसमें सब कुछ दर्ज हो जाता । अब किसी के चेहरे पर तो लिखा नहीं रहता कि वह शरीफ है या बदमाश...। वह तो गनीमत है कि आप सही सलामत हैं वरना ऐसे लोगों को अपने मकसद में कामयाब होने के लिये, किसी का खून भी करना पड़े तो पीछे नहीं रहते...।’ उसे चुप देखकर इंस्पेक्टर ने कहा । इंस्पेक्टर की कडुवी बातें सुनकर भी वह चुप रही, सचमुच परिस्थितियाँ कभी-कभी अच्छे भलों को बेवकूफ बना देतीं हैं भरे मन से घर लौट आई । दूसरे दिन विशाल भी आ गये...उन्हें देखकर वह रोने लगी । उसको रोते देखकर विशाल ने उससे कहा,‘ जब मैं कहता था कि किसी पर ज्यादा भरोसा नहीं करना चाहिए तब तुम मानती नहीं थीं । उन्हीं के सामने अलमारी खोलकर रूपयों निकालना, रखना सब तुम ही तो करती थीं...।’ ‘ मुझे ही क्यों दोष दे रहे हो, आप भी तो बैंक से पैसा निकलवाने के लिये चैक उसी को देते थे ।’ उसने झुँझलाकर उत्तर दिया था । कई दिन बीत गये पर उनका कोई सुराग नहीं मिला । कभी सोचती तो उसे एकाएक विश्वास ही नहीं होता था कि वह इतने दिनों तक झूठे और मक्कार लोगों के साथ रहती रही थी । वे ठग थे तभी तो पिछले चार महीने का किराया यह कहकर नहीं दिया था कि आफिस में कुछ प्राब्लम चल रही है अतः वेतन नहीं मिल रहा है । उसने भी यह सोचकर कुछ नहीं कहा कि लोग अच्छे हैं, पैसा कहाँ जायेगा, मिल ही जायेगा...वास्तव में उनका स्वभाव देखकर कभी लगा ही नहीं कि इनका इरादा नेक नहीं है । पर न जाने क्यों सब कुछ जानते बूझते हुए भी नमिता अब भी विश्वास नहीं कर पा रही थी कि दुनिया में उन जैसे दोमुंहा स्वभाव वाले, शालीनता का मुखौटा पहने लोग भी होते हैं । कितना शालीन और सौम्य व्यवहार था उनका ? जितना सेवा भाव शेफाली में था उतना ही शशांक में भी था । जब कभी वह अपने बेटे बहू से उनकी तुलना करती तो मन अजीब सा हो जाता था, समझ में नहीं आता था कि उनकी परवरिश में कहाँ कमी रह गई कि जो उनके बच्चों ने उन्हें एकदम भुला दिया है....वहीं इन अनजानों ने उन्हें वही प्यार और सम्मान दिया जो वह अपने बच्चों से पाना चाहती थी । क्या कोई किसी की इतनी सेवा या ख्याल रखने का नाटक कर सकता है ? वह तो यह सोच-सोच कर खुश होती रहीं थीं कि अभी भी ऐसे लोग इस धरा पर हैं जो अपने माता-पिता की तरह ही दूसरों का ख्याल रख सकते हैं पर इतने सौम्य चेहरों का इतना घिनौना रूप भी हो सकता है, कभी मन मस्तिष्क में भी नहीं आया था । मुँह में राम और बगल में छुरी वाला मुहावरा शायद ऐसे लोगों की फिदरत देखकर ही किसी ने ईजाद किया होगा । आश्चर्य तो इस बात का था इतने दिन साथ रहने के बावजूद उसे कभी उन पर शक नहीं हुआ । उसने अखबारों और टी.