Thursday, February 27, 2020

मन

मन मन सा चंचल, मन सा दुर्गम, मन सा गतिशील, मन सा स्थिर, जग में जड़ या चेतन कोई नहीं है । मन हंसे तो जग हंसे, मन कलपे तो जग कलपे... मन की अबाध गति को आज तक कोई नहीं समझ पाया है ।कभी बड़ी से बड़ी घटना पर मन कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करता तो कभी एक छोटी सी घटना दुख के सागर में डुबो देती है । मन तो मन है फिसला तो हंसी का कारण बन गया अगर सत्कर्म में लिप्त रहा तो जहां को एक नई रोशनी दे गया । सबसे बड़ी बात मन जैसा चाहे वैसा होता रहे तो सब ठीक वरना एक चिंगारी आक्रोश की दुनिया को तहस-नहस करने की क्षमता रखती है । सुख -दुख को महसूस करने वाला मन ही वास्तव में मन कहलाने का अधिकारी है । मन में उमड़ते-घुमड़ते विचारों से भरा पूरा मन कभी अपने निकटस्थ संगी साथियों से अपने मन की बात बताते हुए कहता है प्लीज, किसी से ना कहना ...तो कभी सामाजिक विषमता रूढ़िवादिता तथा ढकोसला से आहत मन परंपराओं को चुनौती देता अपनी चुनी अलग राह पर चलते हुए कहता है आई डोंट केयर .. । समाज में व्याप्त टूटन ,घुटन, संत्रास ,भेदभाव ,अविश्वास तथा विश्वासघात का मन मूक दर्शक बनता जा रहा है । दर्द है मन के संवेदनशून्य होने का, एक दूसरे की भावनाओं को न समझ पाने का ...सामाजिक व्यवस्था के प्रति आक्रोश मन को सदा उद्वेलित करता है । दर्द से ही जीवन की उत्पत्ति होती है इससे भला कौन अपरिचित है पर अपने संसार सागर में खोए हम सभी सब अपनी ही चिता करते हैं दूसरों की नहीं । जिस दिन हम दूसरों के सुख-दुख की चिंता करने लगेंगे, सच मानिये उस दिन हम अपनी नजरों में ही संसार के सबसे सुखी प्राणी बन जायेंगे। मत भूलिये… संसार सागर रंग -बिरंगा प्यारा -प्यारा गुलदस्ता मुख न मोड़ बंदे ,राह आयें चाहे कितने भी मोड़ मेरी तुम्हारी इसकी उसकी नहीं यह दुनिया बिना थके , बिना रुके चला जो ,रच दिया इतिहास नया । सुधा आदेश

फरियाद

फरियाद जीवन रूपी रथ के पहिए जीवन की चुनौतियों से होकर त्रस्त जा पहुँचे दरबार में परमपिता के । ' पशु ,पक्षी ,नदी ,नाले जलथरों ,नभचरों को दिया खुला आकाश आपने पर हे सृष्टि के रचयिता क्यों नहीं नसीब नारी के मुट्ठी भर आकाश । पिता की बाहों में झूला झूल कर मां के ममतामई आंचल में छिपकर पराए पन का दिल में लिए एहसास बढ़ती रही । भोग्या बनी पति के आगोश में बेदाम की दासी बनी सासरे में सामाजिक बंधन ढीले पड़े मातृत्व सुख के सामने… तड़पी वही मां जब अपने ही अंश के हाथों कठपुतली बनी । काश ! दिया होता थोड़ा सा आकाश थोड़ी सी जमीन तो छली तो न जाती इस निर्मम विश्व में ।' ' छला तो मैं गया हूँ हे ईश्वर, तेरे इस निर्मम जहां में , बाल रूप तोतली बोली मधुर मुस्कान ले लुभाया बहुत पराया धन जानकर प्रेम अथाह सागर लुटाया मैंने ...। जवानी में अर्धांगिनी रूप को सिर आंखों पर बिठाकर सर्वस्व अर्पित किया , रात दिन कठोर परिश्रम कर छोटे बड़ों को संतुष्ट करने का प्रयास दिल से किया । गोधूलि के सुहाने क्षणों में जब लेना चाहता था सांस चैन की तब पत्नी और मां के आपसी संघर्ष में पिसा मैं ही करती रही अपनी मनमानी दोनों ही बेगुनाह होते हुए भी पाई सजा मैंने । मगरमच्छी आँसूओं के समंदर में डूबता उतराता रहा चार जोड़ी कपड़ों में स्वयं को छुपाकर अलमारियां भरी साड़ियों और ज़ेवरों से दलील पर दलील सुनते सुनते थक गए कर्ण संत्रास ,घुटन और यातना के जिस दौर से गुजरा कर नहीं सकता बयाँ, अब आप ही न्याय कीजिए प्रभु किसने किसको छला । ईश्वर ने क्षण भर को दोनों को निहारा फिर बोले, ' वत्स , तुम दोनों मेरी सृष्टि की हो अनुपम कृति… पूरक हो.. स्वभाव और रुचियां एक हो जायेंगी तो क्या जीवन नहीं हो जाएगा रसहीन …। रात के बाद दिन का होता है आगमन जिस तरह उसी तरह आपसी संबंधों में परिवर्तन के लिए थोड़ी नोकझोंक भी है आवश्यक । दुख के बाद सुख का आगमन सदा होता है आनंददायक बस एक बात मत भूलो परस्पर प्यार ,विश्वास , समर्पण और समझदारी किसी भी रिश्ते की होती है अटूट डोर । जाओ...वत्स जाओ तर्क वितर्क में व्यर्थ मत उलझो , उलझाओ जैसा विधान मैंने रचा जिओ वैसे ही और जीने दो ।' प्रभु के वचन सुन मायूस दोनों बहुत हुये दोषारोपण बहुत हुआ समस्या का हल ढूंढना होगा स्वयं ही सोचते हुए दोनों ने एक दूसरे को देखा कुछ गुना, कुछ समझा । आंखों -आंखों में एक मौन संवाद कायम हुआ एक हाथ बढ़ा दूसरे ने थामा… प्यार ,विश्वास और समझदारी की डोर थामे चल पड़ा युगल अनंत की ओर । सुधा देश

