Thursday, January 23, 2020

उफ ! यह चश्मा ...जी का जंजाल

उफ ! यह चश्मा...जी का जंजाल हफ्ते भर पश्चात् होने वाली किटी पार्टी में कामिनी अपना नया चश्मा पहनकर गई । उसे देखते ही उसकी अभिन्न मित्र सुषमा ने कहा, ‘ अरे कामिनी, तुम्हें चश्मा लग गया !! ’ ‘ हाँ...।’ कहते हुये कामिनी ने गर्वोन्मुक्त मुस्कान के साथ ऐसे कहा जैसे पूछना चाह रही हो कि बताओ मैं कैसी लग रही हूँ ? ‘ अरे, मुझे तो चश्मा जी का जंजाल लगता है । मजबूरी न हो तो मैं कभी लगाऊँ ही नहीं । कोई भी काम करना हो तो आधे समय तो चश्मा ही ढूंढते रहो...।’ कविता ने अपना चश्मा ठीक करते हुये कहा । ‘ कब तक बचेगा कोई, चालीस के बाद तो सबको ही चश्मा लगाना ही पड़ता है ।’ पूर्णिमा ने अपने ज्ञान का प्रदर्शन करते हुए कहा । ‘ सच...तो क्या कामिनीजी, आप चालीस की हो गई लेकिन लगती तो नहीं है ।’ रंजना की आवाज में आश्चर्य था । क्या चालीस के बाद सभी को चश्मा लग जाता है...? क्या वह चालीस की हो गई...? उसे यह मामूली सी बात क्यों पता नहीं थी...? उसे अपनी नासमझी पर क्रोध आया था पर अब क्या कर सकती थी...!! चश्मा लगाने के जनून में देखने में थोड़ी सी परेशानी होने पर वह डाक्टर के पास चली गई और उन्होंने उसको उसका मनचाहा उपहार पकड़ा दिया । सच्चाई सामने आते ही उसे लगा जैसे उसे भरे बाजार में नंगा कर दिया गया हो...कितने यत्न से उसने अपने शरीर को सहेजा था...बढ़ती उम्र को नियमित योगाभ्यास के जरिए रोक रखा था । उसकी सुगठित देहायष्टि को देखकर उसकी जवान होती बेटी को भी लोग उसकी बहन समझने की भूल कर जाते थे....पर इस मरदूद चश्मे ने उसकी रूकी उम्र को एकाएक सबके सामने बेनकाब कर दिया था...। लौटकर आई तो बुझी-बुझी थी । मानव उसके पति और बच्चों ओम और स्वीटी ने उससे पूछा पर उसने कोई उत्तर नहीं दिया बार-बार उसके मनमस्तिष्क में यही आ रहा था कि उसे यह पता क्यों नहीं था कि चालीस के बाद सबको चश्मा लग जाता है पर उसे तो बुद्धिजीवी बनने का शौक सवार था !! बचपन से ही शुभा को चश्मा लगाने का शौक था । पता नहीं कैसे उसके मन में एक धारणा बन गई थी कि जो भी चश्मा लगाता है, वह बुद्धिमान होता है....भइया चश्मा लगाता है, पापा चश्मा लगाते हैं, यहाँ तक कि मम्मी भी कुछ दिनों से चश्मा लगाने लगी हंै फिर वह क्यों नहीं लगायेगी...उसे भी औरों की तरह बुद्धिमान बनना है...चश्मे के लिये जिद करती तो माता-पिता हँसकर कहते,‘ अरे, बुद्धू, चश्मा वह लगाता है जिसकी आँखें कमजोर हों ।’ बुद्धू शब्द पर उसके आक्रोश प्रकट करने पर खेद प्रकट करते हुए वह उसे समझाने का प्रयास करते पर उसे किसी की कोई भी बात समझ में नहीं आती थी । उसे लगता कि सब उसके विरूद्ध कोई साजिश रच रहे हैं...वह लड़की है न, कोई नहीं चाहता है कि वह बुद्धिमान बने । दादी ने एक बार उससे कहा था कि उसके जन्म पर माँ खूब रोई थी क्योंकि उन्हें लड़की नहीं लड़का...इस घर का वारिस चाहिए था...। उसे लगने लगा था कि शायद इसी कारण भइया के छोटा होने पर भी माँ पापा ने उसे चश्मा लगवा दिया गया है जबकि वह उससे चार साल बड़ी है फिर भी चश्मा नहीं लगवाया गया । भइया क्लास में फस्र्ट आता है तो सब खूब खुश होते हैं लेकिन वह खूब पढ़ने के बाद भी फस्र्ट नहीं आ पाती है...उसे इसका कारण पता था पर उसकी बात कोई समझना ही नहीं चाहता था...अपनी उपेक्षा से चिढ़कर उसके बालमन पर एक ही धुन सवार थी कि उसे चश्मा लगाना हैै । एक दिन उसने अखबार में पढ़ा कि जो बच्चे पढ़ते या टी.वी. देखते समय बार-बार आँख बंद करते है या जिन बच्चों के सिर में अक्सर दर्द होता है, उनकी आँखें कमजोर हो सकती हैं अतः उनकी आँखों का परीक्षण करवा लेना बेहतर है । उसे तो रामबाण औषधि मिल गई । अब वह पढ़ते या टी़. वी. देखते समय जानबूझकर आँखे मिचमिचानेेे तथा अक्सर सिर में दर्द होने की शिकायत करने लगी...जब किसी ने कोई विशेष घ्यान नहीं दिया तब अपने लक्षणों के बारे में ध्यान आकर्षित करते हुए कारण तथा साथ-साथ निवारण भी बता दिया । आखिर जब उसे डाक्टर के पास ले जाने का कार्यक्रम बना तो उसे लगा कि बस अब उसकी इच्छा पूरी होने ही वाली है, पर नहीं, डाक्टर ने परीक्षण करके उसके सारे मंसूबों पर पानी फेर दिया...। दिन गुजरते रहे...बचपन से जवानी में पैर रखा पर चश्मे का शौक बदस्तूर जारी रहा...विवाह हुआ बच्चे हुए पर उसकी आँखे ठीक ही रहीं...चश्मा नहीं लगना था, नहीं लगा । एक दिन उसे लगा कि अखबार पढ़ने में परेशानी हो रही है, मानव को बताया तो वह परीक्षण करवाने डाक्टर के पास ले गये...डाक्टर ने उसे मायोपिया बताकर पावर का चश्मा पहनने की सलाह दी...मन बल्लियों उछलने को आतुर हो उठा...वर्षो की साध जो पूरी हो रही थी । आखिर सैकड़ों फ्रेम देखने के पश्चात् एक फ्रेम पसंद आया और अंततः चश्मा बन ही गया...शीशे में स्वयं को निहारा तो लगा वास्तव में आज वह बुद्धिजीवी लग रही है...मन की बात जब मानव को बताई तो वह हँस पड़े तथा कहा,‘ अरे भाग्यवान, चश्मे का अक्ल से क्या संबंध ? ’ मानव की हँसी सुनकर उसे बहुत क्रोध आया सोचा कहे...वाह रे वाह, कैसे इंसान हैं आप, जो बीबी की जरा सी तरक्की सह नहीं पातेे...पर चुप ही रह गई थी, सोचा क्यों तर्क वितर्क करके अपनी इस खुशी में बाधा डाले । वैसे इन मर्दो के लिये सदा दूसरे की बीबी गोरी लागे ही लागे पर अपनी बीबी घर की मुर्गी दाल बराबर होती ही है...। और आज यह घटना....चश्मा लगाने की खुशी एकाएक तिरोहित हो गई थी...यह चश्मा उसकी बुद्धिमता को नहीं, उसकी बढ़ती उम्र को इंगित कर रहा है...दुख तो इस बात का था कि इतनी साधारण सी बात उसे पता नहीं थी वरना उसका यँू मजाक तो नहीं बनता...अतः उसने घर आकर चश्मा जो उतारा लगाया ही नहीं । कभी मार्केट जाती तो रैपर पर लिखे प्राइस को न पढ़ पाने के कारण ऐसे ही रख लेती । एक दिन टोमेटो साॅस की बोतल खरीदते वक्त उसकी एक्सपाइरी डेट देखने की कोशिश करते हुये आँख मलने लगी । उसी समय उसकी पड़ोसन रमा आ गई तथा बोतल उसके हाथ से लेकर चश्मा ठीक कर डेट बताते हुए बोली,‘ कामिनी जी अब आप चश्मा लगवा ही लीजिये...सच इन सब प्रोडक्ट पर इतने महीन अक्षरों में लिख रहता है कि बिना चश्मे के पढ़ना मुश्किल हो जाता है ।’ सहज स्वर में कहा रमा का वाक्य भी न जाने क्यों उसे मर्माहत कर गया । कैसी विडम्बना है ? एक समय था...जब वह चश्मा लगाने को लालायित रहती थी और अब जब लग गया है तब उससे दूर भागने लगी है । एक दिन दाल में कंकड़ आने पर मानव ने कहा,‘ अरे भाग्यवान, दाल जरा ढंग से बीना करो....इतना बड़ा कंकड़ भी नहीं दिखाई पड़ा....अब तो चश्मा भी बन गया है । ’ पहले तो मन में मिलावट करने वालों को गाली दी....कहाँ तो दुनिया इक्वकीसवीं सदी में प्रवेश कर चुकी है पर घर की गृहणी अभी भी अपना आधा समय अनाज चुनने में ही बिता देती है...आखिर कब सुधरेंगे लोग...? पर प्रकट में कहा,‘ चश्मा नहीं मिल रहा था, पता नहीं कहाँ रखकर भूल गई हूँ ।’ ‘ अभी तो आंखें ही खराब हुई हैं...पर क्या यादाश्त भी कमजोर होनी प्रारंभ हो गई है ? तुम भी बच्चों के साथ आयुर्वेद का शंखपुष्पी सिरप पीना शुरू कर दो...आखिर बच्चे बूढ़े एक समान होते हैं ।’ मुस्कराते हुए मानव ने कहा । हो सकता है मानव ने यह सब मजाक में कहा हो फिर भी बूढ़े शब्द ने उसके आत्मविश्वास को डिगा दिया था...नहीं...नहीं वह बूढ़ी नहीं हुई है...। हाँ उम्र अवश्य थोड़ी बढ़ी है, उम्र के साथ शरीर में परिवर्तन भी आयेंगे...इन परिवर्तनों के साथ सामंजस्य बैठाना ही होगा । तभी सहज जीवन जीया जा सकता है, सोचकर टूटे आत्मविश्वास कोे एकत्रित करने का प्रयास किया । चश्मा भूलने की बीमारी कामिनी को ऐसी लगी कि कभी वह किचन में चश्मा भूल आती तो कभी सिलाई मशीन पर और पूरा घर छानती फिरती । अब हाल यह हो गया कि जिस योजनाबद्ध रूप में वह काम करती आई थी उसमें बिलम्ब होने लगा । उसका अधिकतर समय चश्मा ढ़ूँढ़ने में ही निकलने लगा था । मानव के साथ बच्चे भी नसीहतें देते कि आप चश्मे की एक निश्चित जगह क्यों नहीं बना लेती जिससे आपको ढूँढना ही नहीं पड़े...। बार-बार एक ही बात सुनते-सुनते एक दिन कामिनी ने झुँझलाकर कहा,‘ अब एक स़्त्री को सिर्फ पढ़ना ही नहीं है कि अपना चश्मा स्टडी टेबल पर रखे...कभी उसे किचन मे दाल बीननी है तो कभी सिलाई करनी है तो कभी बुनाई...तुम लोगो की फरमाइशें पूरी करते-करते इतना हड़बड़ा जाती हूँ कि ध्यान ही नहीं रहता कि चश्मा कब, कहाँ रख दिया ।’ उस दिन के पश्चात् सब चुप हो गये थे किन्तु सचमुच चश्मा अब जी का जंजाल बन गया था...कितना भी ध्यान से रखने की कोशिश करती लेकिन फिर भी गलती हो ही जाती थी...। एक दिन सुबह वह किचन में नाश्ता बना रही थी कि स्वीटी और ओम ने उसके पास आकर कहा,‘ हैपी बर्थ डे ममा ।’ ‘ थैंक यू बेटा ।’ ‘ बच्चों इस खुशी में आज बाहर पार्टी...।’ मानव ने भी उसे विश करके बच्चों से कहा । ‘ हिप-हिप हुर्रे...।’ दोनों ने एक साथ कहा । अपनी खुशी को व्यक्त करने का उनका यह पेटेंट वाक्य था । ‘ अच्छा यह बताओ आज पार्टी के लिये कहाँ चलना है ?’ ‘ और कहाँ, ममा के पसंददीदा रेस्टोरेंट बारबीक्यू नेशन में ।’ ओम ने कहा । ‘ ओ.के...तुम्हारी ममा का या तुम दोनों का...।’ ‘ पापा आप भी...।’ ‘ ओ.के... तुम दोनों की इच्छा सर आँखों पर...।’ कामिनी की इस बार जन्मदिन मनाने की तनिक भी इच्छा नहीं थी...होती भी कैसे बुड्ढे होने का ठप्पा जो लग गया था उस पर…!! आखिर हर जन्मदिन बढ़ती उम्र को ही तो इंगित करता है...वह बच्चों को हत्तोसाहित भी नहीं करना चाहती थी । जैसे हम दोनों ओम और स्वीटी के जन्मदिन का इंतजार करते थे....वैसे ही वे दोनों भी हमारे जन्मदिन का इंतजार करते हैं । मना करने के बावजूद अपनी पाकेट मनी से पैसे बचाकर कुछ न कुछ उपहार भी देते हैं सच अपने नाम की तरह ही दोनों मन के बहुत ही अच्छे और सच्चे हैं । मानव आफिस से लौटते हुये केक ले आये थे...बच्चे और मानव जहाँ खुश थे वहीं आज कामिनी तैयार होते हुये पता नहीं क्यों अपने मन में पहले जैसा उत्साह एकत्रित नहीं कर पा रही थी...केक काटने के पश्चात् सबने अपने-अपने उपहार पकड़ाये...ओम और स्वीटी के इसरार पर जब उसने उन्हें खोलकर देखा तो तीनों में चश्मे पाकर वह आश्चर्यचकित मुद्रा में उन्हें देखने लगी । उसे आश्चर्यचकित देखकर ओम ने संयत स्वर में कहा,‘ डाॅट वरी माॅम, आप अपना चश्मा भूल जाती थी जिसके कारण आपको काम करने में परेशानी होती थी । अब एक चश्मा आप किचन में रख लीजिएगा, एक सिलाई मशीन पर तथा एक टी.वी. के पास....क्योंकि बुनाई तो आप टी.वी. देखते हुए ही करती हैं और हाँ एक अपने पर्स में...मार्केट जाने के लिये...। आपकी परेशानी कम करने के लिये ही इस बार हम सबने आपको एक ही उपहार देने का फैसला किया है । ’ ओम की बात सुनकर कामिनी को समझ में नहीं आ रहा था कि हँसे या रोये...। दुख तो उसे इस बात का था कि बच्चे तो बच्चे मानव भी इस योजना में शामिल थे...वह यह भी समझ पाने में स्वयं को असमर्थ पा रही थी कि उन्होंने ऐसा सचमुच उसकी परेशानी दूर करने के लिये किया है या उसका मजाक बनाने के लिये...उफ ! यह चश्मा...सचमुच उसके जी का जंजाल बन गया है...कहकर वह बुदबुदा उठी थी । सुधा आदेश

Monday, January 20, 2020

जागी आँखों का स्वप्न

जागी आंखों का स्वप्न सुबह चाय बना कर मनीषा किचन से निकली ही थी कि दरवाजे के नीचे अखबार झाँकता नजर आया । चाय की चुस्कियों के साथ अखबार पढ़ने का मजा कुछ और ही रहता है । किंतु पति और बच्चों के हाथ से निकल कर नुचे-तुड़े अखबार को पढ़कर ऐसा लगता है जैसे कि सारी की सारी खबरें ही बासी हो गई हैं । इसी के साथ अखबार पढ़ने का सारा मजा किरकिरा हो जाता है । आज छुट्टी का दिन है छुट्टी का दिन उसके लिए खास अहमियत रखता है । पूरे हफ्ते के बचे कामों को निपटाना साफ सफाई करना तथा कुछ स्पेशल बनाना अर्थात हर दिन से भी ज्यादा व्यस्तता पर आज फ्री है एकदम फ्री ...क्योंकि मलय ऑफिशियल टूर पर तथा बच्चे दो दिन के लिए अपने चाचा चाची के घर गये हैं । ताजा अखबार के साथ चाय की चुस्कियां लेते लेते हो मनीषा की नजर एक विज्ञापन पड़ी...विवाहित महिलाओं के लिए एक कॉस्मेटिक कंपनी सौंदर्यप्रतियोगिता अर्थात श्रीमती 2020 का आयोजन कर रही है जिसके लिए आवेदन पत्र मांगे हैं । अचानक मनीषा के मन में बीते कल का सपना जागृत हो उठा । जब वह किशोरावस्था के उतार-चढ़ाव से अभिभूत रूपसी षोडशी थी । पाँच फीट,आठ इंच की दूधिया रंग के दूधिया सौंदर्य से ओतप्रोत वह जिधर से भी निकल जाती, लड़के तो लड़के लड़कियाँ भी उसकी ओर टकटकी लगा कर देखती रह जाती थीं । कंटीले नैन नक्श के साथ शरीर के कटाव भी उतने ही खूबसूरत थे । वह कोई भी ड्रेस पहन लेती , सौंदर्य छलक छलक पढ़ता था । उसकी अभिन्न सखी स्मिता का कहना था कि उसे सौंदर्य प्रतियोगिता में भाग लेना चाहिए । यही राय उसकी क्लास टीचर विनीता की थी । उन्होंने उसे शहर में आयोजित सौंदर्य प्रतियोगिता' मिस लखनऊ 'में भाग लेने के लिए प्रेरित भी किया था । जब उसने विनीता मैडम की बात अपनी माँ से कही तो वह उबल पड़ी थीं । वह आम रूढ़िवादी सोच वाली नारी थीं । वह अपनी पुत्री के किशोरावस्था के उबाल को सहेजकर उसे दुनिया की नजरों से बचाकर रखना चाहती थीं । उन्होंने यह कहकर साफ मना कर दिया था ना बाबा न...