Monday, October 16, 2023

मेरी पुस्तक 'याद करें कुर्बानी ' की समीक्षा

 याद करें कुर्बानी : अमर सेनानियों की कुर्बानियों के मह्त्वपूर्ण दस्तावेज : सुधा आदेश। एक चर्चित नाम । मैंने जब लिखना शुरू किया था तब यह नाम देश भर की पत्र-पत्रिकाओं में छाया हुआ था। दशकों तक सुधा आदेश जी की लेखनी से श्रेष्ठ कहानियों का सृजन होता रहा और वे विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हो लोकप्रिय होती रही हैं। पिछले कुछ वर्षों से सुधा जी ने पत्र-पत्रिकाओं में लेखन कम कर दिया है और अपना ध्यान पुस्तकों के प्रकाशन पर केंद्रित कर रखा है। इसीलिए प्रतिवर्ष उनके कई कहानी संग्रह और उपन्यास सामने आते रहे हैं। पिछले वर्ष उन्होंने बाल साहित्य के क्षेत्र में भी पदार्पण किया था और उनका एक उपन्यास ‘मोबाइल में गांव’ काफी चर्चित हुआ था। हाल ही में उनका इतिहासकार के रूप में एक नया पक्ष सामने आया है। प्रलेक प्रकाशन द्वारा उनकी एक पुस्तक ‘याद करें कुर्बानी’ प्रकाशित की गई है जिसके दो खंडों में देश के आजादी के लिए अपने प्राण न्योछावर करने वाले अमर सेनानियों की गाथाएं संग्रहित की गई है। पहले खंड में 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के 11 सेनानियों की तथा दूसरे खंड में उन्नीसवीं शताब्दी के 11 क्रांतिकारियों की जीवन गाथाएं सम्मिलित है।


 मुझे नहीं याद आता कि इससे पूर्व सुधा आदेश जी ने इतिहास संबंधी कोई लेख भी लिखा हो। एक कहानीकार से इतिहासकार के रूप में उनकी यह यात्रा परकाया प्रवेश जैसी मालूम पड़ती है। खासकर इसलिए कि उन्होंने इस संग्रह में प्रत्येक सेनानी के जीवन के आरंभिक कल से उसके बलिदान तक के घटनाक्रमों के जो तथ्य प्रस्तुत किये हैं वे प्रमाणिकता की कसौटी पर खरे उतरते हैं। निश्चित रूप से इसके लिए उन्होंने गहन शोध किया होगा। पुस्तक के हाथ में लेते ही अंतर्मन में यह प्रश्न कौंधता है कि लेखिका का अचानक यह कायाकल्प कैसे और क्यों हो गया? किंतु पुस्तक की भूमिका की प्रथम पंक्ति में ही इस प्रश्न का उत्तर मिल जाता है? वे कहती हैं ‘कुछ वर्षों पूर्व जब अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर कुछ नवयुवकों ने देश के टुकड़े-टुकड़े करने की बात कही तब मेरा मन आंदोलित हो उठा। बार-बार मन में यही विचार आ रहा था कि आखिर इन नवयुवकों के मन मस्तिष्क में ऐसे भाव, ऐसी मानसिकता क्यों और कैसे उत्पन्न हुई?’’ इन्हीं प्रश्नों के उत्तर खोजने और वर्तमान पीढ़ी को सही मार्ग दिखाने के उद्देश्य से सुधा आदेश जी की लेखनी ने अमर सेनानियों की जीवनगाथाओं को इस पुस्तक में संजोने का बीड़ा उठाया ताकि युवा पीढ़ी उनकी कुर्बानियों को पढ़कर अंधेरे में भटकने के बजाय सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित हो सके।


  संग्रह की पहली जीवनी अंतिम मुगल शासक बहादुर साहब जफर की है जिसमें लेखिका ने उनके जीवन के कई अनछुए प्रसंगों को सामने लाने का प्रयास किया है। वे बताती हैं कि उनके पिता कवि हृदय बहादुर शाह ज़फ़र को दिल्ली की गद्दी सौंपना नहीं चाहते थे लेकिन अंततः उन्होंने शासन की बागडोर संभाली और 82 साल की उम्र में देश के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम का नेतृत्व भी किया। पुस्तक के इस भाग से पता चलता है कि इस अंतिम मुगल शासक की मृत्यु अंग्रेजों की कैद में किन विषम परिस्थितियों में हुई थी और आज उनके वंशज हमारे स्वतंत्र देश में झुग्गी-झोपड़ी में रहने के लिए मजबूर हैं।


 रानी लक्ष्मी बाई की वीरता और बलिदान की गाथा से तो सभी परिचित हैं किंतु उनकी हमशक्ल, महिला शाखा की सेनापति, झलकारी बाई की वीरता के बारे में कम ही लोग जानते हैं। सुधा जी ने अपनी पुस्तक में इन दोनों वीरांगनाओं के बारे में विस्तार से लिखा है। इसी प्रकार वीर सेनानी तांत्या टोपे के बारे में पाठ्यक्रमों में तो बहुत कुछ पढ़ाया जाता है लेकिन उनकी समकालीन तवायफ अजीजन बाई के बलिदान के बारे में लोगों को ज्यादा मालूम नहीं। अजीजनबाई ने तवायफों को एकत्रित कर ‘मस्तानी टोली’ नाम से एक सेना बनाई थी जिसने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था। कानपुर और बिठूर की आजादी में तात्या टोपे के साथ-साथ अजीजन बाई की वीरता का भी बहुत बड़ा योगदान था। सुधा जी की लेखनी ने इन दोनों के बारे में भी काफी विस्तार से लिखा है। 