Wednesday, February 26, 2020

अपराध बोथ

अपराध बोध 'मम्मा सावन आ गया ।' आठ वर्षीय आयुष ने अंदर आते हुए बाल सुलभ चपलता के साथ कहा । 'सावन आ गया । तुझे कैसे मालूम ?' सब्जी चलाते-चलाते विशाखा ने आश्चर्य मिश्रित स्वर में पूछा । ' यह लो आपको नहीं मालूम!! खिड़की से बाहर झांक कर देखिए... बरसी री बुंदिया सावन की, सावन की मनभावन की ...।' नन्हा आयुष विशाखा की नकल उतारते हुए बोला । ' हट शरारती...।' विशाखा की मीठी झिड़की सुनकर अबोध आयुष सावन की सुखद सलोनी रिमझिम फुहारों का आनंद लेने लग गया किंतु वह सोच में डूब गई यह सच है कि उसे यह गाना अत्यंत ही प्रिय है तथा पिछले कुछ दिनों से सोते जागते उठते बैठते ना जाने क्यों अनायास ही यह गाना उसके लबों पर थिरकने लगता है किंतु उसके हृदय का मासूम टुकड़ा उसका बेटा आयुष उसकी प्रत्येक हरकत और व्यवहार का इतनी बारीकी से अवलोकन करता रहता है इसका पता उसे आज ही लगा। हम बड़े बच्चों को नादान मासूम समझकर उनकी उपस्थिति को अनदेखा करके कभी-कभी अनपेक्षित असामान्य व्यवहार कर बैठते हैं बिना इसकी कल्पना के कहीं हमारी क्रियाकलाप अविकसित नाजुक फूल के अवचेतन मन में जड़ें तो नहीं जमा रहे हैं भविष्य में अब उसे सतर्क रहना होगा क्योंकि आयुष अब उतना अबोध एवं मासूम नहीं रहा है जितना कि वह सोचती थी। नन्हे आयुष ने अपनी निर्दोष अदाओं से अनायास विशाखा की सुषुप्त अभिलाषा ओं की अग्नि में कुछ कम कर फेंक दिए थे वास्तव में उसका कलाकार मन सदैव अतृप्त ही रहता था निरंतर स्थानांतरण के कारण वह अपनी कला में कोई निकाल नहीं ला पाई थी नई जगह जाकर जब तक वह थोड़ा व्यवस्थित होती टूटे सूत्रों को सहेजने का प्रयास करती स्थानांतरण का आदेश आ जाता और तिनका तिनका जोड़ा स्वप्न फिर बिखर जाता है । संगीत नृत्य नाटक में विशाखा की बाल्यावस्था से ही रुचि रही है स्कूल से लेकर कालेज तक कोई भी सांस्कृतिक कार्यक्रम उसके बिना अपूर्ण ही रहता था आज भी शादी विवाह का मौका हो जन्मदिन हो या विवाह की वर्षगांठ लोग उससे फरमाइश कर ही बैठते हैं तथा प्रत्येक अवसर के लिए उपस्थित गानों के खजाने में से कोई गाना सुना कर वह महफ़िल की रौनक में चार चांद लगा ही देती है सच पूछिए तो उसके पति राजीव भी उसकी प्रशंसा सुनकर गौरवान्वित हो उठते हैं उन्हें अपनी सहधर्मिणी कि इस योग्यता पर नाज है । राजीव पी.डब्ल्यू.डी में एग्जीक्यूटिव इंजीनियर हैं । गाड़ी ,बंगला ,नौकर चाकर सब मिले हैं । नाम है, इज्जत है और इससे भी बढ़कर है राजीव का सुदर्शन एवं आकर्षक व्यक्तित्व तथा उनका उसके प्रति अगाध प्रेम और विश्वास । जिसके कारण उसको अपने सद्य:स्नाता स्वप्न के बिछड़ने का दुख तो अवश्य होता है किंतु हताशा नहीं । घूरे के भी दिन फिरते हैं , प्रत्येक कार्य का अपना एक वक्त होता है विशाखा उसी वक्त का इंतजार कर रही है जब उसके अविकसित स्वप्न साकार रूप में आकर निज हस्तों से उसे गढ़ेंगे, तराशेंगे एवं संवारेंगे । ' क्या बात है ? कहां खोई हुई हो ? 'राजीव ने रसोई में आकर उसके समीप खड़े होकर कहा । 'आज इतनी जल्दी कैसे ?'राजीव की आवाज सुनकर विशाखा चकित होकर बोली । वह अपने ख्यालों में इतनी खोई हुई थी कि राजीव की गाड़ी का हॉर्न भी उसे सुनाई नहीं पड़ा था । ' बस तुम्हारी याद आई और चला आया ।'राजीव ने प्रेमासिक्त दृष्टि उस पर डालते हुए कहा । ' क्यों झूठ बोलते हो !! 'लजाई शरमाई सी विशाखा बोल उठी थी । ' झूठ... मैडम इतनी सुहाने मौसम में आपका साथ हो ,और हाथ में गर्मागर्म पकौड़ियों की प्लेट हो तो मजा आ जाए । अगर आपको कोई तकलीफ ना हो तो…।' वाक्य अधूरा छोड़ कर राजीव ने प्रश्नवाचक मुद्रा में उसे देखा । 'तकलीफ कैसी ?आप फ्रेश हो कर आइए तब तक मैं गर्मागर्म पकौड़ियाँ बनाती हूँ ।' पकौड़ियाँ खाने की इच्छा कर रही है यदि मैडम को कोई तकलीफ ना हो तो... राजीव के मुख से औपचारिक वाक्य सुनकर मन में कहीं कुछ दरक गया । नौकर छुट्टी पर चला गया है तो क्या अधिकार पूर्वक मनवांछित डिशेज के लिए आग्रह भी नहीं कर सकते । माना वह अमीर माता-पिता की इकलौती संतान है । विवाह के समय ही उसके पिता ने अपने विश्वस्त नौकर रामू के पुत्र श्यामू को घर के अन्य कार्यों के साथ खाना बनाने के लिए उसके साथ भेज दिया था । पिछले दस वर्षों से उसने रसोई की जिम्मेदारी संभाल रखी है । पिछले हफ्ते ही वह अपने विवाह के लिए डेढ़ महीने की छुट्टी लेकर गया है। ऐसा नहीं है कि वह खाना नहीं बनाती या उसे खाना बनाना नहीं आता । विशिष्ट अवसरों पर उसके बनाए व्यंजनों की लोग भरपूर प्रशंसा करते रहे हैं लेकिन न जाने क्यों खाना बनाना उसे सदा ही नीरस लगता है । आज राजीव का संकोच मिश्रित स्वर उसे चौका गया था । कहीं यह दांपत्य जीवन में आई आंधी का सूचक तो नहीं... तुरंत ही मन में अनपेक्षित उभर कर आई भावनाओं को उसने यह सोचकर झटकने का प्रयास किया कि भविष्य में रसोई की जिम्मेदारी भी वह स्वयं संभालने का प्रयास करेगी क्योंकि इंसान के मन को जीतने का एक रास्ता पेट से होकर भी जाता है । राजीव के फ्रेश होकर आते ही उसने राजीव के मनपसंद प्याज के पकोड़े, हरे धनिए की चटनी के साथ परोस दिये । 'मम्मा, आपके हाथ के बने पकौड़े खाकर तो मजा ही आ गया । मन कर रहा है कि बनाने वाले का हाथ ही चूम लूँ ।' आयुष ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए राजीव के अंदाज में कहा । आयुष का वाक्य एवं अंदाज देखकर राजीव भी चौंक गए तथा इशारे से पूछा कि माजरा क्या है ? उसकी अनभिज्ञता का पर आयुष का समर्थन करते हुए बोले , 'अच्छे क्यों न लगेंगे बेटा, इसमें तुम्हारी मम्मी का प्यार जो मिला हुआ है ।' ' बेटा , यदि तुम कहोगे तो रोज ही पकोड़े बना दिया करूंगी । वैसे भी इन सब चीजों को खाने का मजा इसी मौसम में ही है ।' एक बार फिर सिद्ध हो गया था कि आयुष का कथन अनजाने में उनके द्वारा किए गए व्यवहार का ही प्रतिफल है । विशाखा ने सोचा इस संदर्भ में वह राजीव से बात करेगी । आमोद प्रमोद युक्त वचनों के मध्य नाश्ते का आनंद ले ही रहे थे कि फोन की घंटी टन टना उठी । फोन विशाखा ने ही उठाया । लेडीज क्लब की सेक्रेटरी श्रीमती राय चौधरी की आवाज थी …' विशाखा जी इस वर्ष सावन संध्या के अवसर पर सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया जा रहा है । कार्यक्रम के निरूपण के लिए मीटिंग लेडीज क्लब में हो रही है । मैडम का आग्रह है कि आप अवश्य आयें ।' ' लेकिन मैं तो कार्यकारिणी समिति की सदस्य नहीं हूँ ।' ' मैं जानती हूँ किंतु मैडम का कहना है इस बार आपको ही प्रोग्राम का चयन, निर्धारण एवं संचालन करना है ।' विशाखा को अभी इस शहर में आये मात्र चार महीने ही हुए हैं । कुछ विशिष्ट अवसरों पर उसकी गायन प्रतिभा को देखकर शायद कार्यक्रम के निर्धारण एवं संचालन की जिम्मेदारी उसे सौंपी जा रही है । सांस्कृतिक कार्यक्रम की सेक्रेटरी श्रीमती भाटिया बड़ी तेज तर्रार एवं घमंडी महिला हैं । यद्यपि वह गाती अच्छा है किंतु उसके आने के पश्चात उनको अपना नंबर वन का सिंहासन हिलता प्रतीत होने लगा है अतः जब तब जाने अनजाने उससे अकारण तकरार कर बैठती हैं । उसके शांत एवं सहनशील व्यवहार के कारण अब तक अप्रिय स्थिति टलती रही है किंतु क्लब के कार्यक्रम में वह उसका हस्तक्षेप शायद सहन न कर पायें ।' ' क्या हुआ, किसका फोन था ?' उसे ध्यान मग्न देखकर राजीव ने पूछा । ' तुम स्वयं तो जा नहीं रही हो ...