Friday, December 12, 2014
ये राजनेता
मै प्रधानमंत्री मोदी के द्वारा किए कुछ कार्यो की समर्थक हूँ...पहला योग...दूसरा स्वच्छता अभियान...मोदी जी ने संयुक्त राष्ट्रसंघ में योग को मानव जाति के लिए उपयोगी बताया था...कुछ हद तक उसी के परिणाम स्वरूप संयुक्त राष्ट्रसंघ ने 21 जनवरी को अंतर राष्ट्रीय योग दिवस घोषित कर दिया, इसके लिए 175 देशों का समर्थन मिला जबकि उनके अपने ही देश में उनके स्वच्छ भारत अभियान की कुछ लोग आलोचना कर रहे है...मुझे दुख हुआ जब राहुल गांधी ने कहा कि उन्होने आपके हाथ में झाड़ू पकड़ा दी और स्वयं ऑस्ट्रेलिया चले गये...आज एक बार फिर यू. पी. के मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव की टिप्पणी पढ़कर आश्चर्य चकित रह गई...उन्होने कहा...झाड़ू लगाने के लिए मुझे नोमिनेट कर दिया गया लेकिन मैंने कभी झाड़ू नहीं उठाई, क्या झाड़ू मैनीफेस्टो में थी ?
हद है राजनेताओं की...विरोध करना है तो क्या अच्छी बात का भी विरोध करेंगे...क्या अखिलेशजी आम जनसमाज से नहीं है...शायद नहीं तभी वह राजा-महाराजाओं जैसी बात कर रहे है...राजा –महाराजा तो चले गये पर उनकी जगह एक नई जमात पैदा हो गई है...क्या ऐसा कहकर वह सफाई कर्मचारियों को नीचा नहीं दिखा रहे...अगर एक दिन ये लोग कूड़ा न उठाये तो हालत होगी पृध्वी की ?
सफाई कर्मचारी तो पूरी दुनिया को साफ रखते है... क्या हम अपने घर और मुहल्ले का कूड़ा उचित स्थान पर डाल कर उनकी सहायता नहीं कर सकते...ये लोग स्वयं न करें पर लोगों को हतोत्साहित तो न करें...कुछ भी कहने से पूर्व दस बार सोचें क्योंकि वे राज नेता है उनकी बातों का लाखों करोड़ों लोगों पर असर होता है ।
मोदी जी ने कहा था कि अगर स्वच्छता अभियान जनांदोलन का रूप ले ले तो हमारा भारत भी दुनिया के अन्य देशों कि तरह साफ-सुधरा हो जाये...भारत में गंदगी है, यह बात सिर्फ विदेशी ही नहीं, विदेश से आने वाला हर भारतीय भी कहता है...यह वही भारतीय है जो विदेश में वहाँ के नियमों का अनुसरण कर विदेशी धरती साफ-सुथरी रखता है जबकि भारत आते ही वही पुरानी आदतें अपना लेता है...इंसान एक ही है पर विदेशी धरती पर उसकी आदतें कुछ है तथा अपनी धरती पर कुछ और...जब हम विदेशी धरती पर अपनी आदतों में सुधार ला सकते है तो अपनी धरती पर क्यों नहीं...।
Thursday, December 4, 2014
भाव शून्य है
मैंने लिखी है इबारत,
शब्द ही शब्द है, भाव शून्य है।
इंसा ही जब इंसा का गला काटे,
तब इंसा बुत न बने तो क्या करे...?
काश बुत बन पाती, दिल में दर्द तो न होता
कलाम न रुकती,भाव न चूकते ।
आँखों में नमी है,दिल में बेचेनी है
फिर भी लेखनी चलती नहीं है ।
दोष जमाने का नहीं, हमारा है
असहाय क्यों, टक्कर क्यों नहीं लेते ।
अन्याय का कर प्रतिकार, आगे बढ़ो...
सहना, रोना है कायरों का काम ।
होगा जिस दिन ऐसा,लेखनी न रुकेगी,
विश्वास होगा,आस होगी,चहुं ओर सौहार्द होगा ।
ख़्वाहिश
लहू के आँसू पीकर
तमाम उम्र गुजार दी,
अब तो बाग के फूल भी
कांटे बन चुभने लगे है ।
तिल-तिल जलें भी
तो आखिर कब तक,
ज़िंदगी, ज़िंदगी नहीं
सजा बन चुकी है ।
कहने को मिला है
सोने का महल...
पर कैद खाने
कम नहीं ।
जीना आसान नहीं
पढ़ा था किताबों में,
दुश्वार इतना होगा
समझ अब पाये है।
समझोता करते-करते
कब तक जिये हम,
आखिर कोई तो हो
जिसे अपना कह सकें हम।
नहीं मिली ज़िंदगी
मेरे साथ मेरे कर्म ,
पल भर मिली खुशी
संतुष्टि बने मेरी ।
शिकवा- शिकायतें भूल
लम्हा-लम्हा गुजरे
ज़िंदगी के
चंद दिन यूँ ही ।
अंतिम ख़्वाहिश यही,
न रहे बदले की भावना,
न रहे कोई चाहना
मुक्ति मिले निर्दोष दीप सी।
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