  इसी के साथ-साथ पुस्तक के प्रथम खंड में उन्होंने बेगम हजरत महल, कोतवाल धन सिंह गुर्जर, नाना साहब,ऊदा देवी,मंगल पांडे तथा अवंतीबाई की जीवनी एवं उनके संघर्ष व बलिदान के बारे में काफी विस्तार से चर्चा की है। इससे पाठकों को अनेक ऐसी गाथाओं के बारे में पता चलता है जो इतिहास के पन्नों में खामोश हो कर दफन हो गई हैं।


 पुस्तक के द्वितीय खंड में उन्नीसवीं शताब्दी के 11 स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की जीवन गाथाएँ शमिल की गई हैं। जिनमे रामप्रसाद बिस्मिल, यतीन्द्र नाथ, सरदार भगत सिंह जैसे चर्चित वीरों के नाम शामिल है तो वही सुशीला देवी, प्रीतिलता वाडेकर, कल्पना दत्ता, महावीर सिंह जैसे उन शहीदों की जीवनियां भी शामिल की गई है जिनके बारे में लोगों को कम जानकारी है। सुधा जी ने उनके बलिदानो से आज की पीढ़ी को परिचित करवाने का पुनीत कार्य किया है इसके लिये उन्हें साधुवाद दिया जाना चाहिए।


  सामान्यतः पाठकों को इतिहास रटना पड़ता है किंतु सुधा आदेश मूल रूप से एक कहानीकार हैं अतः उन्होंने इतिहास की घटनाओं को श्रृंखलाबद्ध कर इस अंदाज़ में प्रस्तुत किया है कि पाठक एक बार जब उन्हें पढ़ना शुरू करता है तो उसमें डूबता चला जाता है और किसी चलचित्र की भांति सारी घटनाएं उसके अन्तर्मन में उभरती चली जाती हैं। यही कारण है कि इन अमर सेनानियों की बलिदान की गाथायें उन्हें देश प्रेम के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करती है।


  कुल मिलाकर इस पुस्तक का मूल्यांकन इतिहास के एक महत्वपूर्ण दस्तावेज के रूप में किया जाना चाहिए और इसके सृजन के लिए सुधा आदेश जी की जितने भी प्रसंशा की जाए वह कम है। यदि ऐसी पुस्तकें स्कूल के पाठ्यक्रमों में लगाई जा सकें तो उनकी उपयोगिता सार्थक हो सकेगी। मुझे विश्वास है कि सुधा जी की लेखनी से भविष्य में कोई ऐतहासिक उपन्यास अवश्य देखने को मिलेगा। उनमें इतिहास को सूचीबद्ध करने की क्षमता है और उनके तरकश में अभी कई तीर बाकी हैं यह इस पुस्तक के लेखन ने स्पष्ट कर दिया है। मैं उनकी इस पुस्तक की सफलता की मंगलकामना करता हूँ. । इस पुस्तक का प्रकाशन प्रलेक प्रकाशन ने किया है और इसकी कीमत 299 रुपये है।

 -संजीव जायसवाल ‘संजय’

Saturday, September 23, 2023

मानसिक दबाव और साहित्यकार

 विपरीत परिस्थितियों में बढ़ते मानसिक दबाव के बीच साहित्यकारों का दायित्व एवं देन...


 आज मानसिक दवाब से कोई भी अछूता नहीं है चाहे वह बाल हो ,किशोर हो ,युवा या वृद्ध । वास्तव में मानसिक दबाव आज जिंदगी का हिस्सा बनता जा रहा है क्योंकि भौतिकता की चकाचौंध की ओर अंधाधुंध भागते इंसान के लक्ष्य बड़े हैं पर  उनको पाने के साधन सीमित या प्रयास कम हैं ।   बड़ा लक्ष्य निर्धारित करना गलत नहीं है .. अगर लक्ष्य ही नहीं तो जीवन कैसा ?  लक्ष्य को हासिल करने के प्रयास में मानसिक दबाव उचित नहीं है क्योंकि यही मानसिक दबाव कभी-कभी अवसाद में परिणित हो जाता है । वैसे भी अत्यधिक मानसिक दबाव  व्यक्ति की लक्ष्य प्राप्ति में भी बाधक  बन जाता है ।


गीता में कहा गया है…


 कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेशु कदाचिन... कर्म पर हमारा अधिकार है पर फल पर नहीं .. .इस आदि मंत्र को अपना मूलमंत्र बनाकर कर्तव्य पथ पर निरंतर चलते रहना ही हर इंसान का प्रयत्न होना चाहिए । 