तुम्हें बुलाया जा रहा है अतः हस्तक्षेप का प्रश्न ही नहीं उठता ।' समस्या बताने पर राजीव ने प्रतिक्रिया व्यक्त की । ' आप नहीं जानते श्रीमती भाटिया को ...।' ' तो मना कर दो...।' ' लेकिन मैडम मिसेज नागपाल जिलाधीश की पत्नी को मना करना उचित नहीं होगा ।' ' अगर ऐसा है तो स्वीकार कर लो चुनोती को ...काम निकालना भी एक कला है । अपनी वाकपटुता ,बसहनशीलता तथा चातुर्य से विपक्षी के हृदय को जीतकर आसानी से अपना बनाया जा सकता है । वह भी ऐसा विरोधी जो ईर्ष्या रूपी नाग के चंगुल में फंसा सिर्फ विरोध करना ही अपना ध्येय समझता हो । याद रखो ऐसे लोग प्रशंसा के भूखे होते हैं । थोड़ी सी प्रशंसा भी उनके स्व को संतुष्ट कर सकती है । हो सकता है प्रारंभ में तुम्हें समझौते करने पड़े लेकिन अंततः तुम महसूस करोगी की विजय तुम्हारी ही हो रही है । ' विशाखा दूसरे दिन ग्यारह बजे लेडीज क्लब पहुँची तो उसे देखकर सभी चौके किंतु उसे देखकर श्रीमती नागपाल ने कहा,' आइए आइए , आपका ही इंतजार हो रहा था ।' श्रीमती नागपाल की बात सुनकर अनेकों चेहरों पर उगाए प्रश्नों का समाधान हो गया । फिर श्रीमती भाटिया को संबोधित करते हुए बोली ' 'श्रीमती भाटिया आपको इनसे कार्यक्रम के आयोजन में सहयोग मिलेगा । आप तो जानती ही हैं यह न केवल अच्छी गायिका है वरन गीतकार भी हैं ।' लगभग एक घंटे चली बैठक में स्वागत, सजावट , जलपान के लिए विभिन्न महिलाओं के नेतृत्व में कमेटियों का गठन किया गया । श्रीमती भाटिया एवं विशाखा को कार्यक्रम के निर्धारण की जिम्मेदारी सौंपी गई तथा मंच संचालन के लिए विशाखा को आग्रह मिश्रित आदेश दिया गया । सुबह ग्यारह बजे से सायं पाँच बजे तक कार्यक्रमों का रिहर्सल करवाने के लिए क्लब में रुकना पड़ता था । श्यामू भी नहीं था । सुबह नाश्ता करके राजीव ऑफिस चले जाते थे तथा आयुष स्कूल । दोपहर का खाना विशाखा हॉट केस में रख देती थी । निरंतर स्थानांतरण के कारण नौकरी तो वह कर नहीं पाई थी पर व्यक्तित्व के विकास के नाम पर हो रहे इस आयोजन में घर और परिवार के साथ सामंजस्य बिठाने का पूर्ण प्रयास कर रही थी । 'कब समाप्त होगी तुम्हारी यह सावन संध्या...।' एक दिन ऑफिस से जल्दी आए राजीव आयुष को बरामदे में अकेले बैठे इंतजार करते देखकर झुँझला उठे थे तथा विशाखा के आते ही उसकी बेवजह की व्यस्तता के लिए एटम बम की तरह क्रोध का गोला फूट ही पड़ा था । ड्रामे का रिहर्सल कराते कराते उसे देर हो गई थी । पड़ोसी मिसेस तलवार को भी आज कहीं जाना पड़ गया था जिससे वह चाबी भी नहीं दे पाई थी वरना उसकी अनुपस्थिति में वही आयुष का ध्यान रखती रही हैं । एक बार उसके आभार प्रकट करने पर वह बोली थीं इसमें आभार की क्या बात है आवश्यकता पड़ने पर पड़ोसी ही पड़ोसी के काम नहीं आएगा तो कौन आएगा । ' बस पच्चीस दिन बाकी हैं ।' विशाखा अपराधी से बोल उठी थी । ' अभी पच्चीस दिन बाकी हैं । दस दिन में ही घर की यह हालत हो गई है तो आगे क्या होगा ?'राजीव का क्रोध अभी भी शांत नहीं हुआ था । अश्रु भर आए थे नयनो में , रुआँसा हो उठा था मन । कितना स्वार्थी होता है पुरुष ? स्त्री सदैव निज इच्छाओं को त्यागकर सुख- दुख , हारी बीमारी की परवाह किए बगैर प्रत्येक हाल में जीवन साथी के साथ चलना चाहती है किंतु उसका पुरुष मनमीत, आराम में आये तनिक से व्यवधान से तिल मिलाकर, संपूर्ण त्याग और बलिदान को पल भर में कटीले वाक्यों द्वारा तहस-नहस कर उसे कटघरे में खड़ा करने से नहीं चूकता है । मन विदीर्ण हो उठा था । इतना आगे बढ़ने के पश्चात पीछे हटना भी तो संभव नहीं था । काश ! आज श्यामू होता तो ऐसी स्थिति ही नहीं आती । विशाखा ने सोचा कि कोई अस्थाई नौकर मिल जाए तो रख ले लेकिन इतना विश्वास प्राप्त नौकर वह भी कुछ दिनों के लिए, मिलना संभव ही नहीं है । वैसे इस जिले में सभी अधिकारियों के घर सरकारी नौकर हैं । बस आज्ञा देने की देर होती है फील्ड से तुरंत आदमी आ जाते हैं । सरकारी नौकर होने के कारण चोरी का भी डर नहीं रहता है किंतु सरकारी व्यक्ति से व्यक्तिगत काम कराना राजीव के आदर्शवाद के विरुद्ध रहा है । पिछले दस वर्षों में जब वह अपने आदर्शों से नहीं डिगे तो अब तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता । अभी समस्याओं में उलझी विशाखा हैरान परेशान थी कि एक झटका और लगा पड़ोसन श्रीमती तलवार की सास का देहांत हो गया और वह सपरिवार घर चली गई । चाबी की समस्या उठ खड़ी हुई अतः एक ही ताले की तीन चाबियां बनवाई गई । एक राजीव , एक नन्हे आयुष एवं एक स्वयं उसके पास रहती । घर बाहर दोनों फ्रंट पर युद्ध चालू था । राजीव को पसंद नहीं था कि आयुष स्कूल से आने के पश्चात अकेला घर में रहे और उधर श्रीमती भाटिया से लोहा लेना पड़ रहा था । यहाँ राजीव की सलाह सफल सिद्ध होती नजर आ रही थी । प्रत्येक कार्यक्रम का निर्धारण श्रीमती भाटिया की रुचि को ध्यान में रखकर करने की विशाखा की योजना ने उनके स्वभाव में परिवर्तन ला दिया था । उनकी किसी भी सलाह की प्रशंसा करते हुए विशाखा तुरंत मान जाती थी जिसके कारण यदि बाद में वह उसमें संशोधन करना चाहती थी तो वह भी बिना प्रतिरोध किए अपनी सहमति दे देती थीं अर्थात हो वही रहा था जो वह चाहती थी पर वह श्रीमती भाटिया की सहमति से । उधर आयुष को वह स्कूल से सीधा क्लब बुलवा लेती थी तथा राजीव के घर लौटने से पूर्व भी लौटने का प्रयत्न करती । रात्रि की सब्जी भी यथासंभव सुबह ही बनाकर जाती जिससे शाम का समय समय वह दोनों के साथ बिता सके । योजनाबद्ध कार्य के द्वारा टकराव, मनमुटाव को टालने का वह हर संभव प्रयास कर रही थी । फाइनल रिहर्सल के दिन बीस नाच गानों में से सिर्फ पंद्रह का ही चयन हुआ । एक हास्य एकांकी कार्यक्रम की जान थी । कुछ गाने डांस तो सचमुच इतने अच्छे थे, वह भी उन महिलाओं द्वारा जिन्होंने घर से बाहर कभी कदम भी नहीं रखा था । यद्यपि डांस और नाटक का निर्देशन विशाखा ने किया था किंतु प्रशंसा की वास्तविक हकदार तो वे महिलाएं थी जो पूर्ण मनोयोग से उसकी कल्पना को साकार रूप प्रदान कर रही थीं । उनका उत्साह देखते ही बनता था । श्रीमती नागपाल भी व्यक्तिगत रूप से उपस्थित रहकर मार्गदर्शन करती रहती थीं । यदि कहीं किसी में तनाव होता या अहम से अहम टकराते तो वह अपनी वाकपटुता ,चातुर्य एवं निष्पक्ष निर्णय से सब की समस्याएं सुलझा कर वातावरण को सहज बना देती थीं । वह 'महिला क्लब' को एक नया आयाम देना चाहती थीं । महिलाओं की दबी छुपी प्रतिभा जो घर गृहस्ती के पाटों में पिसकर अर्थहीन होती जा रही थी, को उभारना, तराशना चाहती थीं । वह सामाजिक रूप से जागरूक महिला थीं । वह' महिला क्लब ' को केवल हाऊजी या खाने-पीने का निरर्थक माध्यम ही नहीं बने रहना चाहती थीं वरन वह ' महिला क्लब' के माध्यम से एक मंच का निर्माण करना चाहती थीं जहाँ महिलाओं का सर्वांगीण विकास के लिए वह सतत प्रयत्नशील रहती थीं । कैरम, टेबल टेनिस की प्रतियोगिता के अतिरिक्त उन्होंने दो महीने पूर्व वाद विवाद प्रतियोगिता का भी आयोजन किया था । उसमें भी महिलाओं का उत्साह देखते ही बनता था । क्लब की इमारत में ही उन्होंने टेबल टेनिस ,कैरम और चैस की व्यवस्था करवाई थी तथा बैडमिंटन के लिए हॉल के निर्माण का कार्य जारी था । पठन-पाठन की सुविधा की क्षुधा को शांत करने के लिए कुछ पत्रिकाएं तथा स्तरीय पुस्तकों के क्रय हेतु प्रत्येक माह निश्चित राशि का भी निर्धारण किया गया था । सामाजिक सेवा के लिए चार -चार महिलाओं