Tuesday, August 4, 2020

अपने हिस्से का आकाश

                   अपने हिस्से का आकाश

पूजा अपना अतीत पीछे छोड़कर इस शहर में नये सिरे से अपनी जिंदगी प्रारंभ करने आई थी । नौकरी तो मिल गई पर रहने का ठिकाना नहीं मिल पा रहा था । किसी अन्य से जान पहचान न होने के कारण वह एक होटल के कमरे में रह रही थी । वह उसकी जेब पर भारी पड़ रहा था । जेब को बचाने तथा जिंदगी में स्थिरता लाने के लिये वह स्थाई निवास की खोज में भी लगी हुई थी ।

सुबह से शाम तक वह आफिस में काम करती तथा रात में अखबार में निकले विज्ञापन के आधार पर घर ढूँढने  निकल पड़ती । कोई घर इतना मँहगा होता कि उसे लगता कि अगर वह इसे लेगी तो उसकी जेब सदा के लिये छोटी ही रह जायेगी और जो सस्ता होता उसकी लोकेशन उसके मनमुताबिक नहीं होती, जो थोड़ा अच्छा लगता वे एडवांस इतना माँगते कि जब वह अपनी बचत पर निगाह डालती तो कम लगती । अगर कहीं सब कुछ मनमुताबिक लगता तो अकेली लड़की जानकर गृहस्वामिनी या गृहस्वामी की भेदती निगाहें उसको अपना इरादा बदलने के लिये मजबूर कर डालतीं थीं । एक दिन सुबह की चाय की चुस्कियों के साथ पेपर मे खाली घरों के विज्ञापनों पर निशान लगा रही थी कि एक विज्ञापन पर निगाह पड़ी...
पेइंग गेस्ट के लिये लड़की चाहिए…

विज्ञापन में लिखी बातें उसके अनुकूल थीं । उसे लगा शायद यहाँ बात बन जाए । जगह भी आफिस से ज्यादा दूर नहीं थी अतः आफिस के पश्चात् विज्ञापित पते पर जाकर दरवाजा खटखटाया तो पिछत्तर अस्सी वर्ष की एक वृद्ध महिला ने दरवाजा खोला । उसका मंतव्य सुनकर, अपना परिचय देते हुए, आत्मीयता से उसे अंदर बुलाते हुये कहा,

‘ आओ बेटी, आओ...मेरा नाम नीलिमा गुप्ता है । तुम मुझे नीलू दादी कहकर बुला सकती हो...। यहाँ सब मुझे इसी नाम से पुकारते हैं । तुम कहाँ की रहने वाली हो बेटी ? ’

‘ जी गोंडा...। ’

‘ तुम्हारा विवाह हो गया है ?’

‘ जी नहीं...।’ वह न चाहते हुये भी झूठ बोल गई क्योंकि अगर वह सच कहती तो उसे उनके अन्य कई प्रश्नों से गुजरना पड़ता ।

‘ तुम इस शहर में अकेली हो या अन्य कोई अन्य रिश्तेदार भी हैं ।’

‘ जी मैं अकेली ही इस शहर में पैर जमाने की कोशिश कर रही हूँ ।’

‘ घबराना मत, जिसका कोई नहीं होता उसके भगवान होते हैं । बुरा न मानो तो एक बात पूछूँ ।’

‘ पूछिये...।’ पूजा ने सशंकित स्वर में पूछा ।

‘ बेटा नौकरी तुम्हारा शौक है या आवश्यकता । ’

‘ जी आवयकता है...।’ 

‘ ओह ! तू बैठ, मैं तेरे लिये कुछ खाने के लिये लेकर आती हूँ...। यह बता कब सामान लेकर यहाँ आ रही है ।’ उसके संयमित और संतुलित उत्तर से संतुष्ट होने पर उन्होंने उठते हुए कहा ।

‘  आप परेशान न हों । वैसे भी मेरा कुछ भी खाने पीने का मन नहीं है । मुझे कहीं और भी जाना है अगर आप वह कमरा दिखा दें तो...।’ उनकी उम्र और लड़खड़ाती चाल को देखकर उसने उन्हें रोकते हुए कहा ।

‘ कमरा भी देख लेना...। मेरे हाथ की बनी कॉफी पीकर तो देख...शिखा कहती थी, दादी आप बहुत अच्छी कॉफी बनाती हैं ।’

‘ शिखा कौन...?’ उनकी आत्मीयता देखकर पूजा से रहा नहीं गया और पूछ बैठी ।

‘ मेरी पोती...।’

‘ अब कहाँ है वह...?’

‘ वह नहीं रही...।’ कहते हुए वह उठ गई तथा छड़ी के सहारे वह किचन की ओर चल दीं । 

उनकी आँखों में तिर आई नमी उससे छिप न सकी...। वह उनके पीछे-पीछे जाना चाहती थी पर यह सोचकर नहीं जा पाई कि पता नहीं उन्हें उसका किचन में आना पसंद आये या न आये ।

नीलिमा जी के जाने के पश्चात् वह आँखों ही आँखों में ड्राइंग रूम का मुआयना करने लगी...। दीवार पर विभिन्न चित्र लगे हुए थे पर जिन चित्रों ने उसे ज्यादा आकर्षित किया वह एक लड़की के थे । किसी में वह दुल्हन के वेश में थी तो किसी में पारंपरिक भारतीय परिधान में अपनी खूबसूरती की छटा बिखेर रही थी तो किसी में वेस्टर्न आउटफिट में अत्याधुनिक लड़की लग रही थी तो किसी में मॉडेल बनी किसी वस्तु का प्रचार करती नजर आ रही थी ।

‘ यह मेरी पोती शिखा है...।’ उसे तस्वीरों से उलझा देखकर, कॉफी उसकी ओर बढ़ाते हुए उन्होंने कहा ।

‘ बहुत सुंदर थी...उसके साथ क्या हुआ जो असमय ही...।’ अपनी आदत के विपरीत पूजा पूछ बैठी ।

‘ बहुत लंबी कहानी है...फिर कभी बताऊँगी । तू कह रही थी कि तुझे जल्दी है । ले कॉफी पी और बता कैसी है ?’ स्वयं को संयमित कर ममत्व भरे स्वर में कहा ।

‘ अच्छी है...बहुत ही अच्छी...।’ पूजा ने कॉफी पीकर कहा ।

पूजा के कॉफी पीने के पश्चात् नीलिमा जी उसे कमरा दिखाने लगी । उसे कमरे का निरीक्षण करते देख उन्होंने कहा...

‘ यह मेरी पोती शिखा का ही कमरा है । मैं इस कमरे को किसी को देना तो नहीं चाहती थी पर अब इस बुढापे में अकेले रहना डराने लगा है अतः मैंने इश्तहार दे दिया...। मैं यह कमरा शिखा जैसी ही किसी लड़की को  देना चाहती थी इसलिये विज्ञापन में यही छपवाया । वैसे भी मुझे किरायेदार से ज्यादा अच्छा साथ चाहिए, इसीलिये मैंने तुमसे इतनी पूछताछ की जबकि मैं जानती हूँ तुम्हारी उम्र के बच्चों को ज्यादा पूछताछ पसंद नहीं है । आशा है बुरा नहीं मानोगी...।’ कहते हुए वह भावुक हो आई थीं ।

‘ इसमें बुरा मानने की क्या बात है ? यह सब पूछना आपका हक है आखिर कोई ऐसे ही किसी को अपने घर में नहीं रख लेता है...।’ उसने उनके साथ चलते-चलते कहा ।

कमरा अच्छा और हवादार लगा...। अटैच बाथरूम था ही, कमरा पूरी तरह फरनिश भी था । पलंग के साथ अलमारी और स्टडी टेबल के अतिरिक्त दीवार से लगा सोफा और छोटी सी सेंट्रल टेबल कमरे की शोभा को दुगणित कर रही थी । इससे भी ज्यादा संतोष उसे रूम से सटा एक छोटा सा किचन देखकर हुआ । उसमें गैस स्टोव के अलावा माइक्रोवेव भी था । नीलिमा जी के दरवाजे से पर्दा हटाते ही कमरे से सटा एक छोटा बरामदा तथा उगते सूरज की किरण रश्मियों को कमरे में प्रवेश करते देखकर वर्षो पुराना एक स्वप्न आँखों में तिर आया...वह घर के बरामदे में बैठी उगते और डूबते सूरज को देखकर मन की भावनाओं को कागज पर उकेर रही है या बैठकर चाय की चुस्कियों के साथ अखबार पढ़ते हुए उगते सूरज की रश्मियों में स्वयं को नहलाकर, तरोताजा होकर एक अच्छे दिन का प्रारंभ करने की योजना बना रही है...पर ऐसा कभी नहीं हो पाया ।

‘ यह किचन मैंने अभी यह सोचकर बनवाया है कि जिसको भी दूँगी तो वह अपनी पसंद का अगर कुछ बनाना चाहे तो बना सकेगा । गैस स्टोव और माइक्रोवेव मेरे पास एक्सट्रा था इसलिये यहाँ रखवा दिया ।’ उसकी निगाह किचन की ओर देखकर उन्होंने कहा ।

नीलिमा दादी की बात सुनकर वह अपने विचारों से बाहर आई । कमरा पसंद न आने का कोई कारण नहीं था । किराया भी ज्यादा नहीं था तथा वह एडवांस भी नहीं माँग रही थीं । सबसे बड़़ी बात यह थी कि उनके ममत्व भरे व्यवहार ने उसका मन मोह लिया था अतः दूसरे दिन सामान शिफ्ट करने की बात कहकर वह चल दी । उसे आफिस भी समय से पहुँचना था ।

पूजा ने दूसरे दिन शिफ्ट कर लिया । वह अपना सामान कमरे में लगा ही रही थी कि नीलिमा दादी कॉफी के साथ नाश्ता लेकर आ गई तथा रात के खाने का भी न्यौता दे दिया । वह बड़ी भली लगी...कम से कम अनजान शहर में किसी का कंधा मिलना उसे बहुत ही अच्छा  लग रहा था ।

दूसरे दिन इतवार था...। वह अपने हफ्ते भर के कपड़े धो रही थी । आवाज सुनकर उन्होंने दरवाजा खटखटाया, उसके बाहर आने पर कहा...

‘ बेटी, हाथ से धोने की क्या आवश्यकता है ? घर में मशीन है हफ्ते में एक दिन चला लेगी तो कुछ बिगड़ नही जायेगा ।’

उनकी बात सुनकर अनायास ही पूजा को वह दिन याद आया, जब घर भर के ढेर सारे कपड़े धोने के पश्चात् एक दिन विकास से उसने वाशिंग मशीन खरीदने की बात कही तो जब तक विकास कुछ कह पाते, उसकी सास ने ताना मारते हुये कहा...

‘ जरा से कपड़े क्या धो लिये, वाशिंग मशीन की बात करने लगी । अगर इतनी ही नाजुक थी तो दहेज में वाशिंग मशीन क्यों नहीं लेकर आई...?’

