Thursday, July 7, 2022

 




 

 

अभिशप्त

 

            धड़ाम...धड़ाम...धड़ाम... नए बनते फ़्लाईओवर का आधा हिस्सा टूटकर गिरने के साथ ही कोहराम मच गया। सुधिया, बबुनी, वीरू, रामू, सरस्वती, दीपू,  फुलवा, श्यामू,रामलोचन नाम वातावरण में गूँजकर दहशत फैलाने लगे थे। सभी अपनों को खोज रहे थे। जितने लोग उतनी आवाजें...उससे भी ज्यादा दर्दनाक थी लोगों की चीखने,चिल्लाने और कराहने की आवाजें...। जिनके अपने मिल गए थे उनकी आँखों में ख़ुशियाँ थीं तथा जिनके अपने नहीं मिले थे, उनकी आँखों के आँसू उनके दर्द को बयान करते-करते धीरे-धीरे सूखने लगे थे, रह गई थी उनके चेहरे से झलकती चिंता, उनके दिल में व्याप्त दहशत, एक दर्दनाक खामोशी,आगत की चिंता एवं डर...।   

            ठेकेदार तथा उसके आदमी पीड़ित व्यक्तियों को मलबे से बाहर निकालने में सहायता करने की बजाय इस घटना में अपनी गर्दन फँसती देखकर,डर के कारण भाग गए थे। कोई अन्य उपाय न देखकर, बचे मजदूरों ने ही मलबे में दबे अपने मजदूर साथियों को बचाने का कार्य प्रारंभ कर दिया। किसी तरह से वे सरिया, मिट्टी,गारा हटाने का प्रयास कर रहे थे। जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा था...। कोई सरकारी सहायता न आने के कारण उनमें रोष भी व्याप्त होने लगा था। इसके साथ ही लोगों के अधिक संख्या में मरने की आशंका भी बढ़ती जा रही थी। उधर ठेकेदार तथा उसके आदमी इंजीनियर साहब के घर बैठे मजदूरों की चिंता छोड़कर, अपनी आगे की रणनीति पर विचार विमर्श कर रहे थे। दरअसल ठेकेदार और इंजीनियर को इस घटना में अपनी गर्दन फंसती नजर आ रही थी। वे लोग शहर के नामी वकील को बुलवाकर अग्रिम जमानत करवाने की जुगत में लगे हुए थे ।

            पिछले 2 वर्षों से इस पुल के निर्माण का कार्य चल रहा था पर पुल था कि बनने का नाम ही नहीं ले रहा था। कभी फंड का अकाल पड़ जाता तो कभी पुल का कोई हिस्सा टूटकर गिर जाता था। ऐसा होता देखकर कोई कहता कि इस पर किसी देवी देवता का प्रकोप है तभी पुल बार-बार टूट जाता है। कोई कहता लगता है शुभ साइत देखकर, इस पुल का निर्माण प्रारंभ नहीं किया गया है। वहीं दूसरा कुछ अपनी समझदारी दिखाते हुए कहते...अरे भाई, पल पर किसी देवी देवता का प्रकोप नहीं है। इस पुल का बार-बार टूटकर गिरना इंसानी राक्षसों की करतूत है जो कमीशन खोरी के चक्कर में, सीमेंट की जगह बालू भर रहे हैं।

            पुल के ढहने की  खबर आग की तरफ फैलने के बावजूद कोई रेस्क्यू टीम तो नहीं आ पाई पर मीडिया कर्मी तुरंत पहुँच गए। लोगों के दुख दर्द से बेखबर वे इस खबर को ऐसे पेश करने लगे जैसे यह कोई दुर्घटना नहीं वरन उनके न्यूज़ चैनल की टी.आर.पी.बढ़ाने के लिए कोई बढ़िया चटपटा मसाला है।


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2-

            “ माँजी, आप ऐसे क्यों रो रही हैं ? क्या इस हादसे में आपका अपना भी कोई फंसा है ?” न्यूज़ चैनल के एक रिपोर्टर ने एक रोती बिलखती महिला के पास जाकर पूछा।

            “ हाँ बचवा, बबुआ के बाबा नाहीं मिलल रहे हैं ।” उसने रोते हुए कहा।

            “ जरा इधर देखते हुए फिर से कहो...। ” उसने कैमरे की तरफ इशारा करते हुए उस महिला से पुनः कहा।  मानो उसे उस महिला के दर्द से अधिक, उसके चेहरे को अपने टी.वी. चैनल पर दिखाने फिक्र की अधिक  हो। 

            उस स्त्री ने अपनी बात पुनः दोहराई। तुरंत ही कैमरा घुटनों में मुँह छुपाए बूढ़े की ओर घूम गया …

            “ बाबा, आप चुप क्यों हैं ? क्या आपका भी कोई इस दुर्घटना में नहीं मिल रहा है ?” रिपोर्टर ने उससे प्रश्न किया।

            “ हाँ बचवा,  मेरी पोती फुलवा नहीं मिल रही है।” दर्द भरे स्वर में कहते हुए उस बूढ़े व्यक्ति ने अपना चेहरा थोड़ा ऊपर उठाया।   

            “कितनी उम्र रही होगी उसकी ?”