की एक टीम बनाई गई थी जो हर सप्ताह एक दिन गरीब बस्ती में जाकर बच्चों तथा प्रौढ़ व्यक्तियों को शिक्षा प्रदान करती थी । उनके इन कार्यो की कुछ लोग प्रशंसा करते थे तथा कुछ लोग अपनी आदत अनुसार कमियां निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे । सावन संध्या का आयोजन इस शहर में पहली बार हो रहा था अतः चर्चा का विषय बन गया था । श्रीमती नागपाल भी आलोचना का शिकार बनी जिन्होंने इस कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए सरकारी महकमे का उपयोग किया था । ऊपर से सब शांत थे किंतु अंदर ही अंदर सब उबल रहे थे । घर की बड़ी बुढ़िया भी कहने लगी थी कि यदि यही हाल रहा तो एक दिन घर बर्बाद हो जाएगा । कुछ लोग व्यंग्य करते न थकते,व इस उम्र में इन औरतों को न जाने क्या सूझी है जो बच्चों को नौकरों के हाथों में सुपुर्द कर नाच गाने में लगी हुई हैं । एक-दो को छोड़कर सभी बौखलाये हुए थे किंतु व्यवस्था अपनी पत्नियों की महत्वाकांक्षाओं के आगे विवश थे । पत्नियां जो कुछ करना चाहती थीं उनके लिए अपनी कला और क्षमता को दिखाने का स्वर्णिम अवसर था और वह इसमें जी जान से लगी हुई थी । समस्या एकांकी को लेकर थी सभी मुख्य भूमिका निभाना चाहते थे जिसकी कम भूमिका थी उसके संवाद बढ़ाकर भूमिका में जान डाली गई । इस भूमिका को भी विशाखा ने सहजता से निभा ले गई । सभी संतुष्ट थे । कार्यक्रम की वीडियो रिकॉर्डिंग करवाने की बात सुनकर सभी महिलाओं में अतिरिक्त उत्साह भर गया था । आखिर वह दिन भी आ गया जब हरे हरे परिधानों में सजी संवरी महिलाएं किसी अप्सरा से कम नहीं लग रही थीं । हरे कपड़ों के द्वारा स्वागत द्वार बनाए गए थे । हरे पौधे वाले गमलों को सभागृह में जगह-जगह रखा गया था । सभा भवन की दीवारों पर मयूर आकृतियां नर्तन करती नजर आ रही थीं, मानो हरियाला, मस्ताना सावन स्वयं चलकर सभा भवन में हरियाली मनभावन छटा बिखेर कर कृत्रिमता के वातावरण को अपने नैसर्गिक प्राकृतिक स्वरूप से ढकने की चेष्टा कर रहा हो । अतिथि महिलाओं का स्वागत हल्दी , कुमकुम लगाकर तथा वेणी पहनाकर किया गया । शहर के गणमान्य व्यक्तियों की पत्नियों को अतिथि के रुप में बुलाया गया । कमिश्नर की पत्नी श्रीमती नीना दीक्षित मुख्य अतिथि थीं । कार्यक्रम का प्रारंभ स्वागत गान से हुआ । एक के बाद एक कार्यक्रम पर हास्य एकांकी ने सबका मन मोह लिया । 'ज्योति कलश छलके ' नाम गीत पर सीमा भंडारी ने इतना अच्छा नृत्य प्रस्तुत किया कि सब ने दांतों तले अंगुली दबा ली । वह कुशल नृत्यांगना लग रही थीं । सावन सुंदरी के ताज की हकदार भी वही बनी । सभी प्रसन्न थे कार्यक्रम का समापन जलपान से हुआ । पूरे दिन के अथक परिश्रम के पश्चात् जब विशाखा घर लौटी तो लगा पूरा बदन थक कर चूर चूर हो गया है । किचन से आवाजें आती सुनकर किचन की ओर पैर स्वयं मुड़ गए । राजीव आयुष के लिए गैस पर दूध गर्म कर रहे थे और वह जिद करते हुए कह रहा था, ' पापा, हम दूध नहीं पीयेंगे । हमें कल की तरह ब्रेड आमलेट खाना है ।' 'बेटा , जिद मत करो । पहले दूध पी लो फिर मैं ब्रेड आमलेट बना कर देता हूँ ।' राजीव का विवशता भरा स्वर सुनकर आँखों से गंगा जमुना बहने लगी । पत्नी और माँ का कर्तव्य कहीं दूर छिटक गया था । माना वह एक क्षेत्र में सफल रही थी किंतु दूसरा तो नहीं संभाल पाई । राजीव जिन्होंने कभी एक कप चाय तक बनाकर नहीं पी थी वही राजीव आज आयुष के लिए ब्रेड आमलेट बना रहे हैं । आंसुओं को आंखों में ही रोकने का यत्न करती हुई वह किचन में जाकर बोली , ' आप आराम कीजिए, मैं आयुष को ब्रेड आमलेट बना कर देती हूँ ।' ' कैसा रहा आपका सावन संध्या का कार्यक्रम ...आप थके होंगीं । आप आराम कीजिए । आज आप भी इस बंदे के हाथ का कच्चा पक्का खा कर देखिए ।' राजीव ने उसकी सहायता को नकारते हुए उसकी ओर मुस्कुराकर देखते हुए कहा । अपने घर में ही अजनबी बन गई थी विशाखा । वह समझ नहीं पा रही थी कि राजीव व्यंग्य कर रहे हैं या वास्तव में सहानुभूति प्रकट कर रहे हैं । 'मम्मा, आप झूठी हैं आपने कहा था कि सावन में आप हमें रोज पकोड़े बनाकर खिलाएंगी पर आपने एक दिन भी पकोड़े बनाकर नहीं खिलाए । सावन संध्या का नाम सुनकर नन्हा आयुष शिकायत भरे स्वर में बोला । 'बाबा ,;आपको पकौड़े खाने हैं । मैं अभी बना कर देखा हूँ ।' श्यामू ने अंदर आते हुए कहा । ' तू कब आया ? कैसी रही तेरी शादी ?। स्वर को यथासंभव संयत बनाते हुए उसने श्यामू से पूछा । यद्यपि बेटे का शिकायती स्वर जेहन में तीर की तरह दंशित किए जा रहा था । आँखों में आँसू भर आए थे किंतु वह कहाँ गलत थी ? क्या उसका सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेना गलत था या सब कुछ सामान्य ही है । स्वयं अपराध बोध से ग्रसित उसका मन सबके सहज व्यवहार को ही असहज समझने की भूल कर रहा है । लेकिन अपराध बोध क्यों और किसलिए ? जब पुरुष काम के सिलसिले में घर से बाहर कई-कई दिनों तक रहता है तब तो उसे कोई अपराध बहुत दंशित नहीं करता फिर एक स्त्री ही क्यों कुछ समय घर से बाहर रहने पर स्वयं को अपराधी मान बैठती है । एक ही समाज में यह दोहरा मापदंड क्यों ? मन में कुछ कसमसाने आने लगा था । 'मेम साहब , बस अभी आ रहा हूँ । विवाह तो हो गया गाना दो बरस बाद होगा । मेरे जाने से आपको बहुत तकलीफ हुई होगी ।' श्यामू ने हाथ धोकर किचन में घुसते हुए कहा । ' बाबा के लिए आमलेट बना कर, दो कप बढ़िया कड़क चाय बना दो । तुम भी थके होगे जाकर आराम करो आज हम सब बाहर ही खाना खाएंगे और तुम्हारे लिए पैक करा कर ले आएंगे ।' राजीव जो बात बात पर पार्टियां देखकर अपनी प्रसन्नता प्रकट करते थे वे ने उसके व्यथित हृदय को प्यार भरी बातों से सहलाने की चेष्टा करते हुए कहा । ' हिप हिप हुर्रे ...यू आर ग्रेट डैड । खूब मजा आएगा... मैं जल्दी से होमवर्क कर लेता हूँ ।' प्रसन्नता से लगभग नाचते हुए आयुष ने कहा तथा वह अपने स्टडी रूम में चला गया । 'क्यों चेहरे पर बारह बज रहे हैं मैडम ?आज तो आपका आपको प्रसन्न होना चाहिए, आप का कार्यक्रम सफल रहा । जिसके लिए आप महीने भर से परिश्रम कर रही थीं ।' आयुष के जाते ही राजीव ने उसको बेडरूम में खींच कर अंक में भरने का प्रयास करते हुए कहा । 'लेकिन आपको काम करना पड़ा ।' कहते हुए विशाखा का स्वर दयनीय को आया था । ' काम करना पड़ा तो क्या हुआ ? रोज तो आप करती ही हैं, एक-दो दिन मैंने कर लिया तो इसमें इतना सोचने की क्या बात हो गई !! कम से कम ब्रेड आमलेट तो बनाना सीख गया । कभी वक्त जरूरत पर फिर काम आएगा ।' कहते हुए राजीव के हाथों का बंधन कसता जा रहा था । पुरुष की सफलता के पीछे जिस तरह स्त्री का योगदान होता है उसी प्रकार स्त्री की सफलता के पीछे पुरुष का योगदान होता है, इस तथ्य से आज विशाखा का भली-भांति साक्षात्कार हो गया था पर यह तभी संभव है जब दोनों के विचारों में सामंजस्य हो , आदान-प्रदान की परिभाषा अच्छी तरह समझते हो । तभी वे एक दूसरे के पूरक बनकर मनवांछित लक्ष्य को सफलतापूर्वक प्राप्त कर सकते हैं राजीव के सशक्त बाहुपाश में , मन में उगे अपराध बोध का दंश कम होने लगा था तथा खोया आत्मविश्वास लौट आया था । विशाखा को लग रहा था कि उसके घर सावन आज ही आया है । अब तक मई-जून की उमस भरी हवाओं ने घर का सुख चैन छीन रखा था । सचमुच मेघ आए या ना आए, पपीहा बोले या ना बोले, जब भी तन मन खुशियों से भर उठे, वही दिन, वही रात ,वहीं महीना सावन है । सुधा आदेश