पूरे दिन नौकरानी की तरह काम करवाने के बावजूद बात-बात पर ताने देना उनकी आदत बन गई थी । वह माँ को ससुराल में मिल रहे कष्टों को बताकर उन्हें दुखी नहीं करना चाहती थी किन्तु रोज-रोज उनकी जली कटी बातें सुनकर उसके सब्र का बांध टूटने लगा था । रक्षाबंधन पर उसका भाई उसे लेने आया । घर पहुँचकर उसने माँ को सारी बातें बताई तो उन्होंने कहा, ‘ सब्र कर बेटी, समय के साथ-साथ सब ठीक हो जायेगा । यह बात अवश्य है जितना उन्होंने माँगा था,  हम दे नहीं पाये पर चिंता न कर धीरे-धीरे हम उनकी सब माँगों को पूरा कर देंगे ।’


सब ठीक कहाँ हो पाया था...! न माँ पिताजी उनकी नित बढ़ती माँगों को पूरा कर पाये और न ही सासू माँ की ज्यादातियाँ कम हुई...। हालात ऐसे बने कि उन्होंने उसके कहीं आने जाने पर भी पाबंदी लगा दी । दुख तो तब होता जब अपने छोटे मोटे खर्चो के लिये भी उसे उनसे पैसे माँगने पड़ते क्योंकि विकास अपना सारा वेतन अपनी माँ को ही देते थे ।

सारा काम करवाने के बावजूद खाना उसे ऐसे पकड़ाया जाता मानो वह इसकी हकदार नहीं है । फल, दूध खाये पीये तो उसे वर्षो बीत गये थे़ । जब वह गर्भवती तब उसके प्रति सासू माँ के व्यवहार में अवश्य परिवर्तन आया था...किन्तु इंतिहा तो तब हुई जब उसने बेटी को जन्म दिया । वह दर्द से तड़फड़ा रही थी, सांत्वना के दो शब्द कहने की बजाय उन्होंने चिल्लाकर कहा, ‘ज्यादा मुँह मत फाड़, कोई बेटा नहीं जन्मा है जो कोई तेरे नाज नखरे़ उठाये...।’

चीख मुँह में ही दबकर रह गई तथा आँखों से आँसू निकल पड़े...। विकास भी अपनी माँ की ही तरह थे । माँ के मुँह से निकला वाक्य मानो उनके लिये बह्मवाक्य था । बेटी दूध के लिये रोती रहती और वह उसे काम में उलझाये रखतीं । कोई औरत इतनी संवेदनहीन भी हो सकती है, वह सोच भी नहीं सकती थी । बहू तो बहू, अपनी पोती से भी उन्हें प्यार नहीं था ।

एक बार विकास कहीं टूर पर गये हुए थे, इसी बीच पुत्री आकांक्षा को ज्वर हो गया । वह बुखार से तड़प रही थी और वह घरेलू इलाज करवाती रही । बच्ची को दर्द से तड़पता देखकर करूण स्वर में उसने न जाने कितनी बार उनसे कहा,‘ माँजी, इसे डाक्टर को दिखा दें ।’

 वह नहीं मानी...इलाज के अभाव में एक रात वह मासूम चल बसी । उसने तब स्वयं को बेहद असहाय महसूस किया था ।  उसी सुबह विकास आ गये जब तक वह कुछ कह पाती, सासू माँ ने बेटी की ठीक से देखभाल न करने का आरोप उस पर लगा दिया । विकास ने बिना उसकी सुने उसे खूब खरी खोटी सुनाई । एक तो बेटी की मृत्यु का दर्द, उस पर ठीक से देखभाल न करने का आरोप, वह सहन नहीं कर पाई । उसदिन वह खूब फूट-फूट कर रोई थी पर उसके आँसुओं की किसी को भी परवाह नहीं थी ।

अति तो तब हुई जब दूसरे दिन सासु माँ ने अल्टीमेटम देते हुए कहा अगर इस बार बेटा नहीं जन्मा तो वह अपने बेटे का दूसरा विवाह कर देंगी । उसी रात विकास ने अपनी माँ की आज्ञा के पालन के लिए उसका साथ चाहा किन्तु वह तन-मन से इतनी अस्वस्थ थी कि उसने उसका साथ देने से मना कर दिया । तब विकास ने उसके साथ जोर जबरदस्ती करनी चाही , उसने अपनी पूरी शक्ति से विरोध करते हुए चिल्लाकर कर कहा,

' तुम्हारी माँ की वजह से मैंने अपनी बेटी को खोया है । उनकी नफरत ने उसे मारा है । तुम्हें अपनी बेटी के असमय मरने का दुख नहीं है पर मुझे है । मुझे कुछ दिन उसके साथ रहने दो । '

' खुद उसका ख्याल नहीं रख पाई और अब माँ पर आरोप लगा रही हो ।' अपनी अवमानना तथा माँ के ऊपर लगाए आरोप से तिलमिलाए विकास ने कहा और उसे  एक जोरदार थप्पड़ मारकर कमरे से बाहर निकल गया ।

बेटी का गम और उसको समझने की कोशिश किये बिना विकास के थप्पड़ ने उसके वजूद को हिलाकर रख दिया था  । दूसरे  दिन ही बिना किसी से कुछ कहे उसने घर छोड़ दिया । वैसे भी उस जगह रहने से क्या फायदा जहाँ उसका मानसम्मान न हो, स्त्री को पत्नी नहीं वरन् दासी समझा जाए...और तो और उसे अपनी ही पुत्री का कातिल होने का झूठा आरोप लगाकर बार-बार प्रताड़ित करने के साथ जोर जबरदस्ती करते हुए उससे इंसान होने का हक ही छीन लिया जाए । 

उसे पता था कि उसके इस कदम से उसे बदचलन सिद्ध कर दिया जायेगा पर वह क्या करती सहने की भी एक सीमा होती है । जब हद पार हो जाती है तो अच्छा बुरा सोचने समझने की शक्ति ही समाप्त हो जाती है...। तब विद्रोह का ऐसा ज्वालामुखी फूट पड़ता है जिसमें लगता है या तो स्वयं को जला ले या दूसरों को...। ऐसा करके वह अपनी जिंदगी तबाह नहीं करना चाहती थी । उसने निश्चय कर लिया था कि वह ऐसे रिश्तों से मुक्ति पाकर स्वयं के लिये एक नया रास्ता तलाश कर जीवन को नई दिशा देते हुये अपने लिये एक छोटा सा आकाश ढूँढने का प्रयत्न करेगी जहाँ उससे या उसकी भावनाओं से खेलने वाला कोई ना हो ।जहाँ उससे या उसकी भावनाओं से खेलने वाला कोई ना हो । 

पूजा जानती थी कि उसकी चुनी राह में फूल नहीं कांटे होंगे, संघर्ष होगा पर विकास और सासू माँ के व्यवहार को देखकर उसने मन ही मन संकल्प लिया था कि वह लड़कियों के प्रति उनकी अवधारणा को तोड़ेगी... संघर्ष करेगी...वह दिखा देगी स्त्री सिर्फ देह ही नहीं है वह आत्मविश्वास से भरा ऊर्जा का एक ऐसा स्त्रोत भी है जो अपने प्रति किये व्यवहार का प्रतिकार करना, बदला लेना और संघर्ष करना भी जानती है ।


पूजा अपने घर जा नहीं सकती थी क्योंकि उसे पता था कि उसके माता- पिता अपने सम्मान की दुहाई देते हुए उसे परिस्थतियों से समझौता करने के लिये कहेंगे । वहाँ रहकर भी उसे चैन नहीं मिलेगा अतः उसने अपनी मित्र दीपा के घर जाने का निश्चय कर लिया । दीपा उसकी ऐसी सखी थी जिसकी मित्रता पर उसे नाज था । जो उसके सुख-दुख की न केवल साथी रही थी वरन् उसने ऐसे क्षणों में भी उसका साथ दिया जब वह जिंदगी से हार मानकर बैठी थी । शायद ऐसे ही मित्रों के लिये किसी ने कहा है...इंसान भले ही हजारों मित्र बना ले पर एक ऐसा तो मित्र बनाकर दिखाये जो उसका साथ हजार वर्षो तक निभाये...।

वह दीपा के घर रहकर ही नौकरी की तलाश करने लगी । माता-पिता को जब पता चला तो उन्होंने आकर खूब खरी -खोटी सुनाई पर वह अपने निर्णय पर अडिग रही । उसका दृढ़ निश्चय देखकर वे उसे कभी अपना मुँह न दिखाने का निर्णय सुनाकर चले गये । दिल तार-तार हो गया था । क्या व्यक्ति की नाक इतनी ऊँची होती है कि मुसीबत के क्षणों में भी वह अपने कोख जाये से संबंध तो तोड़ सकता है पर उसके मनोबल को टूटने से बचाते हुए उसको सहारा नहीं दे सकता ?

उस समय दीपा ने उसके आत्मविश्वास को टूटने से बचाते हुए न केवल उसका मनोबल बढ़ाया वरन् नौकरी दिलवाने में भी भरपूर मदद की । उसने बी.बी.एम. किया था । एम.बी.ए. में उसका दाखिला भी हो गया था पर उसी समय दादी की बहन अपनी ननद की मित्र के लड़के का रिश्ता लेकर आईं। उसके माँ-पिताजी को यह रिश्ता इतना पसंद आया कि उन्होंने उसके विरोध को दरकिनार कर ,पढ़ाई तो तुम बाद में भी कर सकती हो, का आश्वासन देकर उस पर विवाह के लिए दबाब बनाया । आखिर उसे अपनी सहमति देनी पड़ी थी । 

 जिंदगी ने जब उसे दोराहे पर खड़ा किया तब  उसकी मित्र दीपा के अतिरिक्त उसकी पढ़ाई ही काम आई । कुछ प्रयासों के पश्चात् एक कंपनी में उसे सेल्स मैनेजर की नौकरी मिल गई और उसे गोंडा छोड़कर यहाँ इस अनजान शहर लखनऊ में आना पड़ा । सच जिंदगी भी न जाने कितने खेल खेलती है । जीवनरूपी शतरंज की बिसात पर आदमी तो सिर्फ एक मोहरा है जिसे समय और परिस्थितियों के अनुसार अपनी चालें चलनी पड़ती हैं...।

‘ किस सोच में डूब गई बेटी...?’

‘ थैंक यू दादी...। आज तो धुल ही गये हैं...। अगली बार मशीन में धो लूँगी ।’ नीलिमा जी का ममत्व भरा स्वर सुनकर मन के बीहड़ जंगल से बाहर निकलते हुये उसने कहा ।

‘ क्या कहा...दादी...? सच तेरे मुँह से दादी शब्द बहुत अच्छा लग रहा है...और रिश्ते तो छूट गये कम से कम इस रिश्ते को फिर से जी लूँ ।’ कहते हुए उन्होंने आँखें पोंछी तथा फिर कहा,‘ अच्छा आज तेरी छुट्टी है...मैं सरसों का साग और मक्के की रोटी बना रही हूँ , तू भी आ जाना...मुझे अच्छा लगेगा ।’

‘ कम से कम इस रिश्ते को पुनः जी लूँ ।’ 

दादी के कहे वाक्य ने पूजा के दिल में हलचल मचा दी थी । इस समय उनसे कुछ और पूछ या कहकर वह उनका दिल नहीं दुखाना चाहती थी । पता नहीं क्यों उस समय वह भी उसे अपनी ही तरह बेचारी और एकाकी लगीं । सच तो यह था कि वह आज से पहले उनके कहने के बावजूद उन्हें दादी नहीं कह पाई थी । उसे नहीं पता था कि यह छोटा सा शब्द उन्हें इतनी खुशी दे जायेगा । अब उसने निश्चय कर लिया था कि अब से वह उन्हें दादी कहकर ही पुकारेगी । उसका एकाकी मन भी किसी का साथ चाह रहा था अतः दादी के आग्रह को उसने स्वीकार कर लिया ।

पूजा नियत समय उनके पास पहुँची...। सरसों के साग की महक पूरे घर में समाई हुई थी । उसके पहुँचते ही नीलू दादी ने किचन में पड़ी छोटी सी टेबल पर थाली परोस कर रख दी तथा पास पड़ी कुर्सी खिसकाकर उससे बैठने के लिये कहते हुए, वह हाथ से रोटी बनाने लगीं । 

थपथप की आवाज के साथ रोटी को बढ़ते हुए देख सोचने लगी कि अगर इंसान के मन में साहस और विश्वास है तो उम्र उसकी राह में रोड़ा नहीं बनती वरना दादी की उम्र में तो कुछ लोग बिस्तर से उठना ही नहीं चाहते...। फिर भी उससे रहा नहीं गया तथा उनके पास जाकर कहा …
‘ अब आप बैठिये दादी, रोटी मैं बना देती हूँ...।’

‘ तेरे हाथ रोटी की फिर किसी दिन खा लूँगी । आज मेरे हाथ की मक्के की रोटी खाकर देख । बस बन ही गई है । तू खा, मेरा इंतजार मत करना । मक्के की रोटी गर्मागर्म ही अच्छी लगती हैं । मैं स्वयं के लिये बनाकर तेरा साथ देने आ जाऊँगी ।’ रोटी पर घी लगाकर उन्होंने उसकी प्लेट में रोटी रखते हुए कहा ।

