Monday, April 13, 2020

मैं रोबोट नहीं

मैं रोबोट नहीं माँ एक हफ्ते से आई.सी.यू. में भर्ती हैं । उन्हें सीवियर हार्ट अटैक हुआ था । इलाज चल रहा है पर अभी भी वे खतरे से बाहर नहीं हैं । उन्हें झपकी लेते देखकर विशाल ने स्टूल को दीवार से लगाया और सोने की कोशिश करने लगा पर नींद कोसों दूर थी...। उसने अपना मोबाइल ऑन किया । टाइम पास का आजकल यह सबसे अच्छा और सुलभ साधन है । वाट्सअप पर फैमिली ग्रुप में एक पोस्ट पर निगाह ठहर गई...अगर लड़कियों को माता-पिता को अपने पास रखने का अधिकार मिला होता तो कोई भी माता-पिता वृद्धाश्रम में नहीं जाते । सुषमा दीदी की पोस्ट पढ़कर मन वितृष्णा से भर उठा । माँ को हार्ट अटैक आने के पश्चात् उसने सुषमा दीदी के साथ सुनीता, रीता और दिव्या को भी फोन किया था कि अगर वे आ सकें तो उसे हेल्प हो जायेगी पर सबने कोई न कोई बहाना बनाकर आने से मना कर दिया और आज यह पोस्ट...आखिर किसने लड़कियों को उनके अधिकार से वंचित किया है ? अगर इच्छाशक्ति है तो अधिकार छीने भी जा सकते हैं । जब बहू पति की माँ की सेवा कर सकती है तो बेटी क्यों नहीं ? अनायास अतीत के पृष्ठ चलचित्र की भांति खुलने लगे... वह एम.बी.ए. के अंतिम वर्ष में था, उसका प्लेसमेंट भी एक मल्टीनेशनल कंपनी में हो गया था । उसके सपने उड़ान भरने को आतुर थे के अचानक उसके पिता की एक एक्सीडेंट में मृत्यु हो गई । चार बहनों और विधवा माँ की खातिर उसने अपने स्वप्नों को रोंदकर पिता की किराने की दुकान संभाल ली । माँ उस पर विवाह के लिये दबाव बनाने लगीं पर पारिवारिक उत्तरदायित्वों के बोझ तले दबे, उसके मन ने सोच लिया था कि अपनी चारों बहनों के विवाह के पश्चात् ही वह अपना विवाह करेगा । उसने न केवल चारों बहनों को उचित शिक्षा दिलवाई वरन् उचित समय पर योग्य वर देखकर उनके विवाह भी यथाशक्ति किये । उसकी परिवार के प्रति निष्ठा देखकर उसके पिता के मित्र ने अपनी पुत्री निशा का हाथ उसके हाथ में देने की पेशकश की । माँ ने उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया । उसका विवाह होते ही अचानक परिस्थितियाँ ही बदल गई, माँ का आदर्श बेटा तथा बहनों का आदर्श भाई अचानक नालायक बन गया । निशा ने सदा माँ की सेवा अपनी माँ समझकर की । माँ को भी उससे ज्यादा शिकायत नहीं थी पर जब भी बहनें आतीं, वे माँ को उसके और निशा के विरूद्ध भड़का देतीं । ऐसे समय माँ भी अपना संयम खो बैठतीं । निज पर आरोप लगते देखकर निशा उनसे तो कुछ नहीं कह पाती थी पर उससे झगड़ा कर बैठती । दोष उसका भी नहीं है । करे भी वह सुने भी वह, वाली मनःस्थिति उसे असहज बनाने लगी थी ...और वह उन सबके मध्य सामंजस्य बिठाता हुआ भी माँ बहनों की नजरों में जोरू गुलाम बनकर अपना आत्मविश्वास खोने लगा है । सबसे ज्यादा दुख उसे तब होता जब बहनों को माँ की इच्छानुसार विदाई देने में जरा सी कमी होने पर माँ कहती, ‘ अपना सारा कुछ तो मैंने तुम्हें सौंप दिया और अब तुम मुझे ही आँख दिखलाने लगे हो ।’ वह उन्हें कैसे समझाता कि विरासत संभाली तो दायित्व भी तो निभाये । विरासत के साथ मिले उत्तरदायित्वों के बोझ तले दबे, सुकुमार मन के स्वप्नों को भी उसे न जाने कितनी बार रोंदना पड़ा है । मेहनत की तभी उस छोटी सी किराने की दुकान को अपनी मेहनत और अनुभव के बल पर शहर के एकमात्र सुपर मार्केट में बदल पाया है । बदली आर्थिक स्तिथि के कारण ही वह न केवल अपनी बहनों की शिक्षा पूरी करवा पाया वरन् उनका विवाह भी अच्छी जगह कर पाया । यहाँ तक कि समय-समय पर उनकी छोटी बड़ी माँगें पूरी करने में भी उसने कोई कसर नहीं छोड़ी थी । नहीं निभा पाया तो निशा और बच्चों के प्रति अपने कर्तव्य...