Sunday, February 23, 2020

तलाश जारी है

तलाश जारी है मानव जीवन एक मृगमरीचिका का है । वस्तुतः संपूर्ण इंसानी जीवन है तलाश पर आधारित है । जन्म से लेकर मृत्यु तक मानव स्व की तलाश में संलग्न रहता है । आसपास के वातावरण में उपस्थित किरण रश्मि नवजात शिशु के चक्षुओं में कौतुकता , जिज्ञासा उत्पन्न कर उसे निज और अन्य के अस्तित्व को तलाशने के लिए प्रेरित करती हैं । यही तलाश उसके जीवन के अंतिम पल तक चलती रहती है । स्कूल जाना प्रारंभ करते ही बच्चा एक दूसरी दुनिया में पहुँच जाता है । जहाँ उसे नये- नये साथी मिलते हैं । अक्षर ज्ञान प्रारंभ होत्र ही उसकी तलाश नई-नई वस्तुओं के साथ नये-नये प्राणियों से होती है । जैसे-जैसे वह बड़ा होता जाता है , ज्ञान वृद्धि के साथ-साथ वह अपना कार्यक्षेत्र तलाशने लगता है । कभी उसके माता-पिता तो कभी सगे संबंधी उसका संबल बनते हैं तो कभी सच्चे मित्र तो कभी उसके सपनों का आकाश देती जीवन संगिनी उसके सहयात्री बनते हैं । सब कुछ प्राप्त करने कर लेने पर भी उसकी तलाश समाप्त नहीं होती ...वह भटकने लगता है , कभी निज की तो कभी अपनों की तलाश में , कभी आत्मा की तो कभी परमात्मा की , कभी सृष्टि के अंग -अंग में व्याप्त सौंदर्य की, तो कभी पृथ्वी पर व्याप्त असमानता की । कभी नीला आकाश व्यक्ति के सपनों को आकाश देता है तो कभी धरती की हरीतिमा उसे अपनी मखमली चादर में लपेट कर उसे इतना अभिभूत कर डालती है कि वह अपनी सुध बुध खोकर उसमें डूब जाता है । यायावर बना प्रकृति के रहस्य को तलाशने के लिए यहाँ से वहाँ घूमता रहता है । एक समय ऐसा भी आता है जब इंसान यथार्थ के धरातल से टकराकर कभी धन की तलाश में दिन रात एक कर देता है तो कभी छीजते रिश्तो को सहेजने की... कोई सत्य की तलाश में दुनिया भर के ऐशो आराम छोड़कर सत्य की तलाश में जुट जाता है तो कोई शांति की तलाश में मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे और गिरजाघर की शरण लेने लगता है । अगर वहाँ भी शांति नहीं मिलती तो ध्यान केंद्रों में जाकर आत्मिक सुख की तलाश करने लगता है । ऐसा व्यक्ति कभी दुनिया की भीड़ में अपनों को तलाशता है तो कभी अपने अहंकार , ईर्ष्या और संदेह के मन में कुलबुलाते नागफनियों के कारण अपनों को भी बेगाना बनाने से नहीं चूकता । दुख से पीड़ित व्यक्ति तो शांति की तलाश में मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे और गिरजाघर जाते ही हैं पर आश्चर्य तो तब होता है जब साधन संपन्न, सुख , समृद्धि से भरपूर व्यक्ति भी इनके चक्कर लगाकर और पाने की चाह में दान दक्षिणा देकर अपनी मुक्ति का मार्ग तलाशते हैं । सच तो यह है संतुष्ट रूपी अमृत के अभाव में व्यक्ति की तलाश कभी समाप्त नहीं होती । कभी अपनी तो कभी अपनों की छोटी-बड़ी हर चाहत को पूरा करने के प्रयास में वह रीतता जाता है । संतोष एवं शांति रूपी कस्तूरी उसके हाथ से छिटकती जाती है । अंततः माया मोह के तिलस्मी जाल को तोड़ने का असफल प्रयास करते हुए शांतिप्रिय अंत की तलाश में जुट जाता है … खुली आँखें खुला मस्तिष्क, न भटक इधर-उधर, निज में निज में तलाश बंदे, मिलेगा आकाश यहीं मिलेगी जमीं यही। सुधा आदेश

जीवन का सत्य

जीवन का सत्य


 सांसो से जीवन, जल की छोटी-छोटी बूंदों से सागर , मिट्टी के एक-एक कण से धरती का निर्माण होता है वैसे ही जीवन की हर घटना हमारे जीवन की दशा और दिशा निर्धारित करती है । जब कभी भी समाज में छाई विसंगतियों , असमानतायें , कटु अनुभूतियों, वेदनाएं, कड़वाहटें अंतर्मन को आंदोलित करती हैं तब तक भावुक मन विचलित हो उठता है । वस्तुतः हमारे समाज में सदियों से व्याप्त कुरीतियां ,भ्रष्टाचार ,अंधविश्वास ,दहेज प्रथा , जाति पांति एवं धर्मांधता की जड़ें इतनी गहरी पैठ चुकी है कि उनसे निजात पाना कठिन प्रतीत हो रहा है । और तो और मानव निरंतर अपनी जड़ों से कटता जा रहा है । इंसान आज भौतिक सुख में इतना डूब गया है कि उसके लिए रिश्ते नाते गौण हो चुके हैं । वह अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए एक डाली से दूसरी डाली पर बैठ इतराता फिर रहा है पर जब दूसरी डाली के कांटे चुभ चुभकर लहूलुहान करने लगते हैं तब उसे लगता है अपनी डाली जैसा सुख, माटी की सुगंध और कहीं नहीं है । सबसे ज्यादा दुख तब होता है जब इंसान, इंसान की भावनाओं को नहीं समझ पाता । दूसरे पर अत्याचार करते हुए, सामाजिक नियमों को तोड़ते हुए वहशी दरिंदा बन अपनों को नोंचने खसोटने में भी उसे शर्मिंदगी का अहसास तक नहीं होता । सुपर मानव बनने के प्रयास में दूसरे को टूटता, सिसकता देखकर भी उसकी आत्मा उसे नहीं झकझोरती । वह टूटन , घुटन से तड़पती रूहों के मध्य भी अट्टहास करता हुआ अपने निकृष्ट स्वार्थ में इतना लिप्त रहता है कि उसे सामाजिक ढांचे के चरमराने की भी परवाह नहीं है । अफसोस है तो सिर्फ इतना कि सदियों से जली तो सिर्फ नारी है । चाहे वह गृहस्थी को संभालती आम औरत हो या पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने का प्रयास करती कैरियर वुमन हो । सदा उसे ही अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ता है । टूटना और जुड़ना तो नियति का नियम है । टूटने में दर्द तथा जोड़ने में सुख का अहसास ही जीवन में निरंतरता एवं जीवंतता बनाए रखता है । जीवन के ऐसे ही खट्टे एहसास जहाँ हमें परेशान कर हमारी राह में रोड़ा बनते हैं वहीं जीवन के मीठे एहसास हमें कभी रुकने नहीं देते । इन खट्टे-मीठे एहसासों को मन के मोतियों में पिरोकर लक्ष्य को पाने के लिए आगे बढ़ते जाना ही जिंदगी है । जिसने जीवन के इस मूलमंत्र को अपने जीवन का हिस्सा बना लिया, वह जग जीत गया ।