सौंदर्य भी कोई दिखाने की चीज होती है । वह तो ढका छुपा ही अच्छा लगता है । ना जाने यह लड़कियाँ कैसे इतने लोगों के सामने अर्धनग्न अवस्था में परेड करती हैं । तब मनीषा को अपनी माँ की संकुचित विचारधारा पर क्रोध भी आया था । वह विवश थी... जिस समाज में वह रहती थी, उसके नियम कानूनों को उल्लंघन करने तथा अपने माता-पिता के विरुद्ध जाने का उसमें साहस नहीं था । जब वह अपनी कुछ अत्याधुनिक सखियों को जींस जैकेट तथा मिनी स्कर्ट में घूमते तथा अपने बॉयफ्रेंड के साथ डेटिंग पर जाते देखती तब उसके मुँह से आह निकल जाती थी । उसे लगता था कि वह जीवन के वास्तविक आनंद से वंचित है पर माँ के कठोर अनुशासन ने उसे कभी इस तरह के कपड़े पहनने की इजाजत नहीं दी थी । माँ का मानना था कि केवल उल्टे सीधे कपड़े पहन लेने मात्र से ही कोई आधुनिक नहीं बन जाता । आधुनिक बनने के लिए हमें अपने विचारों में भी परिवर्तन लाना होगा । अपनी कथनी और करनी में सामंजस्य बिठाना होगा जो हम जैसे मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए असंभव है । मैं या तेरे पिता एक बार ऐसे आयोजनों में मुझे भाग लेने की इजाजत दे भी दें किंतु क्या हमारा समाज तुझे उस रूप में स्वीकार कर पाएगा ? क्या बाद में तेरे या तेरे भाई के विवाह में अड़चन नहीं आयेगी ? लोगों के व्यंग्य बाण क्या हमें चैन से रहने देंगे ? तेरा आचरण कहीं हमारे परिवार को मुश्किल में ना डाल दे । वैसे भी दो मुंहा व्यवहार करने वाले व्यक्ति जीवन में कभी मानसिक शांति नहीं प्राप्त कर सकते । हमारे संस्कार एवं विचार हमें असामाजिक एवं अमर्यादित आचरण करने की आज्ञा नहीं देते । वैसे मेरे विचार से ये सौंदर्य प्रतियोगिताएं स्त्रियों का शोषण ही करती है मानवर्धन तो कतई नहीं करतीं । समय के साथ उसके विवाह के लिए माता-पिता की दौड़-धूप प्रारंभ हुई पर उसका लंबा कद और उसका अद्वितीय सौंदर्य ही उसका दुश्मन बन बैठा । आखिर माता-पिता की मेहनत रंग लाई , मलय के रूप में उसे जीवन साथी मिल ही गया । कहने को मलय थे आधुनिक पर सुंदर पत्नी के साहचर्य ने उन्हें आवश्यकता से अधिक ईर्ष्यालु बना दिया था । यद्यपि वह जहाँ भी जाते, उसे सदा साथ लेकर जाते किंतु जब अपने किसी मित्र को उससे बात करते देखते तो वह अनायास ही असहज हो उठते थे । शायद ईर्ष्या की चिंगारी ना चाहते हुए भी उन्हें अपने जाल में फ़ांस लेने में कामयाब हो जाती थी किंतु क्षणांश में उसे काटकर फेकने को आतुर भी होते थे । यही उनकी खासियत थी जो उसे पसंद थी । मलय ने मनीषा पर कभी किसी बात का अंकुश नहीं लगाया था तथा उसे आत्मनिर्भर बनाने में यथासंभव सहयोग दिया था । उनके ही प्रयत्नों का फल था कि उसने विवाह के पश्चात पोस्ट ग्रेजुएशन पूरा किया तथा एम.फिल करने के पश्चात डिग्री कॉलेज में लेक्चरर के पद पर नियुक्त हो गई । आज वह अपने विभाग की हेड है, मान सम्मान है, जिसका श्रेय मलय को ही जाता है । घंटी की आवाज सुनकर मनीष बाहर गई... देखा दूध वाला है । दूध ऊबालते हुए ही उसने अपने लिए नाश्ता बनाया । वह नाश्ता कर ही रही थी कि काम करने वाली आ गई । किसी के ना रहने पर कोई काम ही नहीं नजर नहीं आ रहा था वरना छुट्टी के दिन बच्चे तरह-तरह की फरमाइश कर पूरे हफ्ते की वसूली करना चाहते हैं और वह भी खुशी-खुशी उनकी फरमाइश को पूरा कर संतोष का अनुभव किया करती है । समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करें अंततः उसने टीवी खोल लिया पर उसमें भी उसका कोई मनपसंद कार्यक्रम नहीं आ रहा था अतः टी. वी. बंदकर वह पत्रिका लेकर लेट गई पर उसमें भी उसका मन नहीं लगा । पता नहीं क्यों आज उसका मन भटक रहा था ।इस विज्ञापन ने उसके मन में हलचल मचा दी थी । आज भी उसकी सुंदरता के चर्चे सबकी जुबान पर हैं । उसे याद आया पिछले वर्ष कॉलेज में होली के अवसर विद्यार्थियों द्वारा आयोजित ''बुरा न मानो होली है ' समारोह में दिया गया अपना टाइटल …' 40 की ही हो पर अभी जवान लगती हो ,श्रीमती पर अभी कुंवारी कली लगती हो।।' न जाने यह टाइटिल किसके दिमाग की उपज था किंतु उसके सौंदर्य को उकेरता यह टाइटल उसे अंदर ही अंदर गुदगुदा गया था । वह शर्म से पानी पानी हो गई थी । उसकी कुछ सहयोगी मित्र उसे छोड़ रही थीं तथा कुछ जल भुन कर मुँह बिचकाने लगी थीं । वह स्वयं भी नहीं समझ पा रही थी कि क्या करें ? भले ही इस टाइटिल द्वारा उसके सौंदर्य की प्रशंसा हुई हो किन्तु जिसके भी दिमाग की उपज था, उसने गुरु और शिष्य की मर्यादा का उल्लंघन तो किया ही था साथ ही जाने अनजाने लोगों को उस पर कमेंट करने का मौका भी दे गया दे दिया था और तो और वह स्वयं ही इस टाइटिल को पढ़कर इतना असहज महसूस कर रही थी कि इस टाइटल को घर में भी नहीं दिखा पाई थी । ना जाने मलय और बच्चों की इसे पढ़कर क्या प्रतिक्रिया हो !! वह दिन भी याद आया जब वे अपने मित्र के पुत्र के स्वागत समारोह में आयोजित पार्टी में गए थे । वह और उसकी पुत्री संजना साथ-साथ खा रही थी । ' तुम्हारी कोई बड़ी बहन भी है, तुमने कभी बताया नहीं ।' संजना की मित्र ने संजना के पास उससे आकर पूछा । ' यह मेरी बहन नहीं मेरी माँ हैं। ' संजना ने गर्वोन्मुक्त स्वर में उत्तर दिया था । 'ओह सॉरी आंटी , मुझे लगा कि...।' कहते हुए वह हकलाने लगी थी । ' सॉरी की क्या बात है ? मेरी माँ हैं ही इतनी सुंदर कि लोग अक्सर कंफ्यूज हो जाते हैं ।' संजना ने मुस्कुराकर कहा था । अपनी प्रशंसा सुनना किसी अच्छा नहीं लगता फिर वह अपवाद कैसे हो सकती है । खुशी तो उसे इस बात की थी कि उसके दोनों बच्चे अनिकेत और संजना रूप और रंग में उस पर गए हैं । उसने भी उन्हें माँ का प्यार देने के साथ-साथ एक मित्र की तरह उनकी समस्याओं को समझा और सुलझाया है । योगाभ्यास तथा सीमित खान-पान के कारण आज भी उसका सौंदर्य बरकरार है । वह दो बच्चों की माँ है । अब भला किसी को इस तरह की प्रतियोगिताओं में उसके भाग लेने पर क्या आपत्ति हो सकती है !! आज अगर उसे अवसर मिल रहा है तो अवश्य अपना बीता स्वप्न पूरा करने का प्रयास करेगी... वजन अवश्य कुछ बढ़ गया है किंतु इतना भी नहीं कि कम न किया जा सके । कुछ दिनों की डाइटिंग तथा योगाभ्यास से उसे भी नियंत्रित कर ही लेगी । योगाभ्यास मनीषा की नियमित आदतों में सम्मिलित है किंतु चटपटा तथा मीठा खाने की आदत के कारण वजन पर कभी अंकुश नहीं लगा पाई है । क्या-क्या उसे इस तरह की प्रतियोगिताओं में भाग लेना शोभा देगा ? अंतर्मन ने उसे कचोटा । मन अशांत था । मन में तर्क वितर्क चल रहे थे और वह उनमें उलझ कर रह गई थी । आश्चर्य तो उसे इस बात का था कि उस जैसी सफल एवं जीवन से संतुष्ट स्त्री के मन में भी , मैन की दबी या दबाई गई कोई इच्छा अवसर पाकर इतनी तीव्रता से दंश दे सकती है । मलय से उसने विज्ञापन का जिक्र किया तो वह बोले , 'तुम्हारी जैसी इच्छा पर यह मत भूलना कि तुम दो बच्चों की माँ ही नहीं वरन एक प्रतिष्ठित कॉलेज के एक प्रतिष्ठित विभाग की हेड भी हो । हो सकता है कि अनेकों विद्यार्थियों की तुम आदर्श रही हो । कहीं ऐसा ना हो तुम्हारा नया रूप तुम्हारे पुराने रूप की धज्जियां उड़ा दे ।' मलय ने मना तो नहीं किया था लेकिन प्रोत्साहित भी नहीं किया था । बच्चे खासतौर पर अनिकेत ने उसके मनोबल को बढ़ाया था पर पता नहीं क्यों संजना उसके प्रस्ताव को सुनकर मौन रह गई थी । सबकी भावनाओं को नजरअंदाज कर मनीषा का उस खूबसूरत पल की तैयारी में लग गई । स्वयं के वजन को नियंत्रित करने के चक्कर में उसने पूरे घर पर भी नियंत्रित डाइट चार्ट थोप दिया । कुछ दिन तो सब मौन रहे पर धीरे-धीरे सबके आक्रोश का उसे किसी न किसी रूप में सामना करना पड़ने लगा । एक तरह से घर की शांति भंग होने के कगार पर खड़ी थी पर मन मानने को तैयार ही नहीं था । रात का खाना खाने बैठे थे । वह सब्जी परोस रही थी कि अचानक संजना बोली, ' बहुत हो गया माँ, यह डाइटिंग वाइटिंग, हमसे ऐसी उबली सब्जियां नहीं खाई जाती हैं । प्रतियोगिता में आपको भाग लेना है हमें नहीं ।' ' बेटा, माँ से ऐसी बातें नहीं करते ' मलय ने संजना को समझाते हुए कहा । ' डैड माँ अब माँ नहीं , ब्यूटी क्वीन बनना चाहती हैं । उनको जो भी बनना हो बने पर सजा हमें क्यों ? संजना के स्वर की कड़वाहट उसे छुपी न रह पाई । बाद में मलय ने उसका मनोबल बढ़ाते हुए कहा ' संजना की बात का बुरा मत मानना । बच्चे तो बच्चे हैं ...