समाज में फैली कुरीतियों, अनाचारों, दुराचारों पर कलम चलाकर समाज को जाग्रत करने का साहित्यकारों का न केवल दायित्व है, वरन उनकी समाज को देन भी है।  देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार रचनाएं लिखकर साहित्यकारों ने अपने दायित्व का सदा निर्वाह किया है तथा कर भी रहे हैं । मानसिक दबाव से उत्पन्न विकारों को दर्शाते हुए, विपरीत परिस्थितियों  के बीच कार्य करने की क्षमता के विकास से संबंधित रचनाएं लिखकर समाज को नकारात्मक से सकारात्मकता की ओर अग्रसर होने के लिए प्रेरित करना, साहित्यकार का कर्तव्य है । आज की यही मांग है जो एक साहित्यकार के लिए चुनोती के रूप में उपस्तिथ  है । हमारा देश तभी उन्नति कर पायेगा जब उसके नागरिक, स्वस्थ तथा सकारात्मक रहें । यह तभी होगा जब उन्हें उच्चकोटि का साहित्य पढ़ने को मिले । उन्हें बताया जाय कि काम के अतिरिक्त कुछ दिन के कुछ घंटे उन्हें स्वयं के लिए तथा अपने परिवार के साथ बिताने चाहिए । आपकी उपलब्धियां नहीं, आपका परिवार ही बुरे वक्त में काम आएगा । भ्रमण तथा व्यायाम भी मानसिक सुदृढ़ी के आवश्यक है । जब तन-मन से खुश रहोगे तब कार्य भी सफलतापूर्वक संपन्न कर पाओगे ।


 मैं यहाँ श्री दुष्यंत कुमार की यह पंक्तियां उद्घृत करना चाहूँगी …


 कौन कहता है सुराख आसमाँ में हो नहीं सकता 

एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो ।


सच अगर लक्ष्य निर्धारित है, व्यक्ति समर्पित हैं, मन में विश्वास है , अपने प्रयासों के प्रति ईमानदार है तो लक्ष्य को हासिल करना मुश्किल नहीं है ।


यही बात सुप्रसिद्ध हस्ताक्षर कविवर रामधारी सिंह दिनकर की कविता में परिलक्षित होती है…


 गौण  अतिशय गौण है तेरे विषय में 

दूसरे क्या बोलते हैं , क्या सोचते हैं 

मुख्य है यह बात पर अपने विषय में 

तू स्वयं क्या सोचता क्या जानता है ।


 उल्टा समझे लोग समझने दे तू उनको 

बहने दे यदि बहती उल्टी ही बयार है 

आज ना तो कल जगत तुझे पहचानेगा ही 

अपने प्रति तू अगर आप ईमानदार है ।


सुप्रसिद्ध शायर इकबाल  का निज पर विश्वास का प्रतीक यह शेर भी व्यक्ति को सकारात्मकता का संदेश देता है ...


खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले 

खुदा बंदे से खुद पूछे कि बता तेरी रजा क्या है।


मत भूलिए


सफलता-असफलता एक ही 

सिक्के के दो पहलू

जो असफलता से न घबराए

सफलता से न बौराये

वही इतिहास बनाता है ।



सुधा आदेश





Thursday, September 14, 2023

हिन्दी अपनाइये, पहचान बनाइये

 



 हिन्दी अपनाइये, पहचान बनाइये 

हिन्दी दिवस के अवसर पर आज मैं लॉर्ड मैकाले की बात बताना चाहूँगी जो उन्होंने 2 फरवरी 1835 को ब्रिटेन की संसद में भारत के संदर्भ में कहा था,"भारत का विस्तृत भ्रमण करने पर मैंने पाया कि वहां एक भी व्यक्ति बेईमान नहीं है। लोगों के अंदर उच्च नैतिक आदर्श एवं चरित्र वहां के सामाजिक संरचना की पूंजी है जैसा कि मैंने और कहीं नहीं देखा। लोगों के मन में आध्यात्मिकता, धार्मिकता एवं अपनी सांस्कृतिक विरासत के प्रति अटूट आस्था है । वे बड़े मनोबली हैं। लोगों के आपसी विश्वास एवं सहयोग की भावनाओं को तोड़ें बिना, उन्हें भ्रष्ट किए बिना भारत को जीतना और उसपर शासन करना असंभव है। अतः मैं प्रस्ताव रखता हूँ कि नई शिक्षा नीति बनाकर वहां की प्राचीन शिक्षा प्रणाली एवं संस्कृति पर हमला किया जाए ताकि लोगों का मनोबल टूटे, वे विदेशी खासकर अंग्रेजी और अंग्रेजियत को अपनी तुलना में महान समझने लगें। तब वही होगा जैसा कि हम चाहते हैं। अपनी संस्कृति और स्वाभिमान को खोया हुआ भारत पूर्णतः गुलाम और भ्रष्ट भारत होगा।" 

अपनी योजना के अनुरूप मैकाले ने ‘अधोगामी निस्पंदन का सिद्धांत’ (Downward Filtration Theory) दिया। जिसके तहत, भारत के उच्च तथा मध्यम वर्ग के एक छोटे से हिस्से को शिक्षित करना था। जिससे, एक ऐसा वर्ग तैयार हो, जो रंग और खून से भारतीय हो, लेकिन विचारों और नैतिकता में ब्रिटिश हो। यह वर्ग सरकार तथा आम जनता के मध्य एक कड़ी की तरह कार्य करे।

मैकाले खुले तौर पर धार्मिक तटस्थता की नीति का दावा करते थे, लेकिन उसकी आंतरिक नीति का खुलासा वर्ष 1836 में अपने पिता को लिखे एक पत्र से होता है। जिसमें मैकाले ने लिखा है कि,”मेरा दृढ़ विश्वास है कि यदि हमारी शिक्षा की यह नीति सफल हो जाती है तो 30 वर्ष के अंदर बंगाल के उच्च घराने में एक भी मूर्तिपूजक नहीं बचेगा।” ( गुगुल से साभार)