 सुधा आदेश

Wednesday, February 19, 2020

स्नेह के पुष्प

स्नेह के पुष्प 'बेटा , पता नहीं क्यों कुछ दिनों से तेरी बहुत याद आ रही है । इस बीमारी ने पहले ही मुझे अपाहिज बना कर रख दिया था पर अब तो न खाना अच्छा लगता है ना उठना बैठना आखिर कब तक घर की चारदीवारी में घुटता रहूँगा !! तेरी माँ के पश्चात अकेला हो ही गया था किंतु राहुल से ऐसी उम्मीद ना थी । बदनसीब आँखें पता नहीं कब बंद हो जायें , हो सके तो आकर मिल जाओ ।' फोन पर पिताजी की आवाज टूटती सी लगी । ' पिताजी आप इतने हताश क्यों हो रहे हैं ? मैं कल ही पहुँच रही हूँ । आप हिम्मत रखिए आपको कुछ नहीं होगा ।' ऋचा ने उन्हें हिम्मत बनाते हुए कहा । अवश्य आना बेटा ।' कहकर बिना उसकी पूरी बात सुने उन्होंने फोन रख दिया । पिताजी का दीन स्वर सुनकर ऋचा किंकर्तव्यविमूढ़ सी बैठी रह गई । अलौकिक आत्मविश्वास से युक्त मानव की ऐसी मनःस्तिथि...। पिताजी को इतना निराश हताश उसने कभी नहीं देखा था । सच है समय बड़े से बड़े व्यक्तियों का अहंकार तोड़ देता है । अचानक बीस पच्चीस वर्ष पूर्व की घटनाएं उसके मन मस्तिष्क में चलचित्र की भांति गुजरने लगी ...याद आया वह दिन जब नमिता उसकी छोटी बहन ने जन्म लिया था । पापा और दादी को जैसे ही पता चला कि लड़की ने जन्म लिया है, वे बिना माँ से मिले घर चले आए थे । उनको आया देखकर जब उसने उनसे माँ के बारे में पूछा तो पापा बिना कुछ कहे बेडरूम में चले गए तथा दादी मुँह फुला कर बोली थीं , 'ठीक क्यों ना होगी !! आखिर एक लड़की और जनी है ।' ' हमारी एक और बहन आ गई है यह तो खुशी की बात है पर आप गुस्से में क्यों हो ?' दीपा ने सहजता से पूछा था । 'अपनी किस्मत को रो रही हूँ, न जाने कैसी बहू है जो लड़की पर लड़की जने जा रही है । ना जाने कब पोते का मुँह देखूँगी ।' दादी ने गुस्से से उनकी ओर देखते हुए कहा था । ऋचा और दीपा को पापा और दादी का क्रोधित होना समझ में नहीं आ रहा था । भाई की तो उन्हें भी चाहत थी पर अगर भाई नहीं, बहन आ गई तो सारा गुस्सा माँ पर क्यों निकाल रहे हैं ? वे दोनों सहेली से मिलने जाने के बहाने भी बहाने माँ को देखने घर से निकली हॉस्पिटल पहुँची तो देखा नानी माँ के पास बैठी हैं तथा माँ लगातार रोये जा रही है । 'बेटी , लड़की तो लक्ष्मी होती है । जब तक साथ रहती है तब तक मन को आनंद एवं स्फूर्ति देती है तथा जाते हुए प्यार की ऐसी परछाई छोड़ जाती है जो उसके दूर जाने पर भी निरंतर उसके पास रहने का एहसास कराती रहती है । तुम निराश क्यों होती हो बेटी , तुम्हारी बेटियाँ ही बेटों के समान तुम्हारा वंश चलायेंगी । वैसे भी बेटी बेटियों की माँ राजरानी होती है । मुझे देख , मेरे तीन बेटियाँ हैं पर मुझे कोई दुख है क्या? जब तक तुम लोग थी हर काम में मेरा हाथ बटाती रहीं और आज जब भी मुझे जरूरत होती है तुम तीनों में से कोई ना कोई आ ही जाती हो । अपनी चाची को देख उसके दो बेटे हैं पर कौन सा वह बेटे -बहू का सुख भोग रही है । दोनों में से कोई भी उसे अपने साथ रखना नहीं चाह रहा है । नाते रिश्तेदार अड़ोस -पड़ोस वाले अलग पूछ -पूछ कर उसे परेशान करते हैं कि दो बेटे होते हुए भी आप अकेली क्यों रहती हैं ? अब वह किस-किस को क्या जवाब दें ? यह सच है कि किसी भी परिवार को पूर्णता पुत्र- पुत्री दोनों के द्वारा ही प्राप्त होती है लेकिन इसके लिए अनावश्यक दुख ,संताप या तनाव को साथी बनाना उचित नहीं है । प्रत्येक स्थिति के सकारात्मक पहलू पर विचार कर सदैव प्रसन्न रहने का प्रयास करना चाहिए । दुख न कर बेटी, तेरी यही बेटियाँ तेरे वंश का नाम रोशन करेंगीं ।' कहते हुए उन्होंने प्यार से ऋचा और दीपा के सिर पर हाथ फेरा था . दादी और पापा न जाने किस मिट्टी के बने थे कि भविष्य के लिए वह अपने वर्तमान को नहीं समझ पा रहे थे । माँ ने दादी की सेवा में कोई कमी नहीं रखी थी पर फिर भी बेटा न जन पाने के लिए वह सदा उन्हें ही दोष देती रहीं । पापा को भी वह सदा भड़काती रहती थीं । पापा को भी अपनी माँ ही सदा ठीक लगतीं । उन्हें भी वारिस चाहिए था । पापा और दादी ने उस नन्ही सी जान का मुँह न देखने की ठान ली थी । पापा और दादी का नन्हीं नमिता के प्रति व्यवहार देखकर माँ छिप-छिप कर रोती थीं । अंततः भरे मन से माँ ने स्थिति से समझौता कर लिया था । माँ ने उन तीनों में ही अपनी दुनिया ढूंढ ली थी । सारी ममता और प्यार उन पर उड़ेलतीं तो भी दादी को अच्छा नहीं लगता । वह कहतीं ' कोख में पुत्र कैसे आया जब सारे दिन तुम इन मरदूदों के पीछे ही पड़ी रहोगी ।' दादी के कटुवचन सुनकर माँ अंतःकवच में कैद होकर रह जातीं । मानो अपनी कोखजाइयों पर ममत्व की वर्षा कर वह कोई अपराध कर रही हों । दादी के तरकश में न जाने कितने जहर बुझे वाण थे जो रह-रहकर माँ को घायल करते रहते थे । वह और दीपा प्रतिरोध करना चाहती तो माँ मना कर देतीं थीं क्योंकि उन्हें भी पता था कि उनका एक वाक्य सौ वाक्यों को निमंत्रण देगा । माँ की परेशानी बढ़ेगी । माँ एक सामान्य परिवार की कन्या थीं । उनके रूप पर मोहित होकर पिताजी ने उन्हें वर तो लिया था किंतु पुत्र ना दे पाने के कारण उन्हें उनकी उपेक्षा के साथ-साथ मानसिक यंत्रणा से भी गुजारना पड़ रहा था । माँ अत्यंत सहनशील थी और शायद इसी गुण के कारण वह स्वयं पर हुए अत्याचारों को निशब्द सहती रही थीं । ऐसा नहीं था कि उन्हें कभी बुरा नहीं लगता था या वे विरोध करने के लिए तड़फड़ाई ना हो पर मन में पैठी हीनभावना के कारण वह विषम परिस्थितियों में भी विरोध नहीं कर पाती थीं । वैसे भी अपनी तीन नाबालिग कन्याओं को लेकर जातीं भी तो कहाँ जातीं । दादी और पिताजी के व्यंग्य बाणों से आहत माँ को अकेले बैठकर रोते उसने कई बार देखा था । एक बार माँ को ऐसी अवस्था में देख, जब ऋचा ने उनसे रोने का कारण पूछा तो उन्होंने उसे अंक में भरते हुए व्यथित स्वर में कहा था ,' बेटा, खूब पढ़ो ...आत्मनिर्भर बनो जिससे किसी के आगे झुकना ना पड़े । अपने फैसले तुम स्वयं ले सको ।।' दादी के दो पुत्र और थे । वह अधिकतर उन्हीं के पास ही रहती थी क्योंकि उनकी पत्नियों से उनकी बनती ही नहीं थी । आखिर सब माँ की तरह सहनशील तो नहीं होते । वे आकर दादी से मिलने तो आते किंतु अपने साथ चलने के लिए कभी नहीं कहते थे । दादी ने कभी जाना नहीं चाहा । वह कभी उनके पास गई भी , तो महीने दो महीने से ज्यादा नहीं रह पातीं थीं पर फिर भी वह माँ की सेवा की कद्र नहीं कर पाई । त्रुटि न होने पर भी त्रुटि निकाली जाती । माँ को जब तब उनके क्रोध का शिकार बनना पड़ता । शायद यही मानव की प्रकृति है जो जितना दबता है, उसे उतना ही और दबाया जाता है । पिताजी को तो पुत्र ही चाहिए था अतः दूसरे वर्ष माँ पुनः गर्भवती हो गई । पिताजी की पुत्र के लिए चाह तथा पुत्रियों से विरक्ति ने उसके छोटे से मन में अंतर्द्वंद मचा दिया था । उसने मन ही मन खूब पढ़ने का संकल्प ले लिया था । माँ सिर्फ बच्चे जनने की मशीन बनकर रह गई थीं । गिरती शारीरिक स्थिति के कारण वह अब चाह कर भी उनके लिए कुछ नहीं कर पाती थी । यद्यपि सेक्स की जाँच के लिए अल्ट्रासाउंड कराना अपराध है पर पैसे से किसी को भी खरीद जा सकता है । इसी हथिया का प्रयोग कर इस बार अनहोनी की आशंका से बचने के लिये अल्ट्रासाउंड करवाया गया । पता चला कि पुत्री ही गर्भ में है । दादी ने गर्भपात करवाने का निर्णय सुना दिया । माँ आँखों में आँसू लिए बेबस बकरी की तरह ज़िबह होने चल दीं । जब वे अस्पताल से लौटे तो दादी पैर पटकते हुए पूजा घर में जाकर बैठ गई जबकि पिताजी पहले ही कहीं चले गए थे । माँ अपने कमरे में बैठकर रोने लगीं । माँ को रोता देखकर दीपा और नमिता भी रोने लगीं । बाद में पता चला गर्भ में पुत्री नहीं पुत्र था । अल्ट्रासाउंड की रिपोर्ट अस्पताल के स्टाफ की लापरवाही के कारण बदल गई थी । प्रकृति ने निरपराध मासूम की जान लेने का अपराध करने वालों को दंड दे दिया था । इस बार पिताजी भी निराश हताश लगे । जिस मेडिकल साइंस पर उन्हें इतना विश्वास था जिसके बल पर वह अपने भाग्य का निर्माण करना चाहते थे वह भी धोखा दे गया अब किसकी शरण में जाते !! वे तीनों पापा के स्नेह की आस में उनके चारों ओर मंडरतीं । उनके एक-एक काम को अपने नन्हे नन्हे हाथों से करके उनके मन को जीतना चाहतीं किंतु उन पर कोई प्रभाव ही नहीं पड़ता था । वह अपने व्यवसाय में इतना व्यस्त रहते थे या व्यस्त रहने की कोशिश करते थे कि लगता था कि उनके पास समय ही नहीं है । घर में रहते तो सदा फोन पकड़े रहते या मोटी मोटी फाइलों में सिर छुपाए रहते । माँ से भी उन्हें कम ही बातें करते देखा था । घर खर्च के लिए माँ को रुपए पकड़ा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेना उनकी आदत बन गई है । माँ ने अपनी स्थिति से समझौता कर लिया था किंतु पिता के प्यार से वंचित वे तीनों उनके व्यवहार एवं बेरुखी को सहन नहीं कर पा रही थीं । जब वे अपनी हमउम्र सहेलियों को अपने पिता के साथ घूमते देखतीं तो मन मसोसकर रह जातीं । यहाँ तक कि उसके पिता ने उसके जन्मदिन पर कोई उपहार दिया हो या अपने आप कहीं घुमाने ले गए हो यह भी उसे याद नहीं था । वह समझ नहीं पा रही थी कि इस दुनिया में जन्म लेकर उसने तथा उसकी बहनों ने क्या अपराध किया है !! वे स्वयं तो आई नहीं थीं । उन्हें लाने वाले उनके माता-पिता ही थे फिर उनके साथ ऐसा व्यवहार क्यों ? उस समय वह यह सोच कर मन को तसल्ली दे लेती थी कि हो सकता है कि पापा को अति व्यस्तता के कारण वास्तव में उनसे बात करने का समय न मिलता हो या उन्हें अपने लंबे चौड़े व्यवसाय के लिए उत्तराधिकारी न मिल पाने के कारण उनका व्यवहार अनजाने में उन सबके प्रति अस्वाभाविक और असंयत हो गया है । यद्यपि पापा ने रुपए पैसों से उन्हें कोई कमी नहीं होने दी थी । जो भी उन्होंने माँगा मिला । पापा ने उन्हें अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलवाई फिर भी पता नहीं क्यों मन में पैठी ग्रंथि के कारण वह चाह कर भी सहज नहीं हो पाती थी I अभी अभी घटना को एक वर्ष भी नहीं बीता था कि पता चला माँ फिर गर्भवती हैं । इस बार माँ विशेष प्रसन्न नहीं थीं । लगता था पत्नी धर्म निभाते -निभाते वह मशीन बन गई हैं । दोबारा अल्ट्रासाउंड करवाया गया । एक बार नहीं दो दो बार , वह भी अलग-अलग डॉक्टरों से । दोनों रिपोर्ट में पुत्र होने की सूचना मात्र से पिताजी का चेहरा दमक उठा । दादी भी अचानक बदल गई जिस बहू में उनको सदा दोष ही दोष नजर आते थे अब वह उनका विशेष ध्यान रखने लगीं । उसे भी लगने लगा था कि इस बार भाई आ जाए तो माँ की सारी परेशानियां दूर हो जाएं तथा हो सकता है पापा और दादी का प्यार भी उन्हें मिल जाए । माँ भी उत्सुकता से पुत्र के स्वागत की तैयारी करने लगी । उनका यौवन पिताजी की इच्छाओं की भेंट चढ़ गया था । अपनी मानसिक अस्वस्थता के कारण वह अनायास ही जीवन से दूर होती चली गई थीं । जीवन के प्रति उनमें न कोई उत्साह रह गया था और न ही कोई लगाव पर अब अचानक ऐसा लगने लगा था जैसे जीवन के प्रति उनका अनुराग बढ़ने लगा है । साथ ही दादी की अत्यधिक देखभाल के कारण उनका खोया आत्मविश्वास भी लौटने लगा था । कहते हैं अच्छा समय बीते देर नहीं लगती...