Tuesday, June 18, 2019

खो रही हैं बोलियाँ

खो रही हैं बोलियाँ 

 अजीब सा कलरव
 भागादौड़ी की कश्मकश 
न जाने कैसी बेचैनियां । 
खो रही हैं बोलियां 
नहीं हैं अब गर्मजोशियाँ । 

नन्हों के हाथ में मोबाइल 
मां-पिता व्यस्त कर्म चक्रव्यूह में 
नहीं रही अब गोदियाँ । 
 नहीं रही अब बोलियां 
नहीं सुनाता कोई लोरियां । 

 एक ही कमरा ,
एक ही पलंग 
चैटिंग में मस्त युगल 
बढ़ रही हैं दूरियां । 
 नहीं रही अब बोलियां 
नहीं रही गलबहियाँ । 

 समाज से कटे,भटके लोग
 नैतिकता का भी भान नहीं 
अजब-गजब मजबूरियां । 
 नहीं रही अब बोलियां 
बढ़ रहीं तन्हाइयां। 

 @सुधा आदेश

Monday, June 17, 2019

बेटियाँ

मेरी छोटी सी गुड़िया बड़ी हो गई छोड़कर दामन मेरा खड़ी हो गई । तोतली बोली से जो मुझे लुभाती थी कल तक मचलती थी छोटी-छोटी बातों पर, चाहतों को कैद कर सब्र हो गई ... मेरी छोटी सी गुड़िया छोड़कर दामन मेरा स्वतंत्र हो गई । स्वप्न आंखों में तिरने लगे हैं पग भी अब थिरकने लगे हैं लक्ष्य प्राप्त करने की धुन में वज्र हो गई... मेरी छोटी सी गुड़िया बड़ी हो गई छोड़कर दामन मेरा व्यस्त हो गई । स्वप्न पूरे हुए,लब गुनगुनाने लगे हैं पग थिरक-थिरक कर नया संसार रचाने लगे हैं मन की बगिया हरी भरी हो गई । मेरी छोटी सी बिटिया बड़ी हो गई छोड़कर दामन मेरा पतंग हो गई । स्वप्न पूरे हों,जिओ तुम अपनी जिंदगी, दुआओं का गुलदस्ता लिये साथ में मेरे घर की रौनक,अब दूसरे घर की रौनक बन गई... मेरी छोटी सी गुड़िया बड़ी हो गई छोड़कर दामन मेरा मगन हो गई । सुधा आदेश