और यह सच हुआ। 14 सितम्बर को हम हिन्दी को क़ब्र से खोदकर बाहर निकालते हैं तथा कुछ आयोजन कर उसके गुणगान कर फिर कब्र में गाड़ देते हैं। अगर ऐसा न होता तो विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली चौथी भाषा को हम राष्ट्र भाषा के स्थान पर सुशोभित नहीं कर पाते क्योंकि अंग्रेजी में पले बढे लोगों को अपने देश की भाषा उसकी संस्कृति से कोई लगाव हो ही नहीं सकता।


वे यह भूल जाते हैं कि किसी देश की पहचान जैसे उसका राष्ट्रध्वज होता है, वैसे ही उसकी राष्ट्रभाषा होती है। अफ़सोस तो तब होता है ज़ब कोई विदेशी हमसे हिन्दी में बात करता है तो हम उसका उत्तर अंग्रेजी में देते हैं। आज अंग्रेजी पढ़े लिखों की भाषा तथा हिन्दी अनपढ़ो की भाषा मानी जाती है। अगर हमने अपनी मानसिकता नहीं बदली तो कितने भी हिन्दी दिवस मना लें, हिन्दी भाषा की स्थिति में कोई सुधार नहीं होने वाला।

अगर आपको अपनी और अपने देश की पहचान बनानी है तो आपको इसे स्वयं तो अपनाना होगा ही, दूसरों को भी अपनाने के लिए प्रेरित करना होगा। दशकों पूर्व भाषा के महत्व को समझाते हुए प्रसिद्ध साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी ने लिखा था।


निज भाषा उन्नति अहै,

             सब भाषा को मूल॥

बिनु निज भाषा ज्ञान के,

           मिटे न हिय को शूल॥


आप चाहे जितनी भी भाषाएं सीखिए, बोलिये पर अपनी मातृ भाषा को मत भूलिए, अपनी पहचान न भूलिए।


जय हिन्दी, जय भारत


 हिन्दी दिवस की शुभकामनाएं

🌹🌹





        ©सुधा आदेश 

 




Friday, June 2, 2023

एक प्रश्न


राहुल गाँधी देश के बाहर भी देश के लोकतान्त्रिक स्वरुप पर अंगुली उठा रहे हैं। पता नहीं उन्हें नरेन्द्र मोदी से नफरत है या उन्हें भारत का विकास अच्छा नहीं लग रहा है। देश से प्यार करने वाला कभी भी भारत जाकर देश की संस्थाओं की बुराई नहीं करेगा।

उनकी भारत जोड़ो यात्रा में भी राहुल गांधी का बार -बार सेना को दोष देना, आरएसएस तथा मोदी के दो दोस्तों को कोसना…वह भी ऐसे दोस्त जो लाखों करोड़ों को रोजगार दे रहे हैं, भारत की प्रगति में जिनका अमूल्य योगदान है को पिछले साथ वर्षों से कोसना समझ से परे है। इसके साथ ही पकोड़े बनाकर अपनी जीविका चलाने वालों के प्रति भी असंवेदनशील रवैया अपनाना क्या उचित है। उनका तथा उनके पेशे को. लांक्षित करना तो उचित नहीं, किन्तु जो चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुए हों वे श्रम का. महत्व क्या जाने। शायद वे नहीं जानते कि इन मेहनतकश इंसानों में वह ताकत है कि वे रेत को भी सोना बना सकते हैं।


 जहाँ तक रोजगारी और मंहगाई का प्रश्न है वह सिर्फ भारत में ही नहीं पूरी दुनिया ही उससे परेशान है। समस्या का हल सुलझाने की बजाय सात वर्षों से वे एक ही रट लगाए हुए हैं। 


Wednesday, March 1, 2023

अन्चीहीं

 

अन्चीहीं


नीलांजना आज बेहद प्रसन्न थी। आज उसकी बेटी दिव्यांका एवं दामाद दीपेश विवाह के पश्चात् पहली बार घर आ रहे हैं। हफ्ते भर के लिये विभिन्न तरह के नाश्ते बनाकर रखने के साथ, आज रात्रि के खाने के लिये उसने दिव्यांका की पसंद की उड़द दाल की कचौड़ी, पनीर बटर मसाला की सब्जी के साथ, दीपेश की पसंद की आलू गोभी की सब्जी, दही बड़ा, वेजीटेबिल पुलाव तथा फ्रूट कस्टर्ड बनाने का भी इंतजाम किया है। दिव्यांका का कमरा भी उसकी  मनपसंद गुलाबी रंग की फूलदार चादर बिछाने के साथ,गुलाबी रंग के ही टॉवल बाथरूम में रख दिये हैं। यहाँ तक कि माली से बगीचे से गुलाबी रंग के गुलाब मँगाकर, उन्हें गुलदस्ते में सजाकर उसके कमरे के खिड़की के पास रखी मेज पर रख आई है।