चटपटा खाने का मन तो करता ही होगा । ऐसा करो कल से एक सब्जी अलग से बच्चों के लिए बना दिया करो ।' शायद मलय ठीक ही कह रहे थे । बच्चों को खाने के लिए चटपटा तो चाहिए ही । कल से वह उनके लिए अलग से कोई डिश बना दिया करेगी। दिल पर बार बार सजना के शब्द हथौड़े की तरह प्रहार कर रहे थे । अब माँ नहीं , ब्यूटी क्वीन बनना चाहती हैं । क्या उसकी चाहत गलत है ? पहले उसकी माँ और अब संजना का असहयोग सिर्फ चेहरे बदल गए हैं । आज की घटना के पश्चात वह समझ नहीं पा रही थी कि उसका निर्णय ठीक है या नहीं वह उन लोगों में से नहीं थी जो एक कदम आगे बढ़ाकर फिर पीछे हट जाते हैं । फॉर्म तो भर कर भेज भेज ही दिया था । अभी तो चार महीने बाकी हैं जो होगा देखा जाएगा, सोच कर उसने सहज होने की कोशिश की । एक दिन कॉल बैल की आवाज सुनकर दरवाजा खोला ही था कि एक युवक ने आगे बढकर उसके पैर छुए तथा पूछा, ' मैम आपने पहचाना !! मैं पल्लव ।' ' अरे, पल्लव तुम, पहचानूँगी क्यों नहीं ? कहाँ, क्या कर रहे हो आजकल ?' ' मैम मल्टीनैशनल कंपनी में बतौर प्रोडक्शन मैनेजर काम कर रहा हूँ । यहाँ एक कार्य के सिलसिले में आया था तो आपसे मिले बिना रह नहीं पाया आखिर आपके मार्गदर्शन से ही तो मैं यह मुकाम हासिल कर सका हूँ । ' बेटा काबलियत तो आपमें थी । मैंने तो बस राह दिखाई थी ।' ' मैम ,यह तो आपका बड़प्पन है वरना मुझ जैसे आवारा, बदमाश लड़के को रहा पढ़ाना आसान काम नहीं था ।' पल्लव चला गया था पर अपने पीछे अंतहीन प्रश्न छोड़ गया था । आज भी अनेकों विद्यार्थियों के दिल में उसके लिए सम्मानीय स्थान है आदर्श है वह उनकी, उसे गर्व है अपनी विशेषता पर ...। संजना और उसके मध्य दूरी बढ़ती जा रही थी जिसके कारण वह बेहद तनाव में थी । यद्यपि संजना उसकी पुत्री है किंतु उसके मन में शायद ईर्ष्या रूपी अंकुर ने पनपना प्रारंभ कर दिया था जिसके कारण जहाँ वह पहले उसे अपनी माँ को अपना हमराज अपनी अभिन्न सखी समझती रही थी ,वहीं अब वह उसे अपना प्रतिद्वंदी समझने लगी है । कहीं न कहीं अनजाने में वह हीन भावना का शिकार भी होती जा रही है । कशमकश में दिन बीत रहे थे । ' क्या हुआ तुम्हें ? तुम चिल्ला क्यों रही हो ?' मलय ने उसे झकझोर कर उठाते हुए कहा । मनीषा उठी तो वह पूरी तरह पसीने से लथपथ थी । वह मलय को अजीब नज़रों से देखने लगी । ' क्या बात है ? क्या कोई बुरा सपना देखा ।' ' हाँ….।' 'अब सो जाओ । अभी बहुत रात बाकी है ।' मलय ने उसे पानी का ग्लास पकड़ते हुए कहा । पानी पीकर मनीषा सोने की कोशिश करने लगी । वैसे तो उसे स्वप्न कम ही याद रहते थे पर यह स्वप्न पूरी तरह याद था … वह सौंदर्य प्रतियोगिता का एक- एक पड़ाव पार कर सौंदर्य प्रतियोगिता के अंतिम पड़ाव पर पहुँच चुकी थी । उसे जैसे ही विनर का ताज पहनाया गया मलय और अनिकेत ने हाथ हिलाकर उसे बधाई दी पर सजना कहीं नजर नहीं आई । वह उसे ढूँढने का प्रयास कर ही रही थी कि एकाएक कैमरों की फ्लैश लाइट में मलय और अनिकेत के चेहरे दूर होते प्रतीत होने लगे । वह घबराकर उन्हें आवाज लगाने लगी । इसी बीच मलय ने उसे झकझोर कर जगा दिया । वह समझ नहीं पा रही थी कि इस स्वप्न का क्या अर्थ है ? कहीं वह अपनी इस महत्वाकांक्षा के चलते अपने हरे-भरे घर संसार में आग तो लगाने नहीं जा रही है !! इसी उधेड़बुन में उलझकर करवटें बदलते हुए पूरी रात बीत गई । वह कोई निर्णय ले पाने में स्वयं को असमर्थ पा रही थी । सच तो यह था कि इस प्रतियोगिता ने उसका सुख चैन छीन लिया था । दूसरे दिन भर कॉलेज पहुँची ही थी कि चपरासी ने आकर कहा कि उसे प्रिंसिपल साहब ने बुलाया है । जैसे ही वह उनके कमरे में पहुँची उन्होंने गर्मजोशी से उसका स्वागत करते हुए कहा … ' आइए आइए मनीषा जी... आपको एक खुशखबरी देनी है । आपके आउटस्टैंडिंग परफारमेंस के कारण बेस्ट टीचर ऑफ द ईयर का पुरस्कार देने के लिए आपका नाम चयनित हुआ है । यह पुरस्कार ' टीचरस डे ' पर महामहिम राष्ट्रपति महोदय के कर कमलों द्वारा दिल्ली में आपको दिया जाएगा । वास्तव में आपने इस कॉलेज का ही नहीं वरन पूरे शहर का नाम रोशन कर दिया है । सबसे बड़ी बात यह पुरस्कार पाने वाली आप सबसे कम उम्र की अध्यापिका हैं ।' मनीषा जब तक अपनी कुछ प्रतिक्रिया व्यक्त कर पाती तब तक अन्य सहयोगियों ने उससे मिठाई मांगनी प्रारंभ कर दी । आखिर उसने सबको मिठाई मंगवाकर खिलाई । मनीषा को इस बात का तो पता था कि उसका नाम इस पुरस्कार हेतु भेजा गया है लेकिन उसका चयन होगा इसकी उसे आशा नहीं थी । सचमुच उसके लिए बड़ी खुशी का दिन था। लौटते हुए उसने घर ले जाने के लिए भी मिठाई खरीद ली मलय अनिकेत और संजना को जब इस बात का पता चला तो वह बहुत खुश हुए । यहाँ तक कि सजना ने भी अपना मौन तोड़ते हुए उसे बधाई दी । सबकी आँखों में खुशी और सम्मान देखकर मनीषा को महसूस हो रहा था कि आज वह जिस मुकाम पर है , उसका जो मान सम्मान है वह क्या सौंदर्य प्रतियोगिता जैसे आयोजनों में भाग लेने से गिरेगा नहीं ... फिर इस बात की क्या गारंटी है कि वह ताज उसे मिलेगा ही अचानक उसने एक निर्णय ले लिया …। ' अब इस पुरस्कार के पश्चात सौंदर्य प्रतियोगिता में भाग लेने की मेरी कोई इच्छा नहीं रही है अतः मैं इस प्रतियोगिता में भाग लेने का अपना विचार जाती हूँ ।' अचानक मनीषा ने कहा । उसकी बात सुनकर जहाँ मलय और अनिकेत आश्चर्य से उसे देख रहे थे वहीं संजना ने उसके गले से लिपटते हुए कहा , ' आप कितनी अच्छी हो माँ... हमें भी ब्यूटी क्वीन नहीं माँ चाहिए । आज मुझे मेरी माँ वापस मिल गई ।' संजना की बात सुनकर खुशी से मनीषा की आँखें छलछला आईं । संजना के चेहरे पर फिर पहले वाली मुस्कुराहट देखकर मनीषा को अपने निर्णय पर कोई अफसोस नहीं हुआ । वैसे भी उसे जो सम्मान मिलने वाला है वह उन सैकड़ों ताजों से अधिक मूल्यवान है जो उसे सौंदर्य प्रतियोगिता में भाग लेने पर मिलता या ना भी मिलता । पुरस्कार या सम्मान से भी ज्यादा उसके लिए संजना के चेहरे पर आई वह मुस्कुराहट है जो पिछले कुछ दिनों से कहीं खो सी गई थी । कैसी माँ है वह ?