Sunday, June 16, 2019

विश्वास का चीरहरण

विश्वास का चीरहरण पिछले कुछ दिनों से रमाकांत की तबियत ठीक नहीं चल रही थी । वे सो रहे थे । नमिता ने उन्हें जगाना उचित नहीं समझा...उसने स्वयं के लिये चाय बनाई तथा बाहर बरामदे में अखबार पढ़ते हुये चाय पीने लगीं । एक खबर पर उनकी निगाह ठहर गई...घर में काम करने वाले नौकर ने बुजुर्ग दम्पति की हत्या की...पुलिस ने उसे पकड़ लिया है तथा हत्या के कारणों की जाँच कर रही है । सरकार चाहे बच्चों और बुजुर्गों की सुरक्षा के कितने भी दावे क्यों न कर ले, जब तक हमारा सिस्टम न बदले, लोगों की मानसिकता न बदले, कुछ भी नहीं बदलने वाला...ओह ! न जाने कितना गिरेगा इंसान…!! कहते हुये उनके जेहन में बारह वर्ष पुरानी घटना उथल-पुथल मचाने लगी... ‘ आँटी, आप मूवी चलेंगी ।’ अंदर आते हुए शेफाली ने पूछा । ‘ मूवी...।’ ‘ हाँ आँटी, नाॅवेल्टी में ‘ परिणीता ’ लगी हुई है...।’ ‘ न बेटा, तुम दोनों ही देख आओ, मैं बूढ़ी तुम दोनों के साथ कहाँ जाऊँगी...?’ कहते हुए अचानक नमिता की आँखों में वह दिन तिर आया जब विशाल के मना करने के बावजूद बहू ईशा और बेटे विभव को मूवी जाते देख वह भी मूवी जाने की जिद कर बैठी थी... उसकी पेशकश सुनकर बहू तो कुछ नहीं बोली थी पर विभव ने कहा था,‘ माँ, तुम कहाँ जाओगी ? हमारे साथ मेरे एक दोस्त की फैमिली भी जा रही है, वहाँ से हम सब खाना खाकर ही लौटेंगे ।’ विभव के मना करने पर वह तिलमिला उठी थीं पर विशाल के डर से कुछ कह नहीं पाई थीं क्योंकि उन्हें व्यर्थ की तकरार बिल्कुल पसंद नहीं थी । उनके जाने के पश्चात् मन का क्रोध विशाल पर उगला तो उन्होंने शांत स्वर में कहा,‘ नमिता, गलती तुम्हारी है, अब वे बड़े हो गये हैं उनकी अपनी जिंदगी है फिर तुम क्यों बेवजह बच्चों की तरह उनकी जिंदगी में हमेशा दखलंदाजी करती रहती हो । अब जैसा तुम चाहोगी वैसा ही तो सदैव नहीं होगा, तुम्हें मूवी देखनी ही है तो हम दोनों किसी और दिन जाकर देख आयेंगे ।’ विशाल की बात सुनकर वह चुप हो गई थी...वैसे भी उनसे कुछ भी कहने से कोई फायदा नहीं था पर बार-बार दोस्त के लिये स्वयं को नकारे जाने का दंश चुभ-चुभ कर पीड़ा पहुंचा रहा था । ठंडे मन से सोचा तब लगा कि विशाल सच ही कह रहे हैं...कल तक उसकी अँगुली पकड़कर चलने वाले बच्चे अब सचमुच बड़े हो गये हैं...और उनमें बच्चों जैसी जिद पता नहीं क्यो आती जा रही है । उसकी सास अक्सर कहा करती थीं बच्चे बूढ़े एक समान लेकिन तब वह इस उक्ति का मजाक बनाया करती थी पर अब वह स्वयं भी जाने अनजाने उन्हीं की तरह व्यवहार करने लगी है....आखिर क्या आवश्यकता थी उनके साथ मूवी देखने जाने के लिये कहने की, जब वे स्वयं ही उससे चलने के लिये नहीं कह रहे थे । वही विभव था जिसे बचपन में अगर कुछ खरीदना होता या मूवी जानी होती तो पापा को स्वयं कहने के बजाय उससे सिफारिश करवाता था । सच समय के साथ सब कितना बदलता जाता है । अब तो उसे उसका साथ भी अच्छा नहीं लगता है क्यांेकि अब वह उसकी नजरों में दकियानूसी, पुरातनपंथी, या उसके शब्दों में ओल्डफैशन्ड हो गई है । जिसे आज के जमाने के तौर तरीके नहीं आते जबकि वह अपने समय में पार्टियों की जान हुआ करती थी, लोग उसकी जिंदादिली के कायल थे । समय के साथ उसमें परिवर्तन अवश्य आ गया है पर फिर भी उसने सदा समय के साथ चलने की कोशिश की है पर अब तो उनका व्यवहार देखकर उनके साथ कहंी जाने का मन ही नहीं करता है । किसी ने सच ही कहा है....बचपन में एक से पाँच वर्ष के बच्चे के लिये माँ से प्यारा कोई नहीं होता । बाल्याावस्था में पाँच से बारह वर्ष तक, माँ उसका आदर्श होती है किशोरावस्था तक पहुँचते-पहुँचते बात-बेबात टोकने वाली तानाशाह, यौवनावस्था में उसके बच्चों को पालने वाली धाय तथा बुढ़ापे में उनके लिये बोझ बन जाती है...आज शायद वह उनके लिये बोझ बन गई है । ‘ आँटी आप किस सोच में डूब गई हैं...प्लीज चलिए न, परिणीता शरतचंद्र के उपन्याास पर आधारित अच्छी मूवी है । आपको अवश्य पसंद आयेगी ।’ आग्रह करते हुए शेफाली ने कहा । शेफाली की आवाज सुनकर नमिता अतीत से वर्तमान में लौट आई...शरतचंद्र उसके प्रिय लेखक हैं । उसने अशोक कुमार और मीना कुमारी द्वारा अभिनीत पुरानी ‘परिणीता’ भी देखी है, उपन्यास भी पढ़ा है फिर भी शेफाली के आग्रह पर पुनः उस मूवी को देखने का लोभ संवरण नहीं कर पाई तथा उसका आग्रह स्वीकार कर लिया । उसकी सहमति पाकर शेफाली उसे तैयार होने का निर्देश देती हुई स्वयं भी तैयार होने चली गई । विशाल अपने एक निकटतम मित्र रविकांत के पुत्र के विवाह में गये थे । जाना तो वह भी चाहती थी पर उसी समय यहाँ भी उसकी सहेली की बेटी विवाह पड़ गया । विशाल ने कहा मैं रविकांत के पुत्र के विवाह में सम्मिलित होकर आता हँू तथा तुम यहाँ अपनी मित्र की पुत्री के विवाह में सम्मिलित हो जाओ, कम से कम किसी को शिकायत का मौका तो न मिले...वैसे भी उन्होंने हमारे सभी बच्चों के विवाह में आकर हमारा मान बढ़ाया था, इसीलिये दोनों जगह जाना आवश्यक है । विशाल के न होने के कारण अकेले बैठ कर बोर होती रहती या व्यर्थ हो आये सीरियलस में दिमाग खपाती रहती । अब इस उम्र में समय काटने के लिये इंसान करे भी तो क्या करे ? न चाहते हुए भी टी.वी. देखना एक मजबूरी सी बन गई है या कहिए मनोरंजन का एक सस्ता और सुलभ साधन यही रह गया है वरना आत्मकेंद्रित होती जा रही दुनिया में आज किसी के लिये, किसी के पास समय ही नहीं रहा है । वैसे भी आज जब अपने बच्चों को ही माता-पिता की परवाह नहीं रही है तो किसी अन्य से क्या आशा करना...? ऐसी मनःस्थिति में जी रही नमिता के लिये शेेफाली का आग्रह सुकून दे गया था अतः थोड़े नानुकुर के पश्चात् उसने उसका आग्रह स्वीकार कर लिया था । तैयार होते हुये अनायास ही मन अतीत की स्मृतियों में विचरण करने लगा । चार बच्चों के रहते वे दोनों एकाकी जिंदगी जी रहे हैं । एक बेटा शैलेश और बेटी निशा विदेश में, क्रमशः कनाडा और अमेरिका में हैं तथा दो विभव और कविता यहाँ मुंबई और दिल्ली में हैं...। दो बार विदेश जाकर शैलेश और निशा के पास भी वे रह आये थे लेकिन वहाँ की भाग दौड़ वाली जिंदगी उन्हें रास नहीं आई थी । विदेश की बात तो छोड़िये अब तो मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों का भी यही हाल है, वहाँ भी पूरे दिन ही अकेले रहना पड़ता था । आजकल तो जब तक पति-पत्नी दोनों न कमायें तब तक किसी का काम ही नहीं चलता है...भले बच्चों को आया के भरोसे या क्रेच में क्यों न छोड़ना पड़े !!! एक उनका समय था जब बच्चों के लिये इंसान अपना पूरा जीवन ही अर्पित कर दिया करता था पर आजकल तो युवाओं के लिये अपना कैरियर ही मुख्य है । माता-पिता की बात तो छोड़िये कभी-कभी तो उसे लगता है आज की पीढ़ी को अपने बच्चों की भी परवाह नहीं है । पैसों से वे उन्हें सारी दुनिया खरीद कर तो देना चाहते हैं पर उनके पास बैठकर, प्यार के दो मीठे बोल के लिये उनके पास समय नहीं है । बच्चों के पास मन नहीं लगा तो यहाँ बनारस अपने घर चले आये । जब विशाल ने इस घर को बनवाने के लिये लोन लिया था तब नमिता ने यह कहकर विरोध किया था कि क्यों पैसा बरबाद कर रहे हो, बुढ़ापे में अकेले थोड़े ही रहेंगे...चार बच्चे हैं वे भी हमें अकेले थोड़े ही रहने देंगे पर पिछले चार वर्ष इधर-उधर भटक कर अंततः अकेले रहने का फैसला कर ही लिया । किराये पर उठाया घर खाली कराकर रहने लायक बनवा लिया था । कभी बेमन से बनवाया घर अचानक बहुत अच्छा लगने लगा था । अकेलेपन की विभीषिका से मुक्ति पाने के लिये पिछले तीन महीने पूर्व घर का एक हिस्सा किराये पर दे दिया था । शशांक और शेफाली अच्छे सुसंस्कृत लगे, उनका एक छोटा बच्चा है । इस शहर में नये-नये आये थे । शशांक एक प्राइवेट कंपनी में काम करता है, उन्हें घर की आवश्यकता थी औैर हमें अच्छे पड़ोसी की, अतः रख लिया । अभी शशांक और शेफाली को आये हुए हफ्ता भर भी नहीं हुआ था कि एक दिन शेफाली ने आकर उनसे कहा, ‘आँटी अगर आपको कोई तकलीफ न हो तो बब्बू को आपके पास छोड़ जाऊँ, कुछ आवश्यक काम से जाना है, जल्दी ही आ जायेंगे ।’ उसका आग्रहयुक्त स्वर सुनकर पता नहीं क्यों वह मना नहीं कर पाई...उस बच्चे के साथ दो घंटे कैसे बीत गये पता ही नहीं चला । इस बीच न तो वह रोया न ही परेशान किया । उसने उसके सामने अपने पोते के छोड़े हुए खिलौने डाल दिये थे, वह उनसे ही खेलता रहा । उसके साथ खेलते और बातें करते हुए उसे अपने पोते विक्की की याद आ गई...वह भी लगभग इसी उम्र का है । उस बच्चे में वह अपने नाती, पोतों को ढँूढने लगी....उस दिन के बाद तो नित्य का क्रम बन गया, जिस दिन वह नहीं आता, वह स्वयं आवाज देकर उसे बुला लेती...