            “ 14 साल…।”

            “14 साल यानी नाबालिग...।” रिपोर्टर ने कैमरे के सामने देखते हुए कहा।  

            “ कितना देते थे उसे ?”रिपोर्टर ने पुनः उस बूढ़े व्यक्ति की ओर मुखातिब होकर पूछा।

            “कभी 200 या 300 रुपए...काम के हिसाब से मजूरी  मिलत रही। वह हमारा एकमात्र सहारा रही, अब हम उसके बिना कैसे जिएंगे?” कहते हुए उसकी आँखों से आँसू टपकने लगे।

            दुख के समय सांत्वना के दो बोल इंसान को हौसला देते है किन्तु रिपोर्टर के शब्दों में सांत्वना नहीं वरन अपनी डियूटी पूरी करने की भावना प्रबल थी...शायद इसीलिए उसने अपनी रिपोर्ट ऐसे पेश की...      

            “ देखा आपने...यहाँ नाबालिग बच्चों से भी काम लिया जाता है  किन्तु  मजदूरी कम दी जाती है।”

             तभी एक औरत के रोने की आवाज सुनकर, उस मीडियाकर्मी का ध्यान उस औरत की ओर गया । वह अपनी छाती पीट-पीटकर रोती हुई कह रही थी…

            “ इन मरदूदों ने 300 -400 रुपल्ली के लिए मेरी सरस्वती की जान ले ली ।”

            “ माँजी, सरस्वती कौन थी आपकी ?” रिपोर्टर ने माइक उसके मुंह के सामने रखते हुए पूछा।  

            “अरे बेटा, सरस्वती मेरी बहू थी...मेरा सहारा थी...। मेरा बेटा तो कुछ करता नहीं है...निखट्टू है...। मुझसे मेरी सांस की बीमारी के कारण अब कुछ नहीं हो पाता है। उसी के दम पर घर चल रहा था। अब अगर सरस्वती नहीं रही तो हम सबकी भूखों मरने की नौबत आ जाएगी।” कैमरे को देखकर वह और भी जोर-जोर से रोने लगी।

            सरस्वती की सास का दुख दिखाने के पश्चात कैमरा कई और लोगों की तरफ और घूमा तथा रिपोर्टर ने टी.वी. न्यूज़ कुछ इस तरह से पेश की...अभी-अभी आपने इतने बड़े हादसे को देखा।  किसी का पति, किसी का भाई, किसी की बेटी तो किसी की बहू इस हादसे में फंसे हैं। सभी बेहद परेशान और दुखी हैं। 5 घंटे बीतने के पश्चात भी अभी तक कोई सरकारी सहायता इन बेबस और बेसहारा मजदूरों तक नहीं पहुँच पाई है। लगभग 15 मजदूर लापता हैं। धीरे-धीरे उनके बचने की उम्मीद भी कम होती जा रही है। हमारे मजदूर भाई ही अपने मजदूर भाइयों की जान बचाने में लगे हुए हैं लेकिन सरकारी महकमा अभी भी चैन की नींद सो रहा है।


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3-

            टी.वी. पर इस घटना की न्यूज़ फ्लैश होते ही प्रशासन की नींद खुली। एक दूसरे पर आरोप मढ़ते हुए अंततः रेस्क्यू टीम भेजी गई। इसके साथ ही अधिकारियों का एक दल स्थिति का जायजा लेने के लिए घटना स्थल की ओर रवाना हुआ। इधर मजदूर यूनियन वाले घटना स्थल पर एकत्रित होकर बयान बाजी करते हुए प्रशासन को कोस रहे थे। अफसरों के आते ही उन्होंने   मुर्दाबाद के नारे लगाने प्रारम्भ कर दिये। जब तक रेस्क्यू टीम पहुँची तब तक मजदूरों तथा आसपास के गाँव के कुछ युवकों के सम्मिलित प्रयास से 3 शव तथा 5 घायल मजदूर निकाले जा चुके थे। एंबुलेंस आ चुकी थी। घायलों को तुरंत पास के अस्पताल में शिफ्ट करने का प्रयास किया जाने लगा।

            शवों को देखते ही भीड़ लग गई। वीरू का क्षत-विक्षत शव देखते ही बुधनी गश खाकर गिर पड़ी तथा उसके शव से चिपककर फफक-फफककर  रोते हुए बोली, “ मुझे किसके सहारे छोड़कर चले गए तुम, अब मैं तुम्हारे बिना कैसे जिऊंगी...इस बच्चे को कैसे पालूंगी ?”

            उसकी छाती से चिपका उसका 2 वर्षीय बेटा भी माँ को रोता देखकर रोने लगा …

            “धीरज धर बहन, जो हुआ, सो हुआ...कम से कम अपने बच्चे को तो देख, जो तुझे रोता देखकर रो रहा है।” उसे रोता देखकर उसके पास आकर एक औरत ने उसे संभालते हुए कहा। 

            बुधनी जैसा ही हाल सरस्वती की सास कमला का था जो अपनी बहू के शव को देखकर पागल सी हो गई थी। वह छाती पीटकर रोते-रोते बार-बार यही दोहराए जा रही थी, “मुऐ राक्षसों ने 300 -400 रुप्पली के लिए मेरी सरस्वती की जान ले ली है। इन्हें कभी चैन न मिले, कीड़े पड़ें, कुत्ते की मौत मरें। हे भगवान! तूने ये क्या किया,तू ही बता अब हम कैसे जीयेंगे?”