-जो बेटी के मन में चलते द्वंद को नहीं समझ पाई । क्या अपनी बच्ची की खुशी के लिए वह अपनी इच्छा का दमन नहीं कर सकती थी । वह इतनी स्वार्थी कैसे हो गई थी कि अपनी एक इच्छा की पूर्ति के लिए उसने घर भर में तनाव पैदा कर दिया था । जो हुआ सो हुआ पर वह आगे से ऐसा कोई निर्णय नहीं लेगी जिससे उसके अपने दुखी हों । उसकी वर्षों से बनाई इमेज को धब्बा लगे । वह उसका जागी आँखों का सपना था , एक प्रवंचना थी पर यह हकीकत है । आज से वह स्वप्न में नहीं हकीकत में जीएगी । स्वप्न्न क्षणांश के लिए भले ही सुख दे दें पर जो वास्तविकता में जीता है , वही सफल होता है । उसे जो पुरस्कार मिल रहा है वह उसकी वर्षों की मेहनत का फल तथा आंतरिक गुणों का प्रतीक है तथा जिसके लिए वह तैयारी कर रही थी वह व्यक्ति के क्षणिक सौंदर्य का प्रतीक है । हर वर्ष ही इस तरह के आयोजन होते हैं किंतु कितनों को इनके नाम याद होंगे जबकि मदर टेरेसा ,इंदिरा गांधी ,हेलन केलर , फ्लोरेंस नाइटिंगेल जैसे लोगों के नाम अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं जिन्होंने इस पुरुष सत्तात्मक समाज में अपना स्थान अपनी मेहनत, लगन तथा दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर बनाया था । आज उसे जीवन की वास्तविक सफलता तथा क्षणिक सफलता में अंतर स्पष्ट नजर आ रहा था अगर ऐसा न होता तो क्या आज उपरोक्त विभूतियों का नाम लोग इतने सम्मान से लेते !! मनीषा ने स्वयं को सपनों की दुनिया से मुक्त करते हुए मिठाई का डिब्बा खोल कर मिठाई का एक टुकड़ा संजना को खिलाते हुए मलय और अनिकेत को दिया तथा एक टुकड़ा उसने अपने मुँह में डाल दिया क्योंकि अब वह जो ताज पहनना चाहती है उसको पहनने के लिए उसे न डाइटिंग की आवश्यकता थी और ना ही कसरतों की । इसके लिए निस्वार्थ कर्म की आवश्यकता है जिसके लिए वह सतत प्रयत्नशील रही है और रहेगी । भले ही उसका स्वप्न अधूरा रह गया हो पर खुशी इस बात की है कि उसके इस निर्णय से उसका खोया परिवार, उसकी ख़ुशियाँ उसकी रूठी पुत्री एक बार फिर उसे मिल गई है । सुधा आदेश

Sunday, January 19, 2020

सुंदर माझे घर

सुंदर माझे घर दीपेश घर के बरामदे में बैठे-बैठे सूर्यास्त को निहारते-निहारते सोच रहे थे कि आज का दिन न जाने कितनों को खुशियाँ दे गया होगा और न जाने कितनों को गम...कितने अपने जीवन के सुनहरे पलों के साथ झूम रहे होंगे और कितने ही अपने गमों को सूर्यास्त की अनोखी अद्भुत छटा में भुलाने की असफल चेष्टा कर रहे होंगे....। एक ऐसी ही शाम उनके जीवन को अँधेरों से भर गई थी....। न चाहते हुए भी अतीत उनकी आँखों के सामने चलचित्र की भाँति मंडराने लगा था... नीरा को प्रकृति से अत्यंत प्रेम था...। यही कारण था कि जब दीपेश ने मकान बनवाने का निर्णय लिया तो उसने साफ़ शब्दों में कह दिया वह फ्लैट नहीं वरन् अपना स्वतंत्र घर चाहती है जिसे वह अपनी इच्छानुसार...वास्तुशास्त्र के नियमों के अनुसार बनवा सकेे...। जिसमें छोटा सा बगीचा हो....तरह-तरह के फूल हों...यदि संभव हो तो फल और सब्ज़ियाँ भी लगाई जा सकें । यद्यपि दीपेश को इन सब बातों में विश्वास नहीं था किन्तु नीरा का वास्तुशास्त्र में घोर विश्वास था....। उसका कहना था यदि इसमें कोई सच्चाई नहीं होती तो क्याो£ बड़े-बड़े लोग अपने निवास और आफिस वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन करते हुए नहीं बनवाते या वास्तुशास्त्र के नियमों के अनुसार न बना होने पर अच्छे भले घर में सुधार करने के लिये तोड़ फोड़ न करवाते...। अपने कथन की सत्यता सिद्द करने के लिये विभिन्न अखबारों की कतरने लाकर उसके सामने रख दी थीं तथा इसी के साथ वास्तुशास्त्र पर लिखी पुस्तक के कुछ अंश पढ़कर सुनाने लगी...भारत में स्थित तिरूपति बालाजी का मंदिर शत-प्रतिशत वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन करते हुए बनाया गया है । मंदिर के ईशान्य यानी उत्तर पूर्व दिशा में पानी का तालाब है, आग्नेय यानी दक्षिण पूर्व दिशा में भक्तजन और यात्रियों के भोजन प्रबंधन की व्यवस्था है...। नैऋत्यबयानी पश्चिम दक्षिण दिशा की ओर उँची-उँची पहाड़ियां हैं । मंदिर की ढलान पूर्व व उत्तर दिशा की ओर है… बाग बगीचे भी उसी दिशा में हैं तभी उसे इतनी प्रसिद्धि मिली है तथा चढावे के द्वारा इस मंदिर की जितनी आय होती है उतनी शायद किसी अन्य मंदिर में नहीं होती है । हमारा संपूर्ण ब्रहााण्ड पंच तत्त्वों से बना है...जल, वायु, पृथ्वी, अग्नि तथा आकाश के द्वारा हमारा शरीर कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, तथा चर्बी जैसे आन्तरिक शक्तिवर्धक तत्व तथा गर्मी, प्रकाश वायु तथा ध्वनि द्वारा बाह्य शक्ति प्राप्त करता है परंतु जब इन तत्त्वों की समरसता बाधायुक्त हो जाए तो हमारी शक्तियां क्षीण हो जाती है...। मन की शांति भंग होने के कारण खिंचाव, तनाव तथा अस्वस्थता बढ़ जाती है तब हमें अपनी आंतरिक और बाह्य शक्तियों को आत्मिक और निष्पक्ष होकर निदेशित करना पड़ता है जिससे इनमें संतुलन स्थापित होकर शरीर में स्वस्थता तथा प्रसन्नता आये और धन, ख़ुशी, संपन्नता और सफ़लता प्राप्त हो, इन पाँच तत्वों का संतुलन ही वास्तुशास्त्र है । घर में यदि वास्तुदोष है...शयन करने की दिशा, धन संग्रह , तिजोरी रखने की दिशा, गैस के चूल्हे की दिशा, पानी के ढलान की दिशा, पूजा घर की दिशा सही न होने पर वास्तु का तीस से चालीस प्रतिशत ही लाभ मिलता है , वस्तुतः हमारे जीवन में होने वाली हर प्रिय और अप्रिय घटना के पीछे वास्तु का बड़ा हाथ होता है...। वास्तुशास्त्र के बिना जीना यानी नदी के प्रवाह के विपरीत तैर कर अपनी मंजिल तय करना है । दीपेश ने देखा कि नीरा एक पैराग्राफ़ कहीं से पढ़ रही थी तथा दूसरा कहीं से...जगह-जगह उसने निशान लगा रखे थे, वह आगे और पढ़ना चाह रही थी कि उसने यह कहकर रोक दिया कि घर तुम्हारा है जैसे चाहे बनवाओ लेकिन स्वयं घर बनवाने में काफी श्रम एवं धन की आवश्यकता होगी जबकि उतना ही बड़ा फ्लैट किसी अच्छी लोकेलिटी में उससे कम पैसों में ही मिल जायेगा। ‘ आप श्रम की चिंता मत करो, वह सब मैं कर लूँगी...। धन का प्रबंध अवश्य आपको करना है वैसे में बजट के अंदर ही काम पूर्ण कराने का प्रयत्न करूंँगी, फिर यह भी कोई आवश्यक नहीं है कि एक साथ ही पूरा काम हो, बाद में भी सुविधानुसार अन्य काम करवाये जा सकते हैं...। अब आप ही बताइये भला फ़्लैट में इन सब नियमों का पालन कैसे हो सकता है अतः मैं छोटा ही सही किन्तु स्वतंत्र घर चाहती हूँ...।’ उसकी सहमति पाकर वह गदगद स्वर में कह उठी थी । दीपेश ने नीरा की इच्छानुसार प्लाट खरीदा तथा शुभ महूर्त देखकर मकान का शुभारंभ करवा दिया...। मकान का डिजाइन नीरा ने वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन करते हुए अपनी आर्किटेक्ट मित्र नीतू से बनवाया था । प्लाट छोटा था अतः सबकी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए डुप्लेक्स मकान का निर्माण करवाने की योजना थी...। निरीक्षण के लिये उसके साथ कभी-कभी दीपेश भी आ जाता था तभी एक दिन सूर्य को अस्ताचल में जाते देखकर नीरा भावविभोर होकर कह उठी थी....