बच्चा उन्हें दादी कहता तो मन भावविभोर हो उठता । धीरे-धीरे शेफाली भी उसके साथ सहज होने लगी थी । कभी कोई अच्छी सब्जी बनाती तो आग्रह पूर्वक उसे दे जाती । एक दिन उसने उसे अपने पैरों में दर्द निवारक दवा लगाते हुये देख लिया तो उसने उससे दवा लेकर आग्रहपूर्वक लगाई ही नहीं, नित्य का क्रम भी बना लिया । कभी-कभी वह उसके सिर की मालिश भी कर दिया करती थी । कभी-कभी उसे लगता इतना स्नेह तो उसे अपने बहू बेटों से भी नहीं मिला है, कभी वे उनके नजदीक भी आये तो सिर्फ इतना जानने के लिये कि उनके पास कितना पैसा है तथा कितना उन्हें मिलेगा !! शशांक भी आफिस से आकर उनका हालचाल अवश्य पूछता...बिजली, पानी और टेलीफोन का बिल वही जमा करा दिया करता था । यहाँ तक कि बाजार जाते हुए भी वह अक्सर उनसे पूछने आता कि उन्हें कुछ मँगाना तो नहीं है । उनके रहने से उनकी काफी समस्यायें हल हो गई थीं । कभी-कभी उसे लगता, अपने बच्चों का सुख तो उन्हें मिला नहीं पर इस बुढ़ापे में भगवान ने उनकी देखभाल के लिये इन्हें भेज दिया है । विशाल ने उसे कई बार चेताया कि किसी पर इतना विश्वास करना ठीक नहीं है पर वह उनको यह कहकर चुप करा दिया करती कि आदमी की पहचान है मुझे...ये सभ्रांत और सुशील हैं, अच्छे परिवार से हैं, अच्छे संस्कार मिले हैं वरना आज के युग में कोई किसी का इतना ध्यान नहीं रखता है । ‘ आँटीजी, आप तैयार हो गई, शशांक आटो ले आये हैं...।’ शेफाली की आवाज ने नमिता को विचारों के बबंडर से बाहर निकाला...आजकल न जाने क्या हो गया है, उठते-बैठते, खाते-पीते अनचाहे विचार आकर उसे परेशान करने लगते हैं । ‘ हाँ बेटी, बस अभी आई...।’ कहते हुए पर्स में कुछ रूपये यह सोचकर रखे कि मैं बड़ी हूँ , आखिर मेरे होते हुए मूवी के पैसे वे दें, उचित नहीं लगेगा । आग्रह कर मूवी की टिकट के पैसे उन्हें पकड़ाये...मूवी अच्छी लग रही थी । कहानी के पात्रों में वह इतना डूब गई कि समय का पता ही नहीं चला । इंटरवल होने पर उसकी ध्यानावस्था भंग हुई । इंटरवल होते ही शशांक उठकर चला गया तथा थोड़ी ही देर में पापकार्न तथा कोकाकोला लेकर आ गया । शेफाली और उसे पकड़ाते हुए यह कहकर चला गया कि कुछ पैसे बाकी हैं उन्हें लेकर आता हूँ । मूवी प्रारंभ होने भी नहीं पाई थी कि बच्चा रोने लगा... ‘ आँटी मैं इसे चुप कराकर अभी आती हूँ ।’ कहकर शेफाली भी चली गई । आधा घंटा हुआ, एक घंटा हुआ पर दोनों में से किसी को भी न लौटते देखकर मन आशंकित होने लगा....थोड़ी-थोड़ी देर बाद मुड़कर देखती पर फिर यह सोचकर रह जाती कि शायद बच्चा चुप न हो रहा हो, इसलिये वे दोनों बाहर ही रह गये होंगे । सच में छोटे बच्चों के साथ मूवी देखना कितना मुश्किल है, इसका एहसास है उसे... उसके स्वयं के बच्चे जब छोटे थे, तब टाफी, बिस्कुट सब लेकर जाने के बावजूद कभी-कभी इतना परेशान करते थे कि मूवी देखना ही कठिन हो जाता था । कभी-कभी तो उसे या विशाल को उनको लेकर बाहर ही खडे रहना पड़ जाता था...नतीजा यह हुआ कि उन्होंने कुछ वर्षो तक उन्होंने मूवी देखनी ही छोड़ दी थी । यही सोचकर अनचाहे विचारांे को झटक कर नमिता ने मूवी में मन लगाने का प्रयत्न किया...वह फिर कहानी के पात्रों में खो गई...अंत सुखद था पर फिर भी आँखें भर आई । आँखें पोंछकर वह इधर-उधर देखने लगी । इस समय भी शशांक और शेफाली को न पाकर वह सहम उठी । बहुत दिनों से वह अकेले घर से निकली नहीं थी अतः और भी डर लग रहा था । समझ में नहीं आ रहा था कि वे उसे अकेले छोड़कर कहाँ गायब हो गये ? बच्चा चुप नहीं हो रहा था तो कम से कम एक को तो अब तक उसके पास आ जाना चाहिए था । धीरे-धीरे हाल खाली होने लगा पर उन दोनों का कोई पता नहीं था । घबराये मन से वह अकेली ही बाहर चल पड़ी । हाल से बाहर आकर अपरिचित चेहरों में उन्हें ढूँढने लगी...धीरे-धीरे सब जाने लगे । अंततः एक ओर खड़ी होकर वह सोचने लगी कि अब वह क्या करे ? उनका इंतजार करे या आटो करके घर चली जाये...। ‘अम्मा, यहाँ किसका इंतजार कर रही हो....?’ उसको ऐसे अकेला खड़ा देखकर वाचमैन ने उनसे पूछा । ‘ बेटा, जिनके साथ आई थी, वह नहीं मिल रहे हैं ।’ ‘ आपके बेटा बहू थे...।’ ‘ हाँ...। ’ कुछ और कहकर वह बात का बतंगड़ नहीं बनाना चाहती थी । ‘ आजकल सब ऐसे ही होते हैं, बूढ़े माता-पिता की तो किसी को चिंता ही नहीं रहती है ।’ कहते हुये वह बुदबुदा उठा था । वह शर्म से पानी-पानी हो रही थी पर और कोई चारा न देखकर तथा उसकी सहानुभूति पाकर हिम्मत बटोर कर कहा,‘ बेटा, एक अहसान करेगा...।’ ‘ कहिए माँजी...।’ ‘ मुझे एक आटो रिक्शा लाकर दे दे...।’ उसने नमिता का हाथ पकड़कर सड़क पार करवाई और आटो में बिठा दिया । घर पहँुचकर जैसे आटो से उतर कर दरवाजे पर लगे ताले को खोलने के लिये हाथ बढ़ाया तो खुला ताला देखकर वह हैरानी में पड़ गई । वह हड़बड़ा कर अंदर घुसी तो देखा अलमारी खुली पड़ी है तथा सारा सामान जहाँ तहाँ बिखरा पड़ा है । लाखों के गहने और कैश गायब हैं....मन कर रहा था कि खूब जोर-जोर से रोये पर रोकर भी क्या करती ? उसे प्रारंभ से ही गहनों का शौक था जब भी पैसा बचता उससे वह गहने खरीद लाती । विशाल कभी उसके इस शौक पर हँसते तो कहती, ‘ मैं पैसा व्यर्थ नहीं गँवा रही हूँ , कुछ ठोस चीज ही खरीद रही हूँ ....वक्त पर काम आयेगी ।’ पर वक्त पर काम आने की बजाए उन्हें तो कोई और ही ले भागा । किटी के मिले पचास हजार उसने अलग से रख रखे थे । घर में कुछ काम करवाया था, कुछ होना बाकी था, उसके लिये कान्टक्टर को एडवांस देना था । विशाल ने किटी के रूपयों में से उसे देने के लिये कहा तो उसने यह कहकर मना कर दिया कि वह इससे अपने लिये कान की नई डिजाइन की लटकन खरीदेगी । कान्टक्टर को देने के लिये, जाने से पूर्व ही विशाल ने अस्सी हजार रूपये बैंक से निकलवाये थे...पर वायदा करने के बावजूद निश्चित तिथि पर वह न काम के लिये आया और न ही पैसे ही ले गया । यद्यपि पहले भी एक दो बार वह ऐसा कर चुका था । जब भी ऐसा होता, वह मजदूरों का रोना लेकर बैठ जाता कि काम करने के लिये मजदूर ही नहीं मिल रहे हैं । उसने अपनी सहेली की पुत्री के विवाह में पहनने के लिये लाकर से गहने निकलवाये थे पर विशाल के भी उसी समय विवाह में जाने के कारण वह उन्हें वापस नहीं रख पाई थी...सब एक झटके में चला गया । जहाँ कुछ देर पहले वह शशांक और शेफाली के बारे में सोच-सोचकर परेशान थी वहीं अब इस नई आई मुसीबत के कारण समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे ? फिर यह सोच कर कि शायद बच्चे के कारण शशांक और शेफाली अधूरी मूवी छोड़कर घर न आ गये हों, उन्हें आवाज लगाई । कोई आवाज न पाकर वह उस ओर गई, वहाँ उनका कोई सामान न पाकर अचकचा गई....खाली घर पड़ा था....बस उनका दिया पलंग और एक टेबल दो कुर्सी पड़ी थी । किचन का तो वैसे भी उनके पास ज्यादा सामान नहीं था...कपड़ों के अतिरिक्त बर्तन के नाम पर उनके पास एक कुकर, कड़ाही तथा दो प्लेट, कुछ कटोरी और ग्लास ही थे । राशन का सामान भी पोलीथीन की थैलियों में रखा देख एक बार उसने पूछा तो शेफाली ने झिझकते हुये कहा था,‘ आँटी, इनका नया जॉब है....ज्यादा कुछ खरीद नहीं पाये हैं, इन्हीं को धो-धोकर काम चला लेती हूँ ...।’ ‘ कोई बात नहीं बेटा, धीरे-धीरे सब आ जायेगा ।’ कहते हुये उसने उनका मनोबल बढ़ाया था । तो क्या यह सब उन्होंने किया...? अविश्वास से नमिता ने स्वयं से ही पूछा । उसे याद आया वह पल जब वह पडोसन राधा वर्मा के साथ विवाह में सम्मिलित होने के लिये निकल रही थी तब आदतन उसने शेफाली को आवाज लगाकर घर का ध्यान रखने के लिये कहा, तब उसने हसरत भरी नजर से उसे देखते हुए कहा था,‘ आँटी, बड़ा सुंदर हार है...।’ ‘ पूरे दो लाख का हीरा जड़ित हार है...।’ तब उसने बिना आगा पीछा सोचे स्त्रियोचित मानसिकता के साथ गर्व से कहा था । अब वह अपने बड़बोलेपन पर पछता रही थी । उन्हें कैश और जेवरों के बारे में सब पता था, तभी शायद उन्होंने यह साजिश रची थी । विश्वास न होने के बावजूद सारे सबूत उनकी ओर ही इशारा कर रहे थे । अब चोरी से भी ज्यादा दुख तो उसे इस बात का था कि जिन पर उसने विश्वास किया उन्हीं ने उसकी पीठ में खंजर भौंका । गलती उनकी नहीं उसकी थी जो विशाल के बार-बार समझाने के बावजूद वह उनकी मीठी-मीठी बातों में आ गई । अब पूरी तस्वीर एक दम साफ नजर आ रही थी... मूवी देखने का आग्रह करना, बीच में उठकर चले आना...सब कुछ उसके सामने चलचित्र की भाँति घूम रहा था । कितना शातिर ठग था वह...किसी को शक न हो इसलिये इतनी सफाई से पूरी योजना बनाई । उसे मूवी दिखाने ले जाना भी उसी योजना का हिस्सा था, उसे पता था कि विशाल घर पर नहीं है, इतनी गर्मी में कूलर एवं ए.