            जबकि कमला का बेरोजगार बेटा रामू वहीं बैठा टुकुर-टुकुर सबको निहारे जा रहा था। अभी इनकी चीत्कार रुकी भी न थी कि एक और शव आ गया...उसे देखकर उसके बूढ़े दादा की सांसें जैसे थम ही गईं...। वह उसके पार्थिव शरीर को  गोद में लेकर फफक-फफक कर रोते हुए बोल उठा,“ सुधिया…मेरी बच्ची...तू मुझ अकेले को छोड़कर कहाँ चली गई…? एक तू ही तो मेरे जीने का सहारा थी। तेरे माँ बापू तुझे मुझे सौंप कर गये थे। मैं भी कितना अभागा हूँ जो मैं उनकी अमानत नहीं संभाल पाया। ना जाने इन बूढ़ी आँखों को क्या-क्या देखना और बदा है!! कहाँ तो मैं सोच रहा था कि तेरे हाथ पीले कर डोली में विदा  करूँगा और अब यह हादसा...!! हे भगवान! तू मुझे भी उठा ले। सुधिया के बिना अब मैं कैसे जीऊँगा ?” 

             बेबस और बदनसीब लोगों के रुदन से आस-पास खड़े सभी लोगों की आँखों में आँसू आ गए थे। होनी को कौन टाल सकता है...कहकर लोग पीड़ित व्यक्तियों को समझा रहे थे। रस्मी तौर पर समझाना सिवाय झूठी तसल्ली देने के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता।  वैसे भी जिसका कोई अपना जाता है, उसका दुख उसके सिवाय अन्य कोई समझ ही नहीं सकता है। पीड़ित व्यक्ति को तो अपना पूरा जीवन बिखर गया प्रतीत होता है। ऐसे क्षणों में अपने आत्मीय से बिछड़ने के दुख के साथ-साथ उसे अपने बचे जीवन को समेटने की चिंता अलग परेशान करने लगती है। 

            बुक्का फाड़कर रोती औरतों और बच्चों को देखकर जहाँ लोग गमगीन थे वहीं घायलों की कराह तथा उनके रिश्तेदारों की उन्हें शीघ्र अस्पताल पहुँचाने की गुहार वातावरण को गमगीन बनाए जा रही थी। बड़ा ही हृदय विदारक दृश्य था। 


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4-

            रेस्क्यू कार्य जारी था...छोटे बड़े सभी अधिकारी वहाँ पहुँच गए थे। स्थिति काफी गंभीर थी।  लगभग 10 घंटे के अथक प्रयास के पश्चात मलबे में फंसे सभी जीवित और मृत व्यक्तियों को  निकाल लिया गया था।  घायलों को अस्पताल पहुँचाने की व्यवस्था की जा रही थी वहीं मृत व्यक्तियों के दाह संस्कार की व्यवस्था भी सरकारी अधिकारी ही कर रहे थे। लोगों का क्रोध और अधिक न भड़के इसलिए प्रशासन की ओर से मृतकों के परिवारों को 10,000 रुपए तथा घायलों के परिवार वालों को 5,000 रुपए सहायता राशि के रूप में दिए जाने के साथ ही हफ्ते भर का खाने का भी सामान भी आनन फानन में पीड़ित परिवारों को दिये जाने की व्यवस्था की गई।  

             यूनियन लीडरों को मजदूरों में अपनी धाक जमाने के साथ, उन्हें अपनी उपस्थिति का एहसास भी दिलाना था। वैसे ऐसे मौकों पर ही तो उनकी लीडरी काम आती है। कुछ खाने पीने को मिलता है अतः उन्होंने मजदूरों के हितों की रक्षा के लिए प्रशासन की ओर से मृतकों के परिवार को दो लाख रुपए तथा घायलों के परिवार वालों को पचास हजार रुपए मुआवजा राशि देने की माँग कर डाली। यूनियन लीडरों की सरकार से की इस मांग को सुनकर दुखी चेहरों पर थोड़ी शांति झलकी, वहीं कई अन्यों के चेहरों पर असंतोष व्याप्त हो गया।

            इस घटना के कारण हफ्ते भर से काम बंद था जिसके कारण मजदूरों को मजदूरी भी नहीं मिल रही थी। यह इस प्रोजेक्ट में काम करने वाले मजदूरों की ही नहीं, हर प्रोजेक्ट में दैनिक भत्ते पर गुजारा करने वाले मजदूर की यही हालत थी। काम नहीं तो मजदूरी नहीं। चाहे यह स्थिति मजदूरों की अपनी बीमारी की वजह से हो या ठेकेदारों के वक्त-बेवक्त काम रोक देने की वजह से हो...।

            इस बुरे वक्त में इस प्रोजेक्ट में काम करते एक मजदूर सलीम के बेटे को बुखार आ गया। काम रुकने तथा धीरे-धीरे खत्म होते पैसों के कारण वह अपने बुखार से पीड़ित बच्चे का उचित इलाज नहीं करवा पा रहा था। उचित इलाज के अभाव में अपने बच्चे को तड़पता देखकर वह दुखी स्वर में बोला,“ या अल्लाह! इससे तो तू मुझे उठा लेता। कम से कम मेरा बच्चा तो उन अभावों में नहीं पलता जिनमें मैं पला ।”