उनके हाथ की साग रोटी खाकर अनजाने ही उसे अपनी दादी की याद आ गई थी...। वह भी ऐसे ही सबको अपने सामने बिठाकर गर्मागर्म रोटी खिलाती थीं ।

‘ मेरी पोती शिखा को भी सरसों का साग और मक्के की रोटी बहुत पसंद थीं ।’ अचानक दादी ने कहा ।

‘ क्या हुआ था उसे...?’ शिखा के बारे में जानने की उत्सुकता को पूजा रोक न पाई तथा पूछ बैठी ।

‘ शिखा एक अच्छी नृत्यांगना के साथ अच्छी कलाकार भी थी...। उसने कई स्टेज प्रोग्राम भी दिये थे । उसका सपना फिल्मों में काम करने का था । इस शहर में उसका सपना पूरा होने का नाम नहीं ले रहा था । तभी एक टी.वी. सीरियल में काम करने के लिये एक विज्ञापन निकला । उसके आडीशन के लिये तारीख नियत हुई । उस नियत तिथि पर वह आडीशन के लिये गई । कई राउंड के पश्चात् उसका चयन हो गया तथा उसे सीरियल में काम करने के लिए मुंबई बुलाया गया । उसके साथ ही विराज नाम के लड़के का चयन इसी आडीशन के द्वारा उस टी.वी. सीरियल के लिये हुआ था ।

शिखा विराज को मुझसे मिलाने लाई । उससे बात करने पर पता चला कि उसका भी बचपन से सपना फिल्मों में काम करने का रहा है । टी.वी. सीरियल तो उसके लिये मुंबई में पैर जमाने का प्रयास भर है । वह बी.ई. कर रहा था । सीरियल के लिये बी.ई. की पढ़ाई बीच में ही छोडने का निश्चय कर उसने अपने माता-पिता को नाराज कर दिया था । वह चाहता था कि अपने इस कैरियर को उन बुलंदियों तक ले जाए जिससे उसके माता-पिता की नाराजगी दूर हो जाए । न जाने क्यों उस लड़के की सच्चाई और जिजीविषा मुझे भा गई ।

मैं शिखा को अकेले मुंबई नहीं भेजना चाहती थी । बचपन से उसकी एक-एक इच्छा पूरी करने की कोशिश की थी ।  पंकज और सीमा,  शिखा के माता पिता की प्लेन क्रेश में मृत्यु के पश्चात् वही मेरे जीवन का मकसद बन गई थी । मैं अपने स्वार्थ के लिये उसकी ख्वाहिश को रोंदकर उसके साथ नाइंसाफी नहीं करना चाहती थी । अपनी बात जब विराज के सामने रखी तो उसने सहजता से कहा…'दादी, अगर आप मुझ पर विश्वास कर सकती हैं तो शिखा को मेरे साथ भेज दीजिए । मैं आपसे वायदा करता हूँ कि मैं शिखा को कभी कोई परेशानी नहीं होने दूँगा तथा उसे उसकी मंजिल तक पहुँचाने की हर संभव कोशिश करूँगा । मेरी और शिखा की मंजिल एक ही है, हम अवश्य कामयाब होंगे ।'

शिखा को अकेले विराज के साथ भेजना मेरे संस्कारी मन को स्वीकार नहीं हुआ । शिखा की आँखों में मैंने विराज के लिये चाहत देखी थी अतः एक विचार मन में आया । अपना विचार, जब मैंने उनके सामने प्रकट किया तो वे दोनों ही चौंक गये...।

‘ दादी विवाह, मैंने इस बारे में सोचा भी नहीं...क्या आपने शिखा से पूछा...?’

‘ पूछा तो नहीं...।’ शिखा की ओर देखते हुए मैंने कहा ।

‘ फिर यह कैसे संभव है...?’ कहते हुये विराज ने भी शिखा की ओर देखा ।

‘ संभव है...मैं अपनी पोती को अच्छी तरह जानती हूँ । सच तो यह है कि उसकी चाहत को पहचान कर ही मैं यह निर्णय लेने का साहस कर पाई हूँ...।’ अंधेरे में तीर चलाते हुए मैंने कहा था ।

‘ विवाह अभी उचित नहीं होगा...पहले हमें अपना मुकाम हासिल कर लेने दीजिए...। ’ विराज ने मेरी पेशकश सुनकर कहा ।

‘ दादी, विराज ठीक कह रहे हैं । पहले हम अपना मुकाम तो हासिल कर लें ।‘ शिखा ने विराज का समर्थन करते हुए कहा ।  

‘ बेटी,जब तुम दोनों की राहें एक हैं फिर इंकार क्यों...? फिर अब तो तुम दोनों को मुंबई में काम करने का कांट्रैक्ट मिल ही गया है । कम से कम मेरे मन में कोई दुविधा या संशय तो नहीं रहेगा । बेटा, तुम तो मेरे मन की दुविधा समझ सकते हो...कहो तो मैं तुम्हारे माता-पिता से कहकर बात आगे बढ़ाऊँ...।’

आखिर विराज ने उसकी पेशकश मान ली...। विराज के माता-पिता से बात की तो उन्होंने बेरूखी प्रदर्शित करते हुए विराज से किसी प्रकार का संबंध रखने से साफ मना कर दिया । विराज मायूस हो गया था । वह अपने माता-पिता के आशीर्वाद के बिना विवाह नहीं करना चाहता था । उसे उम्मीद थी कि जब वह सफल होगा तब उसके माता पिता न केवल उसे माफ करेंगे वरन् शिखा को भी अपना लेंगे । स्थिति मनोनुकूल होने के लिये वह समय चाहता था । 

उस समय मैं अपने स्वार्थ में इतनी अंधी हो गई थी कि मैंने विराज की भावनाओं की भी परवाह नहीं की तथा विराज को किसी तरह मनाकर धूमधाम से शिखा का विराज से विवाह कर दिया । विराज उसे मुंबई लेकर चला गया । भरे मन से मैंने उन्हें विदा किया तथा मुम्बई पहुँचते ही सूचना देने के लिये कहा । उन्होंने मुंबई पहुँचकर मुझे फोन के द्वारा सकुशल पहुँचने की सूचना दी तथा कहा कि अभी वे एक होटल में रूके हैं । जल्दी ही स्थाई निवास की व्यवस्था कर सूचना देंगे...।

उसके पश्चात कई दिनों तक शिखा और विराज की कोई खबर न आने पर मुझे चिंता होने लगी थी...। उन दिनों मोबाइल का इतना प्रचलन नहीं था कि घंटे-घंटे पर खबर रखी जा सके । बताये होटल के नम्बर पर फोन किया तो पता चला कि वे लोग चार दिन पूर्व ही वहाँ से चले गये थे । कुछ समझ में नहीं आया तो मैंने टी.वी. सीरियल वालों को फोन किया । उन्होंने बेरूखी से कहा कि मुंबई पहुँच कर उन्होंने हमसे संपर्क तो किया था । हमने उन्हें स्टूडियो में आकर मिलने के लिये कहा पर न तो वे आये न ही उनकी कोई खबर ही आई है । उन्हें काम नहीं करना था तो पहले सूचित कर देते कम से कम हमारा समय तो बरबाद नहीं होता ।

कुछ समझ में नहीं आया तब मैं उनका पता लगाने मुंबई गई ।  क्या इतने बड़े शहर में उन्हें ढूँढ पाना संभव था ? आखिर जब तक पता नहीं चल जाता वहीं रूकने का फैसला किया । पुलिस में भी रिर्पोट लिखवा दी पर फिर भी कुछ पता नहीं लग पा रहा था । एक दिन अखबार पलट रही थी कि ‘गुमशुदा कॉलम ’ में एक शव को देखते ही चीख निकल गई... शिखा का शव था...। लिखी खबर से पता चला कि उसे किसी ने मारकर समुद्र के किनारे फेंक दिया था...। साथ ही उस पर बलात्कार के निशान भी पाये गये ।

किसी तरह स्वयं को संभालकर पुलिस स्टेशन गई । शव लगभग एक हफ्ते पुराना था । उसका पंचनामा करवाकर अंतिम क्रिया की और खाली हाथ लौट आई...। शायद तुम समझ सको बेटी कि उस समय मैंने स्वयं को कितना अकेला महसूस किया होगा ! पहले बेटा, बहू और फिर पोती...मेरे दिल पर क्या गुजरी होगी...? पर कहते हैं जब तक सांस है तब तक तो जीना ही पड़ता है...।’ कहते हुए उनकी आँखों में आँसू आ गये थे ।

‘ और वह लड़का विराज...।'

‘ वह भी नहीं मिला...पता नहीं उसने ही शिखा को मारा या वे दोनों ही किसी साजिश के शिकार हुए...। विराज के माता -पिता से उसके बारे में जानना चाहा तो उन्होंने कहा, ‘ वह तो हमारे लिये उसी समय मर गया था जब उसने हमारी इच्छा के विरूद्ध अपना कैरियर चुना था । जब उसे हमारी परवाह नहीं है तो हम ही उसकी परवाह क्यों करें ? पता नहीं इंसान इतना संवेदनहीन, अमानुष कैसे हो जाता है कि अपनी एक अवज्ञा पर अपने खून से ही नाता तोड़ देता है ।’ आँसू पोंछते हुए उन्होंने भरी आवाज में उत्तर दिया ।

‘ बेटा, एक बात कहूँ ?’

‘ जी दादी । ‘

‘ बेटा, मेरी शिखा तो साजिश का शिकार होकर अपनी मंजिल नहीं प्राप्त नहीं कर पाई पर तुम अपना हर कदम फूँक-फूँककर उठाना तथा अपने लिए एक छोटा सा आकाश तलाश कर ही रहना । मुझे लगेगा मेरी शिखा मुझे वापस मिल गई ।‘

उनकी कहानी तो उससे भी दुखद थी पर उनकी जिजीविषा तथा उनकी उसके प्रति सोच उसके लिये प्रेरणा बन गई थी ।

वह अपनी स्थिति से संतुष्ट नहीं थी अतः उसने अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी करने के उद्देश्य से पत्राचार द्वारा एम.बी.ए .करने का निश्चय ही नहीं किया वरन पढ़ाई भी प्रारम्भ कर दी । इसके साथ ही अब वह रोज आफिस से आने के पश्चात् कुछ समय उनके पास गुजारने लगी थी । यद्यपि धीरे-धीरे एक ही सी बातें सुनकर बोर होने लगी थी फिर भी उनके व्यवहार में न जाने कैसा सम्मोहन था कि जब तक कुछ पल उनके साथ नित्य बिता नहीं लेती थी तब तक उसे चैन ही नहीं मिलता था । वह भी गर्मागर्म नाश्ता बनाये उसका इंतजार करती मिलतीं ।
 
एक दिन पूजा ऑफिस से आई तो देखा बरामदे में एक आदमी उसका इंतजार कर रहा है । उसके आते ही उसने उसे एक कागज पकड़ाया । वह कागज सामान्य नहीं वरन विकास द्वारा भिजवाए तलाक के पेपर थे । उसने बिना कुछ कहे उन कागजों पर हस्ताक्षर कर दिये । एक हस्ताक्षर से उनके सात जन्मों के बंधनों का अंत हो गया था । वह स्वयं उस बंधन को तोड़ आई थी किन्तु फिर भी न जाने मन में एक आस थी आज वह आस भी टूट गई थी ।

मन बेहद उदास था वह अपने कमरे जाकर लेट गई । उसे अपने पास न आते देखकर दादी ने उसके रूम का दरवाजा खटखटाया । उसके आते ही उन्होंने कहा,‘ बेटा, क्या बात है बेटा, क्या तबीयत ठीक नहीं है ? चल आज मैंने तेरा मनपसंद पोहा बनाया है । कुछ खाएगी तो अच्छा लगेगा । ‘

उस मनःस्थिति में वह दादी के पीछे-पीछे चल दी । उसे चुपचाप खाते देखकर दादी ने उसकी उदासी का कारण पूछा तो वह चुप नहीं रह पाई । उसने उन्हें अपनी आपबीती सुनाई तो वह चौंक गई तथा कहा,‘ तुम तो कह रही थीं कि तुम्हारा विवाह नहीं हुआ है तथा तुम्हारा इस दुनिया में  कोई नहीं है...।’

‘ दादी, यह सच है कि आज मैंने आपको अपने जीवन के काले अध्याय से अवगत कराया पर क्या यह सच नहीं है जिनसे मैं सारे रिश्ते नाते तोड़ आई थी, जिनका मेरी जिंदगी में वापस आना असंभव है, उनके बारे में बताकर मैं क्या करती ? अब आप ही बताइये, उस दिन मैंने क्या गलत कहा ? जिस व्यक्ति से संबंध ही न रह गया हो उसके साथ नाम जोड़ना क्या उचित है ? मैं उसकी परवाह क्यों करूँ, क्यों अपना नाम उससे जोड़कर रखूँ जिसको कभी मेरी परवाह ही नहीं रही...? वह रिश्ते ही झूठे थे तभी एक हस्ताक्षर से वह एक झटके में टूट गए । ’ 
‘ शायद तुम ठीक कहती हो बेटी...।’ कहते हुए उनकी आँखों में आँसू आ गये थे ।

‘ यह क्या, आपकी आँखों में आँसू...?’