बच्चे और निशा उससे नाराज रहते क्योंकि पहले अपने कर्तव्यों के बोझ तथा अब माँ की बीमारी की वजह से वह उन्हें बाहर घुमाने नहीं ले जा पाता है । दूसरों के ऊपर तो वह खर्च कर देता पर स्वयं के ऊपर खर्चा करते हुये सौ बार सोचना पड़ता है । कभी-कभी निशा भी टोक देती है कि लगता ही नहीं कि आप सुपर मार्केट के मालिक हो । शादी विवाह हो या कोई सामान्य पार्टी सबमें आप अपना वही एकलौता सूट पहनकर चल देते हो । अब वह क्या कहता...अपने ऊपर खर्च करूँ या पारिवारिक जिम्मेदारियाँ निभाऊँ !! ‘ गों...गों...’ की आवाज सुनकर वह विचारों के भंवर से बाहर निकला...देखा माँ तेज-तेज सांस ले रहीं हैं । उनकी दशा देखकर वह आई.सी.यू. के इमर्जेन्सी रूम में गया । डाक्टर तुरंत उसके साथ आया...डाक्टर जब तक कुछ समझ पाता माँ ने अंतिम सांस ले ली । ‘ आई एम सॉरी...। ’ डाक्टर की बात सुनकर वह फूट-फूटकर रो पड़ा… ‘ न...बेटा...न...रोते नहीं हैं । तू लड़का है, रोती तो लड़कियाँ हैं ।’कहीं दूर से माँ की आवाज आती प्रतीत हुई...। उसने आँसू पोंछे । सच माँ की सींची इसी मानसिकता के कारण वह तब भी नहीं रो पाया था जब उसके पिता गुजरे थे तथा तब भी नहीं जब उसका बड़ा बेटा असमय कालकवलित हो गया था । आज भी उसके पास रोने का समय कहाँ है ? उसे अभी अस्पताल की सारी फॉरमेल्टीज पूरी करनी है । सबको फोन करने थे । फिर अंतिम संस्कार की तैयारी करनी थी । सबसे पहले विशाल ने निशा को फोन किया फिर बहनों को । सबको आने में समय लगना था अतः माँ को हॉस्पीटल की मरच्यूरी में रखवाकर वह घर गया । अंतिम क्रिया के सारे इंतजाम करवाने के लिये उसके मित्र ने उसे एक फोन नम्बर दिया । उस नम्बर पर उसने बात की तो उस आदमी ने कहा कि अंतिम संस्कार करवाने के पैकेज है जितने का भी लो । वही घर से घाट तक का पूरा अरेंन्जमेंट करेगा । अगर आदमी चाहिये तो वह भी भाड़े के ले आयेगा । सुनकर वह अवाक् रह गया था पर जब ठंडे मन से सोचा तो लगा ठीक ही तो है, जिम्मेदारियों के बोझ तले दबे एकल परिवार में आज किसी के पास समय ही कहाँ है ? दूसरे दिन वह दोपहर तक माँ के शव को ले आया । बुआ, मौसी आ गई थीं। चारों बहनें आ भी आ गई...। वे माँ से लिपट कर रो उठीं । निशा जैसे घर के बड़े कहते जा रहे थे, करती जा रही थी पर फिर भी जितने मुँह उतनी बातें...!! अंतिम संस्कार वाले अपने पूरे सामान के साथ आ चुके थे । अंतिम यात्रा से पूर्व पंडितजी के कहने पर निशा ने माँ के मुँह में तुलसी दल डालकर गंगाजल छिड़का ही था कि सुनीता ने कहा,‘ भाभी अब तुलसी दल माँ के मुँह में डालने से क्या फायदा...? जब माँ ने अंतिम सांस ली थी तब डालना चाहिये था पर तब तो आप वहाँ होंगी नहीं और भइया आपको भी याद नहीं रहा होगा ।’ कहकर वह सुबकने लगी । जितना मैं कर सकता था उतना मैंने परिवार के लिये किया...। कम से कम आज तो मुझे दोष न दे सुनीता...। वह चाहकर उसे कुछ नहीं कह पाया जबकि सुनीता के शब्दों ने वर्षो से संचित उसके दिल के ज्वालामुखी को भड़का दिया था । माँ की अर्थी को कंधे पर रखते वक्त वह फूट-फूटकर रो पड़ा...मन से एक ही आवाज निकल रही थी… ‘ क्षमा करना माँ...आज मुझे रो लेने दे । तेरा बेटा कमजोर हो़ गया है । जिन अपनों के लिए मैंने अपने स्वप्नों को रौंद दिया, आधी-अधूरी जिंदगी जीता रहा, जब वे ही मेरे दर्द को नहीं समझ पाए तो और कौन समझेगा ? अब मेरी सहनशीलता जबाव दे चुकी है माँ...मुझमें भी भावनायें हैं, संवेदनायें हैं । करूँ भी मैं और सुनूँ भी मैं...अब और नहीं...मैं कोई रोबोट नहीं एक इंसान हूँ...!! ' लोग सोच रहे थे कि विशाल माँ के जाने से दुखी होकर रो रहा है पर सच तो यह था कि माँ के जाने तथा अपनों के व्यवहार के कारण उसका दिल ऐसा टूटा कि उसकी किरचों ने चुभ-चुभकर खून के रिश्तों को भी कटघरे में खड़ा कर दिया था । सुधा आदेश