वी. में उनकी तरह अलग रह रहे वृद्धों के लूटे और मारे जाने की घटनायें पढ़ी और सुनी थी पर उसके साथ भी कभी कुछ ऐसा ही घटित होगा उसने सोचा ही न था । आज जब स्वयं पर पड़ी तो समझ में आया कि उन जैसे असुरक्षा की भावना से पीड़ित, बेगानों में अपनों को ढूँढते , वृद्धों को आसानी से बेवकूफ बना लेना ऐसे लोगों के लिये कितना आसान है...!! अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति हेतु इस हद तक गिर चुके लोगों के लिये यह मात्र खेल ही हो पर किसी की भावनाओं को कुचलते, तोड़ते-मरोड़ते, उनकी संवेदनशीलता और सदाशयता का फायदा उठाकर, उन जैसों के वजूद को मिटाते लोगों को जरा भी लज्जा नहीं आती !!! आखिर उन जैसे वृद्ध जायें तो जायें कहाँ....? क्या किसी को अपना समझना या उसकी सहायता करना अनुचित है...? किसी की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करते इन जैसे लोग यह क्यों नहीं सोच पाते कि एक दिन बुढ़ापा उनको भी आयेगा । वैसे भी उनका यह खेल आखिर चलेगा भी कब तक चलेगा....? क्या झूठ और मक्कारी पर खड़ी की गई दौलत पर वह सुकून से जी पायेंगे ? क्या संस्कार दे पायेंगे अपने नवांकुरों को...? घंटी की आवाज के साथ नमिता यह सोचकर उठी शायद काम वाली लीला आई होगी । दरवाजा खोलकर वह रमाकांत के कमरे में गई वह सो रहे थे । यह सोचकर वह चाय बनाने लगी कि अब उन्हें उठा ही देना चाहिये किन्तु फिर भी मन में चलता बबंडर उसे चैन नहीं लेने दे रहा था...बार-बार एक ही प्रश्न उसके मनमस्तिष्क को मथ रहा था...इंसान आखिर भरोसा करे भी तो किस पर करे ? जिसको अपना माना, अपना समझा, वही पीठ में छुरा भौंक दे, विश्वास का चीरहरण कर दे तो इंसान करे भी तो क्या करे...? सुधा आदेश

Saturday, June 15, 2019

कामयाब

कामयाब हमेशा जिंदादिल और खुशमिजाज रमा को अंदर आ कर चुपचाप बैठे देख चित्रा से रहा नहीं गया, पूछ बैठी, ‘‘क्या बात है, रमा…?’’ ‘‘अभिनव की वजह से परेशान हूं.’’ ‘‘क्या हुआ है अभिनव को?’’ ‘‘वह डिपे्रशन का शिकार होता जा रहा है.’’ ‘‘पर क्यों और कैसे?’’ ‘‘उसे किसी ने बता दिया है कि अगले 2 वर्ष उस के लिए अच्छे नहीं रहेंगे.’’ ‘‘भला कोई भी पंडित या ज्योतिषी यह सब इतने विश्वास से कैसे कह सकता है. सब बेकार की बातें हैं, मन का भ्रम है.’’ ‘‘यही तो मैं उस से कहती हूं पर वह मानता ही नहीं. कहता है, अगर यह सब सच नहीं होता तो आर्थिक मंदी अभी ही क्यों आती… कहां तो वह सोच रहा था कि कुछ महीने बाद दूसरी कंपनी ज्वाइन कर लेगा, अनुभव के आधार पर अच्छी पोस्ट और पैकेज मिल जाएगा पर अब दूसरी कंपनी ज्वाइन करना तो दूर, इसी कंपनी में सिर पर तलवार लटकी रहती है कि कहीं छटनी न हो जाए.’’ ‘‘यह तो जीवन की अस्थायी अवस्था है जिस से कभी न कभी सब को गुजरना पड़ता है, फिर इस में इतनी हताशा और निराशा क्यों? हताश और निराश व्यक्ति कभी सफल नहीं हो सकता. जीवन में सकारात्मक ऊर्जा लाने के लिए सोच भी सकारात्मक होनी चाहिए.’’ ‘‘मैं और अभिजीत तो उसे समझासमझा कर हार गए,’’ रमा बोली, ‘‘तेरे पास एक आस ले कर आई हूं, तुझे मानता भी बहुत है…हो सकता है तेरी बात मान कर शायद मन में पाली गं्रथि को निकाल बाहर फेंके.’’ ‘‘तू चिंता मत कर,’’ चित्रा बोली, ‘‘सब ठीक हो जाएगा… मैं सोचती हूं कि कैसे क्या कर सकती हूं.’’ घर आने पर रमा द्वारा कही बातें चित्रा ने विकास को बताईं तो वह बोले, ‘‘आजकल के बच्चे जराजरा सी बात को दिल से लगा बैठते हैं. इस में दोष बच्चों का भी नहीं है, दरअसल आजकल मीडिया या पत्रपत्रिकाएं भी इन अंधविश्वासों को बढ़ाने में पीछे नहीं हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो विभिन्न चैनलों पर गुरुमंत्र, आप के तारे, तेज तारे, ग्रहनक्षत्र जैसे कार्यक्रम प्रसारित न होते तथा पत्रपत्रिकाओं के कालम ज्योतिषीय घटनाओं तथा उन का विभिन्न राशियों पर प्रभाव से भरे नहीं रहते.’’ विकास तो अपनी बात कह कर अपने काम में लग गए पर चित्रा का किसी काम में मन नहीं लग रहा था. बारबार रमा की बातें उस के दिलोदिमाग में घूम रही थीं. वह सोच नहीं पा रही थी कि अपनी अभिन्न सखी की समस्या का समाधान कैसे करे. बच्चों के दिमाग में एक बात घुस जाती है तो उसे निकालना इतना आसान नहीं होता. उन की मित्रता आज की नहीं 25 वर्ष पुरानी थी. चित्रा को वह दिन याद आया जब वह इस कालोनी में लिए अपने नए घर में आई थी. एक अच्छे पड़ोसी की तरह रमा ने चायनाश्ते से ले कर खाने तक का इंतजाम कर के उस का काम आसान कर दिया था. उस के मना करने पर बोली, ‘दीदी, अब तो हमें सदा साथसाथ रहना है. यह बात अक्षरश: सही है कि एक अच्छा पड़ोसी सब रिश्तों से बढ़ कर है. मैं तो बस इस नए रिश्ते को एक आकार देने की कोशिश कर रही हूं.’ और सच, रमा के व्यवहार के कारण कुछ ही समय में उस से चित्रा की गहरी आत्मीयता कायम हो गई. उस के बच्चे शिवम और सुहासिनी तो रमा के आगेपीछे घूमते रहते थे और वह भी उन की हर इच्छा पूरी करती. यहां तक कि उस के स्कूल से लौट कर आने तक वह उन्हें अपने पास ही रखती. रमा के कारण वह बच्चों की तरफ से निश्ंिचत हो गई थी वरना इस घर में शिफ्ट करने से पहले उसे यही लगता था कि कहीं इस नई जगह में उस की नौकरी की वजह से बच्चों को परेशानी न हो. विवाह के 11 वर्ष बाद जब रमा गर्भवती हुई तो उस की खुशी की सीमा न रही. सब से पहले यह खुशखबरी चित्रा को देते हुए उस की आंखों में आंसू आ गए. बोली, ‘दीदी, न जाने कितने प्रयत्नों के बाद मेरे जीवन में यह खुशनुमा पल आया है. हर तरह का इलाज करा लिया, डाक्टर भी कुछ समझ नहीं पा रहे थे क्योंकि हर जांच सामान्य ही निकलती… हम निराश हो गए थे. मेरी सास तो इन पर दूसरे विवाह के लिए जोर डालने लगी थीं पर इन्होंने किसी की बात नहीं मानी. इन का कहना था कि अगर बच्चे का सुख जीवन में लिखा है तो हो जाएगा, नहीं तो हम दोनों ऐसे ही ठीक हैं. वह जो नाराज हो कर गईं, तो दोबारा लौट कर नहीं आईं.’ आंख के आंसू पोंछ कर वह दोबारा बोली, ‘दीदी, आप विश्वास नहीं करेंगी, कहने को तो यह पढ़ेलिखे लोगों की कालोनी है पर मैं इन सब के लिए अशुभ हो चली थी. किसी के घर बच्चा होता या कोई शुभ काम होता तो मुझे बुलाते ही नहीं थे. एक आप ही हैं जिन्होंने अपने बच्चों के साथ मुझे समय गुजारने दिया. मैं कृतज्ञ हूं आप की. शायद शिवम और सुहासिनी के कारण ही मुझे यह तोहफा मिलने जा रहा है. अगर वे दोनों मेरी जिंदगी में नहीं आते तो शायद मैं इस खुशी से वंचित ही रहती.’ उस के बाद तो रमा का सारा समय अपने बच्चे के बारे में सोचने में ही बीतता. अगर कुछ ऐसावैसा महसूस होता तो वह चित्रा से शेयर करती और डाक्टर की हर सलाह मानती. धीरेधीरे वह समय भी आ गया जब रमा को लेबर पेन शुरू हुआ तो अभिजीत ने उस का ही दरवाजा खटखटाया था. यहां तक कि पूरे समय साथ रहने के कारण नर्स ने भी सब से पहले अभिनव को चित्रा की ही गोदी में डाला था. वह भी जबतब अभिनव को यह कहते हुए उस की गोद में डाल जाती, ‘दीदी, मुझ से यह संभाला ही नहीं जाता, जब देखो तब रोता रहता है, कहीं इस के पेट में तो दर्द नहीं हो रहा है या बहुत शैतान हो गया है. अब आप ही संभालिए. या तो यह दूध ही नहीं पीता है, थोड़ाबहुत पीता है तो वह भी उलट देता है, अब क्या करूं?’ हर समस्या का समाधान पा कर रमा संतुष्ट हो जाती. शिवम और सुहासिनी को तो मानो कोई खिलौना मिल गया, स्कूल से आ कर जब तक वे उस से मिल नहीं लेते तब तक खाना ही नहीं खाते थे. वह भी उन्हें देखते ही ऐसे उछलता मानो उन का ही इंतजार कर रहा हो. कभी वे अपने हाथों से उसे दूध पिलाते तो कभी उसे प्रैम में बिठा कर पार्क में घुमाने ले जाते. रमा भी शिवम और सुहासिनी के हाथों उसे सौंप कर निश्ंिचत हो जाती. धीरेधीरे रमा का बेटा चित्रा से इतना हिलमिल गया कि अगर रमा उसे किसी बात पर डांटती तो मौसीमौसी कहते हुए उस के पास आ कर मां की ढेरों शिकायत कर डालता और वह भी उस की मासूमियत पर निहाल हो जाती. उस का यह प्यार और विश्वास अभी तक कायम था. शायद यही कारण था कि अपनी हर छोटीबड़ी खुशी वह उस के साथ शेयर करना नहीं भूलता था. पर पिछले कुछ महीनों से वह उस में आए परिवर्तन को नोटिस तो कर रही थी पर यह सोच कर ध्यान नहीं दिया कि शायद काम की वजह से वह उस से मिलने नहीं आ पाता होगा. वैसे भी एक निश्चित उम्र के बाद बच्चे अपनी ही दुनिया में रम जाते हैं तथा अपनी समस्याओं के हल स्वयं ही खोजने लगते हैं, इस में कुछ गलत भी नहीं है पर रमा की बातें सुन कर आश्चर्यचकित रह गई. इतने जहीन और मेरीटोरियस स्टूडेंट के दिलोदिमाग में यह फितूर कहां से समा गया? बेटी सुहासिनी की डिलीवरी के कारण 1 महीने घर से बाहर रहने के चलते ऐसा पहली बार हुआ था कि वह रमा और अभिनव से इतने लंबे समय तक मिल नहीं पाई थी. एक दिन अभिनव से बात करने के इरादे से उस के घर गई पर जो अभिनव