‘ तेरी बात ने मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया...। तू सच ही कह रही है जिसको हमारी परवाह न हो, उसके साथ अपना नाम कैसे जोड़ें पर सदा ऐसा कहाँ हो पाता है ? मेरा बड़ा बेटा पंकज प्लेन क्रेश मे मारा गया तो दूसरा संजय सात समुंदर पार बैठा है ।’

‘ क्या आपका दूसरा पुत्र भी है ? आपने कभी बताया ही नहीं...।’

‘ क्या बताती उसके बारे में...? पाँच वर्ष से वह आया ही नहीं है...। वह इतना व्यस्त रहता है कि उसके पास किसी के लिये समय ही नहीं है । वह बार-बार मुझसे कहता है कि माँ अब यहाँ कोई नहीं है, सब कुछ बेचकर मेरे पास आ जाओ...। बेटी मैं जीते जी इस घर को कैसे बेच सकती हूँ ? शिखा के दादाजी ने एक एक पाई जोड़कर इस घर को बनवाया था । इस घर के साथ मेरी न जाने कितनी खट्टी मीठी यादें जुड़ी हैं...अगर मैं यहाँ से गई तो मेरा शरीर जायेगा, मन नहीं ।’

‘ पर दादी...।’

‘ बेटी मैं जानती हूँ कि तेरे मन में कैसे-कैसे प्रश्न आ जा रहे हैं पर एक इंसान के जीवन में कुछ पल ऐसे आते हैं जब वह कोई भी निर्णय लेने से पूर्व कई बार सोचता है...। बार-बार स्वयं से सवाल जबाव करता है । बेटी मेरे मन ने मेरे प्रश्नों का सदा एक ही उत्तर दिया है कि मुझे संजय के पास नहीं जाना चाहिए...। अब तक मैंने एक स्वतंत्र और निर्भीक जीवन जीया है । तन भले ही शिथिल हो गया है पर मेरा मन अब भी इस शरीर को संजीवनी देकर बार-बार यही कहता है, नीलिमा अभी भी तुम थकी नहीं हो । तुझमें अभी भी इतनी ताकत है कि तुम अपना भार स्वयं उठा सकती हो...।

पंकज के पापा हमेशा कहा करते थे...नीलू बच्चों के आगे कभी हाथ नहीं फैलाना । सदा देना ही लेना नहीं...। इसी में तुम्हारी इज्जत है । यह बात अलग है कि आज वह मेरे साथ नहीं हैं पर उनकी यादें तो हैं । उन्होंने मेरे लिये इतना छोड़ा है कि कभी किसी के सामने हाथ पसारने की नौबत न अभी आई है और न ही भविष्य में आयेगी । 

मुझे पता है संजय तथा उसकी पत्नी मुझे हाथों हाथ लेंगे पर कब तक...? क्या कुछ दिनों पश्चात् मैं उनके लिये घर में रखी सजीव निरर्थक वस्तु मात्र बनकर नहीं रह जाऊँगी ? जिसके सामने समय पर खाने पीने के लिये सामान तो रख दिया जायेगा पर अपनी- अपनी व्यस्तता के कारण मेरे दिल तक पहुँचने की कोशिश कोई नहीं करेगा !! सच बेटा, उस स्थिति की कल्पना मात्र से मैं सिहर उठती हूँ । 

बेटी, यह बात मैं ऐसे ही नहीं, कुछ महीने उनके साथ बिताये अनुभव के आधार पर कह रही हूँ । वह तो अपना कर्तव्य निभा रहे थे पर मेरे लिए वहाँ करने के लिए कुछ नहीं था । बस अब तो उस परमपिता परमेश्वर से इतनी ही प्रार्थना है कि मेरा अंत भी शांति से हो जाए । मुझे इस सारी मोह ममता से मुक्ति मिल जाए ।’

पूजा उनकी जिजीविषा को मुक्त कंठ से निहार रही थी कि अचानक उन्होंने कहा, ‘ पूजा बेटा, तू दूसरा विवाह क्यों नहीं कर लेती ? अकेले जीवन काटना बहुत कठिन होता है बेटी ।’

‘ दूसरा विवाह...?’

‘ हाँ बेटी...। मैं चाहती हूँ , तू दूसरा विवाह कर ले...। अब वह समय नहीं रहा कि जिस घर में डोली जाये उसी से अर्थी निकले । आज समय बदल रहा है मान्यतायें बदल रही हैं...वैसे भी बिना मकसद जिंदगी जीना बेमानी बन जाता है । कभी-कभी स्वयं के लिये अपनी ही जिंदगी बोझ बनने लगती है ।’

‘ दादी उस कटु अनुभव के बाद मेरा विवाह संबंध में विश्वास ही नहीं रहा है । ’ 

‘ जीवन जीने के लिये है...। जीवन में सुख-दुख तो आते ही हैं पर वास्तव में मनुष्य वही है जो इन सब को झेलते हुए सदा आगे बढ़ता जाए ।’

‘ ठीक है दादी, कोई मिल गया तो सबसे पहले आपको ही बताऊँगी ।’ 

बात टालने के लिये उसने कह दिया पर यह नहीं कह पाई दादी ,आप भी तो अतीत की यादों में अभी तक उलझी हुई हो वरना आप अपने बेटे की बात मानकर उसके पास नहीं चली जातीं । माना आज के बच्चों के पास अपने बुजुर्गो के लिये समय नहीं है पर सुख-दुख में तो वे साथ देंगे ही । जब आप इस उम्र में अकेली रह सकती हो तो मैं क्यों नहीं ? न जाने क्यों विवाह जैसी संस्था से उसका मोह टूट गया था । उसे एक बार धोखा मिल चुका था अब दुबारा धोखा नहीं खाना चाहती थी । अब वह अपने पैरों पर खड़ी है । क्या कमी है उसे जो व्यर्थ किसी पचड़े में फँसे ?
 
अपने हिस्से का आकाश-7

जीवन बीत रहा था...उसका एम.बी.ए. पूरा हो गया था । अब वह दूसरा जॉब ढूँढने लगी । उस दिन वह बेहद खुश थी । उसे विप्रो कंपनी में दस लाख के पेकेज पर अगले महीने पूना जॉइन करना था । सबसे पहले वह अपनी इस खुश खबरी को दादी को सुनना चाहती थी अतः ऑफिस से आते ही उसने उनका दरवाजा खटखटाया...। 

कोई आवाज न मिलने पर डुप्लीकेट चाबी से दरवाजा खोला तो देखा दादी जमीन पर पड़ी तेजी-तेजी सांस ले रही हैं...। वह उन्हें देखकर सकते में आ गई । समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे, किसे बुलाये...? अपनी पढ़ाई या आफिस से आने के बाद दादी के पास तक ही सीमित रहने के कारण उसने कभी यह जानने का प्रयत्न ही नहीं किया कि अगल बगल में कौन रहता है । यद्यपि उसने दादीजी के पास  कुछ लोगों को आते जाते देखा था पर उसने न तो उनसे कभी पूछा न ही उन्होंने कभी बताया ।

एक बार सोचा कि मदद के लिये किसी पड़ोसी का दरवाजा खटखटाये पर उनकी हालत देखकर उन्हें अकेले छोड़ने का भी मन नहीं कर रहा था । समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या करे, उन्हें कहाँ और किस डाक्टर के पास ले जाए ? उसे इस शहर के बारे में ज्यादा कुछ पता नहीं था...। उनकी स्थिति बिगड़ती जा रही थी । वह उन्हें कृत्रिम श्वास देकर उनकी उखड़ी सांसों को यह सोचकर नियंत्रित करने का प्रयास करने लगी कि स्थिति कंट्रोल में  होने पर वह किसी  की मदद माँगने जायेगी तभी मोबाइल बज उठा । उसकी सहयोगी सुषमा का फोन था । पूजा ने जब उसे वस्तुस्थिति बताई तो उसने कहा,‘ तुम चिंता न करो, मैं अभी डाक्टर को लेकर आती हूँ ।’

‘ सिर्फ डाक्टर को लाने से कोई फायदा नहीं होगा, जल्दी से जल्दी इन्हें कहीं शिफ्ट करना पड़ेगा, अगर तू किसी को जानती है तो प्लीज जल्दी से डाक्टर के साथ एम्बुलेंस लेकर भी आ...।’

‘ ठीक है, मैं आती हूँ...।’ कहकर उसने फोन रख दिया ।

सुषमा उस समय उसे देवदूत सी लगी । वह दादीजी के पास बैठकर उन्हें हिम्मत दिलाने लगी । उस हालात में भी  दादीजी  उससे कुछ कहने का प्रयास करने लगीं ।

‘ प्लीज दादी, आप ज्यादा बात न करें । आपको कुछ नहीं होगा । मेरी मित्र सुषमा डाक्टर को लेकर बस आती ही होगी...।’

उन्होंने उसकी बात को अनसुना कर अस्फुट स्वर में कुछ कहने का प्रयत्न किया पर कह नहीं पाई तथा बेहोश हो गईं ।

उनकी हालत देखकर उसने फिर अपनी मित्र सुषमा को फोन किया तो उसने कहा…' एम्बुलेंस बस पहुँच ही रही होगी...। तू उन्हें लेकर अस्पताल पहुँच, मैं वहीं पहुँच रही हूँ...।’

अस्पताल में दादी की हालत को नाजुक करार दिया...। उनके मोबाइल से संजय का नम्बर ढूँढकर पूजा ने उसे फोन किया । उसने उनका ख्याल रखने की बात कहकर शीघ्र पहुँचने की बात कही । 

एम्बुलेंस की आवाज से अड़ोसी पडोसियों को उनके बीमार होने के बारे में पता चल ही गया था । वे अस्पताल में उन्हें देखने और मदद करने की चाहत से आये भी पर आई.सी.यू. में किसी को जाने की इजाजत ही नहीं थी । 
संजय के आने से पूर्व ही डॉक्टरों की भरपूर कोशिशों के बावजूद दादी जिंदगी की जंग हर गईं थीं ।

उनकी मृत्यु के पश्चात् हर जुबां से उनकी प्रशंसा सुनकर लग रहा था जैसे वह पूरे मोहल्ले की जान थीं । किसी की आँटी तो किसी की दादी, किसी की दीदी तो किसी की भाभी...। हर किरदार में वह लोगों के हृदय में जीवित लग रही थीं ।

शिखा ने अड़ोसी पड़ोसियों के साथ मिलकर उनके अंतिम संस्कार की तैयारी प्रारंभ कर दी । संजय के आते ही उनकी अंतिम यात्रा प्रारंभ हो गई । अंतिम यात्रा के पश्चात् जब वह घर वापस लौटी तो उसे लग रहा था कि वह एक बार फिर से अकेली, बेघर हो गई है । दुख था तो केवल इतना कि वह दादी के साथ अपनी खुशी शेयर नहीं कर पाई ।

 दुख तो इस बात का भी था कि संजय की रूचि अपनी माँ की आत्मा की मुक्ति के लिये परंपरागत नियम निभाने की बजाय, उनकी सारी चल और अचल संपत्ति को शीघ्रातिशीघ्र बेचने की थी । घर का विज्ञापन देते ही नित्य नये-नये लोग घर को देखने के लिये आ रहे थे । मकान इतना अच्छा और मैन्टैंड था कि अच्छी से अच्छी बोलियाँ लग रही थीं आखिर संजय को उसकी मनचाही रकम मिल ही गई ।