Monday, April 6, 2020

प्रायश्चित

प्रायश्चित मनीष जब सुबह उठा तो देखा, घड़ी 8:00 बजा रही है ।रात देर तक मीटिंग अटेंड करने के कारण वह अत्यंत थका हुआ था अतः आते ही सो गया था । उसने अलसाई स्वर में पुकारा… ' सविता ...।' कोई प्रतिउत्तर न पाकर किचन में झांका तो वहां कोई नहीं था । बच्चों के कमरे में जाकर देखा तो पाया कि शिखा सो रही है पर अमित और सविता कहीं नजर नहीं आ रहे थे । पिछले 20 वर्षों में पहली बार हुआ था कि उसे समय पर बेड टी नहीं मिली थी वरना चाय के साथ पेपर भी उसे परोस दिया जाता था दरवाजे के नीचे पड़े पेपर को उठाकर मुड़ा ही था की घंटी बजी दरवाजा खोला तो देखा नौकरानी शीला खड़ी है । उसे देखते ही वह बोली, ' साहब मेमसाहब ठीक है ना ! कल उनकी हालत देखकर हम तो घबरा ही गए थे । वह तो भैया उस समय घर पर ही थे । वे तुरंत उन्हें अस्पताल ले गए ।' तो क्या सविता एडमिट है कल जब वह मीटिंग में जा रहा था तभी शिवम का फोन आया था कि पापा मम्मी की तबीयत ठीक नहीं है पर मीटिंग की वजह से वह इतना परेशान था कि उसने कह दिया ,'तो मैं क्या करूं जाकर डॉक्टर को दिखा लो ।' तब उसने सोचा था ऐसे ही कुछ हुआ होगा जैसा कि सविता अक्सर पिछले कुछ दिनों से शिकायत करती रही है । लेकिन वह उसकी शिकायत को नजरअंदाज करता रहा था क्योंकि उसे लगता था कि वह उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए ही वह ऐसे बहाने करती रहती है । शरीर ठीक-ठाक है फिर यह बेचैनी क्यों ? उनके विवाह को 20 वर्ष हो चुके हैं । दुनिया वालों की नजरों में उनका परिवार खुशहाल है समर्पित पत्नी है , योग्य बच्चे हैं पर वह कभी भी मन से सविता का नहीं हो सका । शारीरिक भूख मिटाने में वह भले ही उसकी सहायक बनी हो किंतु मानसिक भूख सदा ही अतृप्त ही रही । उसका विवाह उसके पिता की जिद का परिणाम था । उन्हें घर के काम में दक्ष लड़की चाहिए थी । पढ़ाई से उन्हें कोई मतलब नहीं था । उनका मानना था ज्यादा पढ़ाई लड़कियों को बददिमाग और बदजुबान बनाती है । ऐसी लड़कियां परिवार को तोड़ देती है । तोड़ना बहुत आसान है पर जोड़ना बहुत कठिन ...। सविता उनके मित्र की बेटी है । बचपन में मां का साया उठ जाने के कारण वह अक्सर उनके घर प्यार पाने आ जाया करती थी । मां उसे अपने हाथों से सजा सवार कर , खिला पिलाकर प्रतिदान में बेटी ना होने पर भी बेटी का सुख भोग लिया करती थीं । उसने भी मां की बीमारी में दिन रात एक कर दिया था । यह सच था कि अपनी सेवा से भी वह मां को नहीं बचा पाई थी पर उसकी सेवा ने पिताजी का दिल जीत लिया था और उन्होंने उसे बेटी से बहु बनाने की ठान ली । उस समय वह इंजीनियर के अंतिम वर्ष में था । दो छोटे भाई थे ।' बिन घरनी घर भूत का डेरा 'वाली कहावत चरितार्थ होने लगी थी । सविता ही जब तक आकर घर को व्यवस्थित कर जाती थी पर मां के ना रहने पर उसे भी उनके घर आने में संकोच होने लगा था । पिताजी ने जब अपनी मन की बात उससे कही तो उनकी डबडबाई आंखों में इसरार देखकर मना नहीं कर पाया । उसकी उस दिन की कमजोरी पूरे उम्र भर की सजा बन गई । पत्नी बनाकर वह सविता को घर तो ले आया पर उसे कभी जीवनसंगिनी नहीं मान पाया । सविता भी उसके साथ के बजाय घर के कामों में ज्यादा व्यस्त रहती थी । वास्तव में वह पिताजी की आशा के अनुरूप ही थी । वह घर के हर सदस्य की एक -एक जरूरत को पूरा करती । यहाँ तक कि उसने उसे भी कोई तकलीफ नहीं होने दी । सब उसके कार्य व्यवहार से खुश थे पर वही उससे तारतम्य स्थापित नहीं कर पाया था ...