आखिर वह दिन भी आ गया जब एक नन्ही जान ने दुनिया में कदम रखा । उसके कदम रखते ही मानो घर से बुरी आत्मा का साया दुम दबाकर भाग गया था । सदा चिड़चिड़ाने वाली दादी तो लगता था कि खुशी के कारण पागल हो गई हैं । अब वह उन सबके साथ भी अच्छी तरह पेश आने लगी थीं । घर में पुत्र रत्न होने पर खुशियां मनाई गई । शानदार पार्टी दी गई । घर आए मेहमानों को उपहार और मिठाई देकर विदा किया गया । पिताजी अचानक ही अपनी उम्र से दस वर्ष कम लगने लगे थे । जिनको उसने कभी किसी बच्चे को गोद में खिलाते नहीं देखा वही पिताजी नवजात शिशु को गोद में उठाए ऐसे खुश हो रहे थे मानो किसी बच्चे को उसका खोया हुआ खिलौना वापस मिल गया हो । ऋचा ने अपने होशो हवास में पिताजी को इतना प्रसन्न कभी नहीं देखा था । आखिर उनका वंश चलाने वाला आ गया उनके बुढ़ापे का सहारा जो आ गया था । माँ के चेहरे पर छाई रहने वाली उदासी भी विलुप्त हो गई थी । उन सबकी ओर तो वह पहले ही खराब स्वास्थ्य के कारण कम ध्यान दे पातीं थीं किंतु अब नवासे की वजह से समय और भी कम समय मिलने लगा था । पर उन्हें बुरा नहीं लगता था क्योंकि वह उनके प्यारे भाई की देखभाल ही तो कर रही थीं । अब उन्हें रक्षाबंधन पर राखी बांधने के लिए भाई मिल गया था । उस दिन उसकी नन्हीं कलाई पर राखी बांधने की होड़ लगती कि कौन पहले राखी बांधेगा और वह शैतान उन्हें परेशान करने के लिए इधर-उधर भागता रहता । दादी उसकी शैतानी देखकर दादी लोटपोट हो जातीं । लगता ही नहीं था कि वह पहले वाली दादी हैं । नदी की लहरों की तरह पत्थरों से टकरा -टकरा कर आगे बढ़ते ही रहे । ऋचा का इंजीनियरिंग में चयन हुआ तो माँ अत्यंत प्रसन्न हुई पर पापा निर्विकार ही रहे । शायद उसकी सफलता से पिताजी को कोई अंतर नहीं पड़ने वाला था । दादी अवश्य पापा से बोली थीं,' बबुआ ज्यादा पढ़ाई लिखाई लड़कियों का दिमाग खराब कर देवें है, मेरी मान कोई अच्छा सा लड़का देख इसके हाथ पीले कर दे ।' ऋचा की इच्छा देखकर पापा ने बेमन से हामी भर दी थी । उसकी देखा देखी दीपाली और नमिता ने भी मेहनत की थी । समय के साथ दीपाली का मेडिकल में तथा नमिता का बैंकिंग सेवा में चयन हो गया था । धीरे-धीरे उनको अपने मंजिल की ओर अग्रसर देख माँ बहुत खुश थीं । धीरे-धीरे उनके विवाह भी हो गए । राहुल का भी इंजीनियरिंग में दाखिला हो गया । तभी दादी की मृत्यु हो गई । दादी के जाने के पश्चात माँ अकेली रह गई । राहुल हॉस्टल में था तथा पिताजी अधिक कार्य व्यस्तता के कारण अधिकतर घर से बाहर ही रहते थे । धीरे-धीरे माँ अनेक रोगों से ग्रस्त होती गई । दीपा और उसके पति अमित ने भी वही नर्सिंग होम ले लिया था । अमित ,दीपा का सहपाठी था । उसके माता-पिता बचपन में उसे अकेला छोड़ कर चले गए थे । उसकी बुआ ने उसे पाला था । दीपक का मित्र होने के कारण वह अक्सर उनके घर आता रहता था । माँ पापा को अपने माता- पिता के समान समझकर उन्हें मान सम्मान देता रहा था । यही कारण था कि माँ पापा को भी उससे अपनत्व हो गया था अतः जब उसने अपनी बुआ के साथ आकर दीपा का हाथ माँगा तो वह मन नहीं कर पाये । उन्होंने बिना देरी किये शहनाई बजवा दी थी । वैसे भी इतना जाना परखा, होनहार लड़का उन्हें चिराग़ लेकर ढूंढने से भी नहीं मिलता । दीपा और अमित नर्सिंग होम से छुट्टी पाकर कुछ समय माँ के साथ बिता कर उनका अकेलापन दूर करने का प्रयास करते थे । दूर होने के कारण वह और नमिता तो कभी-कभी ही आ पाते थे किंतु फोन से लगातार उनका कुशलक्षेम पूछते रहते थे । राहुल ग्रेजुएशन करने के पश्चात पिताजी के साथ ही फैक्ट्री में लग गया । राहुल के साथ आने के कारण पिताजी ने छोटी यूनिट को विस्तार देने की योजना बनाई जिससे वह और भी व्यस्त हो गए । समय आने पर माँ-पापा ने राहुल का विवाह कर अपने सारे अरमान पूरे करने का प्रयास किया था । शोभना सचमुच बहुत सुंदर और प्यारी लड़की थी । वे तीनों भी यह सोचकर निश्चिंत हो गई थी कि अब माँ की अच्छी देखभाल हो जाएगी । पिताजी के स्वप्न साकार होने जा रहे हैं आखिर इसी दिन के लिए तो उन्होंने पुत्र की चाहना की थी । एक वर्ष भी राहुल के विवाह को नहीं हुआ था कि सुना उसने वहीं उसी शहर में दूसरा घर ले लिया है शायद शोभना को स्वतंत्रता चाहिए थी । वह सीधी साधी बीमार माँ के साथ तालमेल नहीं बिठा पाई थी । माँ- पिताजी ने अपने दिल पर पत्थर रखकर उनके नए घर को सजाने संवारने में योगदान दिया था किंतु दिल तो दिल ही है एक बार टूटा तो फिर जोड़ ही नहीं सका । था । अभी वह सब इस घटना से संभल भी नहीं पाए थे कि दीपा का फोन आया की मां अचानक हमें छोड़ कर चली गई हैं । एक बार फिर सब इकट्ठे हुए पिताजी का पुरूषोचित अहंकार भी टूटता सा लगा था । तकदीर के लिखे को कौन मिटा सकता है अतः उन्होंने स्वयं को काम में डुबो दिया । घर का पुराना नौकर रमेश था ही अतः खाने पीने की कोई दिक्कत नहीं थी । माँ जीवित थी तब भी वही घर का सारा काम किया करता था । उन तीनों बहनों का घर से संबंध कम होता गया । पिताजी से उन तीनों का कभी तारतम्य रहा ही नहीं था । माँ ही उन सबको एक सूत्र में बांधने वाली कड़ी थीं अब वह कड़ी ही नहीं रही...तन मन में एक अजीब सा सूनापन छा गया था। । ऋचा जितना सोचती उतनी ही भूत भविष्य के भंवर जाल में उलझती जाती । आज उसके एक पुत्र और एक पुत्री है । नानी माँ के शब्द कानों में घुसकर उनके कथन की यथार्थता का बोध कराते रहते हैं । पुत्री पारुल सदैव उसके चारों ओर घूमती रहती है । किसी दिन नौकरानी नहीं आती तो कहती,' मम्मा इतना काम आप अकेले कैसे करोगी ?' कॉलेज जाने से पूर्व नाश्ता बनवाने में उसकी मदद करती । पूरे घर को व्यवस्थित रखने की जिम्मेदारी उसने अपने नाजुक कंधों पर पहले ही उठा रखी है जबकि उस से दो वर्ष बड़ा बेटा पल्लव पानी का ग्लास भी माँग कर पीता है । वह गिलास भी घंटों वही पड़ा रहता है जहाँ उसने पानी पीया था । जरा भी सिर में दर्द होने पर कहती,' मम्मा लाओ मैं बाम लगा दूँ । तुम इतना काम क्यों करती हो ? थक जाती होगी छोड़ दो नौकरी ।' अपने कालेज की एक-एक बात आकर उसे बताती थी । कभी-कभी लगता था कि वह उसकी बेटी नहीं सखी है । एक दिन बेटे का कमरा साफ कर रही थी कि देखा सिगरेट का आज जला टुकड़ा पड़ा है । मन में चुभन हुई, यह मेरा पुत्र है, मेरे शरीर का अंश ...सिगरेट पीने लगा है और मुझे पता ही नहीं चला । सोच ही नहीं पा रही थी क्या उचित है और क्या अनुचित !! संतान अपनी है अच्छी या बुरी भोगना तो है ही । पल्लव से पूछा तो उसने कहा,: सॉरी मम्मा ।' ' बेटा , पकड़े जाने पर केवल सॉरी बोलकर तुम अपनी गलती को सुधार नहीं सकते । क्या तुम नहीं जानते कि सिगरेट पीना शरीर के लिए कितना हानिकारक है ? पर मेरे कहने से कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला जब तक कि तुम स्वयं उसकी अच्छाई और बुराई को समझ ना सको। मैं हमेशा तो तुम्हारी निगरानी कर नहीं सकती शायद तुम्हें अच्छा भी ना लगे । तुम बड़े हो रहे हो अपना भला-बुरा स्वयं समझ सकते हो लेकिन यही उम्र है जीवन संवारने की । अब चाहे इसे सवारों या बिगाड़ो, सब तुम्हारे हाथ में है ' ऋचा ने बेटे को समझाते हुए कहा था । ' सॉरी मम्मा, अब आपको कोई शिकायत का मौका नहीं दूँगा ।' 'तुमसे यही उम्मीद है ।' प्यार से पल्लव के गाल को थपथपाते हुए उसने कहा था । पल्लव के चेहरे पर शर्मिंदगी के भाव तथा क्षमा याचना उसे सुकून पहुँचा गई थी । जब बच्चे बड़े होने लगते हैं तब हर माता-पिता को बच्चों के भविष्य की चिंता सताने लगती है । अगर बच्चे अच्छे निकल गए तो लगता है जीवन संवर गया । लेकिन यह भी भ्रम ही है माता-पिता भले ही भली भांति अपना कर्तव्य निभा लें लेकिन अपनी ऊंची उड़ान और जवानी के नशे में बच्चे अपने बूढ़े और लाचार माता- पिता के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह भली-भांति कहाँ कर पा रहे हैं ? कुछ दिन पूर्व ही पिताजी को पैरालिसिस का अटैक पड़ा था । उनका आधा हिस्सा निष्क्रिय हो गया था। तीनों बहने बारी-बारी से उनकी सेवा में संलग्न रहने की कोशिश करतीं । राहुल और शोभना भी आ जाया करते थे पर उनका व्यवहार देखकर लगता था कि उन्हें उन तीनों का पिताजी के पास आना और रहना पसंद नहीं है । उन्होंने यह भी कभी नहीं कहा कि आप सब क्यों परेशान होती हैं मैं और शोभना तो है ही, उनकी देखभाल के लिए । वह ना तो पिताजी को अपने घर ले जाकर उनकी सेवा करके अपना कर्तव्य निभाना चाहते थे और ना ही यह चाहते थे कि वे तीनों वहाँ आया करें भला ऐसे कैसा हो सकता है था ? उन तीनों को बारी-बारी से पिताजी की सेवा में संलग्न देख राहुल शोभना भी वहीं आकर रहने लगे । यह देखकर ऋचा को अच्छा लगा । चलो किसी भी तरह उन्हें अपने कर्तव्यों का एहसास तो हो रहा है । शोभना भी पिताजी के साथ ठीक से पेश आ रही थी तथा राहुल भी ऑफिस से आते वक्त उनके लिए फल इत्यादि ले आता था । एक दिन ऋचा ने राहुल से कहा,' अब जब तुम दोनों आ ही गए हो तो मैं चली जाती हूँ ।' ' ठीक है दीदी ।'