बोई थी मैंने फसल
प्यार की,विश्वास की,
उमंग की,उत्साह की,
अपनत्व की,सहयोग की...
कोपलें फूटी भी न थीं
कि कुछ सिरफिरों ने
काट डाली और बो दी...
फसल नफरत की,
ईर्ष्या,द्वेष की,
वेमनस्य की, क्रोध की,
बदले की,जहर की...।
पर भूल गये
नफरत को नफरत के
जल से नहीं,
प्यार के जल से सींचा जाता है...।
अगर ऐसा न होता तो
न यह जमीं होती
न ही यह अलौकिक सौन्दर्य,
न ही हम और तुम...।
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