शायद उसने करना ही नहीं चाहा था । यद्यपि वह ग्रैजुएट थी पर सुबह से शाम तक घर के कामों में व्यस्त रहने के कारण हल्दी , धनिया की गंध से लिपटी उसके देह से उसे वितृष्णा होती थी । उसे ऐसी सुंदरी की चाह थी जो भले ही कामकाजी ना होती लेकिन उसकी मित्र मंडली में विभिन्न विषयों पर होते वार्तालाप में सम्मिलित होकर अपनी विदयता की छाप छोड़ते हुए उसके सम्मान में चार चांद लगा सकती थी । पर उसे तो घर के कामों से ही फुर्सत ही नहीं थी । ' पापा , चाय ...।' तभी शिखा ने चाय रखते हुए कहा । ' शिखा, तुम्हारी मम्मी एडमिट हैं और तुमने बताया भी नहीं...।' विचारों पर विराम लगाते हुए उसने कहा । अपने स्वर पर उसे स्वयं हैरानी हो रही थी... जिसने कभी उसकी परवाह न की हो , आज वह उसके खातिर परेशान क्यों है ? ' पापा, आपको फोन तो किया था पर आप की सेक्रेटरी ने बताया कि आप मीटिंग में व्यस्त हैं ।' शिखा ने संयत स्वर में कहा । यह सच है कि कल उसकी विदेशी डेली गेट के साथ मीटिंग थी । उसने अपनी सेक्रेटरी से किसी भी फोन कॉल को उस तक पहुंचाने से मना किया था तथा मीटिंग में व्यवधान न हो इसलिए अपना सेलफोन भी ऑफ कर दिया था । घर में ताला बंद देखकर भी उसे ऐसा नहीं लगा कि ऐसा कुछ हुआ होगा । उसे लगा कि तीनों कहीं बाहर गए होंगे । चाय का घूंट पिया तो लगा जैसे जहर पी रहा हो । चीनी इतनी ज्यादा थी कि उससे पी ही नहीं गई । इसी बीच फोन बज उठा … ' सर जाने से पहले वे लोग आपसे मिलना चाहते हैं । उनकी 12:00 बजे की फ्लाइट है ।' ' ठीक है , मैं आता हूँ । ' वह नहाने के लिए बाथरूम में घुसा तो वहाँ कपड़े न पाकर शिखा को आवाज लगाई । वह मिमियाती हुई बोली, ' मुझे क्या पता ? सब पूछ मम्मी रखती हैं । अलमारी खोलकर देख लीजिए । मैं नाश्ता तैयार कर रही हूँ, अस्पताल लेकर जाना है ।' ' अच्छा तुम नाश्ता बनाओ... मैं स्वयं देख लेता हूँ ।' अलमारी खोली तो सब कुछ करीने से रखा था वरना सविता ही पानी गर्म कर उसके कपड़े, टॉवेल वगैरह यथास्थान रख देती थी । विचार अलग होने पर भी वह सदा उसके निकाले कपड़े पहनता रहा था । उसका ड्रेस सेंस इतना अच्छा था कि वह कभी भी उसे नकार नहीं पाया था । नाश्ते में शिखा ने उसके सामने ब्रेड, कॉर्नफ्लेक्स रख दिया था पर कुछ ऐसा था जिसे वह मिस कर रहा था । जिसकी अनुपस्थित उससे सही नहीं जा रही थी । ' पापा, आप मुझे अस्पताल छोड़ देंगे ।' शिखा ने उसे ऑफिस जाने के लिए तैयार देख कर कहा । ' क्यों नहीं ? वैसे मैं भी तुम्हारी मम्मी को देखकर तथा डॉक्टर से बात करते ही ऑफिस जाने वाला था ।' पता नहीं कैसे वह झूठ बोल गया । अब तक तो उसने अस्पताल जाने के बारे में सोचा ही नहीं था । यह सच है कि वह सविता को मिस कर रहा था पर अभी भी उसे सविता के स्वास्थ्य से ज्यादा अपनी डील की फिक्र थी क्योंकि उस पर ही उसका कैरियर निर्भर था । शिखा के सामने वह छोटा नहीं पड़ता चाहता था । शिखा के साथ वह अस्पताल गया । वहाँ पहुँचकर आई.सी. यू . में सविता को देखकर हक्का-बक्का रह गया । उसे अहसास नहीं था कि वह इतनी सीरियस होगी । उसे देखते ही शिवम रोने लगा तथज़ बोला, ' पापा रात में मम्मी को एक और अटैक आया था ।' ' रो मत बेटा , तुम्हारी मम्मी को कुछ नहीं होगा । मैं अभी डॉक्टर से बात करके आता हूँ । ' उसे देखते ही डॉक्टर बोला, ' इनकी बीमारी आज से नहीं, कई वर्षों से है ...