Wednesday, October 31, 2012

ऐसा कहर बरपाया

प्रकृति के तांडव से आज तक कोई नहीं बच पाया है...इंसान भले ही अपनी सफलताओ पर कितना ही क्यों न इतरा ले, पर क्या अपने सारे संसाधनों के बल प इस तरह की आपदाओ को रोक पाया है...नहीं...अपनी इस व्यथा को व्यक्त किया अपनी कविता... ऐसा कहर बरपाया... ऐसा कहर बरपाया प्रकृति का अजब खेल है निराला, ऐसा कहर बरपाया, कल तक थी जहाँ खुशियाँ, आज मातम वहाँ छाया... मौत के बीच सिसकती ज़िंदगी, आज खड़ी है दोराहे पर,< अपनों के लिए रोये या अपनी बदनसीबी पर,समझ कोई न पाया... डूबा बचपन, डूबी जवानी, डूब गई खुशियाँ सारी, जलभक्षक बना, विनाश का काला अध्याय खून से लिखाया... उजड़ गई बस्तियाँ लाशों के बिछे मंजर, ज्ञान विज्ञान सब पीछे छूटे, प्रकृति ने तांडव मचाया... आकाश,जल और धरा को बाँधकर, इतराता रहा मानव, एक झटके में तोड़कर गुरूर को उसके,बेबस बनाया... कुदरत के संग कर खिलवाड़, मसीहा बनने की कोशिश न करो, इंसा हो इंसा ही बने रहो, नियति तूने सबक सिखया...।