            उसकी पत्नी फरजाना ने उसकी बात सुनी और निर्विकार भाव से बुखार से तड़पते अपने बच्चे कासिम को गोद में उठाकर उसके माथे पर ठंडे पानी की पट्टी रखने लगी ।

             यह वही फरजाना थी जिसने कभी सलीम के साथ जीवन के हर सुख-दुख में जीने मरने की कसमें खाई थीं । घर चलाने के लिए उसके कंधे से कंधा मिलाकर ईंट गारा भी ढोया था पर जब से कासिम उसकी गोद में आया था तब से वह असंतुष्ट रहने लगी थी। शायद वह बच्चे के भविष्य को लेकर सशंकित हो चली थी । तभी बात-बात पर झगड़ा करना, बात-बात पर असंतोष जाहिर करना उसका स्वभाव ही बनता जा रहा है। अपनी इसी मनोवृति के कारण वह इस समय सलीम की बात का प्रतिकार नहीं कर पाई थी वरना पहले यदि मजाक में भी वह ऐसी बात कहता था तो वह उसके मुँह पर हाथ रखते हुए कहती थी...“ या अल्लाह !  मरे आपके दुश्मन,मैं तो सदा रब से यही दुआ माँगती हूँ कि वह आपसे पहले मुझे ही उठाए...। ”


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5-

            यह मानव स्वभाव  है कि परिस्थितिजन्य  कठिनाइयों या भीषण दुख के क्षणों में इंसान स्वयं को चाहे कितना भी कोस ले पर दूसरे से सहानुभूति चाहता है...। आज अपनी विवशता पर, अपनी अर्धांगिनी को चुप देखकर सलीम का दिल रो उठा और वह बिना कुछ कहे ही घर से निकल गया। जेब टटोली, उसमें बीस रुपये पाकर उसे लगा कि इतने रुपयों से क्या होगा ? उसने सोचा कि वह शिवा से उधार माँगकर देखे, आखिर बच्चे की दवा तो लानी ही होगी। उसे पिछले चार दिनों से ज्वर है। एक दो दिन तो वह यह सोचकर चुप लगा गया था कि मौसमी बुखार है, स्वयं ठीक हो जाएगा पर कल रात से वह मासूम तेज ज्वर से तड़प रहा है। अब भी अगर वह ढंग से इलाज नहीं करवाया पाया और खुदा न ख्वासता अगर कोई अनहोनी घट गई तो वह फरजाना से तो क्या स्वयं से भी नजरें नहीं मिला पाएगा...। उसके कदम शिवा  के घर की ओर मदद की उम्मीद में चल पड़े ।

            अभाव जहाँ इंसान को बुरी तरह तोड़ कर रख देते हैं वहीं कभी-कभी अभाव इंसान की इंसानियत, संवेदनाओं एवं भावनाओं को सूक्ष्मीकृत कर मुर्दा बना डालते हैं...। तभी तो कल तक जिनकी आँखों में आँसू थे उन्हीं में आज मुआवजे की राशि की बात को सुनकर, भविष्य की आशाओं के स्वप्न तिर आए थे।  

            सरस्वती की सास कमला सोच रही थी कि भगवान सरस्वती की आत्मा को शांति दे। जाते-जाते भी वह हमें स्वर्ग दे गई । इतने रुपयों से तो हमारे सारे दुख दर्द दूर हो जाएंगे । इन रुपयों से मैं रामू को ऑटो रिक्शा दिलवा दूँगी फिर तो उसके लिए लड़कियों की लाइन लगते देर न लगेगी। मैट्रिक पास होने के कारण ही तो वह ईट गारा नहीं ढोना चाहता...ऑटो चलाने में तो उसे कोई शर्म नहीं आएगी।

            “ हे भगवान! अगर इतना रुपया मिल गया तो मैं अपने बेटे कृष्णा को अच्छे इंग्लिश स्कूल में पढ़ाऊंगी ।  वह ऑफिस में नौकरी करेगा न कि मेरे और अपने पिता के समान ईंट, गारा ढोएगा । मैं इन पैसों में से कुछ पैसा बैंक में जमा करा दूँगी तथा कुछ पैसों से एक ढाबा खोल लूँगी जो कि इसके पिता वीरू का सपना था । इन रूपयों से वह न केवल वीरू के सपने को पूरा करेगी वरन कृष्णा को भी अच्छे स्कूल में पढ़ाकर बड़ा आदमी बनायेगी। वह अपने माता-पिता का नाम रोशन करेगा। ” बुधनी ने मन ही मन सोचा। कल तक जिन आँखों में चिंता के बादल झिलमिला रहे थे,आज उन्हीं आँखों में अपने सुनहरे भविष्य की चमक दिखाई देने लगी थी ।