अनियमित नाड़ी, पल्पिटेशन , बेचैनी जरूरत से ज्यादा तनाव के कारण होती है । इन्हें यह अटैक भी इसी कारण से आया है । ट्रीटमेंट प्रारंभ कर दिया है पर अभी कुछ कह नहीं सकते... बुरा मत मानिएगा शर्मा साहब , आपका पारिवारिक जीवन तो सहज है... मेरा मतलब है उन्हें कोई तनाव परेशानी ….।' मनीष कुछ कह नहीं पाया था । असमंजस की स्थिति में वह कैबिन से बाहर निकला । क्या कविता की इस हालत का जिम्मेदार वह स्वयं नहीं है ? वह कई वर्षों से इस तरह की शिकायत कर रही थी पर उसने ही कभी ध्यान नहीं दिया । वस्तुतः वह उसे कभी समझ ही नहीं पाया था या समझने का प्रयास ही नहीं किया था । वह तो थोपे हुए संबंध को निभा रहा था । बस उसकी आवश्यकताएं पूरी होती रहे , इससे ज्यादा उसने सविता से कोई आशा नहीं की थी... पर आज उसे लग रहा था कि जिस संबंध को वह थोपा हुआ मान रहा था , उसे निभाते- निभाते वह उससे जुड़ अवश्य गया था । अगर ऐसा न होता तो मात्र कुछ घंटों की उसकी अनुपस्थिति उसकी दिनचर्या को अस्त-व्यस्त नहीं कर देती । वह जैसी भी है उसके जीवन में ऐसी घुल गई है जैसे पानी में शक्कर...। वही अपने अहम के चलते स्वार्थी बनता गया था । वह तो एक मुश्त रकम देकर निश्चित हो जाया करता था । सविता ने ना तो उसे किसी की शिकायत की है ना ही कभी खर्च का रोना रोया.. न ही उस समय कमजोर पड़ती दिखी जब उसका और रीमा का प्यार परवान चल रहा था ...। ऐसा नहीं था कि उसे पता नहीं चल पाया था । उसके दोस्त अनंत ने उसे चेताया भी था । उसने स्वयं तो अपने मित्र के आग्रह को माना नहीं पर सविता भी निस्पृह बनी रही ...पता नहीं वह किस मिट्टी की बनी थी । शायद वह भी उसे प्यार नहीं करती है , उसकी तरह ही संबंध निभा रही है वरना उसके और रीना के संबंध को सहजता से नहीं लेती , सोचकर वह रीमा के प्यार में अपनी सुध बुध गंवा बैठा था महीनों उस पर मोटी रकम खर्च की । उसके लिए अपनी बीवी बच्चों को भी परवाह नहीं की । उसका साथ न छूटे इस वजह से उसने अपना तबादला भी रुकवाया पर जैसे ही उसे अच्छी नौकरी मिली वह उसे छोड़कर चली गई । कुछ दिन बाद रीमा का पत्र आया था जिसमें लिखा था ...इतनी अच्छी पत्नी और बच्चों के होते तुमने मुझसे संबंध क्यों बनाए मनीष ? क्या तुम उसको तलाक देकर मुझसे विवाह कर सकते थे ? शायद नहीं फिर मैं तुम्हारे साथ आगे क्यों बढ़ती ? क्यों अपनी जिंदगी एक ऐसे रास्ते पर जाने देती जिसका कोई छोर नहीं था । मैं सविता से अनंत के घर, उसके गृहप्रवेश के अवसर पर मिली थी । उसका बड़प्पन देखकर मुझे लगा... मैं इस देवी के साथ विश्वासघात कर रही हूँ, उसका घर तोड़ रही हूँ, उससे उसका प्यार उसके बच्चों का पिता छीन रही हूँ । इस सबसे मुझे क्या मिलेगा ...जीवन भर का संताप किसी को धोखा देने का एहसास ? मैं ऐसा नहीं कर सकती थी । इसलिए अच्छा ऑफर मिलने पर नौकरी छोड़ कर चली गई । आशा करती हूँ तुम किसी और के साथ जुड़कर उसे धोखा नहीं दोगे । उसको समझ कर देखो ...एक के साथ जुड़कर, दूसरे को तोड़ देना तो बुद्धिमानी नहीं है । रीमा का पत्र पढ़कर वह किंकर्तव्यविमूढ़ बना बैठा रह गया था...पर यह सोचकर वह एकाएक कठोर हो गया कि हो ना हो सविता ने ही उसे बहकाया होगा । इस घटना के पश्चात मनीष ने स्वयं को काम में इतना डुबा लिया था कि उसे न दिन का ख्याल रहता था और ना ही रात का । अमित और सुमित का विवाह हो गया था । वह अपनी जिंदगी में व्यस्त हो गए थे । इसी बीच पिताजी को लकवा मार गया । सविता का काम बढ़ गया पर उसने कभी शिकायत नहीं । वह अपना कर्तव्य निभाती रही । पिताजी की नजरों में उसके लिए प्यार देखकर लगता था शायद उनका चुनाव ठीक ही था वरना अमित और सुमित की पत्नियां तो उनके साथ एक हफ्ता भी नहीं करना चाहती थीं...