राहुल ने संक्षिप्त उत्तर दिया था । एक रात को उसे नींद नहीं आ रही थी पिताजी के कमरे में जाकर देखा तो वह सो रहे थे । वह फ्रिज से पानी निकाल कर अपने कमरे की ओर जाने लगी तभी राहुल के कमरे से कुछ आवाजें सुनाई पड़ी । वैसे तो उसे छिपकर किसी की बात सुनने का कभी शौक नहीं रहा रहा था पर अपना नाम सुनकर उसके पैर थम गए । शोभना की आवाज थी,' अच्छा हुआ जो हम लोग समय पर आ गए वरना दीदी पिताजी को बरगला कर सब कुछ अपने नाम करवा लेतीं ।' 'शायद तुम ठीक कह रही हो । तुम पिताजी का जरा ठीक से ख्याल रखना । यही समय है जब हम उन्हें अपनी ओर कर सकते हैं । डॉक्टर कह रहा था कोई इंप्रूवमेंट नहीं है । हार्ट पर भी असर आ गया है । ऐसे लोग कुछ ही दिनों के मेहमान होते हैं ।' ' मैं सब समझ रही हूँ पर अब तुम दीदी को जल्दी से जल्दी विदा कर दो वरना कहीं हमारी मेहनत असफल ना हो जाए ।' राहुल और शोभना का वार्तालाप सुनकर ऋचा को काठ मार गया । कितने निकृष्ट विचार हैं इनके !! यह लोग पिताजी की सेवा के लिए आए हैं या उनके मरने का इंतजार कर रहे हैं । शोभना तो खैर दूसरे घर की बेटी है पर राहुल !! क्या इसी दिन के लिए पिताजी ने पुत्र की चाहना की थी ? ऋचा की आंखें डबडबा आई । पिताजी ने भले ही उनका तिरस्कार किया हो पर हैं तो वे उनके जन्मदाता ही । भाई जिसके साथ जीवन के इतने बसंत बिताए थे अचानक पराया लगने लगा । उनके प्यार और सेवा का यह अर्थ !! आखिर उन्हें क्या कमी है जो वह ऐसा करेंगी या चाहेंगी । भारी कदमों से ऋचा अपने कमरे में लौट आई तथा दूसरे दिन ही जाने का मन बना लिया वरना एक-दो दिन और रुकने की सोच रही थी । अपने भी कभी-कभी कितने बेगाने हो जाते हैं । दिल छलनी हो गया था । पिताजी जिन्हें अब पैसे से ज्यादा प्रेम और अपनत्व की आवश्यकता है, उन्हें इन लोगों के बीच छोड़ने का मन तो नहीं था । कहते भी हैं बीमार व्यक्ति को दवा से ज्यादा प्यार के मीठे बोलो की आवश्यकता होती है पर घर की सुख शांति के लिए जाना ही श्रेयस्कर कर लगा था । विधि को कुछ और ही मंजूर था दीपा से पता चला कि पिताजी अब ठीक हो रहे हैं तो मन प्रसन्नता से भर उठा । राहुल और शोभना का सेवा करने का धैर्य समाप्त हो गया था । वे फिर अपनी दुनिया में लौट गए थे । रमेश ही उनकी सेवा कर रहा था । उनको अकेले रहता देख ऋचा उनसे मिलने गई । उसका मन था कि ऐसी स्थिति में पिताजी अकेले रहने के बजाय उसके पास रहें । उसके अनुरोध पर पिताजी बोले थे,' बेटा इंसान को विषम परिस्थितियों में भी घबराना नहीं चाहिए । रमेश है ही मेरी देखभाल के लिये , दीपा भी जब तक आप कर मुझे देख जाती है । तुम लोगों के रहते मैं अकेला कहाँ हूँ । अब तो व्हीलचेयर पर बैठकर घर में स्वयं घूम भी लेता हूँ । जाओ बेटा , मेरे लिए क्यों अपने बच्चों और घर को उपेक्षित कर रही हो । जब आवश्यकता होगी तब बुला लूँगा ।' होठों पर सहज मुस्कान के साथ-साथ आँखों में आँसू भी झिलमिला उठे थे । उनके मुँह से अपने लिए प्यार भरे शब्द सुनकर ऋचा को सुखद आश्चर्य हुआ था । शायद उनके निस्वार्थ प्रेम का मूल अब वे समझ पाए हैं । समय के साथ-साथ उनकी मनोवृति में भी परिवर्तन आता गया किंतु पुत्र के लिए उन्होंने उनकी उपेक्षा की थी, चाहकर भी वह भूल नहीं पाती है किंतु उन्हें हैरान परेशान देखकर जब तक जब तक दौड़ी भी जाती है । कैसी है स्त्री मन की मानसिकता ? यही भावना लड़कों को क्यों उद्देलित नहीं कर पाती ? वह पिता के व्यवसाय को संभालने की जिम्मेदारी तो उठाना चाहता है किंतु पिता को नहीं । पिता का प्यार दुलार पुत्र के लिए रहता है जबकि पुत्री अपनी संपूर्ण चेतना, संपूर्ण मन से बिना किसी स्वार्थ के उस घर से जुड़ी रहती है जहाँ उसने जन्म लिया था किंतु फिर भी उसे सदा पराया धन ही समझा जाता है ऐसा क्यों ? मन में बार-बार उठते प्रश्नों ने एक बार फिर ऋचा के मन में पुनः उथल-पुथल मचा दी थी । ' क्या तबीयत ठीक नहीं है जो अँधेरे में बैठी हो ?' अखिलेश ने अंदर आते हुए पूछा । अखिलेश की आवाज सुनकर वह अतीत से वर्तमान में आई तथा पिताजी से फोन पर हुई बातें हैं उन्हें बताई । ' पिताजी ने बुलाया है तो चली जाओ ।' ' बार-बार जाने से आप सबको परेशानी हो जाती है ।' पिताजी की जरा सी तबीयत खराब की खबर सुनकर बार-बार जाने वाली ऋचा पता नहीं कैसे यह बात कह गई । शायद राहुल और शोभना का वार्तालाप वह भूल नहीं पा रही थी । ' परेशानी कैसी ? इस समय तुम नहीं जाओगी तो फिर कब जाओगी । बच्चे अब छोटे नहीं है फिर मैं तो हूँ ही न ।' अखिलेश ने आश्चर्य से उसकी ओर देखते हुए कहा । अखिलेश की यही तो खूबी है । उन्होंने सुख दुख में सदा उसका साथ दिया है । एक बार फिर अखिलेश पर घर की जिम्मेदारी छोड़कर पहली ट्रेन से ऋचा चल पड़ी । घर पहुँची तो देखा, पिताजी बेड पर हैं । दीपा नमिता पहले से मौजूद थीं । ऋचा को देखकर पिताजी की आँखों में एक चमक आई । इशारे से उन्होंने उसे अपने पास बुलाया तथा बोले … 'तू कहती थी ना कि आपने हमें ...तुम तीनों को कभी प्यार नहीं किया । देख यह आँखें तेरा ही इंतजार कर रही हैं । बेटा, अब मेरे जाने का समय नजदीक आ गया है । तू बड़ी है । पूरे परिवार को एक सूत्र में बाँधकर रखना ।' 'पिताजी आप ऐसा क्यों कह रहे हैं ? आप ठीक हो जाएंगे । हम आपको कहीं नहीं जाने देंगे। दीपा देखो ना पिताजी क्या कह रहे हैं ?' भाव विह्वल स्वर में ऋचा ने दीप की ओर देखते हुए कहा । ' दीदी, धीरज रखो ।' पर पिताजी उसके बाद कहाँ कुछ बोल पाये । राहुलके काम के सिलसिले में बाहर गया था । इस बार शोभना भी उसके साथ गई थी । उनकी स्थिति देखकर ऋचा ने उनको खबर कर दी थी । उनके आने तक भी पिताजी नहीं रुक पाये । उनकी आत्मा के परमपिता में विलीन होते ही एक युग का अंत हो गया था । वह यादें जो उनके दिलों में दर्ज थी अब इतिहास बन गई थी । उनसे उनका मायका तो माँ के निधन के पश्चात ही छिन गया था किंतु पिता के रहने पर यहाँ इस घर में आने का एक बहाना तो था । वह घर जिसमें उनका बचपन बीता था । जिससे न जाने कितनी खट्टी मीठी यादें जुड़ी थी अब बेगाना हो जायेगा । यह सोच ऋचा को पागल बना रही थी । राहुल के आते ही पिताजी की अंतिम यात्रा पर चल पड़े पूरा परिवार एकत्रित था पर किसी के मुँह में शब्द नहीं थे । ना जाने यह कैसी घड़ी थी... राहुल और शोभना घर के बेटा बहू होने के कारण सब रीति रिवाज निभा रहे थे । काश वे पिताजी के सामने भी उनके प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह कर पाते तब शायद अपने अंतिम समय में वह इतने अकेले और बेबस ना होते । अभी अंतिम संस्कार के विधि-विधान चल ही रहे थे कि कि पिताजी के अभिन्न मित्र एडवोकेट श्यामा प्रसाद ने बताया कि मरने से एक हफ्ते पूर्व ही उन्होंने उन्हें बुलाकर, अपनी वसीयत लिखवाई थी । उनकी बात सुनकर राहुल चौंक गया तथा शोभना भी उखड़ी उखड़ी लगी । ' चाचा जी ,वसीयत चाहे जो भी हो हम तो इतना जानते हैं कि जो कुछ पिताजी का है वह राहुल का ही है । हम तीनों को उसमें से कुछ नहीं लेना है ।' स्थिति संभालते हुए ऋचा ने कहा । ऋचा के शब्द सुनकर जहाँ दीपा और नमिता ने मौन सहमति दे दी वहीं राहुल और शोभना ने संतोष की सांस ली । पिताजी की तेरहवीं के पश्चात उनकी वसीयत पढ़ी गई । वसीयत में फैक्टरी और मकान राहुल के नाम करके अन्य संपत्ति के चार हिस्से करके, मकान के पिछवाड़े बने कमरे को जिसमें रमेश रहता था, उसे उसके नाम कर दिया था । उन तीनों ने अपना-अपना हिस्सा उसी समय राहुल को हस्तांतरित कर दिया था । यद्यपि उनके आग्रह को स्वीकार करने में राहुल ने हिचकिचाहट दिखी । ' तुम जानते हो राहुल पिताजी के लिए पुत्र का दर्जा सदा पुत्रियों से अधिक रहा है पर आज उन्होंने पुत्र और पुत्री में कोई भेद न करके हमारा मान बढ़ाया है । इससे बढ़कर हमें और क्या चाहिए !! पिताजी का जो कुछ भी है वह तुम्हारा ही है और तुम्हारा ही रहेगा । आज हमारे पास जो कुछ है नाम, शोहरत ,इज़्ज़त ,सुख ,संतोष और शांति वह भी तो पिताजी की की ही देन है फिर और किसी भौतिक वस्तु की चाहत हम क्यों करें ? बस एक दूसरे के दिल में ,एक दूसरे के लिए जगह बनी रहे ,आपस में प्रेम रहे, हम तीनों की बस यही इच्छा है और यही पिताजी की अंतिम इच्छा थी ।' राहुल की हिचकिचाहट देखकर ऋचा ने कहा । 'दीदी, मुझे क्षमा कर दो । मैं स्वार्थी बन गया था । तभी आप सबके निश्छल प्रेम को समझ नहीं पाया । यह घर जैसा था वैसा ही रहेगा । माँ पापा नहीं रहे तो क्या हुआ मैं उनके कर्तव्यों को, उनकी सारी जिम्मेदारियों को पूरा करूँगा ।' भाव विह्वल स्वर में कहते हुए राहुल ने उसका हाथ पकड़ लिया । 'हाँ, एक बात और राहुल ...रमेश ने सदा पापा की सेवा की है उसे उसके हिस्से से बेदखल मत करना । 'राहुल के भाव विह्वल स्वर को सुनकर भी ऋचा ने निस्पृह स्वर में कहा । वह आज तक राहुल और शोभना का वार्तालाप भूल नहीं पाई थी । ' दीदी आप निश्चिंत रहिए । जैसे रमेश पापा के समय रहता था, अभी वैसे ही रहेगा ।' राहुल ने कहा । ऋचा के पीछे खड़ी शोभना के चेहरे पर भी राहुल के समान भाव ही झलक रहे थे । ऋचा सोच रही थी कि पापा की पुत्र के लिए चाह गलत नहीं थी। एक पूर्ण परिवार के लिए पुत्र और पुत्री का होना आवश्यक है । बहन से जहाँ भाई को माँ का वात्सल्य मिलता है वही भाई से बहन को पिता का स्नेह और सुरक्षा मिलती है । परिवार रूपी वृक्ष की हर डाली का अपना एक महत्व होता है , रूप होता है पर इसके लिए वृक्ष की जड़ का मजबूत होना बहुत आवश्यक है। ऐसा ना हो कि एक डाली की सुरक्षा के लिए दूसरी डाली को काट दिया जाये या मुरझाने दिया जाये । भेदभाव करने से डालियां तो मुरझाएंगी ही, पेड़ भी नहीं पनप पाएगा । इसी शाश्वत सत्य पर पूरा जीवन टिका है पर हम इंसान सब कुछ जानते समझते हुए भी जीवन में इस शाश्वत सत्य को अपना नहीं पाते हैं । ऋचा को खुशी थी तो सिर्फ इतनी कि माँ पापा के जाने के पश्चात भी उनके रोपे पौधे में प्यार और स्नेह के पुष्प निकलने लगे हैं और शायद सदियों तक अनेक रूपों में अपनी महक बिखेरते रहेंगे ...पर यह तभी संभव है जब हम अपने मन में पैठे अविश्वास के पौधों को निकालकर विश्वास रूपी पौधों का रोपन करें । सुधा आदेश