            यही हाल सुधिया के बाबा का था। इतनी राशि मिलने की बात सुनकर, वह दूधिया के जाने का गम भूलकर, सोच रहे थे कि इतने रुपयों को वे कहाँ रखेंगे !! उन्होंने तो कभी एक हजार भी नहीं देखे...। दो लाख...बाप रे, इतने रुपए वह कहाँ और कैसे सहेजेंगे...कहाँ उसे खर्च करेंगे...? उन्हें संतोष था तो सिर्फ इतना कि कम से कम अब उन्हें अभाव में नहीं जीना पड़ेगा। उनका बुढ़ापा सुधर जाएगा ।

            आठ-दस दिनों में सब शांत हो गया...। प्रशासन ने दो लाख रुपये तो नहीं पर मृतकों के लिए एक लाख रुपये तथा घायलों के लिए पच्चीस हजार रुपये की राशि सहायता राशि अवश्य स्वीकार कर  ली। यूनियन के नेता मुआवजे की राशि पीड़ित व्यक्तियों को दिलवाने का श्रेय स्वयं ले रहे थे । लेते भी क्यों नहीं, आखिर उनकी वजह से ही मजदूरों को इतना पैसा मिल रहा है वरना उनको कौन पूछता । सभी  लोग यह सोचकर उनके आगे नतमस्तक थे कि चलो जितना मिल पा रहा है, बहुत है । मुआवजा राशि मिलने कि सूचना ने गमगीन चेहरों पर थोड़ी मुस्कान तो ला दी थी । उनके लिए तो इतना भी बहुत था । वहीं जिन मजदूरों का अपना कोई नहीं था उनके भी ढेरों रिश्तेदार निकल आए थे जो इस मुआवजे की रकम पर अपना दावा ठोकने लगे थे ।


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6-

            पुल का जो काम इतने दिनों से रुका हुआ था वह फिर चल निकला। महीना बीता, दो  महीने बीते पर मुआवजे की राशि अब तक किसी को नहीं मिल पाई। जब भी मजदूर शिकायत लेकर यूनियन नेताओं के पास जाते तो उनका एक ही जवाब होता...धीरज रखो, सरकारी काम में तो देरी होती ही है । वैसे भी सब कुछ इतना आसान थोड़े ही होता है । कुछ सर्टिफिकेट बनवाने पड़ेंगे ...आखिर यह तो सिद्ध करना ही पड़ेगा कि बुधनी वीरू की पत्नी है या सुधिया बालिग थी ।  सरस्वती, कमला की बहू या रामू की पत्नी थी...उनकी बात सुनकर वे लोग लौट जाते ।

             धीरे-धीरे छह महीने गुजर गए। समय के साथ दिल के जख्म भरने लगे थे...। मुआवजे की रकम मिलती न देख, सरकारी वायदे खोखले होते हैं, सोचकर वे सब फिर अपने-अपने कामों में लग गए थे।  वैसे भी उन जैसे गरीब अपनी  फरियाद लेकर जाते भी तो कहाँ जाते?  वे तो दैनिक भत्ते से गुजारा करने वाले गरीब मजदूर हैं जिन्हें पेट भरने के लिए हर दिन रोटी की चिंता रहती है। दिन भर खटने के बाद मामूली रकम उनके हाथ में ऐसे थमा दी जाती है मानो वे उन पर एहसान कर रहे हैं। यहाँ तक बीमारी में भी इन्हें दवा के लिए पैसे मिलने तो दूर, किसी की सहानुभूति भी नहीं मिलती है। ऐसा करते हुए ये अमीर लोग  यह भूल जाते हैं कि जिन गरीब मजदूरों की मेहनत पर वे ऐश कर रहे हैं वे नींव के ऐसे पत्थर हैं जिनकी वजह से ही कोई इमारत बुलंदियों को छूती है पर इस बात का इन्हें श्रेय देना तो दूर, किसी को भी इस बात का एहसास भी नहीं होता है...।

            आठ महीने पश्चात यूनियन लीडर राघवेंद्र का संदेश लेकर एक आदमी आया कि पीड़ित व्यक्तियों को साहब ने अपने डेरे पर बुलवाया है । आशा की किरण लेकर सभी लोग खुशी-खुशी उसके डेरे पर गये।  उन्होंने घायलों को पाँच-पांच हजार तथा मृतकों के परिवार वालों के हाथों में बीस- बीस हजार पकड़ाये। मजदूरों ने जब इतनी कम राशि मिलने का कारण पूछा तब तथाकथित हितेशी राघवेंद्र ने बेरुखी से कहा, “ क्या प्रमाण पत्र ऐसे ही बन जाता है? नीचे से लेकर ऊपर तक सबको खिलाना पड़ता है। तुम लोगों के इस काम के लिए हमें कहाँ-कहाँ नहीं जाना पड़ा,किस-किस के सामने नाक रगड़नी पड़ी, तुम क्या जानो! अब इधर-उधर आने जाने, खाने-पीने का खर्चा भी तो इसी मुआवजे की राशि में से ही निकालना पड़ेगा।  वैसे भी इतना पैसा मिल गया, गनीमत समझो...। यह हम सबकी मेहनत का फल है वरना सरकारी खजाने से पैसा निकालना इतना आसान नहीं होता ।”


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7-

             इतनी कम राशि पाकर सभी मजदूरों की उम्मीदों पर पानी फिर गया था । सब जानते थे कि पैसा कहाँ गया ? उन्हीं के पैसों से तो इनकी लीडरी चलती है...। वे तो उन कीड़े-मकोड़ों की तरह हैं जिन्हें रौंदते हुये हाथी चला जाता है। झुंड में होने के बावजूद भी बेचारी कमजोर चीटियां उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ पातीं। जब अपनी किस्मत ही फूटी हो तो दोष दें भी तो किसे दें !!