लोग तो सूर्यास्त देखने पता नहीं कहाँ-कहाँ जाते हैं, देखो कितना मनोहारी दृश्य है हम यहाँ एक बरामदा अवश्य निकलवाऐंगे जिससे चाय की चुस्कियों के साथ प्रकृति के इस मनोहारी स्वरूप का भी आनंद ले सकें । उस समय दीपेश को भी नीरा का स्वतंत्र बंगले का सुझाव अच्छा लगा था । नीरा की वर्ष भर की मेहनत के पश्चात् जब मकान बनकर तैयार हुआ तब सब अत्यंत प्रसन्न थे...। खास तौर से नितिन और रीना...उनको अपने-अपने अलग रूम मिल रहे थे....। कहाँ पर अपना पलंग रखेंगे, कहाँ उनकी स्टडी टेबल रखी जायेगी, सामान शिफ्ट करने से पहले ही उनकी योजना बन गई थी । अलग से पूजा घर...दक्षिण पूर्व की ओर रसोई घर तथा अपना मास्टर बैडरूम रूम दक्षिण दिशा में बनवाया था क्योंकि नीरा के अनुसार पूर्व दिशा की ओर मुँह करके पूजा करने से मन को शांति मिलती है वहीं उस ओर मुँह करके खाना बनाने से रसोई में स्वाद बढ़ता है तथा दक्षिण दिशा गृहस्वामी के लिये उपयुक्त है क्योंकि इसमें रहने वाले का पूरे घर में वर्चस्य रहता है...शुभ महूर्त देखकर गृह प्रवेश कर लिया गया था...। सब अतिथियों के विदा होने के पश्चात् रात्रि को सोने से पहले दीपेश ने उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा था, ‘आज मैं बहुत खुश हूँ तुम्हारी अथक मेहनत के कारण ही हमारा अपने घर का स्वप्न साकार हो पाया है ।’ ‘ अभी तो सिर्फ ईट गारे से निर्मित घर ही बना है अभी मुझे इसे वास्तव में घर बनाना है जिसे देख कर मैं गर्व से कह सकूँ....सुदंर माझे घर....मेरा सुंदर घर...जहाँ प्यार, विश्वास और अपनत्व की सरिता बहती हो, जहाँ घर का प्क प्राणी सिपर्क रात बिताने याा खाना खाने के लिये ही न आये वरन् प्यार के अटूट बंधन में बंधा वह शीघ्र काम समाप्त करके इस घर की छत की छाया के नीचे अपनों के मध्य बैठकर सुकून के पल ढूँढ सके ।’ नीरा ने उसकी ओर प्यार भरी नजरों से देखते हुए कहा । नीरा ने ईट गारे की बनी उस इमारत को सचमुच घर में बदल दिया था...। उसके हाथ की बनाई पेंटिंग्स ने घर में उचित स्थानों पर जगह ले ली थी । दीवार के रंग से मेल खाते पर्दे, वाल हैंगिग्स, लैंप न केवल गृहस्वामिनी वके रूचि का परिचय दे रहे थे वरन् घर की शोभा को भी दुगणित कर रहे थे...न केवल ड्राइंगरूम वरन् बैडरूम, किचन वको भी उसने सामान्य साजोसामान की सहायता से अपनी कल्पनाशीलता से आधुनिक रूप दे दिया था साथ ही साथ आगे बगीचे में उसने गुलाब,गुलदाउदी, गेंदा और रजनीगंधा इत्यादि फूलों के पेड़ तथा घर के पीछे कुछ फूलों के पेड़ तथा कुछ मौसमी सब्ज़ियाँ लगाई थी...अपने लगाये पेड़ पौधों की देखभाल नवजात शिशु के समान करती थी....। कब किसे कितनी खाद और पानी की आवश्यकता है यह जानने के लिये उसने बागवानी से संबंधित कई पुस्तकें भी खरीद ली थी...। दीपेश भी कभी-कभी घर सजाने सँवारने में उसकी इतनी मेहनत लगन देखकर हैरान रह जाते थे । एक बार वह साड़ी खरीदने के लिये मना कर देती थी किन्तु यदि उसे कोई सजावटी या घर के लिये उपयोगी कोई सामान पसंद आ जाता तो वह उसे लिये बिना रह नहीं सकती थी...। उसके ‘ सुंदर माझे घर ’की कल्पना साकार हो उठी थी । धीरे-धीरे एक वर्ष पूरा होने जा रहा था....नीरा इस साधारण से अवसर को कुछ नये ढंग से मनाना चाहती थी...। शोर शराबे के साथ एक साधारण पार्टी का भी आयोजन किया गया था....घर को गुब्बारों और रंग बिरंगी पट्टियों से सजाया गया था....। काम की हड़बड़ी में ऊपर के कमरे से नीचे उतरते समय उसका पैर साड़ी में उलझ गया और वह नीचे गिर गई, सिर में चोट आई थी किन्तु अपनी जिंदादिली के कारण उसने ध्यान नहीं दिया या कहीं पार्टी का मजा किरकिरा न हो जाए इसलिये दर्द की दवा खाकर चुपचाप दर्द को झेलती रही । ‘ आज मैं बहुत थक गई हूँ अब सोना चाहती हूँ...।’ पार्टी समाप्त होने पर नीरा ने थके स्वर में कहा था । ‘ जब आलतू फ़ालतू काम करोगी तो थकोगी ही....भला इतना सब करने की क्या आवश्यकता थी ? ’ दीपेश ने सहज स्वर में कहा था । ‘ ये छोटे मोटे अवसर ही जिंदगी को नया रंग देते हैं...।' ‘ वह तो ठीक है, पर करना उतना ही चाहिए जितना शरीर साथ दे...।’ जब नीरा सुबह अपने नियात समय पर नहीं उठी तब दीपेश को चिंता हुई, ध्यान दिया तो पाया कि वह बेसुध पड़ी थी, चेहरे पर अजीब से भाव थे जैसे रात भर दर्द से तड़फ़ड़ाती रही हो....। डाक्टर को बुला कर दिखाया तो उसे शीघ्र अस्पताल में एडमिट कराने की सलाह देते हुए बोले,‘ लगता है गिरने के कारण सिर में अंदरूनी चोट आई है । सिर की चोट को कभी भी हल्के से नहीं लेना चाहिए । कभी-कभी साधारण सी चोट भी जानलेवा सिद्द हो जाती है....।’ डॉक्टर ने चेक करने के बाद कहा । डाक्टर की बात सही सिद्ध हुई लगभग पाँच दिन जिंदगी मौत के साये में झूलने के पश्चात् वह चिर निद्रा मे सो गई...। सभी सगे संबंधी....अडोसी-पड़ोसी इस अप्रत्याशित मौत का समाचार सुनकर हक्के बक्के रह गये....लेकिन विधि के हाथों वे विवश थे....। जीवन के शाश्वत सत्य से मुख मोड़ पाना किसी के लिये भी संभव नहीं था....। संवेदना प्रकट करने के अतिरिक्त वे और कर भी क्या सकते थे ? दीपेश को दुख तो इस बात का था कि ऊपरी चोट के अभाव के कारण उसने उस घटना को गंभीरता से नहीं लिया था अगर उसे रात में ही एडमिट करा देते तो शायद नीरा बच जाती...। नीरा के पार्थिव शरीर को पंचतत्व में विलीन करने के पश्चात् जब दीपेश ने घर में प्रवेश किया तो नीरा के कुशल हाथों से सजाया सँवारा घर मुँह चिढ़ाता प्रतीत हुआ...। उसके लगाये पेड़ पौधे कुछ ही दिनों में सूख चुके थे...दीपेश समझ नहीं पा रहे थे कि विधि-विधान एवं वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन करने के पश्चात् भी घर वीरान क्यों हो गया ? उनके जीवन में यह तूफ़ान क्यों आया ? उनकी खुशियों को, उनके घर को किसी की नजर लग गई या ईश्वर से ही उनवकी खुशियां देखी नही£ गई । उस समय वह नितिन और रीना को अपनी गोद में छिपाकर खूब रोये तब नन्हीं रीना उनके आँसू पो£छती हुई बोली थी,‘ डैडी, ममा नहीं हैं तो क्या हुआ उनकी यादें तो हैंअब तो हम भी ममा के बिना रहना सीख गये हैं ।’ तब दीपेश को महसूस हुआ था कि चार पाँच दिनों की काल रात्रि ने सुकुमार बच्चों को तूफ़ान से जूझना सिखा दिया है जो बच्चे नीरा के बिना खाना नहीं खाते थे वही आज उनको समझा रहे हैं...। दीपेश ने बच्चों का मन रखने के लिये आँसू पोंछ डाले थे लेकिन नीरा का चेहरा उनके हृदय पटल पर ऐसा जम गया था कि उसको निकाल पाना उनके लिये संभव ही नहीं हो पा रहा था...। वह घर कैसा जहाँ कहकहे न हों.....ख़ुशियाँ न हों....प्यार न हो....स्वप्न न हों....। जो घर कभी नीरा की पायल और चूड़ियों की झंकार से गूँजता रहता था वहाँ शमशान जैसी वीरानी छाई हुई थी...। जिस पूजा घर की स्थापना नीरा ने पूर्ण विधि विधान के साथ की थी वह वीरान था....