वैसे रूढ़िवादी तो पूजा कभी नहीं रही थी पर संजय को इस तरह जल्दी-जल्दी सारे कार्य निबटाते देख बार-बार मन में यही आ रहा था...क्या मरने वाले का अपने बच्चों पर इतना भी हक नहीं है कि ज्यादा नहीं तो दस बारह दिन ही उसके बच्चे उसकी याद में सुबह शाम दीप जलायें...? सच नीलिमा दादी की सांसों के टूटते ही उनकी वर्षो से सँजोई धरोहर भी दूसरे की हो गई थी ।  

‘ तुम व्यर्थ दुखी हो रही हो, आज के युग में इंसान अपने लिये ही समय नहीं निकाल पाता तो अपने बुजुर्गो के लिये उसके पास समय कहाँ होगा ?’ अंतर्मन ने टोका ।

‘ तुम ठीक कह रही हो...। शायद आज की यही सच्चाई है और शायद समय की यही माँग भी है ।’ प्रतिउत्तर देते हुए उसने मन को स्थिर किया ।

यद्यपि दादी के बिना उसका इस घर में रहने का बिलकुल मन नहीं था किन्तु पंद्रह दिन वह कहाँ रहती । समय  देखकर संजय से पूना में अपने जॉब के बारे बताते हुए पंद्रह दिन और रहने की इजाजत मांगी । उसने मकान के नए मालिक से बात की, उन्होने उसे रहने की इजाजत दे दी ।

पंद्रह दिन पश्चात पूजा जब इस घर को छोड़कर जाने लगी तो अनायास ही उसकी आँखों से आँसू निकलने लगे...। न जाने क्यों कुछ ही दिनों में उसे दादीजी से इतना मोह हो गया था कि यह घर उसे अपना ही घर लगने लगा था । सच तो यह है कि इतना दुख तो उसे अपनी माँ का घर छोड़ने पर भी नहीं हुआ था । वह समझ नहीं पा रही थी कि ये कैसे दिल के रिश्ते हैं ? खून के रिश्तों में भले ही थोड़ी सी नासमझी, अहंकार या एक दूसरे से की गई उम्मीदों के पूरा न होने के कारण दरार पड़ जाए पर दिल से बने ये रिश्ते इन सब कारणों से मुक्त होते हुए न केवल जीवन को सुरभित कर जाते हैं वरन् जीवन को परिपूर्ण बनाते हुए एक ऐसे बंधन में बाँध देते हैं जिनसे इंसान चाह कर भी मुक्त नहीं हो पाता है...। 

नीलू दादी ही थीं जिन्होने उसे विषम परिस्थितियों से लड़ने के साथ ,सदा जीवन में आगे बढ़ते रहने के लिए प्रेरित किया था । दुखी मन के बावजूद भी उसे खुशी इस बात की थी कि दादी की अंतिम इच्छा पूरी हो गई...। जिस शांति और सम्मान से उन्होंने जीवन काटा था उसी  शांति और सम्मान से वह बिना किसी को तकलीफ दिये इस दुनिया से विदा हो गई, उन्हें मुक्ति मिल गई थी...सच्ची मुक्ति...।

पूजा उनकी यादों को मन ही मन सँजोये एक मुट्ठी आकाश की तलाश में चल दी ।
 
हवाई  यात्रा का पूजा का पहला अवसर था । टिकट तो उसने ऑनलाइन बुक करा लिया था तथा गुगुल में बोर्डिंग का पूरा प्रोसीजर भी पढ़ लिया था पर फिर भी हवाई यात्रा से पहले वह मन ही मन झिझक रही थी । गेट पर टिकिट चैक कराने के बाद वह बोर्डिग काउंटर पर गई । बोर्डिग पास लेकर सामान बोर्ड कराने के पश्चात् वह सिक्यूरिटी चैक के लिये पहुँची । पुरूषों और महिलाओं के लिये अलग-अलग लाइन थी । वह भी लाइन में खड़ी हो गई । उसक नम्बर आते ही वह कैबिन में दाखिल हुई । प्लेन में बैठकर उसने चैन की सांस ली । 

पूजा जब बैंगलोर के कैम्पेगौड़ा अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट पर उतरी तो उसकी आँखें आश्चर्य से फैल गईं । लखनऊ की तुलना में यह एअरपोर्ट काफी बड़ा था । यात्रियों का अनुसरण करती हुई वह बैगेज क्लेम वाले एरिया में आई । सामान आते ही उसने ट्रॉली में रखा एवं बाहर आई । उसने गेट के पास खड़े स्क्यिोरिटी गाई से टैक्सी स्टैंड के बारे में पूछा । टैक्सी करके वह गंतव्य स्थल तक पहँची । उसका आफिस सरजापुर में था अतः उसने उसी के पास एक होटल में होटल का कमरा बुक करा लिया था । होटल ठीक-ठाक था ।

दूसरे दिन उसने आफिस ज्वाइन कर लिया । उसके सेल्स डिपार्टमेंन्ट में दो लड़कियाँ और थीं...सीमा और दूसरी पवित्रा तथा सेल्स मैनेजर थे अमित । पहला दिन तो आफिस ज्वाइन करने से पूर्व की कुछ फोरमेल्टीज पूरी करने  के साथ एक दूसरे से परिचय पाप्त करने में ही बीत गया ।

दोपहर में पवित्रा उसे आफिस की कैंटीन में लेकर गई । दोसे का कूपन लेकर उसने एक खाली टेबिल देखकर, कुर्सी खिसकाकर वह बैठ गई तथा उसे भी बैठने का इशारा किया । वह चारों ओर देखने लगी । उनके पास वाली टेबिल पर दो लड़के और दो लड़कियाँ बैठे हुये थे । वे दूसरी भाषा में बातें कर रहे थे ।

‘ ये कन्नड़ में बातें कर रहे हैं ।’ उसने पवित्रा से पूछा ।

‘ हाँ, जब जहाँ कन्नड़ भाषी मिल जाते हैं वे अपनी भाषा में ही बातें करते हैं । ये अपनी मातृभाषा से बहुत प्यार करते हैं, हम यू.पी. वालों की तरह नहीं हैं जो अपनी भाषा को हिकारत की नजर से देखते हैं ।’

‘ तुम कहाँ की रहने वाली हो ?’ पवित्रा की आवाज में दर्द तथा अपने प्रदेश की जानकर उसने उससे पूछा ।

‘ मथुरा...।’

‘ और तुम...।’

‘ गोंडा...।’

‘ वाह ! बहुत अच्छा । एक पूर्व और दूसरा पश्चिम । वह तो मैं तुम्हारी बोली सुनकर ही समझ गई थी कि तुम हमारे प्रदेश की ही हो । चलो कोई तो मिला अपने प्रदेश का वरना अपने डिपार्टमेंट में सभी कन्नड़ भाषी हैं । ये लोग जल्दी किसी से मिक्सअप नहीं होते , बस काम से काम रखते हैं ।’

वह चाहकर भी नहीं कह पाई कि ऐसा नहीं है, हर व्यक्ति का अपना स्वभाव होता है ।  अब तक उनका नम्बर आ गया था...पवित्रा को उठते देखकर वह भी उसके पीछे-पीछे गई...। अपनी-अपनी प्लेट उठाकर वे फिर अपनी टेबिल पर वापस आ गईं ।    
  
‘ तुम कहाँ रह रही हो ।’ दोपहर में कैंटीन में खाते हुये बातों-बातों में पवित्रा ने पूछा ।

‘ अभी तो मैं होटल में रह रही हूँ । शीघ्र ही कोई घर ढूँढकर उसमें शिफ्ट हो जाऊँगी ।’

‘ घर तो यहाँ बहुत मँहगें हैं...उससे भी बड़ी बात यह है कि यहाँ घर की बुकिंग के लिये ग्यारह महीने का एडवांस देना पड़ता है ।’

‘ ग्यारह महीने का एडवांस देना पड़ता है !!’ पूजा ने आश्चर्य से पूछा ।

‘ हाँ...।’

‘ फिर...।’

‘ हम तीन लड़कियाँ यहीं पास में एक फ्लैट लेकर रहतीं हैं । अगर तुम चाहोगी तो मैं अन्य लड़कियों से पूछकर देखूँगी । वैसे यहाँ पास में कुछ होस्टल भी हैं । तुम देख और सोच लो । ’

‘ थैंक यू पवित्रा ।’

पूजा ने शेयरिंग फ्लैट की बजाय अपने आफिस से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित गर्ल्स होस्टल में रहना उचित समझा । किराया भी आठ हजार ही था । अगर सुबह का नाश्ता खाना खाना है तो छह हजार अलग से । सबसे बड़ी बात यह कमरा फर्निश्ड था । बैड, अलमारी स्टडी टेबिल भी । अटैच बाथरूम था । बालकनी तो नहीं थी पर खिड़की जिस तरफ खुलती थी उधर कोई बिल्डिंग नहीं थी,  बड़ा सा मैदान था । उसके आस-पास ही उसे कई छोटे-बड़े रेस्टोरेंट भी दिखाई दिये, उसने यह सोचकर चैन की सांस ली कि इनकी वजह से उसे खाने की समस्या भी नहीं होगी । वैसे भी उसे अपनी पढ़ाई के लिये अलग कमरा चाहिये था । 

एक बार तो वह यू.पी.एस.सी. का एक्जाम दे चुकी है । तीन चरणों में होने वाली इस परीक्षा के दो चरण वह क्लियर कर चुकी है । अंतिम चरण में भी सफल होने पर ही सलेक्टेड कैंडिडेट की लिस्ट निकलती है । वह इसी लिस्ट का इंतजार कर रही है ।  यह परीक्षा इतनी आसान नहीं है अतः वह किन्हीं कारणों से इस बार सलेक्ट नहीं हो पाई तो वह अपना स्वप्न पूरा करने के लिये अगली बार भी एक्जाम देना चाहती है इसलिये वह जॉब के साथ-साथ अपनी पढ़ाई भी जारी रखना चाहती है । अर्पिता को अपने निर्णय से अवगत कराते हुये उसने एडवांस देकर वह कमरा फाइनल कर लिया ।

दूसरे दिन पूजा ने होस्टल में शिफ्ट कर लिया था । जब वह अपना सामान लगाने लगी तो अनायास ही उसे नीलू दादी याद आने लगीं  । जब वह उनके घर शिफ्ट कर रही थी तब उन्होंने कितनी आत्मीयता से उसे नाश्ता कराया था । उनके हाथ की बनी मक्के की रोटी और सरसों के साग का जायका तो वह कभी भूल ही नहीं पायेगी । आज अगर वह इस मुकाम पर पहुँची है तो सिर्फ उनके ही कारण...अगर उसे उनका साथ और सहयोग नहीं मिला होता तो वह वहीं होती । 

एम.बी.ए. करते हुये जब उसने उन्हें सिविल सर्विस में जाने की अपनी इच्छा जताई थी तो उन्होंने कहा था कि तेरे दादाजी डिप्टी कलेक्टर थे । वे चाहते थे कि उनके बेटे उनसे आगे बढकर कलेक्टर बनें...पर दोनों में से किसी ने भी सिविल सर्विस को नहीं चुना । उन दोनों ने इंजीनियरिंग को ही अपना कैरियर बनाया । हमने भी उनकी खुशी में ही अपनी खुशी ढूँढ ली थी क्योंकि हमें लगता था कि जो बच्चा करना चाहता है वही उसे करने देना चाहिये वरना दो नावों पर सवार होकर वह न घर का रहता है और न घाट का । अपनी इसी मनःस्थिति के कारण मैंने शिखा को भी मुंबई जाकर अपना स्वप्न पूरा करने से नहीं रोका किन्तु भाग्य को कुछ और ही मंजूर था । योग्यता होते हुये भी उसे घोखा मिला । अगर तू यू.पी.एस.सी. का एक्जाम देना चाहती है तो अवश्य दे । मेरा आशीर्वाद तेरे साथ है । कम से कम तू ही अपने दादाजी का स्वप्न पूरा कर दे ।