            घायलों में कुछ अपाहिज हो गए थे। रामू का तो घुटने के नीचे से पैर ही काटना पड़ गया था वहीं दीपू का हाथ...वहीं श्यामू कि हालत तो बेहद गंभीर थी।  उसकी रीढ  की हड्डी में चोट लगने के कारण उसका नीचे का हिस्सा ही बेकार हो गया था। वह खड़ा भी नहीं हो पाता था। उसकी पत्नी रामेश्वरी को उसके सारे काम  बिस्तर पर ही कराने  पड़ते थे। सच तो यह है कि अपाहिज होने के कारण वे सभी कोई काम करने लायक ही नहीं रहे थे। बोझ बनकर रह गए थे वे अपने-अपने परिवारों पर...। उनके लिए सिर्फ पाँच हजार...बैसाखी के सहारे आया रामू 25 हजार की जगह 5 हजार देखकर रोने लगा था । यही हाल दीपू का था और श्यामू की पत्नी रामेश्वरी का था। अभी भी उनके मन से उस दिन की घटना का असर ही समाप्त  नहीं हुआ था । घर परिवार की बेरुखी तथा अपनी स्थिति देखकर कभी-कभी उन्हें लगता था कि इससे अच्छा तो था कि वे भी मर जाते, कम से कम ऐसी जलालत भरी जिंदगी तो नहीं जीनी पड़ती ।

            रामू को हफ्ते भर पूर्व की घटना याद आई...वह ऐसे ही मन बहलाने के लिए बैसाखी के सहारे थोड़ा बाहर निकल गया था। लौटा तो भाभी की आवाज सुनकर उसके कदम बाहर दरवाजे पर ही रुक गये, “न जाने कब तक इस लंगड़े को रोटी खिलानी पड़ेगी ? अब तो इसकी शादी भी होने से रही ।”

            “ ऐसा न कह लालू की माँ, ,पच्चीस हजार मिल जायेंगे तो अपनी हालत भी सुधर जाएगी ।” भाई ने उसे टोकते हुए कहा।

            “ हमारे भाग्य ही फूटे थे...वरना यह भी मर जाता तो पूरे एक लाख मिल जाते, हमारे दिन भी बहुर जाते। अब यह  अपाहिज सारी उम्र हमारी छाती पर मूंग डालता रहेगा।”

            “ चुप रह कलमुंही, कुछ भी बोलती रहती है...अगर कहीं उसने सुन लिया तो वह हमें फूटी कौड़ी भी नहीं देगा ।” भाई ने भाभी को झिड़कते हुए कहा था।

             भाई-भाभी की बातें सुनकर रामू ठगा सा खड़ा रह गया...। उसके लिए उसके सगे भाई-भावज के मन में इतनी कड़वाहट...। कहाँ अपनी इसी भावज के हाथों में जब वह रोज की कमाई रखता था तब वह अपनी सहेलियों से उसकी तारीफ करते नहीं थकतीं थीं और अब जब उसे अपनों की जरूरत है तो वे इतने स्वार्थी हो गए हैं...रो पड़ा था उसका मन । कहाँ तो वह सोच रहा था कि मुआवजे की रकम मिलते ही वह सारी रकम भाभी के हाथ में पकड़ा देगा किन्तु उनका सारा वार्तालाप सुनकर वह वृतिष्णा से भर उठा… अब तो उन्हें कुछ भी देने का उसका मन नहीं कर रहा था। आज 25 हजार की जगह 5 हजार मिलते देख रामू भविष्य की आशंका से त्रस्त रोने के लिए किसी का कंधा चाहता था कि उसके साथ आया भाई उसके हाथ से रकम लेकर ऐसे मुँह फेर कर चला गया मानो वह उसका कुछ लगता ही नहीं है ।

            यही हालात दीपू की है। रामू की तो भाभी ऐसा सोचती है किन्तु उसकी तो अपनी पत्नी जब तब उसे उसकी अपंगता का एहसास कराती रहती है पर फिर भी  एक मोटी रकम मिलने की आस आस में वह उसे खाना पानी तो दे ही रही है। अब न जाने कैसे जिंदगी कटेगी ? आँखों में आँसू भरे वह समझ नहीं पा रहा था कहाँ जाये, क्या करे ? 