उसे देखते ही बातों का पिटारा खोल कर बैठ जाता था, उसे देख कर नमस्ते कर अंदर चला गया, उस के मन की बात मन में ही रह गई. वह अभिनव में आए इस परिवर्तन को देख कर दंग रह गई. चेहरे पर बेतरतीब बढ़े बालों ने उसे अलग ही लुक दे दिया था. पुराना अभिनव जहां आशाओं से ओतप्रोत जिंदादिल युवक था वहीं यह एक हताश, निराश युवक लग रहा था जिस के लिए जिंदगी बोझ बन चली थी. समझ में नहीं आ रहा था कि हमेशा हंसता, खिलखिलाता रहने वाला तथा दूसरों को अपनी बातों से हंसाते रहने वाला लड़का अचानक इतना चुप कैसे हो गया. औरों से बात न करे तो ठीक पर उस से, जिसे वह मौसी कह कर न सिर्फ बुलाता था बल्कि मान भी देता था, से भी मुंह चुराना उस के मन में चलती उथलपुथल का अंदेशा तो दे ही गया था. पर वह भी क्या करती. उस की चुप्पी ने उसे विवश कर दिया था. रमा को दिलासा दे कर दुखी मन से वह लौट आई. उस के बाद के कुछ दिन बेहद व्यस्तता में बीते. स्कूल में समयसमय पर किसी नामी हस्ती को बुला कर विविध विषयों पर व्याख्यान आयोजित होते रहते थे जिस से बच्चों का सर्वांगीण विकास हो सके. इस बार का विषय था ‘व्यक्तित्व को आकर्षक और खूबसूरत कैसे बनाएं.’ विचार व्यक्त करने के लिए एक जानीमानी हस्ती आ रही थी. आयोजन को सफल बनाने की जिम्मेदारी मुख्याध्यापिका ने चित्रा को सौंप दी. हाल को सुनियोजित करना, नाश्तापानी की व्यवस्था के साथ हर क्लास को इस आयोजन की जानकारी देना, सब उसे ही संभालना था. यह सब वह सदा करती आई थी पर इस बार न जाने क्यों वह असहज महसूस कर रही थी. ज्यादा सोचने की आदत उस की कभी नहीं रही. जिस काम को करना होता था, उसे पूरा करने के लिए पूरे मनोयोग से जुट जाती थी और पूरा कर के ही दम लेती थी पर इस बार स्वयं में वैसी एकाग्रता नहीं ला पा रही थी. शायद अभिनव और रमा उस के दिलोदिमाग में ऐसे छा गए थे कि वह चाह कर भी न उन की समस्या का समाधान कर पा रही थी और न ही इस बात को दिलोदिमाग से निकाल पा रही थी. आखिर वह दिन आ ही गया. नीरा कौशल ने अपना व्याख्यान शुरू किया. व्यक्तित्व की खूबसूरती न केवल सुंदरता बल्कि चालढाल, वेशभूषा, वाक्शैली के साथ मानसिक विकास तथा उस की अवस्था पर भी निर्भर होती है. चालढाल, वेशभूषा और वाक्शैली के द्वारा व्यक्ति अपने बाहरी आवरण को खूबसूरत और आकर्षक बना सकता है पर सच कहें तो व्यक्ति के व्यक्तित्व का सौंदर्य उस का मस्तिष्क है. अगर मस्तिष्क स्वस्थ नहीं है, सोच सकारात्मक नहीं है तो ऊपरी विकास सतही ही होगा. ऐसा व्यक्ति सदा कुंठित रहेगा तथा उस की कुंठा बातबात पर निकलेगी. या तो वह जीवन से निराश हो कर बैठ जाएगा या स्वयं को श्रेष्ठ दिखाने के लिए कभी वह किसी का अनादर करेगा तो कभी अपशब्द बोलेगा. ऐसा व्यक्ति चाहे कितने ही आकर्षक शरीर का मालिक क्यों न हो पर कभी खूबसूरत नहीं हो सकता, क्योंकि उस के चेहरे