दीपेश तो दो दिन रहकर चला जायेगा पर दिव्यांका पूरे एक हफ्ते रूकेगी। हनीमून के लिये वे पंद्रह दिन के यूरोप टूर पर गये थे। यद्यपि दिव्यांका जहाँ-जहाँ गई थी उन जगहों की फोटो वह उसके वाट्सअप पर भेजती रही थी किन्तु वह हर जगहों के अनुभवों  को उसके मुख से सुनना तथा उसकी आवाज की खुशी को महसूस कर, यह जानना चाहती है कि वह दीपेश के साथ खुश है या नहीं...। वैसे उसकी दीपेश के साथ दोस्ती दो वर्ष पुरानी है। उन्होंने दो वर्ष डेटिंग कर, एक दूसरे को समझकर, जीवन साथ बिताने का निर्णय किया है किन्तु विवाह के पूर्व स्त्री पुरूष सिर्फ प्रेमी रहते हैं जबकि विवाह के पश्चात् कर्तव्यों के मकड़जाल में फंसे, घर बाहर की जिम्मेदारी संभालते सिर्फ पति पत्नी...। एक माँ के रूप में वह जानना चाहती है कि पति बनने के पश्चात् दीपेश वैसा ही है या बदल गया है। 

अरे ! तुम भी क्या सोचने लगीं...। अभी तो महीना भर नहीं हुआ उनके विवाह को...और तुम सोलहवीं सदी की माँ  की तरह ससुराल से आई बेटी से खोद-खोदकर पूछने की सोच रही हो कि वह अपने इस रिश्ते से खुश है या नहीं...पर मन में विचारों का सैलाब थमने का नाम ही नहीं ले रहा था...    

चार वर्ष पश्चात् यह उसका पहला अवसर होगा जब दिव्यांका उसके पास इतने दिन रहेगी वरना जॉब के कारण उसे छुट्टी ही नहीं मिल पाती थी । वह घर भी आती थी तो वर्क फ़्रोम करते हुए व्यस्त ही रहा करती थी। आजकल आई.टी. वालों की यही तो मुश्किल है कहीं भी रहो टारगेट पूरा करने के लिये दिन रात लगे ही रहना पड़ता है। इस बार उसने विवाह के लिये महीने भर की छुट्टी ली है तथा अपने बॉस शलभ से भी कह दिया कि प्लीज सर, मुझे इस बीच कोई काम मत दीजियेगा। बॉस उसके काम से खुश था अतः उसने उसकी समस्या को समझते हुये, इस बार पूरी तरह से  आफिस के काम से दूर रखने की उसकी इच्छा को मान लिया था ।

दिव्यांका उसकी बेटी अवश्य है पर उसने सदा उससे मित्रवत व्यवहार रखा है। यही कारण था कि जब उसकी दीपेश से जान पहचान हुई तब भी उसने उससे कुछ नहीं छिपाया। उनकी डेटिंग  को एक वर्ष हो गया तब एक दिन उसने दिव्यांका से कहा था,  “बेटा, जब वह तुझे प्रपोज नहीं कर रहा है तब तू ही उससे पूछ ले, कहीं वह तुझे धोखा तो नहीं दे रहा है।” 

“ममा, मैं क्यों पूछूँ ? जब उसे हड़बड़ी नहीं है तो मैं क्यों अपनी बेसब्री दिखाऊँ । वैसे भी कुछ दिन हम एक दूसरे को और समझ लें फिर निर्णय लेंगे।” 

वह दीपेश से मिल चुकी थी । घर परिवार अच्छा था अतः उसे तथा नीरज को भी उनकी दोस्ती पर कोई आपत्ति नहीं थी किन्तु फिर भी माँ का दिल दिव्यांका से कह ही बैठा...

“बेटा, दोस्ती तक तो ठीक है पर उसके आगे मत बढ़ना, तुझे तो पता है हमारा समाज लड़के के अवगुणों पर ध्यान नहीं देता लेकिन अगर लड़की से भूल हो गई तो उसे सारी जिंदगी ताने सुनने को मिलते हैं ।” 

“माँ, हम अपनी जिम्मेदारी समझते हैं । हम ऐसा कुछ नहीं करेंगे जिससे आपकी बदनामी हो।”   

नीलांजना को अपनी बेटी पर पूर्ण विश्वास था। वे रूढ़िवादी नहीं थे। बच्चों को ज्यादा रोकना-टोकना उनके स्वभाव में नहीं था। उसका मानना था कि अगर बच्चों की कोई बात गलत लगे तो प्यार से समझाओ न कि डाँट-डपट कर। ज्यादा डाँटने से बच्चे सुधरते नहीं वरन् बिगड़ते ही हैं। उसने और नीरज ने बच्चों को सदा स्वतंत्र निर्णय के लिये प्रेरित किया। वे जानते थे कि  इससे न केवल बच्चों में आत्मविश्वास की वृद्धि होगी वरन् जीवन के रणसमर में आने वाली चुनौतियों का सामना भी भली प्रकार कर पायेंगे। समय के साथ चलना और स्वयं को बदलना उनके लिये ही नहीं हर इंसान के लिये श्रेयस्कर है तभी बच्चों के साथ तारतम्य बिठाया जा सकता है  किन्तु बच्चों को ऊँच-नीच समझाना माता-पिता को कर्तव्य ही नहीं, दायित्व भी है ।




अपनी इसी सोच के कारण उसने रात का खाना एक साथ बैठकर, बातें करते हुये खाने का नियम बना रखा था जिससे हम कुछ उनकी सुन सकें तथा कुछ अपनी सुना सकें। उनकी डायनिंग टेबिल सिर्फ खाने की टेबिल मात्र नहीं वरन् सभी सदस्यों के मिलन स्थल के साथ संवाद स्थल भी है। जहाँ वे खाना खाने के साथ, अपने दिन भर के अनुभव शेयर किया करते हैं शायद इसीलिये उसके दोनों बच्चे दिव्यांका और दिव्यांशु उससे अपने मन की हर बात कह लेते हैं। लगभग दो वर्ष की डेटिंग के पश्चात्, दीपेश ने जब उसे प्रपोज किया तब सबसे पहले दिव्यांका ने उसे ही बताया था। उन्होंने भी उसकी इच्छा का सम्मान करते हुये दोनों का विवाह धूमधाम से कर दिया था। आज बेटी दामाद के पहली बार घर आने पर वह बेहद खुश थी। 