            सच अपंगता इंसान को इतना बेजार और असहाय बना देती है, उसने कभी सोचा भी ना था। उसे बचपन का वह दृश्य याद आया...उसका छोटा भाई बीमार हो गया था, पिताजी कहीं बाहर गए हुए थे। माँ ने उससे कहा, “ बेटा, तू इसे अस्पताल ले जाकर दिखा ला।”

            “ ना बाबा ना, इस लंगड़े को लेकर मैं अस्पताल नहीं जाऊँगा...। मेरे दोस्तों ने अगर मुझे इसके साथ देख लिया तो वे  मुझे चिढ़ायेंगे ।” अपने पोलियोग्रस्त भाई को अस्पताल ले जाने से मना करते हुए उसने माँ से कहा था ।  

            “बेटा, आज तूने अपने भाई के लिए जो कहा, वह आगे किसी के लिए न कहना...शरीर का क्या, आज है कल नहीं।  इसे लेकर इतना घमंड करना अच्छी बात नहीं है ।” कहते हुए उसकी माँ की आँखों से आँसू निकल आए थे ।

            माँ के दर्द को वह उस समय कहाँ समझ पाया था !! माँ के लिए तो उसका बच्चा चाहे जैसा भी हो जान से भी प्यारा होता है।  वह उसके लिए कुछ भी करने को तैयार रहती है। उसे आज भी याद है कि उसके मना करने पर माँ स्वयं उसके भाई को अस्पताल लेकर गईं थीं। यह बात अलग है कि माँ की देखभाल के बावजूद,पैसों की कमी के कारण, उचित  इलाज के अभाव में उसका वह अभागा भाई चल बसा था। आज बार-बार उसे माँ  के कहे शब्दों के साथ अपना वह भाई भी याद आ रहा है जो उसे इधर-उधर आते-जाते, खेलते देखकर एक कोने में बैठा टुकुर-टुकुर उसे देखता रहता था। वह उसकी अपंगता के कारण उसे अपने साथ न कहीं लेकर जाता था न ही किसी से उसे मिलवाता था। यहाँ तक कि उसके पास बैठ कर बातें करना भी उसे अच्छा नहीं लगता था । उसके लकड़ी से पैर न जाने क्यों उसके मन में वितृष्णा जगा देते थे। माँ-बाबूजी के लाख चाहने पर भी वह पढ़ नहीं पाया था। उनके जाने के बाद तो उसकी ज़िंदगी में मानो ग्रहण ही लग गया...। उसके अपने चाचा ने ही उसे उसका हिस्सा देने से मना करने के साथ उसे घर से ही निकाल दिया।  पेट भरने के लिए उसे मजदूरी करनी पड़ी किन्तु उस दुर्घटना ने उससे उसकी नौकरी भी छीन ली। मनुष्य को अपने अच्छे बुरे कर्मों का फल यहीं, इसी जन्म में  भुगतना पड़ता है, इस सत्य से उसका आज परिचय हो गया था। आज अगर उसकी पत्नी उसे ठीक से बात नहीं करती तो उसमें उसका क्या दोष ? आखिर उसने भी तो किसी के साथ ऐसा ही किया था। 

            रामेश्वरी की हालत तो और भी खराब थी। मन में ढेरों प्रश्न उमड़-घुमड़ रहे थे जिनका कोई उत्तर उसके पास नहीं था। उसके  विवाह को अभी सिर्फ छह महीने ही हुए हैं ।  क्या उसे अपना पूरा जीवन बीमार पति की देखरेख करते हुए ऐसे ही बिताना पड़ेगा? कैसे इलाज करा पाएगी वह श्यामू का ? उसकी अकेले की कमाई से क्या होगा ? इसके बावजूद श्यामू के अपाहिज होने के बाद उस ठेकेदार की उस पर पड़ती काम लोलुप नजरें। कैसे बचा पाएगी वह स्वयं को उन कामुक नजरों से ?


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8-

            जिनके अपने नहीं रहे थे उनकी तो हालत और भी बुरी थी। सरस्वती की सास की तो सारी आशाओं पर ही पानी फिर गया था। रुपये मिलने के इंतजार में, पिछले आठ महीने से हर काम को छोटा समझने के कारण, हट्टा कट्टा, मुफ्त की रोटी खाने का आदि उसका बेटा रामू बेकार बैठा है । घर खर्च भी उधार के रुपयों से चल रहा है । बनिया अगर कभी तकाजा भी करता तो वह मुआवजे की रकम से उधार चुकाने की बात कहकर जरूरत का सामान उधार ले आया करती थी।  पाँच हजार तो उधार चुकाने में ही निकल जायेंगे। बाकी बचे पैसों से ऑटो तो क्या रिक्शा भी नहीं आ पाएगा...। अगर जुगाड़ करके रिक्शा खरीदवा भी दिया तो क्या उसका कामचोर बेटा रिक्शा चलाने के लिए तैयार होगा ? वह तो सिर्फ सपने देखना जानता है पर यह नहीं जानता कि सपने पूरे करने के लिए प्रयत्न भी करना पड़ता है, मेहनत करनी पड़ती है। काम कोई छोटा नहीं होता। अब तो उसे लग रहा था कि उसकी सारी समस्या की जड़ उसकी अधूरी शिक्षा है...न तो वह बाबू बन सका और न ही मजदूर । यहाँ तक कि चपरासी का काम भी उसे हेय लगता है पर निठल्ले बैठे दूसरे की कमाई खाने में उसे कोई शर्म नहीं आती। वह यह भी नहीं सोचता कि पिता की मृत्यु के बाद मेहनत मजदूरी करके जैसे-तैसे उसकी माँ  ने उसे पढ़ाया लिखाया, खुद भूखी रही पर उसे खाने को दिया,पढ़ने के लिए स्कूल भेजा,कम से कम अब तो वह अपनी माँ की परेशानी और ना बढ़ाये । जो भी काम मिले कर ले पर नहीं...पर जिसे बैठे-बैठे मुफ्त का खाने  की आदत पड़  गई हो, वह मेहनत क्यों करना चाहेगा...!! अब तक कम से कम उसकी बहू सरस्वती उसकी गृहस्थी की गाड़ी तो खींच रही थी पर अब उसके न रहने पर जिंदगी कैसे कटेगी, सोच सोच कर वह परेशान हो उठी थी। बस मन ही  मन यही प्रार्थना  करती रहती थी कि ईश्वर उसके निखट्टू बेटे को सदबुद्धि दे।

