Saturday, May 30, 2020

बुत

बुत

झूठ की दलहीज पर बना
कैसा है यह नगर,
चेहरे भी आते ही नहीं नजर
कैसी है यह डगर ।

ईंट पत्थरों की चोटों से
बन चुका है 
हर एक चेहरा बूत
मानवता भी कहीं 
आती नहीं नजर
कैसा है यह मंजर ।

स्पंदन हृदय का
खो गया है कहीं
ईमान लोगों का 
सो गया है कहीं
इतने बड़े शहर में
अपना भी कोई 
आता नहीं नजर
सच्चाई है या भ्रम ।

यह आवाज कहाँ से आई
अलबेली मस्त पवन
पैगाम किसका लाई ,
अजनबी से इस शहर में
किसको आज 
याद हमारी आई !

लाभ-हानि पाप-पुण्य के
झमेले में तुम कैसे फँस गये
पाषाण थे तुम
हांड मांस के शरीर 
कैसे बन गए !

यह शोर-शराबा किसलिये
यह खून-खराबा किसलिये
अपनों से ही व्यर्थ 
दिखावा किसलिये !

घावों को कुरेद-कुरेदकर
खोखली हँसी को
जीवंत बनाने का प्रयत्न
अब रहने दो
बुत बन चुके हैं
बुत ही रहने दो ।

सुधा आदेश

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