दिव्यांका के स्वागत की इतनी उत्सुकता देखकर, उसके पुत्र दिव्यांशु ने भी उसे कहा था, “ ममा, आप तो दीदी के स्वागत की तैयारी ऐसे कर रहीं हैं जैसे दीदी-जीजू नहीं कोई वी.वी.आई.पी. आ रहे हैं।”

दिव्यांशु की बात सुनकर वह मुस्कराकर रह गई थी। अब वह उससे क्या कहती कि माँ के लिये पहली बार ससुराल से आती बेटी के लिये कैसी भावनायें होती हैं !! तू नहीं समझ पायेगा एक माँ का दिल...पुत्री से जुड़ाव...दिल पर पत्थर रखकर बेटी को विदा करती है माँ । आज जब वह कुछ दिनों के लिये आ रही है तब मैं उस पर अपनी सारी ममता उड़ेलना चाहती हूँ । वैसे भी दिव्यांशु की सदा से शिकायत रही थी कि मैं दिव्यांका को उससे ज्यादा चाहती हूँ । पता नहीं क्यों और कैसे उसे लगता था कि मैं दिव्यांका को कुछ नहीं कहती हूँ, बस उसे ही जब-तब टोकती-रोकती  रहती हूँ। हाँ, यह अवश्य है लड़की होने के कारण तीज त्यौहारों पर दिव्यांका की शापिंग उसकी तुलना में थोड़ी ज्यादा हो जाया करती थी। उसका यह दोषारोपण तब बंद हुआ जब दिव्यांका जॉब  करने मुंबई  चली गई ।    

अभी वह सोच ही रही थी कि नीरज आफिस के लिये तैयार होकर आ गये। उसने उन्हें नाश्ता परोसते हुये कहा,“दिव्यांका और दीपेश  की शाम चार बजे की फ्लाइट है। मैं उन्हें लेने जाऊँगी।”

“अरे, दिव्यांका ने कहा तो है कि वे कैब से आ जायेंगे । तुम क्यों परेशान होती हो?”  

“उसके कहने से क्या होता है...!! विवाह के पश्चात् वह पहली बार दीपेश के साथ घर आ रही है । हममें से किसी को तो उसे लेने जाना ही चाहिये।”

“तुम जैसा चाहो करो...आज मेरी अर्जेन्ट मीटिंग है, मैं छह बजे से पहले नहीं आ पाऊँगा।”

“हम छह बजे से पहले आ ही जायेंगे, अगर नहीं आ पाये तो घर की चाबी तो है ही आपके पास।”

“वह तो मुझे रखनी ही पड़ती है, पता नहीं तुम्हें कब कहाँ जाना पड़ जाये।” नीरज ने मुस्कराकर उठते हुये कहा।

नीलांजना ने नीरज के आरोप का कोई उत्तर नहीं दिया...वह बेवजह बात नहीं बढ़ाना चाहती थी। बच्चों के बड़े होने तथा नीरज के व्यस्त होने के कारण वह अपनी खुशी अपनी दोस्तों, किटी पार्टी में ढूँढने लगी है...। कभी देर हो ही जाती है।  बस यही बात नीरज के लिये ताना मारने के लिये काफी है किंतु इसके साथ ही वह इस बात को भूल जाते हैं कि उनकी अतिव्यस्तता के कारण, उनकी पत्नी ने घर बाहर की सारी जिम्मेदारी उठा रखी हैं। बच्चों की पढ़ाई, घर के राशन से लेकर बिजली का बिल, हाउस टैक्स, पानी का बिल वही तो भरती है। वह क्रेडिट एवं डेबिट कार्ड उसे थमाकर निश्चिन्त हो गये हैं । इस सबके बावजूद उसके आने में जरा सी देर होने पर उनकी भृकुटियों में बल पड़ना आम बात है। अब तो उसने इन सब बातों पर ध्यान देना ही बंद कर दिया है। सच जो बातें दिल को दुखी करें उनके बारे में क्यों सोचना !! वैसे भी इन छोटी-छोटी बातों के अतिरिक्त नीरज में कोई कमी नहीं है । वह उसे बेहद प्यार करते हैं । सच तो यह है कि थोड़ी नोक-झोंक के साथ प्रेम की चाशनी में डूबा उनका प्यार, खट्टे-मीठे रिश्ते का अहसास कराता हुआ अनमोल है। यही कारण है कि वह नीरज के बिना रहने की कल्पना भी नहीं कर सकती है । 

नीरज के आफिस तथा दिव्यांशु के कालेज जाने के पश्चात् नीलांजना ने अपना मनपसंद जगजीत सिंह की गजल का कैसेट लगा लिया तथा जल्दी-जल्दी रात्रि के खाने की तैयारी करने लगी । गाने सुनते-सुनते काम करने से उसे थकान नहीं होती थी। गाने उसके लिये हीलिंग थेरेपी हैं। देखते ही देखते तीन बज गये। फ्लाइट राइट टाइम थी। उसने जल्दी से घर बंद किया तथा कार निकालकर एअरपोर्ट के लिये चल दी।

नियत समय पर दिव्यांका और दीपेश आ गये...