सी.की आवाज में आस-पड़ोस में किसी को सुनाई देगा नहीं और वे आराम से अपना काम कर लेंगे तथा भागने के लिये भी समय मिल जायेगा । कहीं कोई चूक नहीं, शर्मिन्दगी या डर नहीं...आश्चर्य तो इस बात का था आदमी की पहचान का दावा करने वाली उसके अंदर की नमिता को, उनके साथ इतने दिन साथ रहने के बावजूद, कभी उन पर शक क्यों नहीं हुआ ? स्वयं को संयत कर विशाल को फोन किया...घटना की जानकारी देते हुये वह रोने लगी थी । उसे रोता देखकर उन्होंने उसे सांत्वना देते हुए पड़ोसी वर्मा के घर जाकर सहायता माँगने के लिये कहा । वह बदहवास सी बगल में रहने वाली राधा वर्मा के पास गई...राधा वर्मा को सारी स्थिति से अवगत कराया तो उसने कहा,‘ कुछ आवाजें तो आ रही थीं पर मुझे लगा कि शायद आपके घर में कुछ काम हो रहा है, इसलिये ध्यान नहीं दिया ।’ ‘ भाभीजी, अब जो हो गया सो हो गया, परेशान होने या चिंता करने से कोई फायदा नहीं है । वैसे तो चोरी गया सामान मिलता नहीं है पर कोशिश करने में कोई हर्ज नहीं है चलिये एफ.आई.आर दर्ज करा देते हैं ।’ वर्मा साहब ने सारी बातें सुनकर उससे कहा । पता नहीं वर्मा साहब की बातों में उसके लिये दुख था या व्यंग्य पर यह सोच कर रह गई कि जो सच है वही तो वह कह रहे हैं, अब ऐसे समय में दस लोगों की दस तरह की बातें तो सुननी ही पड़ेंगी...उनके साथ जाकर एफ.आई.आर. दर्ज करवाई । पुलिस इंस्पेक्टर ने नमिता के बयान को सुनकर कहा,‘ इस तरह के एक युगल की तलाश तो हमें काफी दिनों से है । कुछ दिन पहले हमने पेपर में सूचना भी निकलवाई थी तथा लोगों से सावधान रहने के लिये कहा था पर शायद आपने ध्यान नहीं दिया । वह कई जगह ऐसी वारदातें कर चुका है पर किसी का भी बताया हुलिया किसी से मैच नहीं करता शायद वह विभिन्न जगहों पर, विभिन्न वेशों में, विभिन्न नाम का व्यक्ति बनकर रहता है । वह कई भाषायें भी जानता है, क्या आप उसका हुलिया बता सकेंगी ? कब से वह आपके साथ रह रहा है ?’ नमिता को जो-जो पता था, उसकी सारी जानकारी पुलिस को दे दी...पुलिस ने जिस आफिस में वह काम करता था वहाँ जाकर पता लगाया तो पता चला कि इस नाम का कोई आदमी उनके यहाँ काम ही नहीं करता । उसकी बताई जानकारी के आधार पर बस स्टेशन और रेलवे स्टेशन पर भी उन्होंने अपने आदमी भेज दिये । पुलिस ने घर आकर मुआयना किया पर कहीं कोई सुराग नहीं मिल पाया यहाँ तक कि कहीं उनकी अँगुलियों के निशान भी नहीं पाये गये । ‘ लगता है यह वही युगल है जिसकी हमें तलाश है । बहुत ही शातिर चोर है पर कब तक बचेगा हमसे ? हम लोग कई बार सिविलियन से आग्रह करते हैं कि नौकर और किरायेदार रखते वक्त पूरी सावधानी बरतें । उसके बारे में पूरी जानकारी रखें...मसलन वह कहाँ काम करता है, उसका स्थाई पता, फोटोग्राफ इत्यादि...पर आप लोग तो समझते ही नहीं हैं...जब वारदात हो जाती है तब आते हैं ।’ इंस्पेक्टर ने आक्रोशित स्वर में कहा था । ‘ इंस्पेक्टर साहब, हमारा सामान तो मिल जायेगा ।’ इंस्पेक्टर की बातों को अनसुना कर नमिता ने पूछा । ‘ माँजी, कोशिश तो कर रहे हैं, आगे ईश्वरेच्छा...वैसे इतना कैश और जेवर घर में रखने की क्या आवश्यकता थी ? वह आपका किरायेदार था, इसका कोई प्रमाण है आपके पास...।’ ‘किरायेदार...इसका हमारे पास कोई प्रमाण नहीं है...।’ इन्कमटैक्स की पेचीदगी से बचने के लिये विशाल ने कोई एग्रीमेंट ही नहीं करवाया था । उनसे किराये की रसीद भी नहीं लेते थे । सच थोड़ी सी परेशानी से बचने के लियेे उन्होंने स्वयं को अपराधियों के हवाले कर दिया था । प्रारंभ में कुछ एडवांस देने के लिये अवश्य कहा था पर जब उन्होंने असमर्थता जताई, तो पता नहीं क्यों उनकी मजबूरी देखकर मन पिघल गया । उस समय यही लगा कि हमें पैसों की आवश्यकता तो है नहीं, हमें तो सिर्फ अपना सूनापन बाँटने या घर की रखवाली के लिये अच्छे लोग चाहिए । उनकी बातों से नफासत टपक रही थी । एक बच्चे वाला युगल था, संदेह की कोई बात ही नजर नहीं आई अतः ज्यादा जाँच पड़ताल किये बिना उन्हें रख लिया । उन्होंने जो बताया वही सच मान लिया, इंस्पेक्टर की बात सुनकर नमिता मन में सोचने लगी थी । ’ यही तो गलती करते हैं आप लोग...बिना एग्रीमेंट करवाये किरायेदार रख लेते हैं, एग्रीमेंट करवाया होता तो उसमें सब कुछ दर्ज हो जाता । अब किसी के चेहरे पर तो लिखा नहीं रहता कि वह शरीफ है या बदमाश...। वह तो गनीमत है कि आप सही सलामत हैं वरना ऐसे लोगों को अपने मकसद में कामयाब होने के लिये, किसी का खून भी करना पड़े तो पीछे नहीं रहते...।’ उसे चुप देखकर इंस्पेक्टर ने कहा । इंस्पेक्टर की कडुवी बातें सुनकर भी वह चुप रही, सचमुच परिस्थितियाँ कभी-कभी अच्छे भलों को बेवकूफ बना देतीं हैं भरे मन से घर लौट आई । दूसरे दिन विशाल भी आ गये...उन्हें देखकर वह रोने लगी । उसको रोते देखकर विशाल ने उससे कहा,‘ जब मैं कहता था कि किसी पर ज्यादा भरोसा नहीं करना चाहिए तब तुम मानती नहीं थीं । उन्हीं के सामने अलमारी खोलकर रूपयों निकालना, रखना सब तुम ही तो करती थीं...।’ ‘ मुझे ही क्यों दोष दे रहे हो, आप भी तो बैंक से पैसा निकलवाने के लिये चैक उसी को देते थे ।’ उसने झुँझलाकर उत्तर दिया था । कई दिन बीत गये पर उनका कोई सुराग नहीं मिला । कभी सोचती तो उसे एकाएक विश्वास ही नहीं होता था कि वह इतने दिनों तक झूठे और मक्कार लोगों के साथ रहती रही थी । वे ठग थे तभी तो पिछले चार महीने का किराया यह कहकर नहीं दिया था कि आफिस में कुछ प्राब्लम चल रही है अतः वेतन नहीं मिल रहा है । उसने भी यह सोचकर कुछ नहीं कहा कि लोग अच्छे हैं, पैसा कहाँ जायेगा, मिल ही जायेगा...वास्तव में उनका स्वभाव देखकर कभी लगा ही नहीं कि इनका इरादा नेक नहीं है । पर न जाने क्यों सब कुछ जानते बूझते हुए भी नमिता अब भी विश्वास नहीं कर पा रही थी कि दुनिया में उन जैसे दोमुंहा स्वभाव वाले, शालीनता का मुखौटा पहने लोग भी होते हैं । कितना शालीन और सौम्य व्यवहार था उनका ? जितना सेवा भाव शेफाली में था उतना ही शशांक में भी था । जब कभी वह अपने बेटे बहू से उनकी तुलना करती तो मन अजीब सा हो जाता था, समझ में नहीं आता था कि उनकी परवरिश में कहाँ कमी रह गई कि जो उनके बच्चों ने उन्हें एकदम भुला दिया है....वहीं इन अनजानों ने उन्हें वही प्यार और सम्मान दिया जो वह अपने बच्चों से पाना चाहती थी । क्या कोई किसी की इतनी सेवा या ख्याल रखने का नाटक कर सकता है ? वह तो यह सोच-सोच कर खुश होती रहीं थीं कि अभी भी ऐसे लोग इस धरा पर हैं जो अपने माता-पिता की तरह ही दूसरों का ख्याल रख सकते हैं पर इतने सौम्य चेहरों का इतना घिनौना रूप भी हो सकता है, कभी मन मस्तिष्क में भी नहीं आया था । मुँह में राम और बगल में छुरी वाला मुहावरा शायद ऐसे लोगों की फिदरत देखकर ही किसी ने ईजाद किया होगा । आश्चर्य तो इस बात का था इतने दिन साथ रहने के बावजूद उसे कभी उन पर शक नहीं हुआ । उसने अखबारों और टी.वी. में उनकी तरह अलग रह रहे वृद्धों के लूटे और मारे जाने की घटनायें पढ़ी और सुनी थी पर उसके साथ भी कभी कुछ ऐसा ही घटित होगा उसने सोचा ही न था । आज जब स्वयं पर पड़ी तो समझ में आया कि उन जैसे असुरक्षा की भावना से पीड़ित, बेगानों में अपनों को ढूँढते , वृद्धों को आसानी से बेवकूफ बना लेना ऐसे लोगों के लिये कितना आसान है...!! अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति हेतु इस हद तक गिर चुके लोगों के लिये यह मात्र खेल ही हो पर किसी की भावनाओं को कुचलते, तोड़ते-मरोड़ते, उनकी संवेदनशीलता और सदाशयता का फायदा उठाकर, उन जैसों के वजूद को मिटाते लोगों को जरा भी लज्जा नहीं आती !!! आखिर उन जैसे वृद्ध जायें तो जायें कहाँ....? क्या किसी को अपना समझना या उसकी सहायता करना अनुचित है...? किसी की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करते इन जैसे लोग यह क्यों नहीं सोच पाते कि एक दिन बुढ़ापा उनको भी आयेगा । वैसे भी उनका यह खेल आखिर चलेगा भी कब तक चलेगा....? क्या झूठ और मक्कारी पर खड़ी की गई दौलत पर वह सुकून से जी पायेंगे ? क्या संस्कार दे पायेंगे अपने नवांकुरों को...? घंटी की आवाज के साथ नमिता यह सोचकर उठी शायद काम वाली लीला आई होगी । दरवाजा खोलकर वह रमाकांत के कमरे में गई वह सो रहे थे । यह सोचकर वह चाय बनाने लगी कि अब उन्हें उठा ही देना चाहिये किन्तु फिर भी मन में चलता बबंडर उसे चैन नहीं लेने दे रहा था...बार-बार एक ही प्रश्न उसके मनमस्तिष्क को मथ रहा था...इंसान आखिर भरोसा करे भी तो किस पर करे ? जिसको अपना माना, अपना समझा, वही पीठ में छुरा भौंक दे, विश्वास का चीरहरण कर दे तो इंसान करे भी तो क्या करे...? सुधा आदेश