कम से कम तू ही अपने दादाजी का स्वप्न पूरा कर दे, कहते हुए उनकी आँखों में एक अजीब सी चमक आई थी मानो वह दादाजी के साथ बात करने लगीं हों और सच जब वह यू.पी.एस.सी का एक्जाम दे रही थी तब नीलू दादी उसका ऐसे ख्याल रखती थीं जैसे माँ अपने बच्चे का ख्याल रखती है । समय पर नाश्ता, खाना, उसके बार-बार आग्रह करने के बावजूद वह उसे किचन में घुसने ही नहीं देती थीं । 

उसने पूर्वजन्म कभी माना ही नहीं था किन्तु नीलू दादी जी का अपने प्रति प्यार और लगाव देखकर न जाने क्यों उसे ऐसा लगने लगा था कि पूर्वजन्म अवश्य होता है । उन दोनों के बीच कहीं पूर्वजन्म का ही तो कोई संबंध नहीं है वरना एक अनजान से इतना लगाव...विश्वास । कभी वह यह भी सोचती कि कहीं अनजाने में वह उसमें अपनी पोती शिखा को तो उसमें नहीं ढूँढने लगीं हैं । 

सच ऐसा निःस्वार्थ प्यार सच्चे दिल वाले ही किसी को कर सकते हैं । ऐसे इंसान बिरले ही होते हैं । यद्यपि यू.पी.एस.सी. मैन का रिजल्ट दादी के सामने ही जनवरी में ही निकल गया था । दादी इस खबर को सुनकर बहुत प्रसन्न हुई थीं उसे ढेरों आशीर्वाद देते हुये इंटरव्यू में उसके सफल होने की कामना की थी किन्तु उसे अपने भाग्य पर विश्वास नहीं था । उसने सुना था कि बहुत से लोग मैन एक्जाम में सफल होने के बावजूद इंटरव्यू में सफल नहीं हो पाते । इंटरव्यू देने के कुछ ही कुछ ही दिनों पश्चात् ही उसे इस कंपनी में नौकरी की सूचना मिली । अनिश्चितता की स्थिति तथा दादी का जाना...उसने इस जॉब को ज्वाइन करना उचित समझा और वह यहाँ चली आई ।

सामान सेट करते-करते वह इतना थक गई थी कि उसका खाने का भी मन नहीं कर रहा था । वह कपड़े बदलकर रिलेक्स होने के लिये पलंग पर लेट गई किन्तु आज अतीत उसका पीछा ही नहीं छोड़ रहा था...अतीत से इंसान चाहे कितना ही भागने का प्रयत्न करे किन्तु भाग नहीं पाता है शायद यह अक्षरशः सत्य है...। वह फिर अतीत की यादों में खोने लगी…

उसे अपनी दादी, माँ-पिताजी और छोटा भाई विनय भी याद आने लगे । जब उसने घर छोड़ा था तब विनय  इंटर करने के साथ आई.आई.टी. की तैयारी कर रहा था । पता नहीं उसका क्या हुआ ? वह दादी को बहुत प्यार करती थी जिसके कारण दादी को भी उससे बहुत लगाव था । वह जब तक उनसे कहानी नहीं सुन लेती तब तक उसे नींद ही नहीं आती थी । वह उसे परियों वाली कहानी सुनातीं तो कभी राजा-रानी की । एक बार पाँचवीं कक्षा में उसके कम अंक आने पर पिताजी से डाँट रहे थे तो दादी ने उन्हें रोकते हुये कहा था…

‘ लल्ला, तू मेरी नन्हीं परी को मत डाँटा कर । कम नम्बर आ गये तो क्या हुआ...कौन सा इसे कलेक्टर बनना है । खेलने कूदने की उम्र है, पढ़ लेगी ।’

‘ अम्मा, ज्यादा सिर न चढ़ाओ इसे...पढ़ेगी, लिखेगी नहीं तो इसका विवाह ही नहीं होगा । आजकल तो सभी को अंग्रेजी पढ़ी लिखी लड़की चाहिये ।’

‘ तू विवाह की चिंता मत कर, अरे मेरी पूजा है ही इतनी खूबसूरत कि कोई भी इसका हाथ माँगकर ले जायेगा ।’ दादी ने उसे अपने अंक में भरते हुये कहा ।

‘ अम्मा, तुम बिगाड़ रही हो इसे...बाद में पछताओगी ।’ कहते हुये पापा चले गये थे ।

‘दादी, कलेक्टर कौन होता है ?’ पापा के जाने के पश्चात् उसने पूछा था ।

‘ कलेक्टर जिले का राजा होता है ।’

‘ आपकी कहानियों जैसा राजा ।’
‘ हाँ...।’

‘ मैं कलेक्टर बनूँगी ।’

‘ कलेक्टर...।’ दादी ने उसकी ओर आश्चर्य से देखा था ।

‘ हाँ दादी कलेक्टर...मैं कलेक्टर बनूँगी ।’

‘ तब तुझे बहुत पढ़ना पड़ेगा ।’ दादी ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुये कहा था ।

‘ मैं खूब पढूँगी दादी ।’

तभी से उसकी नन्हीं आँखों में एक स्वप्न तिर आया था । उसने इस स्वप्न को पाने के लिये मेहनत भी प्रारंभ कर दी थी । अब वह अपनी कक्षा में अव्वल आने लगी थी किन्तु जिन दादी के कारण उसने स्वप्न देखना प्रारंभ किया था उन्हीं दादी की बहन के लाये रिश्ते ने उसके स्वप्न को रौंद दिया था । 

मुझे विवाह नहीं करना है, अभी मुझे पढ़ना है, कहकर उसने विवाह से मना किया तब पापा ने कहा पढ़ाई तो विवाह के बाद भी कर सकती है पर इतना अच्छा घर वर बाद में नहीं मिलेगा । घर वालों की जिद के कारण विकास से विवाह ने उसके सुकुमार स्वप्नों को रोंद दिया था...। तब उसने सोचा था कि वह विवाह के बाद अपनी पढ़ाई पूरी करके अपने लिये एक छोटा सा आकाश ढूँढेगी किन्तु सासूमाँ के रूख के कारण पढ़ाई तो दूर जीवन ही दूभर हो गया था । विकास भी अपनी माँ  से कुछ कह नहीं पाते थे । उनकी इसी कमी ने उनके दाम्पत्य को छिन्न-भिन्न कर दिया था । उस समय उसकी उम्र ही मात्र चौबीस वर्ष थी । चौबीस वर्ष की उम्र में ही उसने स्वर्ग नर्क सब भोग लिये थे ।

फोन की घंटी ने उसके विचारश्रंखला को भंग कर दिया था…

‘ कहाँ हो, कैसी हो पूजा ? तुम्हारा फोन न आने से चिंता हो रही थी ।’ उसके फोन उठाते हुये दीपा ने कहा ।

‘ साॅरी दीपा, आकर आफिस ज्वाइन करना, घर ढूँढना...सच इतना व्यस्त हो गई कि बात ही नहीं कर पाई ।’

‘ समझती हूँ तेरी मजबूरी, नई जगह है, बस अपना ध्यान रखना । गुड लक ।’

‘ थैंक्स दीपा, सच आज मैं जिस मुकाम पर हूँ , तेरी वजह से ही हूँ  ।’

‘ चने के झाड़ पर मत चढ़ा । वैसे तो यह सफलता की एक सीढ़ी है । अभी तो तुझे ऐसी ही कई अन्य सीढ़ियाँ और चढ़नी हैं । वैसे मैं तो निमित्त मात्र हूँ अगर तूने मेहनत नहीं की होती तो कोई कुछ नहीं कर सकता था । ओ.के गुड नाइट, गुड लक ।’

दीपा ने फोन रख दिया था । सच दीपा नहीं होती तो वह जीवन के उस अंधकूप से कभी निकल ही नहीं पाती । घड़ी दस बजा रही थी । वह सोने की तैयारी करने लगी...।

दूसरे दिन से पूजा की ट्रेनिंग प्रारंभ हो गई । आफिस में सभी बेहद कोआपरेटिव थे । फर्क सिर्फ इतना था कि पवित्रा को छोड़कर सभी उससे अंग्रेजी में ही बात कर रहे थे । अंग्रेजी लिखने में तो उसका पूरा कमांड था किंतु बोलने की  इतनी आदत नहीं थी किन्तु धीरे-धीरे उसे भी आदत पड़ जायेगी, सोचकर वह पूरे मन से काम सीखने लगी । धीरे-धीरे उसे स्वतंत्र रूप काम दिया जाने लगा । उसके काम करने के तरीके से सेल्स मैनेजर अमित काफी खुश थे ।

उसका प्रोबेशन पीरियड चल रहा था । अनिश्चितता का दौर समाप्त करने तथा जीवन में स्थायित्व लाने के लिये  वह पूरे आत्मविश्वास से अपना काम करने लगी । सब कुछ ठीक-ठाक था बस स्थानीय लोगों से बात करने में भाषा की समस्या हो रही थी । इंडस्ट्रियल हब होने के कारण बैंगलोर में बहुत सारे उत्तर भारतीय लोग बस गये हैं जिसकी वजह से हिन्दी अब अस्पृश्य भी नहीं रही है पर हिन्दी विरोध के कारण स्थानीय लोग थोड़ी-थोड़ी हिन्दी जानते हुये भी बोलना नहीं चाहते जबकि हिन्दी मूवी या गाने वे बड़े चाव से देखते और सुनते हैं ।

मकरसंक्राति पर उसकी मित्र सीमा ने अपने घर में हल्दी कुंकुम का आयोजन किया था । वह गई थी । टीका लगाते हुये उसने एक छोटा सा गिफ्ट दिया था । यह केवल स्त्रियों का ही त्यौहार होता है । इसमें तिल का महत्व है । नाश्ते की प्लेट में तिल का लड्डू देखकर उसे लगा यूं ही नहीं कहा जाता कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक हम एक हैं । सच त्यौहारों का नाम कुछ भी हो पर खानपान परम्परायें एक ही हैं ।

होली आने वाली थी किन्तु उसके आफिस में छुट्टी ही नहीं थी । पवित्रा ने बताया यहाँ होली का त्यौहार नहीं मनाया जाता । वैसे भी होली खेलना उसे कभी अच्छा नहीं लगा था । पहले रंग लगाओ, लगवाओ फिर छुड़ाओ । हाँ इस अवसर पर बनती गुझिया के लिये वह त्यौहार का इंतजार करती थी । होली के कुछ ही दिन बाकी थे कि अचानक कोरोना नामक वायरस ने दुनिया में तहलका मचा दिया । चीन से निकला यह वायरस पूरी दुनिया को दबोचने के लिये बेकरार था । 

तेइस मार्च को एक दिन के कर्फ्यू के बाद इस वायरस से बचने के लिये अंततः पच्चीस मार्च को लॉक डाउन लगा दिया गया । भागती दौड़ती दुनिया एकाएक ठहर गई । ट्रेन , बस, हवाई सेवायें सब बंद हो गईं । जो जहाँ है, वहीं रहे का प्रधानमंत्री ने आग्रह किया था । कुछ लड़कियाँ तो लॉकडाउन की आशंका से चौबीस मार्च को ही जो भी साधन मिला उससे घर चली गईं । होस्टल में सिर्फ चार लड़कियाँ रह गईं थीं ...दिव्या, आएशा और शेफाली  ।

 दिव्या और शेफाली कन्नड़ थीं जबकि आयशा मुस्लिम  पर कर्नाटक में रहने के कारण वह भी कन्नड अच्छा बोल लेती थी । कार्य व्यस्तता के कारण उनसे उसकी बेहद कम बात होती थी । लॉकडाउन के कारण कुक ने भी आना बंद कर दिया । रेस्टोरेंट वगैरह सब बंद ही थे । तीनों लड़कियाँ परेशान थीं अब क्या कैसे होगा ? पूजा को काम करने की आदत थी । उनकी परेशानी देखकर वह किचन में गई देखा फ्रिज में फूलगोभी, गाजर, शिमला मिर्च रखी है । एक कोने में रखी ट्रॉली में आलू प्याज भी हैं । तेल मसाले भी उसने ढूँढ लिये । उसने गोभी निकाली, उसे अच्छे से धोकर छौंक दी तथा आटा मलने लगी । किचन में आवाज आते देखकर वे तीनों आईं उसे देखकर बोलीं…