“हाय ममा...।” कहकर दिव्यांका उसके गले से लग गई वहीं दीपेश ने उसके पैर छूकर अभिवादन किया।



दिव्यांका की आवाज में खुशी तथा चेहरे पर संतुष्टि पाकर उसका मन खिल उठा। बातें करते-करते एक घंटे का सफर कैसे निकल गया पता ही नहीं चला। घर के आहते में गाड़ी पार्क की ही थी कि नीरज और दिव्यांशु बाहर आ गये।  हाय हैलो के पश्चात् दिव्यांशु ने कार की डिक्की से सामान निकाला तथा लेकर चलने लगा। दीपेश ने जब उससे सामान लेना चाहा तो उसने विनम्रता से कहा, “जीजाजी आप मेहमान हैं।  आज मुझे अपनी सेवा को अवसर दें।”  कहकर उसने नीरजा की ओर देखा...मानो पूछ रहा हो ममा, मैं ठीक कर रहा हूँ  न । 

दिव्यांशु ने सामान उनके कमरे में रख दिया । दीपेश तो दिव्यांशु के साथ कमरे में गये किन्तु दिव्यांका उसके साथ ही किचन में लग गई। दिव्यांशु और दीपेश के आते ही गर्मागर्म चाय के साथ उसने खस्ता कचौड़ी और अन्य सामान परोस दिया।

“खस्ता कचौड़ी आपने बनाई हैं!! बहुत ही टेस्टी हैं।”  एक टुकड़ा खाकर दीपेश ने उसकी ओर देखते हुये पूछा।  

“माँ, बहुत अच्छी खस्ता कचौड़ी  बनाती हैं।” दिव्यांका ने कहा।

नीरज यद्यपि दीपेश से पहले भी मिल चुके थे पर आज जितनी बातें पहले नहीं हुई थीं। देश विदेश के साथ और भी अन्य तरह की बातें होतीं रहीं। वे बेहद खुश थे। यही हाल दिव्यांशु का था। जब दिव्यांका अपने यूरोप टूर के बारे में बता रही थी तब दिव्यांशु ने कहा, “दीदी आपने इतनी अच्छी तरह हमें अपने ट्रिप  के बारे में बताया कि मुझे लग रहा है कि आपके साथ मैं भी यूरोप घूमकर आ रहा हूँ।”

जब दिव्यांका ने उसे यूरोप से उसके लिये खरीदा शर्ट और जींस के साथ परफ्यूम दिया तो वह खुशी से उछल ही पड़ा। वह उसके लिये भी एक पर्स तथा अपने पापा के लिये शर्ट लेकर आई थी। खाने का समय हो गया अतः नीलांजना खाना परोसने लिये उठी। उसे उठते देखकर दीपेश और दिव्यांका खाने के लिये मना करने लगे। 

“बेटा, जितना मन हो खा लो। तुम्हारी ममा ने बहुत मन से बनाया है।” उनकी आनाकानी सुनकर नीरज ने कहा।  

खाने में अपनी मनपसंद का खाना देखते ही दोनों के चेहरे खिल उठे। थोड़ी देर पहले खाने के लिये मना करने वाले दीपेश और दिव्यांका ने मन से खाना खाया। दीपेश तो हर चीज की प्रशंसा कर रहा था। उसे ऐसा करते देखकर नीरजा को बहुत अच्छा लग रहा था वरना चाहे जितना ही अच्छा खाना बना लो, पुरूषों के मुख से प्रशंसा के दो शब्द  निकलते ही नहीं हैं। खाते-पीते बातें करते हुये रात के ग्यारह बज गये। अंततः सब आराम करने के लिये उठ गये।

“माँ आपने अकेले इतना सब किया थक गई होंगी।” दिव्यांका ने रात्रि में किचन सिमटवाते हुये उससे कहा।

“बेटा, बच्चों के लिये कुछ भी करने में माँ कभी नहीं थकती । जब तू माँ बनेगी तब मेरी बात को समझ पायेगी।”

“माँ मुझे अभी इस झंझट में नहीं पड़ना...मुझे अभी जिंदगी जी लेने दो।” दिव्यांका ने कहा।   

“ठीक है बेटा... जैसा तुम्हारा मन हो करना पर यह मत भूलना समय पर ही सब अच्छा लगता है...। मातृत्व से ही स्त्री के स्त्रीत्व को पूर्णता मिलती है । खैर इन बातों को छोड़, तू खुश तो है न।” नीलांजना ने उसकी आँखों में देखते हुये कहा।

“हाँ माँ...मैं दीपेश के साथ बहुत खुश हूँ। वह बहुत केयरिंग है...सबसे बड़ी बात यह रही कि  इन दिनों हमें कोई काम का कोई टेंशन नहीं रहा।” 

“हर वक्त काम ही काम...सच आज की पीढ़ी तो जाना ही भूल गई है।” नीलांजना ने गहरी श्वास लेते हुये कहा।  

“ममा, एक बात कहूँ, आप बुरा तो नहीं मानेंगी।” 

“तेरी बात का कभी बुरा माना है जो आज मानूँगी...कह, क्या कहना चाहती है।”