            ऐसी ही हालत बुधनी की भी थी। कहाँ तो वह सोच रही थी कि एक लाख रुपये मिलते ही, कुछ रकम से वह अपने पति वीरू का सपना  ‘कृष्णा ढाबा ' की इच्छा पूरी करेगी तथा बाकी रकम को बैंक में डलवा देगी।  जैसे-जैसे कृष्णा बड़ा होगा,उसके खर्चे बढ़ेंगे तब अगर जरूरत पड़ी तो उस रकम में से कुछ रकम निकालकर उसकी पढ़ाई में लगाएगी जिससे उसकी शिक्षा बेरोकटोक भली प्रकार पूरी हो सके  पर इतनी छोटी सी रकम से वह क्या कर पाएगी ? वह कृष्णा को गोद में उठाए, बुझे मन से उस रकम को हाथ में दबाये चली जा रही थी...तभी सड़क के किनारे उसे छोटी सी चाय की दुकान दिखाई दी। उसने देखा कि उस छोटी सी झोंपड़ी में  एक बूढ़ी औरत चाय बनाकर बेच रही है। झोंपड़ी के सामने पड़े स्टूलों में कुछ राहगीर बैठे चाय पीते हुए बातें कर रहे हैं । एकाएक उसे लगा कि वह ढाबा नहीं किन्तु इन पैसों से चाय की एक छोटी दुकान तो खोल ही सकती है। एकाएक आँखों में चमक आ गई। उसे लगा कि उसे राह मिल गई है। उसने मन ही मन कहा... हाँ यही ठीक है। वह इस रकम से टेबल कुर्सी खरीदकर हाईवे के किनारे अच्छी जगह देखकर चाय की दुकान खोलेगी, साथ में नमकीन बनाकर भी बेचेगी । अगर उसकी चाय की दुकान चल निकली तो धीरे-धीरे उसे ढाबे में परिवर्तित कर लेगी। उसने सुना था सच्चे मन से, सच्ची नियत से प्रारम्भ किए कार्य में सदा सफलता मिलती है। वह अपने कार्य अवश्य ही सफल होगी...। कृष्णा को पढ़ाने का अपना और वीरू का सपना जरूर साकार करने का प्रयास करेगी ।

             सुधिया के दादाजी की हालत दूसरी ही थी वह तो इतनी रकम हाथ में आते ही मानो बौरा ही गए थे । वह सुधिया को  ढेरों आशीष देते हुए मन ही मन बुदबुदाए...बिटिया, मैं तुझे कुछ भी नहीं दे पाया पर जब तक तू रही तब तक तो तूने इस बूढ़े का ख्याल रखा ही और अब मर कर भी कुछ दिनों तक मेरे खाने-पीने का इंतजाम भी कर गई है। घर आकर उन्होंने रूपयों को गिनने की कोशिश की पर बार बार गलती होने पर उन्होंने उन रुपयों में से 100 रुपये का एक नोट निकाल कर, बाकी बचे रुपयों को लोहे की संदूकची में रखकर, उसमे ताला लगाकर , उसे लोहे की चेन से चारपाई से बाँध दिया। सौ का नोट अपने कुर्ते की जेब में रखकर, यह सोचकर ,दारू के अड्डे की ओर चल दिये कि आज तो वह दारु के साथ भजिया भी खाएंगे...खाली दारू पीते-पीते पेट में ऐंठन होने लगी है ।

             सच इंसानी जीवन भी एक अनबूझ पहेली है। क्या समाज के रामू, दीपू,रामेश्वरी, सरस्वती की सास और सुधिया के दादा जी जैसे लोगों की यही नियति है या वे ऐसा जीवन जीने के लिए अभिशप्त हैं? शायद हाँ...शायद नहीं...कुछ अपवादों को छोड़कर कठिनाइयां,  सुख-दुख, अभाव तो हर एक व्यक्ति के हिस्से में आते ही हैं । किसी के आने जाने, रहने या ना रहने पर जिंदगी रुकती नहीं है। वह तो चलती रहती है सतत...अनवरत...निरंतर...। यह निरंतरता ही जीवन का शाश्वत सत्य है। हाँ यह बात अलग है कि जीवन के इस सत्य से अपरिचित कोई व्यक्ति विपरीत परिस्थिति को अपनी नियति मानकर रुके पानी की तरह सड़ता रहता है तो कोई बुधनी की तरह कठिन से कठिन परिस्थितियों से जूझते हुए भी अपनी राह खोज ही लेता है।

 

सुधा आदेश

समाप्त