‘ आप हैं, हमें लगा कुक आ गया ।’ दिव्या ने कहा ।

‘ कुक तो लॉकडाउन में आयेगा नहीं, मैंने सब्जी छौंक दी है । परांठे खाओगी या रोटी ।’

‘ आप हमारे लिये भी बनायेंगी  !!’ आएशा ने कहा ।

‘ हाँ क्यों नहीं, तुम भी तो मेरी बहन जैसी ही हो । ’

उस दिन उन तीनों ने खूब स्वाद लेकर सब्जी परांठे खाये । पहले खिंची-खिंची रहने वाली दिव्या, आएशा और शेफाली अब जब भी वह किचन में जाती, वे भी आ जातीं तथा मिल बाँटकर काम करतीं । भाषा की समस्या थी पर अंग्रेजी से काम चल ही जाता है । वैसे वह उनके साथ रहते-रहते कन्नड़ के कुछ शब्द समझने लगी थी । सब्जी, चावल खत्म होने वाले थे उन चारों ने मिलकर लिस्ट बनाई तथा ऑडर कर दिया । सबसे अच्छी बात यह थी कि लॉकडाउन में भी रोज की आवश्यकता की सारी चीजें मिल रही थीं ।

इसी बीच वर्क फ्राम होम का आदेश आ गया । काम से जब अवकाश मिलता तब खाना बनाते खाते । जिंदगी चल रही थी । बीमारी का प्रकोप शांत होने का नाम ही नहीं ले रहा था इसलिये लॉकडाउन दो, तीन, चार भी लगाने पड़े । लोग घरों में बंद थे जबकि प्रकृति उन्मुक्त होकर मुस्करा रही थी...प्रदूषण कम हो रहा था ।

कोविड 19 से लड़ने की तैयारी करने के साथ आखिर एक जून को कुछ छूट के साथ अनलॉक एक की घोषणा हुई । जान है तो जहान है की उद्घोषणा के साथ बाहर निकलने से पूर्व मास्क लगाना आवश्यक कर दिया गया । बार-बार साबुन से बीस सेकेंड तक हाथ धोने के साथ अल्कोहल बेस्ड सेनीटाइजर का प्रयोग करने के लिये कहा गया । 

जून के बाद अगस्त भी आ गया किन्तु कोरोना वायरस का कहर बढ़ता ही जा रहा था । हालत यह थी कि इंसान, इंसान से ही डरने लगा था । कुछ लोग इसे सहजता से ले रहे थे तो कुछ अवसाद में जा रहे थे ।

‘ क्या अब हमें ऐसे ही मास्क लगाकर घूमना पड़ेगा । मैं तो तंग आ गई हूँ बार-बार हाथ धोकर...। बाहर से कोई सामान आये तो उसे सैनीटाइज करो । ऐसा करते-करते तो इंसान पागल हो जायेगा । मुझे तो डर है कहीं में ओ.एस.डी. का शिकार न हो जाऊँ ।’ एक दिन शैफाली ने बाहर से आये सामान को सैनीटाइज करते हुये कहा ।

‘ ओ.एस.डी. क्या होता है ?’ आएशा ने कहा ।

‘ ओबेसिव काम्लसिव डिस्आर्डर एक तरह की बीमारी है जिसमें इंसान बार-बार एक ही काम करता रहता है । जैसे बार-बार हाथ धोना या यह सोचना मैंने यह काम किया या नहीं । कहीं ऐसा तो नहीं हो गया या ऐसा न करने से कुछ गलत तो नहीं होगा ।’ शैफाली ने कहा ।

‘ अरे, ऐसा कुछ नहीं होगा । हम स्वच्छता की ओर कम ध्यान देने लगे थे इसलिये प्रकृति ने हमें सबक सिखाने के लिये ऐसा किया है ।’ दिव्या ने दार्शनिक अंदाज में कहा ।

‘ कैसे...?’ आएशा ने पूछा ।

‘ बाहर से आकर हाथ न धोना । रेस्टोरेंट में भी बस ऐसे ही पेपर नैपकिन से पोंछकर खा लेना । प्लास्टिक का ज्यादा प्रयोग कर इधर-उधर फेंकना । हालत यह हो गई है कि जिस इंसान ने धरती को गंदगी से पाटा वहीं इंसान खुद को ढके-ढके घूम रहा है ।’ दिव्या ने कहा ।

‘ खाना तैयार है । अभी खाओगे या थोड़ी देर में ।’ पूजा ने अपना मोबाइल आफ कर उनके पास आकर पूछा ।़
 
‘ दीदी, आपने खाना बना भी लिया । ’

‘ हाँ, आज मेरा नौ बजे से कॉल था अतः मैंने सुबह उठकर ही बना दिया था । अभी दो बजे से फिर मेरा कॉल है । रोटी या चावल जो भी खाओगी बना दूँगी।’

‘ दीदी, आप इतना व्यस्त रहतीं हैं फिर भी हमारे लिये चिंतित रहती हैं । जबकि हम यूँ ही बैठे उल्टा-सीधा सोचते रहते हैं । ’

‘ अरे, ऐसा क्यों सोचती हो ? तुम तीनों मेरी अपनी हो, तुम्हारे लिये कुछ करके मुझे अच्छा लगता है । जहाँ तक खाली रहने का प्रश्न है तो तुम सब मेरे साथ तो काम कराती ही हो । लॉकडाउन खत्म होते ही तुम लोग भी बिजी हो जाओगी ।’

‘ पता नहीं मॉल कब खुलेंगे । इस महीने तो मेरी सैलरी भी नहीं आई । पहले ही तीस प्रतिशत कि कटौती कर दी है । ’ दिव्या ने कहा । वह स्टोर मैनेजर थी ।

‘ मैं भी अपनी फैक्टरी खुलने का इंतजार कर रही हूँ । अभी तक तो सैलरी मिल रही है पर मेरी फ़ैक्टरी में भी मेरी कई मित्रों की छुट्टी हो गई है । मन में डर तो लगा ही रहता है । ’ शैफाली कहते हुये उदास थी । वह फ़ैक्टरी के वेलफेयर विभाग में थी ।

‘ अच्छा सोचो, अच्छा ही होगा । प्रसिध्द लेखिका रोड़ा बर्न ने अपनी पुस्तक ‘ द सीक्रेट ‘ में प्रतिपादित किया है  कि आकर्षण के नियम के अनुसार पसंद ही पसंद कॉ आकर्षित करती है अर्थात जैसा हम सोचते हैं वैसा ही हमारे साथ घटित होता है अगर हम अच्छा सोचते हैं तो हमारे साथ अच्छा होगा,अगर हम बुरा सोचेंगे तो बुरा होगा । अतः हमें मन कि नकारात्मकता को त्याग कर सकारात्मकता को अपनाना होगा तभी जीवन में सफलता प्राप्त कर सकते हैं ।'

‘  आप ठीक कह रहीं हैं दीदी । स्कूल कॉलेज नहीं खुलने वाले...अब ऑनलाइन पढ़ाई की व्यवस्था की जायेगी । मैं तो लॉक डाउन खुलते ही घर चली जाऊँगी । कम से अम्मा बाबा के पास तो रह पाऊँगी । ’ आएशा ने कहा ।

‘ घर से अच्छा तो कोई हो ही नहीं सकता । ‘ पूजा ने कहा । पर उसका तो कोई घर ही नहीं है ...अनचाहे ही पूजा के चेहरे पर उदासी आ गई ।

धीरे-धीरे उन तीनों में अनजाना रिश्ता कायम हो गया था । पहले अनलॉक डाउन 1 के बाद में लॉकडाउन 2 और 3 के साथ कुछ रियायतों के साथ कामकाज प्रारंभ हो गये थे । संयम और सुरक्षा के नियमों के साथ जिंदगी फिर चलने लगी थी किन्तु कोरोना के निरंतर बढ़ते केस डराने भी लगे थे ।  
 
फोन की लगातार बजती घंटी ने उसकी निद्रा को भंग कर दिया अलसाये स्वर में कहा, ‘हैलो...।’

‘ बहुत-बहुत बधाई पूजा ।’

‘ किस चीज की बधाई ।’

‘ पेपर नहीं देखा । आज यू.पी.एस.सी का रिजल्ट निकला है । अपने लखनऊ से सलेक्ट हुये चार कैंडीडेट में तेरा नाम पहले नम्बर है ।’

‘ क्या...?’ उसने आँख मलते हुये अविश्वास से कहा ।

‘ विश्वास न हो तो गुगुल पर सर्च कर रिजल्ट देख लो ।’ 
उसने गुगल में रिजल्ट सर्च किया । उसका रैंक 101 था । वह खुशी से फूली न समाई । उसने पुनः दीपा को फोन करके उसे धन्यवाद दिया । दीपा ने उससे आग्रह किया था कि लखनऊ आकर वह उसके पास ही रूकेगी । उसकी भी पिछले महीने ही लखनऊ विश्वविद्यालय में लेक्चरर पद पर नियुक्ति हुई थी ।

आज उसे अपनी दोनों दादियों की याद आ रही थी एक जिनसे उसका जन्म का रिश्ता था तथा दूसरी जो उसके कर्म के कारण बनी । एक ने उसके मन में स्वप्न जगाया तथा दूसरी वो जिन्होंने उसके इस स्वप्न को पूरा करने में सहयोग किया, उसका हौसला बढ़ाया । काश ! वह उन दोनों के साथ अपनी खुशी शेयर कर पाती...वे दोनों ही दादी उसे छोड़कर चली गईं थीं...।   

अचानक मन में एक टीस उठी ...एक अन्य दादी के चेहरे के साथ उसे अपनी नन्हीं आकांक्षा याद आई जो अपनी दादी के कारण, उचित मेडिकल सहायता न मिलने के कारण असमय ही कालकवलित हो गई थी । उससे अधिक अमानवीय चेहरा तब नजर आया जब वह बेटी के दुख से उबर ही नहीं पाई थी कि उन्होंने फरमान सुना दिया कि अगली बार तूने बेटा नहीं दिया तो मैं अपने बेटे का दूसरा विवाह कर दूँगी ।  

क्या स्त्री होकर भी वह स्त्री के बाल रूप को सहन नहीं कर पा रही थीं ? इसीलिए उन्होंने आकांक्षा को डॉक्टर को दिखाने से मना कर दिया था । यह कैसी सोच है स्त्री की स्त्री के प्रति...अगर स्त्री को जन्मने ही नहीं देंगे तो यह सृष्टि कैसे चलेगी…? एक स्त्री, स्त्री के प्रति  इतनी भी निर्दयी हो सकती है वह सोच भी नहीं सकती थी । अगर उस समय उसने साहस नहीं दिखाया होता या निर्णय नहीं लिया होता तो वह आज भी उसी नर्क में जी रही होती ।। जो होता है अच्छे के लिए होता है...इस सर्वमान्य तथ्य का मनन करते हुए उसने जीवन के इस कटु अध्याय को बंद करने की कोशिश की।

यद्यपि दीपा ने उसे बता दिया था, उसने भी गुगल में सर्च कर दीपा की बात की सच्चाई जान ली थी किन्तु जब तक उसे नियुक्ति का पत्र नहीं मिल जाता तब तक मन में संशय के बादल मंडराते ही रहे । इसलिये उसने अपनी सफलता के बारे में किसी को कुछ नहीं बताया । 

अंततः उसे नियुक्ति पत्र मिल ही गया । उसकी इच्छानुसार उसे यू.पी. कैडर मिला था । कुछ औपचारिकतायें पूरी करने के पश्चात उसे फाउन्डेशन कोर्स के लिये लालबहादुर शास्त्री नेशनल एकेडमी आफ एडमिनिस्ट्रेशन में रजिस्ट्रेशन कराना था ।