“ममा, हमारा प्रोग्राम थोड़ा चेंज हो गया है। दीपेश की माँ की तबियत ठीक नहीं चल रही है। दीपेश ने मुझसे कुछ कहा तो नहीं है किन्तु मुझे लगता है मुझे भी दीपेश के साथ उसके घर जाना चाहिये। तुम तो जानती ही हो वह अकेली रहतीं हैं। अब उस घर के प्रति मेरी भी जिम्मेदारियाँ हैं। अगर आवश्यकता हुई तो हम उन्हें अपने साथ मुंबई  ले जायेंगे।” 

“क्या...? मैं तो सोच रही थी कि तू पंद्रह दिन मेरे पास रूकेगी...। हम खूब घमेंगे फिरेंगे...ढेरों बातें करेंगे।”  नीलांजना स्थिति की गंभीरता को समझे बिना कह गई।

“चाहती तो मैं भी थी ममा, पर क्या करूँ परिस्थितियाँ ही कुछ ऐसी निर्मित हो गईं हैं...। सॉरी ममा, मैं फिर आपके पास आकर रहूँगी । वैसे भी आप ही तो कहा करती हैं कि विवाह के पश्चात् लड़की के लिये ससुराल फ़र्स्ट होनी चाहिये तथा मायका बाद में।” कहते हुये दिव्यांका ने उसकी ओर देखा।

लेकिन तू अपने जॉब और उनकी सेवा में तारतम्य कैसे बैठा पाएगी...शब्द मुंह से निकालने ही वाले थे कि उसके अन्तर्मन की आवाज ने  उन्हें मुंह में ही रोक लिया...उसका अन्तर्मन कह उठा...तुमने अपनी ननद शिवानी की लड़की नंदिता को नहीं देखा। .उसकी सास को अल्जाइमर की बीमारी हो गई है। वह अपना कुछ काम नहीं कर पातीं हैं अतः उसने उनके लिये चौबीस घंटे की आया एक एजेन्सी से लेकर उनकी देखरेख के लिए रखी हुई है। वह उनका काम ठीक से कर रही है या नहीं, इसके लिये उसने उनके कमरे में सी.सी.टी.वी.लगवाकर उसे अपने मोबाइल से कनेक्ट कर दिया है। जब वह घर में रहती है तब तो वह उनकी निगरानी करती ही है आफिस में सी.सी.टी.वी.द्वारा उनकी निगरानी करती रहती है जिससे उनकी कामवाली अपने काम में कोई कोताही न कर पाये। अरे ! आज के बच्चे जहाँ दिन रात मेहनत करके पैसे कमा रहे हैं वहीं जिंदगी को जीना भी जानते हैं और अपने कर्तव्यों को निभाना भी...। कुढ़ना और दोषारोपण करना उनका स्वभाव नहीं रहा है...अंतर्मन की आवाज सुनकर नीलांजना ने अपने मन के विचारों को झटका था तथा दिल पर पत्थर रखकर, दिव्यांका की मनःस्थिति समझते हुये, उसके  कंधे थपथपाते हुये  कहा,“सच कह रही है तू बेटा...अब वह भी तेरा घर है । जैसा तू ठीक समझे कर...।” 

“कुछ और तो नहीं करना ममा, अब मैं चलूँ, दीपेश मेरा इंतजार कर रहे होंगे।” दिव्यांका ने काम समाप्त होने पर कहा ।

“हाँ जा...अब मैं भी आराम करना चाहती हूँ।” कहते हुये थोड़ी देर पहले उर्जा से ओत-प्रोत नीलांजना के चेहरे पर थकान झलकने लगी थी ।

“गुड नाइट ममा...।” कहते हुये दिव्यांका उसके गले लगी ।

“गुड नाइट बेटा, स्वीट ड्रीम।” बचपन की तरह उसने दिव्यांका के माथे पर चुम्बन अंकित करते हुये कहा ।

दिव्यांका के जाते ही अपने कमरे में जाते हुये नीलांजना सोच रही थी अब उसे भी व्यवहारिक बनना पड़ेगा । दिव्यांका को अपने मोह के जाल से मुक्त करना होगा तभी वह अपने घर परिवार में खुश रह पायेगी । वैसे भी जो मोह व्यक्ति को कर्तव्यविमुक्त कर दे वह मोह नहीं बेड़ियाँ बन जाता है। उसे खुशी थी कि उसके दिये संस्कार उसकी बेटी में जिंदा हैं किन्तु फिर भी आज उसे अपनी बेटी अन्चीन्हीं लग रही थी ।  

  सुधा आदेश  

                

 

  

  

     


Wednesday, September 14, 2022

सबसे प्यारी भाषा -हिन्दी

 



सबसे प्यारी भाषा


ह से हिन्दी

द से देश

सबसे प्यारा देश हमारा 

सबसे प्यारी भाषा।


अनेकों भाषाएं

विभिन्न धर्मावलंबी

एक सूत्र में जो बांधे

भारत माँ के भाल शोभा हिन्दी।


सहज़, सरल भाषा हिन्दी

मुख में मिठास घोले,

दिल में बसे ऐसे

पूजा का दीप जैसे।


शब्द सामर्थ्य,मुहावरे,

लोकोत्तियों से भरपूर

जन-जन को भाये

दूर अपनों से न कभी जाये।


हिन्दी बोलें, लिखें

प्रण आज करें हम 

सीखें विश्व की हर भाषा 

नाज हिन्दी पर करें हम ।


हिन्दी दिवस की शुभकामनायें


©सुधा आदेश