Monday, March 2, 2020

मन की बात

मन की बात हमारा देश प्राचीन विराट सांस्कृतिक विरासत एवं परंपराओं वाला देश है । इस देश में कण-कण में भगवान व्याप्त हैं , की मात्र अवधारणा ही नहीं है , पूजने की परंपरा भी रही है । जहाँ हमारे शास्त्रों में पुरुष रूप में ब्रह्मा, विष्णु ,महेश पूजनीय हैं वहीं स्त्री रूप में लक्ष्मी , सरस्वती और दुर्गा भी है । पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव में पिछले कुछ वर्षों से हमारी युवा पीढ़ी दिग्भ्रमित होती जा रही है । वह अपनी प्राचीन परंपराओं को अक्षुण्ण रखने की बजाय उन्हें तोड़ने पर आमदा है । वह भूल रही है कि किसी देश की पहचान उसकी सांस्कृतिक धरोहरों से होती है जब धरोहरें ही नहीं रहीं तो देश कहाँ बचेगा !! जिस देश में रानी लक्ष्मीबाई ,अहिल्याबाई होलकर जैसी वीरांगनायें, इंदिरा गांधी ,सुचेता कृपलानी, सुषमा स्वराज जैसी राजनीतिज्ञ, अरुंधति राय, किरण बेदी, चंद्रा कोचर इंदिरा नूई जैसी प्रशासनिक, कल्पना चावला ,सुनीता विलियम जैसी भारतीय मूल की अंतरिक्ष यात्री, पी.टी. ऊषा , मैरी कॉम, पी.वी. सिंधु जैसी अनेक खिलाड़ी तथा लोपामुद्रा , गार्गी जैसी अनेक विदुषियां हुई हैं, उस देश में 'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ ' जैसा नारा जहाँ आश्चर्यचकित करता है वही मन को दुखी भी कर देता है । यह जानते हुए भी कि नारी हमारी सृष्टि की अनुपम कृति है ,वह जीवनदायिनी है... उसके बिना संसार संभव ही नहीं है । हम क्यों नहीं उसके हृदय के कोमल तन्तुओं को समझ पाते ? क्यों सदा उसे उपभोग की वस्तु समझते रहे ? जब चाहा उसे सीने से लगा लिया जब चाहा बेरहमी से उसकी भावनाओं को कुचल दिया । शायद कोई भी इस प्रश्न का उत्तर ना दे पाए कि हमारी मानसिकता में बदलाव कब क्यों और कैसे आया । माना समाज के कुछ लोग पूरे समाज का दर्पण नहीं हुआ करते पर यह भी सच है कि आज नकारात्मक विचार ही पूरे समाज में हावी है । तीन चार वर्ष की बच्ची से लेकर सत्तर वर्ष की स्त्री भी इन नर पिचाशों की हवस से बच नहीं पा रही हैं । पुरुषों के सौ गुनाह भी माफ है ...समाज में प्रचलित इस उक्ति के कारण पुरूष तो घिनोना से घिनोना काम करके भी बच निकलता है पर स्त्री को संपूर्ण जीवन अनकिए अपराध की सजा भुगतनी पड़ती है । समाज भी स्त्री को ही दोषी ठहराता है ...मसलन अकेली क्यों जा रही थी ? अब स्त्रियां ही अपने हाव-भावों से पुरुषो को निमंत्रण दे तो पुरुष बेचारा क्या करे ? ना जाने कितनी ही बेसिर पैर की बातें और दलीलें ...। आखिर ऐसा क्यों ? क्या इस संसार में पुरुषों को ही अपनी इच्छा अनुसार जीने का हक है ,स्त्रियों को नहीं ? आखिर यह कैसी सामाजिक व्यवस्था है जिसमें स्त्री -पुरुष को एक ही गाड़ी के दो पहिए कहने के बावजूद , उनमें भेद किया जाता है । लड़के के होने पर खुशियां तथा लड़की के होने पर मातम मनाया जाता है । इन सब बातों के लिए सिर्फ समाज को या पुरुषों को दोष देने से काम नहीं चलेगा ...कहीं ना कहीं इसके लिए स्त्रियां भी दोषी हैं । लड़कियों को तो वे हजार पहरे में रखती हैं । यह न करो , वह न करो की तमाम बंदिशें लगाती हैं जबकि लड़कों को वे खुली छूट देती हैं । लड़कों को वे मर्यादा में रहने और नैतिकता का पाठ पढ़ाने में चूक जाती हैं । अगर वे लड़के-लड़की में भेद करना बंद कर दें लड़कियों के साथ लड़कों को भी नैतिकता और सदाचार की उचित शिक्षा दें तो वह दिन दूर नहीं समाज की मानसिकता बदलने के साथ लड़कियों के प्रति कटुता अनाचार दुराचार की प्रवृत्ति में कमी आ जाये । इसके साथ ही युवावस्था में कदम रखती लड़कियों से विनम्र निवेदन है कि वह स्वयं को प्रदर्शन की वस्तु न बनायें । माना सौंदर्य व्यक्ति की खूबसूरती में चार चाँद लगाता है पर सुंदरता का भोंडा प्रदर्शन वितृष्णा ही पैदा करता है । प्रदर्शन करना है तो अपने आंतरिक सौंदर्य एवं अपने अंतर्निहित योग्यता का करें । स्वयं को इतना सबल एवं योग्य बनाए कि लोग आपकी योग्यता से प्रभावित होकर स्वयं आपकी प्रशंसा के लिए बाध्य हों । इसके साथ ही अपने आत्मसम्मान के साथ कभी समझौता ना करें । अगर कभी आपको ऐसा लगे कि आपका मानसिक या शारीरिक शोषण हो रहा है तो उसे चुपचाप सहन करने की बजाय उसके विरुद्ध आवाज़ उठायें ।। यह न भूलें कि जब तक आप स्वयं का सम्मान नहीं करेंगी , कोई दूसरा भी आपका सम्मान नहीं करेगा । नारी परिवार की धुरी है वह जैसा चाहे वैसे ही समाज का निर्माण कर सकती है । कहते हैं बच्चे का पहला शिक्षक माँ होती है । अगर शिक्षक की मानसिकता ही दोषपूर्ण भेदभाव वाली होगी तो बच्चे का स्वस्थ विकास नहीं हो पाएगा । बच्चा ही अगर प्रदूषित मानसिकता का होगा तो स्वस्थ समाज का निर्माण संभव ही नहीं है । जब तक समाज स्वस्थ नहीं होगा तब तक स्वस्थ देश की कल्पना अकल्पनीय ही होगी । अंत में इतना कह इतना ही कहना चाहूँगी अगर हम स्वयं की मानसिकता को बदलने में कामयाब हो पाए तो समाज स्वयं ही बदल जाएगा । लड़कियाँ भार नहीं उपहार हैं , सृष्टि की रचयिता घर की बहार हैं । मत कुचलो, समझो महत्व उनका तुम्हारा गुलशन इनसे ही गुलजार है…। मानो या न मानो जीत ही लेंगी जंग अपनी सामर्थ्य उनमें, आज नहीं वे लाचार हैं । सुधा आदेश

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