Saturday, June 15, 2019

कामयाब

कामयाब हमेशा जिंदादिल और खुशमिजाज रमा को अंदर आ कर चुपचाप बैठे देख चित्रा से रहा नहीं गया, पूछ बैठी, ‘‘क्या बात है, रमा…?’’ ‘‘अभिनव की वजह से परेशान हूं.’’ ‘‘क्या हुआ है अभिनव को?’’ ‘‘वह डिपे्रशन का शिकार होता जा रहा है.’’ ‘‘पर क्यों और कैसे?’’ ‘‘उसे किसी ने बता दिया है कि अगले 2 वर्ष उस के लिए अच्छे नहीं रहेंगे.’’ ‘‘भला कोई भी पंडित या ज्योतिषी यह सब इतने विश्वास से कैसे कह सकता है. सब बेकार की बातें हैं, मन का भ्रम है.’’ ‘‘यही तो मैं उस से कहती हूं पर वह मानता ही नहीं. कहता है, अगर यह सब सच नहीं होता तो आर्थिक मंदी अभी ही क्यों आती… कहां तो वह सोच रहा था कि कुछ महीने बाद दूसरी कंपनी ज्वाइन कर लेगा, अनुभव के आधार पर अच्छी पोस्ट और पैकेज मिल जाएगा पर अब दूसरी कंपनी ज्वाइन करना तो दूर, इसी कंपनी में सिर पर तलवार लटकी रहती है कि कहीं छटनी न हो जाए.’’ ‘‘यह तो जीवन की अस्थायी अवस्था है जिस से कभी न कभी सब को गुजरना पड़ता है, फिर इस में इतनी हताशा और निराशा क्यों? हताश और निराश व्यक्ति कभी सफल नहीं हो सकता. जीवन में सकारात्मक ऊर्जा लाने के लिए सोच भी सकारात्मक होनी चाहिए.’’ ‘‘मैं और अभिजीत तो उसे समझासमझा कर हार गए,’’ रमा बोली, ‘‘तेरे पास एक आस ले कर आई हूं, तुझे मानता भी बहुत है…हो सकता है तेरी बात मान कर शायद मन में पाली गं्रथि को निकाल बाहर फेंके.’’ ‘‘तू चिंता मत कर,’’ चित्रा बोली, ‘‘सब ठीक हो जाएगा… मैं सोचती हूं कि कैसे क्या कर सकती हूं.’’ घर आने पर रमा द्वारा कही बातें चित्रा ने विकास को बताईं तो वह बोले, ‘‘आजकल के बच्चे जराजरा सी बात को दिल से लगा बैठते हैं. इस में दोष बच्चों का भी नहीं है, दरअसल आजकल मीडिया या पत्रपत्रिकाएं भी इन अंधविश्वासों को बढ़ाने में पीछे नहीं हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो विभिन्न चैनलों पर गुरुमंत्र, आप के तारे, तेज तारे, ग्रहनक्षत्र जैसे कार्यक्रम प्रसारित न होते तथा पत्रपत्रिकाओं के कालम ज्योतिषीय घटनाओं तथा उन का विभिन्न राशियों पर प्रभाव से भरे नहीं रहते.’’ विकास तो अपनी बात कह कर अपने काम में लग गए पर चित्रा का किसी काम में मन नहीं लग रहा था. बारबार रमा की बातें उस के दिलोदिमाग में घूम रही थीं. वह सोच नहीं पा रही थी कि अपनी अभिन्न सखी की समस्या का समाधान कैसे करे. बच्चों के दिमाग में एक बात घुस जाती है तो उसे निकालना इतना आसान नहीं होता. उन की मित्रता आज की नहीं 25 वर्ष पुरानी थी. चित्रा को वह दिन याद आया जब वह इस कालोनी में लिए अपने नए घर में आई थी. एक अच्छे पड़ोसी की तरह रमा ने चायनाश्ते से ले कर खाने तक का इंतजाम कर के उस का काम आसान कर दिया था. उस के मना करने पर बोली, ‘दीदी, अब तो हमें सदा साथसाथ रहना है. यह बात अक्षरश: सही है कि एक अच्छा पड़ोसी सब रिश्तों से बढ़ कर है. मैं तो बस इस नए रिश्ते को एक आकार देने की कोशिश कर रही हूं.’ और सच, रमा के व्यवहार के कारण कुछ ही समय में उस से चित्रा की गहरी आत्मीयता कायम हो गई. उस के बच्चे शिवम और सुहासिनी तो रमा के आगेपीछे घूमते रहते थे और वह भी उन की हर इच्छा पूरी करती. यहां तक कि उस के स्कूल से लौट कर आने तक वह उन्हें अपने पास ही रखती. रमा के कारण वह बच्चों की तरफ से निश्ंिचत हो गई थी वरना इस घर में शिफ्ट करने से पहले उसे यही लगता था कि कहीं इस नई जगह में उस की नौकरी की वजह से बच्चों को परेशानी न हो. विवाह के 11 वर्ष बाद जब रमा गर्भवती हुई तो उस की खुशी की सीमा न रही. सब से पहले यह खुशखबरी चित्रा को देते हुए उस की आंखों में आंसू आ गए. बोली, ‘दीदी, न जाने कितने प्रयत्नों के बाद मेरे जीवन में यह खुशनुमा पल आया है. हर तरह का इलाज करा लिया, डाक्टर भी कुछ समझ नहीं पा रहे थे क्योंकि हर जांच सामान्य ही निकलती… हम निराश हो गए थे. मेरी सास तो इन पर दूसरे विवाह के लिए जोर डालने लगी थीं पर इन्होंने किसी की बात नहीं मानी. इन का कहना था कि अगर बच्चे का सुख जीवन में लिखा है तो हो जाएगा, नहीं तो हम दोनों ऐसे ही ठीक हैं. वह जो नाराज हो कर गईं, तो दोबारा लौट कर नहीं आईं.’ आंख के आंसू पोंछ कर वह दोबारा बोली, ‘दीदी, आप विश्वास नहीं करेंगी, कहने को तो यह पढ़ेलिखे लोगों की कालोनी है पर मैं इन सब के लिए अशुभ हो चली थी. किसी के घर बच्चा होता या कोई शुभ काम होता तो मुझे बुलाते ही नहीं थे. एक आप ही हैं जिन्होंने अपने बच्चों के साथ मुझे समय गुजारने दिया. मैं कृतज्ञ हूं आप की. शायद शिवम और सुहासिनी के कारण ही मुझे यह तोहफा मिलने जा रहा है. अगर वे दोनों मेरी जिंदगी में नहीं आते तो शायद मैं इस खुशी से वंचित ही रहती.’ उस के बाद तो रमा का सारा समय अपने बच्चे के बारे में सोचने में ही बीतता. अगर कुछ ऐसावैसा महसूस होता तो वह चित्रा से शेयर करती और डाक्टर की हर सलाह मानती. धीरेधीरे वह समय भी आ गया जब रमा को लेबर पेन शुरू हुआ तो अभिजीत ने उस का ही दरवाजा खटखटाया था. यहां तक कि पूरे समय साथ रहने के कारण नर्स ने भी सब से पहले अभिनव को चित्रा की ही गोदी में डाला था. वह भी जबतब अभिनव को यह कहते हुए उस की गोद में डाल जाती, ‘दीदी, मुझ से यह संभाला ही नहीं जाता, जब देखो तब रोता रहता है, कहीं इस के पेट में तो दर्द नहीं हो रहा है या बहुत शैतान हो गया है. अब आप ही संभालिए. या तो यह दूध ही नहीं पीता है, थोड़ाबहुत पीता है तो वह भी उलट देता है, अब क्या करूं?’ हर समस्या का समाधान पा कर रमा संतुष्ट हो जाती. शिवम और सुहासिनी को तो मानो कोई खिलौना मिल गया, स्कूल से आ कर जब तक वे उस से मिल नहीं लेते तब तक खाना ही नहीं खाते थे. वह भी उन्हें देखते ही ऐसे उछलता मानो उन का ही इंतजार कर रहा हो. कभी वे अपने हाथों से उसे दूध पिलाते तो कभी उसे प्रैम में बिठा कर पार्क में घुमाने ले जाते. रमा भी शिवम और सुहासिनी के हाथों उसे सौंप कर निश्ंिचत हो जाती. धीरेधीरे रमा का बेटा चित्रा से इतना हिलमिल गया कि अगर रमा उसे किसी बात पर डांटती तो मौसीमौसी कहते हुए उस के पास आ कर मां की ढेरों शिकायत कर डालता और वह भी उस की मासूमियत पर निहाल हो जाती. उस का यह प्यार और विश्वास अभी तक कायम था. शायद यही कारण था कि अपनी हर छोटीबड़ी खुशी वह उस के साथ शेयर करना नहीं भूलता था. पर पिछले कुछ महीनों से वह उस में आए परिवर्तन को नोटिस तो कर रही थी पर यह सोच कर ध्यान नहीं दिया कि शायद काम की वजह से वह उस से मिलने नहीं आ पाता होगा. वैसे भी एक निश्चित उम्र के बाद बच्चे अपनी ही दुनिया में रम जाते हैं तथा अपनी समस्याओं के हल स्वयं ही खोजने लगते हैं, इस में कुछ गलत भी नहीं है पर रमा की बातें सुन कर आश्चर्यचकित रह गई. इतने जहीन और मेरीटोरियस स्टूडेंट के दिलोदिमाग में यह फितूर कहां से समा गया? बेटी सुहासिनी की डिलीवरी के कारण 1 महीने घर से बाहर रहने के चलते ऐसा पहली बार हुआ था कि वह रमा और अभिनव से इतने लंबे समय तक मिल नहीं पाई थी. एक दिन अभिनव से बात करने के इरादे से उस के घर गई पर जो अभिनव उसे देखते ही बातों का पिटारा खोल कर बैठ जाता था, उसे देख कर नमस्ते कर अंदर चला गया, उस के मन की बात मन में ही रह गई. वह अभिनव में आए इस परिवर्तन को देख कर दंग रह गई. चेहरे पर बेतरतीब बढ़े बालों ने उसे अलग ही लुक दे दिया था. पुराना अभिनव जहां आशाओं से ओतप्रोत जिंदादिल युवक था वहीं यह एक हताश, निराश युवक लग रहा था जिस के लिए जिंदगी बोझ बन चली थी. समझ में नहीं आ रहा था कि हमेशा हंसता, खिलखिलाता रहने वाला तथा दूसरों को अपनी बातों से हंसाते रहने वाला लड़का अचानक इतना चुप कैसे हो गया. औरों से बात न करे तो ठीक पर उस से, जिसे वह मौसी कह कर न सिर्फ बुलाता था बल्कि मान भी देता था, से भी मुंह चुराना उस के मन में चलती उथलपुथल का अंदेशा तो दे ही गया था. पर वह भी क्या करती. उस की चुप्पी ने उसे विवश कर दिया था. रमा को दिलासा दे कर दुखी मन से वह लौट आई. उस के बाद के कुछ दिन बेहद व्यस्तता में बीते. स्कूल में समयसमय पर किसी नामी हस्ती को बुला कर विविध विषयों पर व्याख्यान आयोजित होते रहते थे जिस से बच्चों का सर्वांगीण विकास हो सके. इस बार का विषय था ‘व्यक्तित्व को आकर्षक और खूबसूरत कैसे बनाएं.’ विचार व्यक्त करने के लिए एक जानीमानी हस्ती आ रही थी. आयोजन को सफल बनाने की जिम्मेदारी मुख्याध्यापिका ने चित्रा को सौंप दी. हाल को सुनियोजित करना, नाश्तापानी की व्यवस्था के साथ हर क्लास को इस आयोजन की जानकारी देना, सब उसे ही संभालना था. यह सब वह सदा करती आई थी पर इस बार न जाने क्यों वह असहज महसूस कर रही थी. ज्यादा सोचने की आदत उस की कभी नहीं रही. जिस काम को करना होता था, उसे पूरा करने के लिए पूरे मनोयोग से जुट जाती थी और पूरा कर के ही दम लेती थी पर इस बार स्वयं में वैसी एकाग्रता नहीं ला पा रही थी. शायद अभिनव और रमा उस के दिलोदिमाग में ऐसे छा गए थे कि वह चाह कर भी न उन की समस्या का समाधान कर पा रही थी और न ही इस बात को दिलोदिमाग से निकाल पा रही थी. आखिर वह दिन आ ही गया. नीरा कौशल ने अपना व्याख्यान शुरू किया. व्यक्तित्व की खूबसूरती न केवल सुंदरता बल्कि चालढाल, वेशभूषा, वाक्शैली के साथ मानसिक विकास तथा उस की अवस्था पर भी निर्भर होती है. चालढाल, वेशभूषा और वाक्शैली के द्वारा व्यक्ति अपने बाहरी आवरण को खूबसूरत और आकर्षक बना सकता है पर सच कहें तो व्यक्ति के व्यक्तित्व का सौंदर्य उस का मस्तिष्क है. अगर मस्तिष्क स्वस्थ नहीं है, सोच सकारात्मक नहीं है तो ऊपरी विकास सतही ही होगा. ऐसा व्यक्ति सदा कुंठित रहेगा तथा उस की कुंठा बातबात पर निकलेगी. या तो वह जीवन से निराश हो कर बैठ जाएगा या स्वयं को श्रेष्ठ दिखाने के लिए कभी वह किसी का अनादर करेगा तो कभी अपशब्द बोलेगा. ऐसा व्यक्ति चाहे कितने ही आकर्षक शरीर का मालिक क्यों न हो पर कभी खूबसूरत नहीं हो सकता, क्योंकि उस के चेहरे पर संतुष्टि नहीं, सदा असंतुष्टि ही झलकेगी और यह असंतुष्टि उस के अच्छेभले चेहरे को कुरूप बना देगी. मान लीजिए, किसी व्यक्ति के मन में यह विचार आ गया कि उस का समय ठीक नहीं है तो वह चाहे कितने ही प्रयत्न कर ले सफल नहीं हो पाएगा. वह अपनी सफलता की कामना के लिए कभी मंदिर, मसजिद दौड़ेगा तो कभी किसी पंडित या पुजारी से अपनी जन्मकुंडली जंचवाएगा. मेरे कहने का अर्थ है कि वह प्रयत्न तो कर रहा है पर उस की ऊर्जा अपने काम के प्रति नहीं, अपने मन के उस भ्रम के लिए है…जिस के तहत उस ने मान रखा है कि वह सफल नहीं हो सकता. अब इस तसवीर का दूसरा पहलू देखिए. ऐसे समय अगर उसे कोई ग्रहनक्षत्रों का हवाला देते हुए हीरा, पन्ना, पुखराज आदि रत्नों की अंगूठी या लाकेट पहनने के लिए दे दे तथा उसे सफलता मिलने लगे तो स्वाभाविक रूप से उसे लगेगा कि यह सफलता उसे अंगूठी या लाकेट पहनने के कारण मिली पर ऐसा कुछ भी नहीं होता. वस्तुत: यह सफलता उसे उस अंगूठी या लाकेट पहनने के कारण नहीं मिली बल्कि उस की सोच का नजरिया बदलने के कारण मिली है. वास्तव में उस की जो मानसिक ऊर्जा अन्य कामों में लगती थी अब उस के काम में लगने लगी. उस का एक्शन, उस की परफारमेंस में गुणात्मक परिवर्तन ला देता है. उस की अच्छी परफारमेंस से उसे सफलता मिलने लगती है. सफलता उस के आत्मविश्वास को बढ़ा देती है तथा बढ़ा आत्मविश्वास उस के पूरे व्यक्तित्व को ही बदल डालता है जिस के कारण हमेशा बुझाबुझा रहने वाला उस का चेहरा अब अनोखे आत्मविश्वास से भर जाता है और वह जीवन के हर क्षेत्र में सफल होता जाता है. अगर वह अंगूठी या लाकेट पहनने के बावजूद अपनी सोच में परिवर्तन नहीं ला पाता तो वह कभी सफल नहीं हो पाएगा. इस के आगे व्याख्याता नीरा कौशल ने क्या कहा, कुछ नहीं पता…एकाएक चित्रा के मन में एक योजना आकार लेने लगी. न जाने उसे ऐसा क्यों लगने लगा कि उसे एक ऐसा सूत्र मिल गया है जिस के सहारे वह अपने मन में चलते द्वंद्व से मुक्ति पा सकती है, एक नई दिशा दे सकती है जो शायद किसी के काम आ जाए. दूसरे दिन वह रमा के पास गई तथा बिना किसी लागलपेट के उस ने अपने मन की बात कह दी. उस की बात सुन कर वह बोली, ‘‘लेकिन अभिजीत इन बातों को बिलकुल नहीं मानने वाले. वह तो वैसे ही कहते रहते हैं. न जाने क्या फितूर समा गया है इस लड़के के दिमाग में… काम की हर जगह पूछ है, काम अच्छा करेगा तो सफलता तो स्वयं मिलती जाएगी.’’ ‘‘मैं भी कहां मानती हूं इन सब बातों को. पर अभिनव के मन का फितूर तो निकालना ही होगा. बस, इसी के लिए एक छोटा सा प्रयास करना चाहती हूं.’’ ‘‘तो क्या करना होगा?’’ ‘‘मेरी जानपहचान के एक पंडित हैं, मैं उन को बुला लेती हूं. तुम बस अभिनव और उस की कुंडली ले कर आ जाना. बाकी मैं संभाल लूंगी.’’ नियत समय पर रमा अभिनव के साथ आ गई. पंडित ने उस की कुंडली देख कर कहा, ‘‘कुंडली तो बहुत अच्छी है, इस कुंडली का जाचक बहुत यशस्वी तथा उच्चप्रतिष्ठित होगा. हां, मंगल ग्रह अवश्य कुछ रुकावट डाल रहा है पर परेशान होने की बात नहीं है. इस का भी समाधान है. खर्च के रूप में 501 रुपए लगेंगे. सब ठीक हो जाएगा. आप ऐसा करें, इस बच्चे के हाथ से मुझे 501 का दान करा दें.’’ प्रयोग चल निकला. एक दिन रमा बोली, ‘‘चित्रा, तुम्हारी योजना कामयाब रही. अभिनव में आश्चर्यजनक परिवर्तन आ गया. जहां कुछ समय पूर्व हमेशा निराशा में डूबा बुझीबुझी बातें करता रहता था, अब वही संतुष्ट लगने लगा है. अभी कल ही कह रहा था कि ममा, विपिन सर कह रहे थे कि तुम्हें डिवीजन का हैड बना रहा हूं, अगर काम अच्छा किया तो शीघ्र प्रमोशन मिल जाएगा.’’ रमा के चेहरे पर छाई संतुष्टि जहां चित्रा को सुकून पहुंचा रही थी वहीं इस बात का एहसास भी करा रही थी, कि व्यक्ति की खुशी और दुख उस की मानसिक अवस्था पर निर्भर होते हैं. ग्रहनक्षत्रों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता. अब वह उस से कुछ छिपाना नहीं चाहती थी. आखिर मन का बोझ वह कब तक मन में छिपाए रहती. ‘‘रमा, मैं ने तुझ से एक बात छिपाई पर क्या करती, इस के अलावा मेरे पास कोई अन्य उपाय नहीं था,’’ मन कड़ा कर के चित्रा ने कहा. ‘‘क्या कह रही है तू…कौन सी बात छिपाई, मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है.’’ ‘‘दरअसल उस दिन तथाकथित पंडित ने जो तेरे और अभिनव के सामने कहा, वह मेरे निर्देश पर कहा था. वह कुंडली बांचने वाला पंडित नहीं बल्कि मेरे स्कूल का ही एक अध्यापक था, जिसे सारी बातें बता कर, मैं ने मदद मांगी थी तथा वह भी सारी घटना का पता लगने पर मेरा साथ देने को तैयार हो गया था,’’ चित्रा ने रमा को सब सचसच बता कर झूठ के लिए क्षमा मांग ली और अंदर से ला कर उस के दिए 501 रुपए उसे लौटा दिए. ‘‘मैं नहीं जानती झूठसच क्या है. बस, इतना जानती हूं कि तू ने जो किया अभिनव की भलाई के लिए किया. वही किसी की बातों में आ कर भटक गया था. तू ने तो उसे राह दिखाई है फिर यह ग्लानि और दुख कैसा?’’ ‘‘जो कार्य एक भूलेभटके इनसान को सही राह दिखा दे वह रास्ता कभी गलत हो ही नहीं सकता. दूसरे चाहे जो भी कहें या मानें पर मैं ऐसा ही मानती हूं और तुझे विश्वास दिलाती हूं कि यह बात एक न एक दिन अभिनव को भी बता दूंगी, जिस से कि वह कभी भविष्य में ऐसे किसी चक्कर में न पड़े,’’ रमा ने उस की बातें सुन कर उसे गले से लगाते हुए कहा. रमा की बात सुन कर चित्रा के दिल से एक भारी बोझ उठ गया. दुखसुख, सफलताअसफलता तो हर इनसान के हिस्से में आते हैं पर जो जीवन में आए कठिन समय को हिम्मत से झेल लेता है वही सफल हो पाता है. भले ही सही रास्ता दिखाने के लिए उसे झूठ का सहारा लेना पड़ा पर उसे इस बात की संतुष्टि थी कि वह अपने मकसद में कामयाब रही । सुधा आदेश