वहाँ अब न दीप जलता था और न ही पूजा की घंटी बजती थी और न ही सुबह शाम प्रसाद बाँटा जाता था । दीपेश के माँ-पिताजी नहीं थे अतः नीरा की माँ ने आकर उसकी तितर बितर गृहस्थी को फिर से समेटने का प्रयत्न किया । सुबह आरती करते हुए वह घंटी बजा रही थीं कि घंटी की आवाज सुनकर दीपेश चिल्लाये...अपनी मनःस्थिति के कारण शायद वह भूल गए थे कि नीरा की माँ आई हुई हैं । ‘कौन पूजा कर रहा है ? इस घर में अब पूजा नहीं होगी....जब पूजा करने वाली ही नहीं रही तब पूजा से क्या लाभ ?’ ‘ बेटा, पूजा लाभ और नुकसान के लिये नही वरन् मन की शांति एवं घर की शांति के लिये की जाती है ।’ ‘ माँजी, यदि ऐसा ही है तो इस घर की शांति क्यों भंग हुई । नीरा तो नियमित रूप से इनकी पूजा अर्चना करती थी ।' दीपेश ने वृतृष्णा से कहा । ‘ बेटा,जाने वाले के साथ जाया तो नहीं जा सकता । जीवन तो जिन ही है । अभी उम्र ही क्या है तुम्हारी । फिर से घर बसा लो,बच्चों को माँ तथा तुम्हें पत्नी मिल जायेगी, आखिर मैं कब तक साथ रहूँगी ?’ दीपेश की मानसिकता को ध्यान में रखकर उनके प्रश्न का उत्तर टालते हुए संयमित स्वर में माँ ने कहा था । दीपेश के प्रश्न का उत्तर उनके पास भी नहीं था । ‘ पापा, आप नई माँ ले आइए, हम उनके साथ रहैंगे....।’ नन्हा नितिन जो नानी की बात सुन रहा था ने भोलेपन से कहा । उसकी बात का समर्थन रीना ने भी कर दिया । दीपेश सोच नहीं पा रहा था कि बच्चे अपने मन से इतनी बड़ी बात उससे कह रहे हैं या माँजी ने ही उनके नन्हे से मन में नई माँ की चाह भर दी है...। वरना ये मासूम बच्चे क्या जाने नई माँ । वह जानता था कि वह अपने हृदय से नीरा की स्मृतियों को कभी मिटा नहीं सकता फिर क्या दूसरा विवाह कर वह उस लड़की के साथ अन्याय नहीं करेगा जो उसके साथ तरह-तरह के स्वप्न संजोये इस घर में प्रवेश करेगी....क्या वह दो मासूम बच्चों को माँ का प्यार दे पायेगी....? दो महीने पश्चात् जाते हुए जब माँजी ने दुबारा दीपेश के सामने अपना सुझाव रखा तो वह एकाएक मना नहीं कर पाया । उसका मन आठ वर्षीय रीना को अपनी नानी माँ के साथ काम करते देखकर बेहद आहत हो जाता था । कुछ ही दिनों में वह बेहद बड़ी लगने लगी थी....। उसकी चंचलता कहीं खो गई थी....। यही हाल चार वर्षीय नितिन का था जो नितिन अपनी माँ को इधर-उघर दौड़ाये बिना खाना नहीं खाता था वही अब जो भी मिलता बिना नानूकुर के खाने लगा था । बच्चों तक का परिवर्तित स्वभाव दीपेश कोे मन ही मन खाये जा रहा था अतः माँजी के प्रस्ताव पर जब उसने मन की दुश्चिंतायें बताई तो वह बोलीं … ‘ बेटा, यह सच है कि तुम नीरा को भूल नहीं पाओगे । नीरा तुम्हारी पत्नी थी तो मेरी बेटी भी थी...। जाने वाले के साथ जाया तो नहीं जा सकता लेकिन किसी के जाने से जीवन तो समाप्त नहीं हो जाता । बेटा जीवन एक समझौता है । जीवन में अनेक समझौते कभी-कभी अनिच्छानुसार करने पड़ते हैं । तुम्हें अपने लिये भले ही पत्नी की आवश्याकता न हो लेकिन इन बच्चों को माँ की आवश्यकता है ।अपने लिये न सही बच्चों के भविष्य के लिये तुम्हें समझौता करना ही पड़ेगा...। सभी विमातायें एक जैसी नहीं होती...किसी संबंध के बारे में पूर्वधारणा बनाकर चलना गलत है ।’ दीपेश को मौन पाकर वह फिर बोली,‘ तुम कहो तो नंदिता से तुम्हारी बात चलाऊ । तुम तो जानते ही हो नंदिता नीरा की मौसेरी बहन है उसके पति का देहान्त एक कार एक्सीडेंट में हो गया था । उसका वैवाहिक जीवन कुछ महीनों का ही रहा है । वह भी तुम्हारे समान ही अकेली है, स्त्री होने के साथ-साथ एक पुत्री अर्चना की माँ होने के नाते वह तुमसे भी ज्यादा विवश और बेसहारा है...। देवांग की मृत्य के बाद उसने भी स्वयं को एक कमरे में कैद कर लिया है...वह स्वयं उस आघात को झेल चुकी है अतः हो सकता है तुम दोनों आपस में सामंजस्य बैठा सको ।' गमों के सहारे आखिर कब तक जिया जा सकता है....संपूर्ण ब्रहमांड पर अपने प्रभाव का दावा करने वाला मनुष्य यहीं आकर विवश हो जाता है....। जीवन की क्षणभंगुरता उसे आहत कर डालती है....भविष्य के संजोये स्वप्न जब एक झटके में टूट जाते हैं तब वह सोचने लगता है कि वह क्यों और किसके लिये जिए....क्यों कमायो इतनी धनदौलत....क्यों बचत करे....? जब एक दिन सब कुछ ऐसे ही एक झटके में छोड़कर जाना है लेकिन समय नाम की दौलत इंसान के जख्मो£ पर मरहम लगा वकर उसे इस अवसाद की अँधेरी रात से उबार ही देती है तथा मनुष्य फिर प्राची की नवीन किरणों के साथ नये जीवन का प्रारंभ कर देता है । माँजी की इच्छानुसार दीपेश ने घर बसा लिया था लेकिन फिर भी न जाने क्यों जिस घर पर कभी नीरा का एकाधिकार था उसी घर पर नंदिता का अधिकार होना वह सहन नहीं कर पा रहा था । नंदिता ने उसे तो स्वीकार कर लिया था किन्तु वह बच्चों को स्वीकार नहीं कर पा रही थी । वैसे दीपेश भी क्या उस समय अर्चना को पिता का प्यार दे पाये थे...। घर में एक अजीब सा असमंजस.....अविश्वास की स्थिति पैदा हो गई थी । वह अपनी बच्ची को लेकर ज्यादा ही भावुक हो उठती थी....। एवलक बार अर्चना को खिलाते-खिलाते रीना के पैर में ठोकर लग गई जिससे अर्चना गिर गई उसके माथे पर हल्की सी चोट आ गई थी....यद्यपि चोट रीना के भी आई थी लेकिन नंदिता ने उस मामूली सी घटना को ऐसे पेश किया कि उन्हें भी लगा कि सारी गलती रीना की ही है । अस्पताल जाने से पूर्व उस दिन पहली बार उनका हाथ रीना पर उठा था....। उसका बाद में उन्हें पछतावा भी बहुत हुआ था लेकिन तीर से निकला बाण तथा मुँह से निकले शब्द कभी वापस नहीं लौटते....। बच्चे सहम गये थे किन्तु अब नंदिता की सुबह बच्चों की शिकायत से प्रारंभ होती और उनकी ही शिकायत से ही समाप्त होती....। नंदिता को लगता था उसकी बेटी को कोई प्यार नहीं करता है....। घर में अशांति, अविश्वास,तनाव और खिंचाव देखकर बस एक बात दीपेश के मनमस्तिष्क को मथती रहती थी कि वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन कर बनाया यह घर प्रेम, ममता और अपनत्व का स्त्रोत क्यों नहीं बन पाया, आंतरिक और बाह्य शक्तियों में समरसता स्थापित क्यों नहीं हो पा रही हैं, क्यों उनकी शक्तियां क्षीण हो रही है ? उनमें क्या कमी है ? अपनी आंतरिक और बाह्य शक्तियोंको निदेशित कर , उन संतुलन स्थापित कर क्यों वह न स्वयं प्रसन्न रह पा रहे हैं और न ही दूसरों को प्रसन्न रख पा रहे हैं ? नई माँ की अपने प्रति बेरूखी देखकर रीना और नितिन रिजर्व हो गये थे....किंतु बड़ी होती अर्चना ने दिलों की दूरी को पाट दिया था । वह नंदिता की बजाय रीना के हाथ से खाना खाना चाहती उसी के साथ सोना चाहती तथा उन्हीं के साथ खेलना चाहती थी....। रीना और नितिन की आँखों में अपने लिये प्यार और सम्मान देखकर नंदिता के रूख में भी परिवर्तन आने लगा था....। बच्चों के निर्मल स्वभाव ने उसका दिल जीत लिया था या अर्चना को रीना और नितिन के साथ सहज और स्वाभाविक रूप में खेलता देखकर उसके मन का डर समाप्त हो गया था । एक बार फिर से दीपेश को भी लगने लगा था कि उनके घर पर छाई अवसाद की छाया हटने लगी है....