उन्हें अपनी आजादी अधिक प्यारी थी । एक बार उसे बिजनिस ट्रिप पर एक महीने के लंदन जाना पड़ा । इस बीच पिताजी की तबीयत इतनी बिगड़ी कि उन्हें बचाया न जा सका । जब तक वह आ पाया उनका शरीर मिट्टी में मिल चुका था । उसके लौटने पर उसके बॉस बोले थे, ' मनीष , तुम्हारे पिताजी मरने से पूर्व हफ्ता भर तक अस्पताल में रहे तुम्हारी पत्नी सविता ने इस स्थिति में जिस धैर्य और साहस का परिचय दिया वह काबिले तारीफ है । तुम्हारे भाई तो बाद में आ पाए । तुम बहुत लकी हो जो तुम्हें ऐसी पत्नी मिली ।' कहते हुए उनके चेहरे पर दर्द की रेखाएं खिंच गई थीं । बॉस के पारिवारिक जीवन से वह भलीभाँति परिचित था सब कुछ होते हुए भी अपनी अत्याधुनिक पत्नी की जिद के कारण वह अपने बूढ़े माता-पिता की सेवा नहीं कर पा रहे थे । बॉस के मुख से पत्नी के बारे में प्रशंसात्मक वाक्य सुनकर लगा था कि कुछ इसमें जो इसे दूसरों से अलग करता है शायद मैंने पाली ग्रंथि की वजह से वही उसके साथ सहज नहीं हो पाया है । एकाएक उसके अंदर की सारी कटुता घुलने लगी थी । उसने सविता पर नजर डाली तो पाया कि अभी भी उसका शरीर इकहरा और आकर्षक है । बिना किसी दिखावे के उसने अब तक अपना सौंदर्य बरकरार रखा है । उस समय उसने सोचा था कि अब वह उस पर ध्यान देगा तथा उसे शिकायत का कोई मौका नहीं देगा पर ऐसा कहां हो पाया था । कुछ काम तथा कुछ मन में खींची लक्ष्मण रेखा के कारण वह चाहकर भी सहज नहीं हो पाया । कंपनी का सी. ई. ओ. बनते ही कार्य के सिलसिले में वह इतना व्यस्त होता गया कि अब उसका समय से घर लौटना भी संभव नहीं हो पाता था । देर रात तक मीटिंग ...बाहर का खाना नित्य का कृत्य हो चला था । इस कारण उसने अपने पास भी एक घर की चाबी रख ली थी जिससे किसी को भी कोई तकलीफ ना हो ...पर उसके मना करने के बावजूद सदा उसने सविता को अपने इंतजार में जगते पाया था । वह उसके इतना काम करने के कारण चिंतित थी पर वही उसकी चिंता नहीं कर पाया । वस्तुतः उसके पास तभी जाता है जब उसे उसकी जरूरत पड़ती थी और वह भी उसकी जरूरत को अन्य जरूरतों की तरह निपटा दिया करती थी । अपनी तकलीफ के बारे में उसने कभी कुछ कहना भी चाहा तो उसने अनसुना कर दिया । बच्चों से बातें किए बिना महीना बीत जाते थे । आज डॉक्टर की बातों ने उसकी बंद आंखें खोल दी तो क्या से यह बीमारी उस टेंशन के कारण थी जिसे वह चुपचाप पीती रही थी ...सेल फोन की घंटी ने उसके विचारों पर विराम लगा दिया… ' सर, आप कब आ रहे हैं ? वे लोग आ चुके हैं ।' ' वर्मा से कहो वह बात कर ले, मैडम की तबीयत ठीक नहीं है । आज मेरा ऑफिस आना नहीं हो पाएगा ।' ' लेकिन सर ...।' 'जैसे मैंने कहा वैसा करो ।' एक डील नहीं हो पाई तो क्या हुआ उस पर ही तो ऑफिस की पूरी जिम्मेदारी नहीं है ,और लोग भी तो है ...उसने सोचा । वह आज ऑफिस नहीं जाएगा... एक काम छूटेगा तो दूसरा मिल जाएगा लेकिन अगर सविता को कुछ हो गया तो उसकी कमी कहाँ से पूरी कर पाएगा ? जिंदगी भर काम किया है , खूब कमाया है अगर नहीं पाया है तो पत्नी का प्यार और विश्वास ...वह उसकी पत्नी नहीं उसके तन मन में समाई ऐसी सुगंध है जिसकी जाते ही वह निर्जीव पंखुड़ियों की तरह बिखर जाएगा । आज वह जो कुछ है उसके कारण है ...वह उसकी अंतर्निहित शक्ति है , चेतना है ...जिसने उसकी सारी जिम्मेदारियों को अपने नाजुक कंधों पर उठाकर उसे सदा आगे बढ़ने की शक्ति दी है । वह आम स्त्री नहीं है जो सिर्फ गहनों और कपड़ों में ही अपना संसार ढूंढती हो । वह एक कर्मठ और कर्तव्यनिष्ठ औरत है जिसने विपरीत परिस्थितियों में भी अपना धैर्य नहीं खोया । स्वयं घुलती रही पर चेहरे पर शिकन भी नहीं आने दी । आज वह उसके निस्वार्थ रूप को पहचान पाया है । अब वह उसे खोने नहीं देगा... इस एहसास के साथ वह डॉक्टर के कैबिन की ओर मुड़ गया । वह सविता का अच्छे से अच्छे डॉक्टर से इलाज करवायेगा । उनसे पूछेगा अगर यहाँ उसका इलाज संभव नहीं है तो बता दें, वह उसे विदेश ले जाएगा । आखिर इतनी दौलत कमाई किसलिए है ? वह अब किसी भी हालत में सविता को स्वयं से अलग नहीं होने देगा । वह उसकी आत्मा है , उसमें समाहित एक ऐसा अंश है जिसके बिना उसका अस्तित्व ही नहीं है ....वह प्रायश्चित करेगा । सुधा आदेश