पर संतुष्टि नहीं, सदा असंतुष्टि ही झलकेगी और यह असंतुष्टि उस के अच्छेभले चेहरे को कुरूप बना देगी. मान लीजिए, किसी व्यक्ति के मन में यह विचार आ गया कि उस का समय ठीक नहीं है तो वह चाहे कितने ही प्रयत्न कर ले सफल नहीं हो पाएगा. वह अपनी सफलता की कामना के लिए कभी मंदिर, मसजिद दौड़ेगा तो कभी किसी पंडित या पुजारी से अपनी जन्मकुंडली जंचवाएगा. मेरे कहने का अर्थ है कि वह प्रयत्न तो कर रहा है पर उस की ऊर्जा अपने काम के प्रति नहीं, अपने मन के उस भ्रम के लिए है…जिस के तहत उस ने मान रखा है कि वह सफल नहीं हो सकता. अब इस तसवीर का दूसरा पहलू देखिए. ऐसे समय अगर उसे कोई ग्रहनक्षत्रों का हवाला देते हुए हीरा, पन्ना, पुखराज आदि रत्नों की अंगूठी या लाकेट पहनने के लिए दे दे तथा उसे सफलता मिलने लगे तो स्वाभाविक रूप से उसे लगेगा कि यह सफलता उसे अंगूठी या लाकेट पहनने के कारण मिली पर ऐसा कुछ भी नहीं होता. वस्तुत: यह सफलता उसे उस अंगूठी या लाकेट पहनने के कारण नहीं मिली बल्कि उस की सोच का नजरिया बदलने के कारण मिली है. वास्तव में उस की जो मानसिक ऊर्जा अन्य कामों में लगती थी अब उस के काम में लगने लगी. उस का एक्शन, उस की परफारमेंस में गुणात्मक परिवर्तन ला देता है. उस की अच्छी परफारमेंस से उसे सफलता मिलने लगती है. सफलता उस के आत्मविश्वास को बढ़ा देती है तथा बढ़ा आत्मविश्वास उस के पूरे व्यक्तित्व को ही बदल डालता है जिस के कारण हमेशा बुझाबुझा रहने वाला उस का चेहरा अब अनोखे आत्मविश्वास से भर जाता है और वह जीवन के हर क्षेत्र में सफल होता जाता है. अगर वह अंगूठी या लाकेट पहनने के बावजूद अपनी सोच में परिवर्तन नहीं ला पाता तो वह कभी सफल नहीं हो पाएगा. इस के आगे व्याख्याता नीरा कौशल ने क्या कहा, कुछ नहीं पता…एकाएक चित्रा के मन में एक योजना आकार लेने लगी. न जाने उसे ऐसा क्यों लगने लगा कि उसे एक ऐसा सूत्र मिल गया है जिस के सहारे वह अपने मन में चलते द्वंद्व से मुक्ति पा सकती है, एक नई दिशा दे सकती है जो शायद किसी के काम आ जाए. दूसरे दिन वह रमा के पास गई तथा बिना किसी लागलपेट के उस ने अपने मन की बात कह दी. उस की बात सुन कर वह बोली, ‘‘लेकिन अभिजीत इन बातों को बिलकुल नहीं मानने वाले. वह तो वैसे ही कहते रहते हैं. न जाने क्या फितूर समा गया है इस लड़के के दिमाग में… काम की हर जगह पूछ है, काम अच्छा करेगा तो सफलता तो स्वयं मिलती जाएगी.’’ ‘‘मैं भी कहां मानती हूं इन सब बातों को. पर अभिनव के मन का फितूर तो निकालना ही होगा. बस, इसी के लिए एक छोटा सा प्रयास करना चाहती हूं.’’ ‘‘तो क्या करना होगा?’’ ‘‘मेरी जानपहचान के एक पंडित हैं, मैं उन को बुला लेती हूं. तुम बस अभिनव और उस की कुंडली ले कर आ जाना. बाकी मैं संभाल लूंगी.’’ नियत समय पर रमा अभिनव के साथ आ गई. पंडित ने उस की कुंडली देख कर कहा, ‘‘कुंडली तो बहुत अच्छी है, इस कुंडली का जाचक बहुत यशस्वी तथा उच्चप्रतिष्ठित होगा. हां, मंगल ग्रह अवश्य कुछ रुकावट डाल रहा है पर परेशान होने की बात नहीं है. इस का भी समाधान है. खर्च के रूप में 501 रुपए लगेंगे. सब ठीक हो जाएगा. आप ऐसा करें, इस बच्चे के हाथ से मुझे 501 का दान करा दें.’’ प्रयोग चल निकला. एक दिन रमा बोली, ‘‘चित्रा, तुम्हारी योजना कामयाब रही. अभिनव में आश्चर्यजनक परिवर्तन आ गया. जहां कुछ समय पूर्व हमेशा निराशा में डूबा बुझीबुझी बातें करता रहता था, अब वही संतुष्ट लगने लगा है. अभी कल ही कह रहा था कि ममा, विपिन सर कह रहे थे कि तुम्हें डिवीजन का हैड बना रहा हूं, अगर काम अच्छा किया तो शीघ्र प्रमोशन मिल जाएगा.’’ रमा के चेहरे पर छाई संतुष्टि जहां चित्रा को सुकून पहुंचा रही थी वहीं इस बात का एहसास भी करा रही थी, कि व्यक्ति की खुशी और दुख उस की मानसिक अवस्था पर निर्भर होते हैं. ग्रहनक्षत्रों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता. अब वह उस से कुछ छिपाना नहीं चाहती थी. आखिर मन का बोझ वह कब तक मन में छिपाए रहती. ‘‘रमा, मैं ने तुझ से एक बात छिपाई पर क्या करती, इस के अलावा मेरे पास कोई अन्य उपाय नहीं था,’’ मन कड़ा कर के चित्रा ने कहा. ‘‘क्या कह रही है तू…कौन सी बात छिपाई, मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है.’’ ‘‘दरअसल उस दिन तथाकथित पंडित ने जो तेरे और अभिनव के सामने कहा, वह मेरे निर्देश पर कहा था. वह कुंडली बांचने वाला पंडित नहीं बल्कि मेरे स्कूल का ही एक अध्यापक था, जिसे सारी बातें बता कर, मैं ने मदद मांगी थी तथा वह भी सारी घटना का पता लगने पर मेरा साथ देने को तैयार हो गया था,’’ चित्रा ने रमा को सब सचसच बता कर झूठ के लिए क्षमा मांग ली और अंदर से ला कर उस के दिए 501 रुपए उसे लौटा दिए. ‘‘मैं नहीं जानती झूठसच क्या है. बस, इतना जानती हूं कि तू ने जो किया अभिनव की भलाई के लिए किया. वही किसी की बातों में आ कर भटक गया था. तू ने तो उसे राह दिखाई है फिर यह ग्लानि और दुख कैसा?’’ ‘‘जो कार्य एक भूलेभटके इनसान को सही राह दिखा दे वह रास्ता कभी गलत हो ही नहीं सकता. दूसरे चाहे जो भी कहें या मानें पर मैं ऐसा ही मानती हूं और तुझे विश्वास दिलाती हूं कि यह बात एक न एक दिन अभिनव को भी बता दूंगी, जिस से कि वह कभी भविष्य में ऐसे किसी चक्कर में न पड़े,’’ रमा ने उस की बातें सुन कर उसे गले से लगाते हुए कहा. रमा की बात सुन कर चित्रा के दिल से एक भारी बोझ उठ गया. दुखसुख, सफलताअसफलता तो हर इनसान के हिस्से में आते हैं पर जो जीवन में आए कठिन समय को हिम्मत से झेल लेता है वही सफल हो पाता है. भले ही सही रास्ता दिखाने के लिए उसे झूठ का सहारा लेना पड़ा पर उसे इस बात की संतुष्टि थी कि वह अपने मकसद में कामयाब रही । सुधा आदेश