     नियुक्ति पत्र मिलते ही उसने नौकरी से रिजाइन करने का संदेश आफिस मेल कर दिया । उसके अनायास इस्तीफे की बात सुनकर सब चौंक गये । जब उसने अपने यू.पी.एस.सी. में सलेक्शन की सूचना उन्हें दी तो एकाएक उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि सामान्य कद काठी की यह लड़की देश की सर्वोच्च परीक्षा में सफल होकर अपनी श्रेष्ठता का झंडा गाढ़ सकती है । यही मत उसकी हाॅस्टल में रहने वाली सखियों का था । आयशा तो घर चली गई थी किन्तु शैफाली और दिव्या ने उस दिन अपने हाथों से खाना बनाकर उसे खिलाया था ।

आखिर वह दिन भी आ गया जब उसे आफिस से रिलीव लेटर मिला । सभी ने उसको दिल खोलकर बधाई ही नहीं दी वरन् अमित सर ने उसके सम्मान में अपने घर डिनर का भी आयोजन किया क्योंकि कोरोना काल में रेस्टोरेंट में खाना सेफ नहीं था । उन्होंने अपने डिपार्टमेंट वालों को पार्टी में बुलाया था । अमित की पत्नी पल्लवी बड़ी ही सुलझी महिला थीं उन्होंने बहुत ही अच्छी तरह से इस आयोजन को अंजाम दिया था तथा विदाई के समय अपनी तरफ से एक छोटी सी गिफ्ट देते हुये कहा था…

‘ अमित आपकी काफी प्रशंसा करते हैं । जब कभी आप बैंगलोर आयें तब हम सबसे अवश्य मिलियेगा ।’

‘ जी अवश्य...।’उसने भी गर्मजोशी से कहा था ।

ऐसे ही कुछ उद्गार उसके अन्य मित्रों ने प्रकट किये थे । कुछ ही दिनों में उन सबसे एक अनजाना रिश्ता कायम हो गया था । अजीब इंसानी जिंदगी है...रेल की पटरी पर दौड़ते सरपट डिब्बों की तरह...जिसका कोई ओर-छोर नहीं...कब किससे मिलना है कब किससे बिछड़ना है कुछ पता नहीं...बस दौड़ते जाना है । रेस के घोड़े की तरह इस दौड़ती जिंदगी में कभी अच्छे लोग मिलकर जीवन को खुशनुमा बना देते हैं तो कभी जीवन को बदरंग कर देते हैं लेकिन इंसान है कि बिना थके,बिना रूके तब तक चलता जाता है जब तक कि उसे दो गज जमीन नसीब नहीं होती ।

जब वह लखनऊ के चौधरी चरणसिंह एअरपोर्ट से बाहर आई तो उसे उसकी सखी दीपा दिखाई नहीं दी । उसके मना करने के बावजूद वह उसे लेने आने वाली थी । उसने उसे फोन किया तो उसने अपने खड़े हो के के स्थान को बताते हुए हाथ हिलाया । वह गेट के सामने ही खड़ी थी किन्तु मुँह में मास्क लगे होने के कारण वे दोनों एक दूसरे को पहचान ही नहीं पा रही थीं ।  वह दीपा के पास पहुँची । दीपा को देखकर मन किया कि वह उसके गले से लिपट जाये किन्तु तभी दो गज की दूरी का नियम याद आया । सच इस कोरोना ने अपनों के बीच भी एक लक्ष्मण रेखा खींच दी है । जान है तो जहान है के मूलमंत्र को अपनाते हुये दूर से ही दोनों ने एक दूसरे को हैलो कहा ।

दीपा अपनी गाड़ी से आई थी । उसने सामान डिक्की में रखा तथा उसे पिछली सीट पर बैठने का निर्देश दिया । गाड़ी में बैठते ही उसने स्वयं सैनिटाइजर उसे किया तथा उसे भी दिया । वह स्वयं ड्राइव कर रही थी । उसके अंग-अंग से प्रसन्नता झलक रही थी । वह उसकी सफलता पर बेहद खुश थी ।

‘ अगर यह कोरोना नहीं होता आज मैं तुझे ‘ बारबीक्यू नेशन ’ में ट्रीट देती ।’

‘ चल ट्रीट बाद में दे देना, अभी तो मुझे अपने हाथ के बने लच्छा परांठा ही खिला दे । बहुत भूख लगी है । ’

‘ नाश्ता नहीं किया ।’

‘ दिव्या और शैफाली ने सैंडविच बनाकर खिला दिये थे पर तेरे हाथों के लच्छे परांठे की बात ही कुछ और है ।’

दीपा को उसकी एक-एक बात पता थी अतः उसने दिव्या और शैफाली के बारे में नहीं पूछा । दोनों हँसी मजाक करती रहीं । गोमती नगर के विशाल खंड की एक बिल्डिंग के सामने जब उसने गाड़ी रोकी तो पूजा ने कहा, ‘ यहाँ से तो यूनीवर्सिटी दूर पड़ती होगी ।’

‘ हाँ दूर तो है पर यह मेरी मौसी का घर है, मौसाजी का तबादला हो गया । घर खाली था अतः मौसाजी ने मुझसे आग्रह किया कि मैं यहाँ रहूँ । वैसे भी अभी तो ऑनलाइन क्लास ही चल रही हैं । मैं यहाँ रहूँ या कहीं और ।’

‘ चलो अच्छा है...।’

दो बैडरूम का अच्छा घर लगा । कोलोनी भी अच्छी थी । मार्केट भी पास था ।

‘ अच्छा तू फ्रेश हो ले तब तक मैं तेरे लिये खाने का इंतजाम करती हूँ ।’

‘ ओ.के. ।’ कहकर वह बाथरूम में घुस गई ।

जब वह फ्रेश होकर आई तो दीपा ने उसके सामने एक भूरे रंग का पेय परोस दिया ।

‘ यह क्या है ?’

‘ इम्यूनिटी बूस्टर...। इस वायरस को मात देनी है तो हमें अपनी इम्यूनिटी बढ़ानी पड़ेगी ।’

‘ तू सच कह रही है ।’

दीपा को किचन में काम करते देखकर वह भी किचन में जाने लगी तो दीपा ने उसे रोकते हुये अपने चिरपरिचित अंदाज में कहा,‘ कल से करा लेना, आज मुझे बनाने दे । वैसे भी तुझे मेरे हाथ से बने लच्छा परांठा खाना है तो बेकार गर्मी में क्यों खड़ी है । बस पाँच मिनट में हाजिर है तेरा ऑडर ।’

पूजा किचन के सामने ही पड़ी डायनिंग टेबिल की चेयर पर बैठ गई । ओपेन किचन था अतः वह दीपा को देख और बातें भी कर पा रही थी । उसने दीपा का दिया इम्यूनिटिनी बूस्टर खत्म ही किया था कि दीपा ने उसके सामने परांठे के साथ चाय रखते हुये कहा,‘ मुझे पता है बिना चाय के तेरे गले से परांठा नहीं उतरेगा । तू खाना प्रारंभ कर, मैं अपने लिये बनाकर आती हूँ ।’

‘ कब ज्वाइन करना है ?’ दीपा ने अपनी प्लेट लेकर उसके सामने बैठते हुये कहा ।

‘ यही पंद्रह दिन पश्चात् । इस बीच कुछ आवश्यक औपचारिकताएं पूरी करनी हैं ।’

‘ ओ.के. । एक बात कहूँ ।’

‘ अरे, यह भी कोई पूछने की बात है । दोस्तों के बीच यह कैसा दुराव ? एक नहीं सौ बात पूछ ।’

‘ क्या तू अपने माता-पिता...मेरा मतलब है आंटी, अंकल को माफ नहीं कर सकती ?’

‘ माफ और मैं...मैंने तो उनसे कभी दूरी नहीं बनाई । उन्होंने ही मुझे अपने जीवन से उस समय निकाला था जब मुझे उनकी बहुत आवश्यकता थी । मुझसे गुस्सा वे हैं मैं नहीं...।’ कहते हुये पूजा की आँखों में आँसू आ गये ।

‘ जो बीत गया, उसे तो लौटाया नहीं जा सकता किन्तु उसका परिमार्जन तो किया ही जा सकता है । क्रोध में वह भले ही तुझे भला बुरा कह गये हों पर उन्होंने तुझसे कभी दूरी नहीं बनाई । वह मेरे द्वारा तेरी पल-पल की खबर रखते रहे , तेरी हर सफलता पर खुश होते रहे किन्तु अपराधबोध के कारण तुझसे बात नहीं कर पा रहे थे । अगर तू उनसे बात कर ले तो...।’

पूजा को चुप देखकर दीपा ने कुछ नहीं कहा । दूसरे दिन से वह ज्वाइन करने से पहले की जाने वाली अपनी कुछ औपचारिकताओं को पूरा करने में लग गई । 

जाने के दो दिन बचे थे । पिछले कुछ दिनों से मन में अजीब सी कशमकश चल रही थी । दीपा सच ही तो कह रही है, अपने माता-पिता से बात करके वह अपने और मन का बोझ हल्का क्यों नहीं कर देती । उस समय उन्होंने जो कहा था वह शायद उनकी दृष्टि से सही था...आखिर हमारे भारतीय समाज में औरत की यही तो नियति है !! सारे आरोप प्रत्यारोप सहकर भी  परिवार वालों की सेवा को अपना कर्तव्य समझकर जीवन गुजार देना । समय बदल रहा है और समय के साथ सोच और मान्यतायें भी...। आज स्त्री अपने कर्तव्यों के साथ अधिकारों के लिये भी सजग है । वह अन्चाही बेड़ियों में जकड़कर जीवन जाया नहीं करना चाहती । आज वह बेड़ियों को तोड़ना और अपने हिस्से का आकाश पाने के लिये सजग ही नहीं प्रयत्नशील भी है । 

माता-पिता के पास जाने का अब समय नहीं रहा है । उसने सोचा कि वह दीपा से उनका नम्बर पूछकर, वीडियो कालिंग कर उनसे आशीर्वाद लेकर ही अपने नई नौकरी पर जायेगी । दीपा को जब उसने अपना मंतव्य सुनाया तो वह खुशी से फूली न समाई । उसने स्वयं उन्हें फोन लगाया तथा कहा…

‘ अंकल देखिये तो आपसे कौन बात करना चाहता है ?’

‘ कौन...क्या पूजा है ?’ अचानक पापा ने कहा ।

‘ हाँ अंकल, लीजिये, बात करिये ।’ कहते हुये उसने फोन पूजा को पकड़ा दिया ।

पापा-माँ उसको देखकर रोने लगे । बार-बार यही कहते रहे...बेटा हमने तेरे साथ बहुत अन्याय किया है । उस समय वह भी अपने आँसू नहीं रोक पाई थी । थोड़ा प्रकृस्थ होने पर उसने कहा,‘ माँ पापा मुझे आपका आशीर्वाद चाहिये ।’

‘ बेटा, हमारा आशीर्वाद सदा तेरे साथ है । तू सदा सफल हो ।’

माँ पापा से बात करके वर्षो का मैल साफ हो गया था । सबसे ज्यादा खुशी तो उसे यह जानकर हुई कि उसका भाई विनय दिल्ली आई.आई.टी. से बी.टेक कर रहा है । अगली बार उसने उनसे मिलने का वायदा किया ।

आखिर वह दिन आ गया जब पूजा को मसूरी जाना था । दीपा से विदा लेते हुये उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह उसे कैसे धन्यवाद दे । डेढ घंटे की फ्लाइट के पश्चात् वह देहरादून के जोली ग्रांट हवाई अड्डे पर उतरी । देहरादून से मसूरी जाते हुये चारों ओर फैले प्राकृतिक सौन्दर्य को देखकर वह अभिभूत थी । जब ड्राइवर ने उसके गंतव्य स्थल के प्रांगड़ में गाड़ी रोकी तब एकाएक वह नींद से जागी ।  एक डेढ़ घंटे का समय कैसे बीत गया पता ही नहीं चला । सच प्रकृति के सानिध्य में जितना सुकून है, उतना कहीं और नहीं...। 

गाड़ी से उतरकर उसने जैसे ही लालबहादुर शास्त्री नेशनल एकेडमी आफ एडमिनिस्ट्रेशन में कदम रखा तो उसे लगा कि एक नया संसार उसका स्वागत कर रहा है । उसने आत्मविश्वास से अपने कदम बढ़ाये । आज उसे अपने हिस्से का आकाश मिल ही गया था ।

समाप्त

सुधा आदेश