Friday, April 3, 2020

एक कटु सत्य

एक कटु सत्य बारह बज गए हैं, अभी तक काम करने वाले नौकरानी नहीं आई । सारा काम पड़ा है , समझ में नहीं आ रहा है कहाँ से काम शुरू करूँ । पता नहीं कैसे ये लोग इतना सारा काम घंटे भर में निपटा कर चली जाती हैं...नीला अभी सोच ही रही थी कि घंटी बजी । दरवाजा खोला तो देखा पार्वती खड़ी है । उसे देखकर नीला ने यह सोचकर चैन की सांस ली कि काम से छुट्टी मिली ...फिर भी बनावटी क्रोध ने पूछा … ' आज देर कैसे हो गई ? ' ' बाई जी, अपने गोपाल को अंग्रेजी स्कूल में दाखिल करवाने गई थी । आज हम बहुत खुश हैं । लगता है हमारा सपना सच ही हो जाएगा । उसे स्कूल में दाखिला मिल गया है ।' ' क्या इंग्लिश स्कूल में दाखिला मिल गया है ? 'मैंने आश्चर्य से पूछा । मन में विचार उठे...जब वे अपने बेटे अजिताभ का दाखिला करवाने गए थे... तब हेड मिस्ट्रेस के सारे प्रश्नों का सामना उसे ही करना पड़ा था जिससे खीजकर वह पूछ बैठी थी, दाखिला तो बच्चे का करवाना है फिर इंटरव्यू मेरा क्यों ? ' वह इसलिए कि आप उसको पढ़ा भी पाएगी या नहीं ।' हेडमिस्ट्रेस मुस्कुरा कर बोली थीं । अतीत से वर्तमान में आकर वह पूछ बैठी,' तुम इंग्लिश स्कूल में पढ़ा तो रही हो लेकिन पढ़ा भी पाओगी ?’ ‘ हम नहीं पढ़ा पायेंगे तो क्या हुआ , टियूशन लगवा देंगे । एक ही तो बेटा है मेरा ...उस को पढ़ाने के लिए रात-दिन मेहनत करूंगी पर पढ़ाऊंगी अंग्रेजी स्कूल में ही । नया स्कूल खुला है गोपाल के बापू ने अपने साहब से सिफारिश करवा दी तो दाखिला मिल गया वरना मिलता ही नहीं । उसकी फीस ड्रेस किताबों इत्यादि में काफी पैसा लग जाएगा आप यदि 4000 उधार दे देंगी तो मदद मिल जाएगी । धीरे-धीरे हमारी पगार से काट लीजिएगा ।' ‘ वह तो ठीक है, अपनी मातृभाषा में शिक्षा दिलवाने से बच्चा शिक्षा को भली प्रकार समझ सकता है वरना तोते की तरह रटता रहता है । ’ नीला ने उसे समझाने चाहा । ‘ आप ठीक कह रही हैं मेमसाहब, किन्तु आजकल अंग्रेजी जानने तथा बोलने वाला ही अच्छी नौकरी पा सकता है । नेता लोग हमें कहते हैं कि हिन्दी हमारी मातृभाषा है, हिन्दी में पढ़ाओे किन्तु अपने बच्चों को फॉरेन में पढ़ायेंगे । जरा सी तबियत खराब होने पर इलाज के लिये विदेश भागे जायेंगे और मेमसाहब आपका आशीष बाबा भी अंग्रेजी स्कूल में ही पढ़ रहा है । बाई जी मेहनत मजदूरी करूँगी किन्तु अपने गोपाल को अंग्रेजी स्कूल में ही पढ़ाऊंगी ।' ’ ‘ इतनी बातें कहाँ से सीख गई ?’ आश्चर्य से नीला ने कहा । ‘ हम टी.वी. नहीं देखते का ? यहाँ धोती कुर्ता में रहेंगे, जहाँ फॉरेन गये, सूट-बूट पहनकर अंग्रेजी में बातें करने लगेंगे...हम अनपढ़ जरूर हैं लेकिन इन लोगों की नस-नस पहचानत हैं ।' एक साधारण मेहनतकश नारी ने अनेकों कटु सत्यों के मध्य झूलती जिंदगी के एक कटु सत्य को उजागर कर दिया था । सचमुच हमारी कथनी एवं करनी में इतना अंतर आ गया है कि इंसान का इंसान पर से विश्वास उठता जा रहा है । क्या होगा हमारे देश का, हमारे समाज का ? मन में न जाने कैसा सैलाब सा उठने लगा था किन्तु विचारों पर अंकुश लगाकर कहा, ‘ ठीक है कल ले लेना ।’ पार्वती काम में लग गई । नीला के मन में एक बार फिर विचारों का सैलाब उमड़ पड़ा ...