रीना कालेज में आ गई थी तथा नितिन और अर्चना भी अपनी-अपनी कक्षा में प्रथम आ रहे थे लेकिन एक दिन नंदिता ऐसी सोई कि फिर उठ ही नहीं सकी....। शायद उनके भाग्य में पत्नी सुख बदा ही नहीं था...पहले दो बच्चे थे अब तीन बच्चों की जिम्मेदारी थी लेकिन फर्क इतना था कि पहले बच्चे छोटे थे तथा अब बड़े हो गये थे । अपनी देखभाल स्वयं कर सकते थे....अपना बुरा भला सोच और समझ सकते थे । रीना ने अपने नाज़ुक कंधों पर घर का बोझ उठा लिया था....। अब तो दीपेश स्वयं भी रीना के साथ-साथ रसोई तथा अन्य कामों में हाथ बँटाते तथा नितिन और अर्चना को भी अपना-अपना काम करने के लिये प्रेरित करते....घर की गाड़ी एक बार फिर चल निकली थी किन्तु इस बार के आघात ने उन्हें इतना एहसास अवश्य करा दिया था कि किसी के रहने या न रहने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता....दिन रात उसी गति के साथ होते हैं....समय का चक्र उसी गति के साथ चलता रहता है....। सुख-दुख के बीच में हिम्मत न हारना ही व्यक्ति की सबसे बड़ी जीत है ,वस्तुतः वक्त किसी के लिये नहीं रूकता....। जो वक्त के साथ चल सका वही जीवन के रणसंग्राम में विजयी होता है....। इस एहसास और भावना ने दीपेश के अंदर के अवसाद....डिप्रेशन को समाप्त कर दिया था तथा अब वह आफिस के बाद का सारा समय बच्चों के साथ बिताते या नीरा द्वारा बनाये बगीचे की साज सँभाल में वक्त व्यतीत करते । उससे बचे समय में अपनी कल्पनाओं और भावनाओं को कोरे कागज़ पर उकेरते....कभी वह गीत बनकर प्रस्फुटित होतीं तो कभी काव्य और कहानी बनकर....तब उन्हें पहली बार....वियोगी होगा पहला कवि ,आह से निकला होगा गान....पंक्ति में सच्चाई नजर आई थी । शीघ्र ही दीपेश की रचनायें प्रतिष्ठित पत्रा पत्रिकाओं में स्थान पाने लगी थी । अब उन्हें लगने लगा था कि जीवन जीने का मकसद मिल गया है....। समय पर बच्चों के विवाह हो गये और वे अपने-अपने घर संसार में रम गये....। दीपेश की लेखनी में अब परिपक्वता आ गई थी....। पेंट करवाने के लिये एक दिन दीपेश ने अपने कमरे की अलमारी खाली की तो कपड़े में लिपटी एक डायरी मिली....डायरी नीरा की थी । उसे खोल कर पढ़ने का लोभ छिपा नहीं पाये....। जैसे-जैसे वह पढ़ते गये नीरा का एक अलग ही स्वरूप उनके सामने आया....। एक कवयित्री का रूप....पूरी डायरी कविताओं से भरी थी....एक कविता....‘ सुदंर माझे घर ’ की पंक्तियां थी.... क्षितिज के उस पार की सुखद ,सलौनी दुनिया को अपने घर के आँगन में उतारना चाहती हूँ, एक सुंदर घर बसाना चाहती हूँ, जहाँ तुम हो जहाँ में हूँ, और हों हमारे सुंदर, सलौने मृगछौने… तिथि देखी तो विवाह की तिथि से एक माह बाद की थी....। दीपेश ने पूरी डायरी पढ़ ली । कम उम्र में ही उसकी प्रतिभा तथा भावनाओं की अभिव्यक्ति ने उन्हें भावविभोर कर दिया तथा उसी समय उन्होंने नीरा की कविताओंका संकलन करवाने का निश्चय कर लिया....। एक महीने के अथक परिश्रम के पश्चात् दीपेश ने नीरा की चुनी हुई कविताओं को संकलित वकर पुस्तवक वके रूप में प्रकाशित करवाने हेतु प्रकाशक को दे दी....। प्रकाशन का काम अंतिम चरण तक पहुँच चुका था । फोन की घंटी ने उसकी विचार तंद्रा को भंग किया....नितिन का फोन था....‘ पापा, आप कैसे हैं....? अपनी दवाइयां ठीक समय पर लेते रहिएगा....। आप हमारे पास आ जाइये....आपके अकेले रहने से हमें चिंता रहती है । ’ ‘ बेटा, मैं ठीक हूँ, तुम चिंता मत किया करो....। वैसे भी मैं तुम से दूर कहाँ हूँ,जब भी इच्छा होगी, मैं आ जाऊँगा ।’ बच्चों की चिंता जायज थी लेकिन वह इस घर को कैसे छोड़कर जा सकते हैं जिसकी एक-एक वस्तु में खट्टी मीठी यादें समाई हुई हैं.....साथ गुजारे पलों का लेखा जोखा है । एक दो बार बच्चों के आग्रह पर गये भी हैं लेकिन कुछ ही दिनों पश्चात ही उनके अपने घर के बरामदे से दिखते इस अनोखे सूर्याास्त की सुखद सलौनी लालिमा का आकर्षण उन्हें खींच लाता था....सच तो यह था सूर्यास्त की मनोहारी लालिमा उनकी प्रेरणा स्त्रोत बन गई थी...। उसी से उन्होंने जीवनदर्शन पाया था कि जीवन भले ही समाप्त हो रहा हो लेकिन आस कभी नहीं खोनी चाहिए क्योंकि प्रत्येक अवसान के बाद सुबह होती है....मृत्यु के बाद जीवन का आर्भिभाव होता है...। उनकी कितनी ही रचनाओं का आर्भिभाव यहीं इसी कुर्सी पर बैठे-बैठे हुआ था....। सूर्या कब का विश्राम करने जा चुका था उसकी जगह चंद्रमा की शीतल, सुहानी किरणों ने ले ली थी...ठीक उसी तरह जैसे दीपेश के जीवन की तपती रेत को कभी नीरा ने अपने प्रेम से सींचा तो कभी नंदिता ने....। यह बात और है कि उनके हृदय पटल पर सदा नीरा ही छाई रही....। वह नंदिता के साथ कभी न्याय नहीं कर पाये, इस बात का अफ़सोस उन्हें जीवन भर रहेगा....। शायद नंदिता भी ऐसा ही महसूस करती रही हो....। उनके साथ जीवन बिताते हुए वह मन से उन्हीं की तरह पहले प्यार से ही जुड़ी रही हो लेकिन यह भी सच है कि उन दोनों ने जिन कर्तव्यों के पालन के लिये समझौता किया था वह उसमें खरे उतरे थे....। वह अंदर जाने के लिये मुड़े ही थे कि स्कूटर की आवाज ने उन्हें रोक लिया....अरविंद....प्रकाशक के आदमी ने उनके हाथ में पांडुलिपि देते हुए मुख पृष्ठ के लिये कुछ चित्र दिखाये....। एक चित्र पर उनकी आँखें ठहर गई.....घर के दरवाजे से निकलती औरत....और वहीं कलात्मक अक्षरों में लिखा हुआ था....‘ सुंदर माझे घर ’ चित्र को देखकर दीपेश को एकाएक लगा....मानो नीरा ही घर के दरवाजे पर उसके स्वागत के लिये खड़ी है...। वह नीरा नहीं वरन् उसकी कल्पना का ही मूर्त रूप था....दीपेश ने बिना किसी अन्य चित्र को देखे उस चित्र के लिये अपनी स्वीकृति दे दी । दीपेश जानते थे कि आने वाले कुछ दिन उसके लिये बेहद महत्वपूर्ण होंगे...। पांडुलिपि का अघ्ययन कर पुनः प्रकाशक को देना था....। किसी विशिष्ट व्यक्ति से मिलकर लोकार्पण के लिये तारीख तय करनी थी तथा बच्चों तथा अपने सभी सगे संबंधियों को भी सूचना देनी थी...। नीरा की कल्पनाओं को साकार करने का उनका यह छोटा सा प्रयास भर ही हो पर शायद अपनी अर्धागिनी को श्रद्धांजलि देने का एक सच्चा और सार्थक रूप अन्य कुछ हो भी नहीं सकता था । सुधा आदेश

Wednesday, January 1, 2020

लो आ गया नववर्ष

लो आ गया नववर्ष आशाओं का संचार करता आ गया लो वर्ष 2020 जीवन भी तो है 20-20 कभी छक्के,कभी चौके और कभी शून्य... छक्के, चौके पर न बौराये, शून्य पर न घबरायें यह तो हर जीवन के हिस्से मन में लिए संकल्प आगे बढ़ते ही सदा जायें । हार्दिक अभिनंदन सभी मेरे अपनों का जो मेरे सुख-दुख के साथी बने, जिनके कारण छाई रही मेरे लबों पर सदा मुस्कान । अभिलाषा यही सार्थक बने जीवन मेरा गिले-शिकवे न रहें किसी से हाथ पकड़कर अपनों का चलती जाऊं अनंत पथ पर सदा।