Friday, June 14, 2019

हाशिया

हाशिया घंटी की आवाज सुनकर मनीषा ने दरवाजा खोला... ‘ अरे, तुम लोग...कब आये, कहाँ रूके हो....? बहुत दिनों से कोई समाचार भी नहीं मिला ।’ सामने महेश और नीता को देखकर आश्चर्यचकित रह गई तथा मुँह से निकल पड़ा, ‘दीदी, काफी दिनों से आपसे मिली नहीं थी । इन्हें दिल्ली एक सेमिनार में जाना है । आपसे मिलने की चाह लिये मैं भी इनके साथ चली आई...। ब्रेक जरनी की है, शाम को छह बजे की ट्रेन पकड़नी है । यद्यपि समय कम है पर मेरी आपसे मिलने की इच्छा तो पूरी हो ही गई...।’ उसने उनके चरणस्पर्श करते हुए कहा । ‘ अच्छा किया...सच में काफी दिनों से मिले नहीं थे पर कुछ और समय लेकर आते तो और भी अच्छा लगता ।’ मनीषा ने नीता को उठाकर गले लगाते हुए कहा पर मन ही मन उसका अपने प्रति प्रेम देखकर गदगद हो उठी । आवाज सुनकर सुरेन्द्र भी बाहर निकल आये...महेश को पहचानते ही गर्मजोशी से स्वागत करते हुए वे दोनों भूत और वर्तमान की बातों में मशगूल हो गये । नीता तो जब तक रही उसके ही आगे पीछे घूमती रही, मानो वह उसकी छोटी बहन हो । बार-बार अपने सुखी जीवन के लिये उसे धन्यवाद देती हुई । अनेकों बार की तरह ही उसने अब भी उससे यही कहा था....इंसान अपना भविष्य स्वयं ही बनाता बिगाड़ता है अन्य तो निमित्त मात्र ही होते हैं । यह तुम्हारा बड़प्पन है कि तुम अभी तक उस समय को नहीं भूली हो...।’ ‘ दीदी, बड़प्पन मेरा नहीं आपका है...आप उन लोगों में से हैं जो किसी के लिये बहुत कुछ करने के पश्चात् भूल जाने में विश्वास रखते हैं । वास्तव में आप ही थीं जिसने मेरी टूटी नैया को पार लगाने में मदद की थी, आपने ही मुझे जीने की नई राह दिखाई, मेरी जिंदगी को नया आयाम दिया वरना पता नहीं आज मैं कहाँ होती...?’ जाते-जाते समय नीता ओर महेश ने कहा कि उन्हें कभी भी कोई आवश्यकता पड़े तो उन्हें अवश्य याद कीजिएगा वे तुरंत आ जायेंगे । उन्हें इस बात का बहुत ही अफसोस था कि सुरेंद्र की बीमारी की सूचना उन्हें नहीं दी गई । वे सुनील और प्रिया के विवाह में भी आये थे तथा घर के सदस्य की तरह नीता ने विवाह की पूरी जिम्मेदारी संभाल ली थी । महेश और नीता के जाने के पश्चात् सुरेन्द्र इंटरनेंट खोल कर बैठ गये...शाम को उनकी यही दिनचर्या बन गई थी....देश विदेश की खबरों को इंटरनेट के जरिये जानना या अपने अपने विदेशवासी पुत्र सुनील तथा पुत्री प्रिया से चेटिंग करना...अगर वह भी नहीं तो कंप्यूटर पर ही घंटों बैठे चैस खेलना । उन्हें सास बहू वाले सीरियलस में बिल्कुल दिलचस्पी नहीं थी । मनीषा ने टी.वी. खोला पर उसमें भी उसका मन नहीं लगा । बंद करके पास पड़ी मैगजीन उठाई, वह भी उसकी पढ़ी हुई थी । आँख बंद करके सोफे पर ही रिलैक्स होना चाहा पर वह भी नहीं संभव हो पाया...उसके मन में पिछले बाइस वर्ष पूर्व की घटनायें चलचित्र की भांति मंडराने लगी... उस समय वह बलिया में थी....पड़ोस में एक एस.डी.एम. रहते थे । अक्सर उनके घर आते रहते थे ।जब भी वह उनसे विवाह के लिये कहती तो मुस्कराकर रह जाते । एक दिन उसने देखा कि एक बुजर्ग व्यक्ति एक बच्चे को लेकर घूम रहे हैं...नौकर से पता चला कि वह साहब के पिताजी है जो उनकी पत्नी और बच्चे को लेकर आये हैं । नौकर की बात सुनकर अजीब लगा...महेश अक्सर उनके घर आते थे लेकिन उन्होंने कभी उनसे अपनी पत्नी और बच्चे का जिक्र ही नहीं किया । यहाँ तक कि उन्हें कुंआरा समझकर जब-जब भी उसने उनसे विवाह की बात की तो वह कुछ कहने की बजाय सिर्फ मुस्कराकर रह जाते थे । यह तो उसे पता था कि वह गाँव के हैं...। हो सकता है बचपन में विवाह हो गया हो लेकिन अगर वह विवाहित थे तो वह बताना क्यों नहीं चाह रहे थे ? उन्होंने नहीं बताया तो हो सकता है उनकी कोई मजबूरी रही हो, सोचकर मनमस्तिष्क में चल रही उथल-पुथल पर रोक लगाई । जब तक महेश के पिताजी रहे तब तक तो सब ठीक चलता रहा किंतु उनके जाते ही दिलों में बंद चिंगारी भभकने लगी घरों के बीच की दीवार एक होने के कारण कभी-कभी उनके असंतोष की आग का भभका हमारे घर भी आ जाता था । मन करता कि वह जाकर उनसे बात कर असंतोष का कारण जानने का प्रयत्न करे...हमारे भी बच्चे हैं उनके झगड़े का असर हमारे ऊपर भी पड़ रहा है पर दूसरों के आंतरिक मामले में दखलंदाजी न करने के स्वभाव के कारण चुप रही । एक दिन बच्चों के स्कूल तथा सुरेंद्र के आफिस जाने के पश्चात् वह बरामदे में बैठी अखबार पढ़ रही थी कि घंटी बजी । दरवाजा खोला तो सामने एक युवती को देखकर चौंक गई...उसने उसे देखकर अपना परिचय देती हुई बोली, ‘दीदी, आप हमें पहचानत नहीं हो, हमार नाम नीता है, हम आपके पड़ोसी है । आपके अलावा हम किसी और को नहीं जानत हैं इसीलिये आपके पास आये हैं । हम बहुत दुखी है । समझ में नहीं आ रहा क्या करब....?’ ‘ क्यों क्या बात है...? हमसे जितनी मदद होगी हम करेंगे...।’ उसे दिलासा देते हुए मनीषा ने उसे अंदर बुलाकर बिठाते हुये पूछा । ‘यह कहत हैं कि हम तोय से तलाक ले लेव, लड़का को तू ले जाना चाह तो ले जाव । तेरे साथ हमारा निबाह संभव नहीं...हम दूसर विवाह करना चाहत हैं ।’ कहते हुए उसकी आँखों से बड़े-बड़े आँसू निकलने लगे थे । ‘ ऐसे कैसे दूसरा विवाह कर लेंगें...? सरकारी नौकरी में एक पत्नी के होते हुए दूसरा विवाह करना संभव ही नहीं है...फिर तलाक की प्रक्रिया इतनी आसान थोड़े ही है कि मुँह से निकला नहीं और तलाक मिल गया...।’ पानी का गिलास पकड़ाते हुए उसे समझाते हुए मनीषा ने कहा । अनजान शहर में किसी के मीठे बोल सुनकर उसका रोना रूक गया । मनीषा के आग्रह करने पर उसने पानी पीया । उसके सहज होने पर मनीषा ने उससे पुनः पूछा,....‘लेकिन वह तलाक क्यों लेना चाहते हैं ?’ ‘ कहत हैं...तू पढ़ी लिखी नहीं है । हमारी सोसाइटी के लायक नहीं है । दीदी, आज हम उन्हें अच्छे नहीं लग रहे हैं लेकिन जब हम इनके माय बाप के साथ खेतन में काम करत रहें, गाँव की गृहस्थी को संभालत रहें तब इन्हें यह सब नहीं सूझ रहा था । आज जब डिप्टी बन गये हैं तब कह रहे हैं कि हम इनके लायक नहीं रहे । दस बरस के थे जब हमारा इनसे ब्याह हुआ था । गाँव के एक स्कूल से ही चार जमात तक पढ़े हैं । ये तो हमें गाँव से लाना ही नहीं चाह रहे थे । वह तो इनकी आनाकानी देखकर एक दिन ससुरजी स्वयं ही हमें यहाँ छोड़ गये थे लेकिन यह तो हमसे ढंग से बात भी नहीं करते...।’ कहते हुए उसकी आँखों से आँसू निकलने लगे थे । माथे पर बड़ी सी गोल बिंदी...गले में चाँदी की मोटी हँसुली, बालों में रच-रचकर लगाया तेल, मोटी गूँथी चोटी में चटक लाल रंग की रिबन तथा वैसी ही चटक रंग की साड़ी...गाँव वाला ढीला ढाला ब्लाउज में वह ठेठ गंवार तो लग रही थी लेकिन उसके सांवले रंग में भी एक कशिश थी । उसकी बड़ी-बड़ी आँखें अनायास ही किसी को भी अपनी ओर आकर्षित करने में समर्थ थी...लंबी सुतवां नाक, गठीला बदन, ढीले-ढाले ब्लाउज से झाँकता यौवन किसी को मदहोश करने के लिये काफी था...अगर वह अपने पहनने ओढ़ने के ढंग तथा बातचीत करने के तरीके में थोड़ा सुधार ले आये तो निश्चय ही कायाकल्प हो सकता है...। ‘ यदि तुम उनके हृदय में अपनी जगह बनाना चाहती हो तो तुम्हें अपनी पढ़ाई फिर से प्रारंभ करनी होगी तथा अपने पहनने, ओढ़ने तथा बातचीत के लहजे में भी परिवर्तन लाना होगा...।’ मनीषा ने उसे सांत्वना देते हुए कहा । ‘ दीदी, आप जैसा भी कहब हम वैसा करने को तैयार हैं । बस हमारी जिंदगी संवर जाये ।’ उसने उसके पैर छूते हुए कहा । ‘ अरे, यह क्या कर रही हो...? बड़ी हूँ इसलिये बस इतना चाहूंगी कि तुम्हारा जीवन सुखी रहे । मैं तुम्हें सहयोग अवश्य दे सकती हूँ पर प्रयास तुम्हें स्वयं ही करना होगा । पहला तो यह कि वह चाहे कितना भी गुस्सा हों तुम चुप रहो । वह एक बच्चे का पिता है । वह स्वयं अपने बच्चे को स्वयं से दूर नहीं करना चाहेगें । यदि तुम स्वयं में परिवर्तन ला पाओ तो कोई कारण नहीं कि वह तुम्हें स्वीकार न करें ।’ ‘ आप ठीक कहत हैं दीदी, वह अनूप को बेहद चाहत हैं । उन्होंने उसका एक अच्छे स्कूल में नाम भी लिखा दिया है । कल से वह स्कूल भी जाने लगा है । तभी आज हम समय निकाल कर आपके पास आये हैं ।’ ‘ तुम्हें अक्षरज्ञान तो है ही, अतः कुछ किताबें मैं तुम्हें दे रही हूँ , इन्हें तुम पढ़ो, यदि कुछ समझ में न आये तो इस पेंसिल से वहाँ निशान बना देना । मैं समझा दूँगी , सुबह ग्यारह से एक बजे तक फ्री रहती हूँ । कल आ जाना ।’ कुछ पारिवारिक पत्रिकायें पकड़ाते हुए मनीषा ने नीता से कहा । ‘ दीदी, अब हम चलें, अनूप स्कूल से आने वाला होव ।’ कहते हुए उसके चेहरे पर संतोष की छाया थी । ‘ ऐसे कैसे ? रूको मैं चाय लाती हूँ ।’ ‘ अब चलत हैं चाय फिर कभी...।’ कहते हुये एक बार फिर उसने उसके पैर छू लिये थे । मनीषा के प्यार भरे वचन सुनकर वह काफी व्यवस्थित हो गई थी किंतु फिर भी मन में भविष्य के प्रति अनिश्चितता थी । नीता के चेहरे पर छिपी व्यथा ने मनीषा का मन कसैला कर दिया था । पहली मुलाकात में महेश उन्हें अत्यंत भले, हाजिर जबाब तथा मिलनसार लगे थे किंतु पत्नी के साथ ऐसा दुर्व्यवहार...यहाँ तक कि दूसरे विवाह में कोई बाधा उत्पन्न न हो इसलिये अपने पुत्र से भी निजात पाना चाहते हैं । कैसे इंसान है वह ? सच है दुल्हन वही जो पिया मन भाये...किंतु विवाह कोई खेल तो नहीं, फिर इसमें इस मासूम का क्या दोष ? अपने छोटे मासूम बच्चे के साथ अकेले वह अपनी जिंदगी कैसे गुजारेगी...आखिर एक पुरूष यह क्यों नहीं सोच पाता ? कहीं महेश का किसी और के साथ चक्कर तो नहीं है, एक आशंका मन में उमड़ी...नहीं-नहीं महेश ऐसे नहीं हो सकते । अगर ऐसा होता तो अनूप का दाखिला यहाँ नहीं करवाते...शायद अपनी अनपढ़, गंवार बीबी को देखकर वह हीनभावना के शिकार हो गये हैं और हीनभावना से उपजी कुंठा उनसे वह सब कहलवा देती है जो शायद सामान्य रूप से वह न कहते लेकिन अगर ऐसा है तो वह स्वयं कुछ प्रयास कर उसमें परिवर्तन ला सकते हैं...स्वयं उसे पढ़ा सकते हैं । कई अनुत्तरित प्रश्न लिये वह किचन में चली गई क्योंकि बच्चों का स्कूल से आने का समय हो रहा था । उनके लिये उसे खाना बनाना था । दूसरे दिन नीता आई तो अत्यंत उत्साहित थी । उसने एक कहानी पढ़ी थी...यद्यपि वह उसे पूरी तरह समझ नहीं पाई थी पर उसके लिये इतना ही काफी था कि उसने पढ़ने का प्रयत्न किया...। कुछ शब्द या भाव जो वह समझ नहीं पाई थी वहाँ उसने मनीषा के कथनानुसार पेंसिल से निशान बना दिये थे । उन्हें मनीषा ने उसे समझाया । नीता के सीखने की उत्कंठा देख मनीषा स्वयं आश्चर्यचकित थी । कुछ ही दिनों में बातचीत में परिवर्तन स्पष्ट नजर आने लगा था...थोड़ा आत्मविश्वास भी उसमें झलकने लगा था । एक दिन मनीषा उसको साथ लेकर ब्यूटी पारर्लल गई तथा कुछ साडियाँ खरीदवा कर ब्लाउज सिलने दे आई । कुछ आर्टीफीशियल ज्वैलरी भी खरीदवाई । मेकअप का भी सामान खरीदवाने के साथ उन्हें उपयोग करने के साथ साड़ी बाँधने का तरीका बताया । बाल लंबे थे अतः जूड़ा बाँधने का तरीका बताते हुए तेल कम लगाने का सुझाव दिया । खुशी तो इस बात की थी कि वह उसके सारे सुझावों को ध्यान से सुनती तथा तद्नुसार आचरण करती । वैसे भी अगर शिष्य को सीखने की इच्छा है तो गुरू को भी उसे सिखाने में आनंद आता है । एक दिन वह आई तो बेहद खुश थी । कारण पूछा तो बोली,‘ दीदी, कल हम आपकी खरीदवाई साड़ी पहनकर इनका इंतजार कर रहे थे । ये घर के अंदर घुसे तो पहली बार हमें देखते ही रह गये तथा हमसे पूछा कि इतना परिवर्तन तुम्हारे अंदर कैसे आया...? जब हमने आपका नाम बताया तो गदगद हो उठे । कल इन्होंने हमें प्यार भी किया...।’ कहते-कहते वह शर्मा उठी थी । नैननक्श तो कंटीले थे ही....हल्के मेकअप तथा सलीके से पहने कपड़ों में उसके व्यक्तित्व में लगातार निखार आता जा रहा था । महेश भी उसमें आते परिवर्तन से खुश था । वह भी शाम को ढंग से सजसंवर कर उसका इंतजार करती...। यही कारण था कि जहाँ पहले वह उसकी ओर ध्यान ही नहीं देता था अब उसने भी उसके लिये अनेकों साड़ियाँ खरीदवा दी थी । एक बार महेश स्वयं मनीषा के पास आकर कृतज्ञता जाहिर करते हुए उसे धन्यवाद देते हुए बोला था,‘ दीदी, मैं आपका अहसान जिंदगी भर नहीं भूलूँगा । मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि किसी इंसान में इतना परिवर्तन आ सकता है ।’ ‘ महेश भाई, वस्तुतः मुझसे ज्यादा धन्यवाद की पात्र नीता है । उसने यह सब तुम्हें पाने के लिये किया है....वह तुम्हें बहुत चाहती है ।’ इसके बाद दोनों के बीच की दूरी घटती गई । कभी-कभी वे दोनों घूमने भी जाने लगे थे । मनीषा यह सब देखकर बहुत खुश थी । एक दिन अपने पुत्र अनूप की अंगे्रजी की पुस्तक लाकर बोली,‘ दीदी, इनसे पूछने में शर्म आती है....यदि आप थोड़ी देर पढा दिया करें तो...।’ उसके हाँ कहने पर वह प्रसन्नता से पागल हो उठी, बोली,‘ दीदी, आपने मेरे जीवन में खुशियाँ ही खुशियाँ बिखेर दी हैं । न जाने आपकी गुरूदक्षिणा कैसे चुका पाऊँगी ?’ ‘ अरे पगली, यदि सचमुच मुझे अपना गुरू मानती है तो अपनी पढ़ाई पर ध्यान लगा...एक गुरू के लिये यही काफी है कि उसका शिष्य जीवन में सफल रहे । सचमुच ही छह महीने के अंदर ही उसने सामान्य बोलचाल के शब्द लिखना पढ़ना सीख लिया था । कहीं-कहीं अंग्रेजी शब्दों तथा वाक्यों का प्रयोग भी करने लगी थी...वैसे भी भाषा निरंतर उपयोग से ही सजती, संवरती और निखरती है...। तभी सुरेंद्र का ट्रान्सफर हो गया...पत्रों के माध्यम से संपर्क सदा बना रहा । वह बराबर लिखती रहती थी । अपने बेटे अनूप के विवाह में हफ्ते भर पहले आने का आग्रह उसका सदा रहा है , बेटी रिया का कन्यादान भी वह उसके हाथों से कराना चाहती है...। उसके पत्रों में छिपी भावनायें उसे भी पत्र का उत्तर देने के लिये प्रेरित करती रही थीं....यही कारण था कि पिछले दस वर्षो से मिल न पाने पर भी उसके परिवार की एक-एक बात उसे पता थी...। आज के युग में लोग अपनों से भी इतनी आत्मीयता, विश्वास की कल्पना नहीं कर सकते, फिर वह तो पराये थे । ‘ सुनो, कहाँ हो...सुनील का मैसेज आया है...।’ सुरेंद्र ने उसे पुकारते हुए कहा । ‘ सुनील का मैसेज...क्या लिखा है ? सब ठीक तो है न...।’ विचारों के चक्रव्यूह से बाहर निकलते हुए मनीषा ने अंदर जाते हुए पूछा । वस्तुतः पिछले पंद्रह दिनों से उसका कोई समाचार न आने के कारण वे चिंतित थे....एक दो बार फोन किया पर किसी ने भी नहीं उठाया । आनसरिंग मशीन पर मैसेज छोड़ने के पश्चात् भी हफ्ते भर से किसी ने कान्टेक्ट करने का प्रयत्न नहीं किया था । लिखा है....हम कल ही स्विटजरलैंड से लौटे हैं...। प्रोग्राम अचानक बना इसलिये सूचित नहीं कर पाये । इस बार भी शायद हमारा इंडिया आना न हो पाये । बार-बार छुट्टी नहीं मिल पायेगी । अगर आप लोग आना चाहें तो टिकट भेज दें । इसके बाद उससे कुछ भी सुना नहीं गया...सब बहाना है । बाहर घूमने के लिये छुट्टी तो मिल सकती है पर माता-पिता से मिलने के लिये नहीं । दरअसल वे यहाँ आना ही नहीं चाहते हैं । माँ बाप के प्यार की उनके लिये कोई कीमत ही नहीं रही है । पिछले चार वर्षो से कोई न कोई बहाना बनाकर आना टाल रहे है...उस पर भी एहसान दिखा रहे हैं...अगर आना चाहे तो टिकट भेज दें...। एक बार तो जाकर देख ही आये हैं...सोचकर बड़बड़ा उठी थी मनीषा...। पर तुरंत ही उसने अपने नकारात्मक विचारों को झटका...उसको यह क्या होता जा रहा है...? वह पहले तो कभी ऐसी नहीं थी । बच्चों के अवगुणों में गुण ढूँढना ही तो बड़प्पन है....हो सकता है कि सच में उसे छुट्टी न मिल रही हो । वह स्वयं नहीं आ पा रहा है तो उन्हें बुला तो रहा है । बात तो एक ही है...मिलजुलकर रहना...वहाँ का जीवन ही इतना व्यस्त है कि लोगों के पास अपने लिये ही समय नहीं है तो उसमें उनका क्या दोष ? इस सबके बावजूद न जाने क्यों कुछ दिनों से उसे ऐसा लगने लगा था कि सच में कभी-कभी कुछ लोग अपने न होते हुए भी बेहद अपने बन जाते हैं और अपने, कर्तव्यों की आड़ में अपनों को ही हाशिये पर खिसकाते जा रहे हैं । उसने कभी किसी की हाशिये पर खिसकती जिंदगी को नया आयाम दिया था....चाहे कुछ भी हो जाये वह अपनी जिंदगी को हाशिये पर खिसकने नहीं देगी । वक्त जरूर बदल गया है, वक्त के साथ लोग भी....और शायद जिंदगी के अर्थ भी....पर बदलते वक्त के साथ स्वयं को बदलते हुए उसी अंदाज में अपनी बाकी जिंदगी गुजारेगी जिस अंदाज में आज तक रहती आई है...। इस विचार ने उसे तनावमुक्त कर दिया....माथे पर लटक आई लट को झटका, पास पड़ा रिमोट उठाया और टी.वी. आन कर दिया...। सुधा आदेश