पिछले वर्ष मकान की छत बनवाने हेतु उसने ₹2000 माँगे थे । उसके मना करने पर अनिकेत कितना बिगड़े थे , कहा था …' जब तुमको आवश्यकता पड़ती है तो तुरंत माँग बैठती हो या बैंक से लोन लेकर अपनी आवश्यकता की पूर्ति करती हो और यह बेचारी जो दिन-रात खून पसीना बहाकर तुम्हारी तीमारदारी में लगी रहती है उसे ₹2000 देने से इंकार कर दिया । याद है पिछले वर्ष जब तुम्हें टाइफाइड हुआ था तो महीना भर इसी ने तुम्हें और तुम्हारे घर को संभाला था वरना मेरा क्या हाल होता ? आवश्यकता के समय अगर यह तुमसे नहीं मांगेगी तो और कहां जाएगी ? उधार ही तो माँग रही है , धीरे-धीरे उसके वेतन से काट लेना ।' बहुत आदर्शवादी हैं अनिकेत , एक नामी पेपर के प्रधान संपादक जो हैं । बहुत मान सम्मान है उनका समाज में । अपने निर्भीक एवं निष्पक्ष विचारों के कारण सदैव चर्चित रहे हैं । ‘ पार्वती चार हजार रूपये माँग रही है, दे दूँ...?’ शाम को अनिकेत के आने पर चाय देते हुये नीला ने कहा । ‘ दे दो भई, होम मिनिस्टर हो घर की ... मुझसे पूछने की क्या आवश्यकता है ?’ ‘ निर्णय तो ले सकती हूँ किन्तु घर खर्च के लिये रूपये तो आप ही देते हैं, जरा भी ज्यादा खर्च हो जाने पर तुरन्त पेशी भी तो हो जाती है ।’ ‘ तुम्हारा आरोप ठीक है, मेरा मानना है जितनी चादर हो उतना ही पैर पसारने चाहिए । उधार माँगकर घर चलाना मेरे उसूलों के विरुद्ध है । बेचारी गरीब है , उसे आवश्यकता है तो दे दो, अपने अनावश्यक खर्चों में कटौती कर लेना… केके साड़ी कम खरीदना ।' ' साड़ी खरीदती हूँ तो बुरा लगता है । मुझे क्या, मैं तो कुछ भी पहनकर चली जाऊँगी, नाक तो आपकी ही कटेगी समाज मे...मामूली लेखक तो हो नहीं, प्रमुख दैनिक पत्र के संपादक हो ।' नीला ने तुनककर कहा । 'अच्छा छोेडो...यह बताओ , पार्वती को चार हजार रुपयों की आवश्यकता किसलिये पड़ गई ?’ चाय पीते हुए अनिकेत ने पूछा । ‘ उसके लड़के को इंग्लिश स्कूल में दाखिला मिल गया है । उसकी ड्रेस, फीस एवं किताबों के लिये उसे रुपयों की आवश्यकता है ।’ ‘ इंग्लिश स्कूल में...लेकिन क्या वह उसे पढ़ा भी पायेगी ?’ अनिकेत भी उसी की तरह प्रश्न पूछ उठे थे । ‘ यही प्रश्न मैंने भी उससे किया था तथा प्राप्त उत्तर से मैं भी आश्चर्यचकित रह गई थी...। पार्वती का कहा एक-एक शब्द उसने अनिकेत को सुना दिया । उसकी बात सुनकर अनिकेत कह उठे, ‘ सचमुच भारत तरक्की कर रहा है...कौन कहता है भारत का मतदाता जागरूक नहीं है तभी तो वादा पूरा न करने पर सरकारें बदल जाती हैं ।’ ‘ वह तो ठीक है किंतु इनके बच्चे भी अंग्रेजी पढ़कर बाबू बनने लगेंगे तो घर का काम कौन करेगा...? हमारे यहाँ तो किसी को भी स्वयं एक गिलास पानी पीने की भी आदत नहीं है । ’ ‘ तुम्हारी मानसिकता भी अंग्रेजों जैसी हो गई है ! अंग्रेजों ने हम भारतीयों पर अंग्रेजी इसलिये थोपी थी कि हम ज्यादा पढ़ लिख न सकें, उनके गुलाम बनकर उम्र भर उनकी सेवा करते रहें । हम भी अगर ऐसा सोचते हैं तो उन्होंने क्या गलत किया ? शायद इसीलिये हमारे संविधान निर्माताओं को देश के गरीब एवं पिछड़े लोगों के लिये आरक्षण की नीति अपनानी पड़ी थी .. जो राजनीतिक दुराग्रह के कारण समाज के लिए कोढ़ बन गई है जिसके कारण धर्म और जाति के नाम पर आज समाज कई गुटों में बंट गया है । ’ कहते हुये अनिकेत का स्वर बोझिल हो गया था । ‘ आप ठीक ही कह रहे हैं, मैं ही गलत थी । सभी को समान अधिकार एवं सुविधायें मिलनी चाहिए । प्रत्येक व्यक्ति को अपना काम स्वयं करने की आदत डालनी चाहिये तभी समाज का उत्थान एवं सुधार संभव है । प्रतिभायें किसी जाति एवं धर्म विशेष की बपौती नहीं होती, सुअवसर प्राप्त कर वे दलदल में खिले कमल के सदृश चतुर्दिक दिशाओं को अपनी सुगंध से सुवासित करने की क्षमता रखती हैं एवं सही अर्थों में मानव कहलाने की अधिकारी होती हैं । ' ' अरे, तुम भाषण कब से देने लगीं ?' अनिकेत ने मुस्कराकर कहा । आपकी संगत का असर है । उचित अवसर पाकर गूलर भी गुलाब बन जाता है । ' नीला ने नहले पर दहला मरते हुए कहा । इसके साथ ही नीला के मन में पैठी ऊँच-नीच, जाति-पांति एवं ईर्ष्या का घना कोेहरा छँटने लगा था...। सुधा आदेश