Thursday, July 8, 2021

कोरोना की दूसरी लहर : दोषी कौन ?

 कोरोना की दूसरी लहर :दोषी कौन ?


कोरोना महामारी ने सारा जन-जीवन अस्तव्यस्त कर दिया है । वैक्सीन के साथ मास्क, दो गज की दूरी तथा सेनिटाइजर आज उतने ही आवश्यक हो गए हैं जितनी जीने के लिए शुद्ध हवा या दूसरे शब्दों में आक्सीजन ।


दुख तो इस बात का है सब कुछ जानते हुए भी इंसान नासमझ बना हुआ है । जरा सी छूट मिलते ही वह ऐसा व्यवहार करने लगता है जैसे मास्क या दूरी उसके जीवन के लिए आवश्यक नहीं वरन बोझ हैं जो उस पर जबर्दस्ती थोपी जा रही हैं । अभी दूसरी लहर थमी भी नहीं है कि कुछ लोग कहने लगे हैं कि अभी कोरोना के केस कम हैं चलो कहीं घूम आते हैं । शायद पर्यटन स्थलों, बाजारों में लोगों की भीड़ इसी मानसिकता के परिणाम स्वरूप हैं । 


यद्यपि यह अभी तक सुनिश्चित नहीं हो सका है कि यह  वायरस आदमियों द्वारा निर्मित जैवीय हथियार है या मानव द्वारा  प्रकृति के दोहन से उत्पन्न जीवाणु...किन्तु रोकधाम के उपायों को ठेंगा दिखाता इंसान ही इस जीवाणु के बार-बार पनपने का दोषी है ।



सुधा आदेश




Friday, July 2, 2021

पापा की राजकुमारी

 



पापा की राजकुमारी


‘ कोई अपने पति की रानी बन पाये या न बन पाये पर हर लड़की अपने पिता की राजकुमारी अवश्य होती है ।’

पढ़ते ही नीरा की आँखों से बेताहशा आँसू बहने लगे...बहते आँसुओं को उसने रोकने की चेष्टा भी नहीं की, उन्हें बहने दिया...। हर बहते आँसू में उसे अपने पापा की यादें उभर कर उसे विचलित करने लगीं ...


उसके पिताश्री राजीव मेहरा को परलोक सिधारे लगभग एक वर्ष होने जा रहा है पर आज भी उसका प्रत्येक दिन उन्हीं से प्रारंभ होता है तथा उन्हीं के साथ अंत भी...अगर उनसे उसे प्यार और विश्वास नहीं मिला होता तो जिन हालातों से वह गुजरी पता नहीं उसका क्या होता...?


वह छोटी सी थी तभी उसे एहसास हो गया था कि वह अपनी माँ की आँख का तारा नहीं वरन् काँटा है । वह बार-बार उसकी तुलना उसकी बड़ी बहन नेहा से करती तथा कहतीं, ‘ काला रंग ऊपर से चपटी नाक, छोटी आँखे, पता नहीं क्या होगा इसका ? न जाने किसके ऊपर गई है । ’


                कच्ची उम्र में बच्चे को जब प्यार और ममता की सबसे अधिक आवश्यकता होती है, उस समय उसे उसकी कमियों की ओर इंगित कराया जाये तब उसके मनोबल पर तो प्रभाव पड़ेगा ही...। धीरे-धीरे वह अंतर्मुखी होती गई । वह न किसी से मिलती न ही किसी से बातें करती । इसका प्रभाव उसकी पढ़ाई पर भी पड़ने लगा । बुरा तो उसे तब लगता जब उसकी बड़ी बहन नेहा भी अपनी माँ की देखा देखी उसका मजाक बनाने लगती...।


       जब वह स्कूल जाने लायक हुई तब पापा ने उसका नाम उसी स्कूल में लिखवा दिया जिसमें नेहा पढ़ती थी । पापा ने जब नेहा को उसे अपने साथ स्कूल ले जाने के लिए नेहा से कहा तो उसने कहा, ‘ मैं इस काली कलूटी को अपने साथ नहीं ले जाऊँगी वरना मेरी सहेलियाँ मेरा मजाक बनायेंगी...।’


                ‘ क्या कह रही हो तुम, अपनी बहन के लिए तुम्हारे ऐसे विचार...शर्म आती है मुझे...।’ पापा ने नेहा कोे डाँटते हुए कहा था ।


                ‘ ठीक ही तो कह रही है नेहा । नीरा अभी छोटी है, नेहा नीरा को सँभाल नहीं पायेगी ? आप ही इसे छोड़ आया करियेगा...। अगले वर्ष से वह नेहा के साथ बस से चली जाया करेगी ।’ माँ ने नेहा का पक्ष लेते हुए कहा था ।


       यद्यपि वह उस समय बहुत छोटी थी पर फिर भी जाने अनजाने ऐसे वाक्य उसके जेहन में ऐसे बस गये थे कि चाहकर भी वह उनसे मुक्त नहीं हो पाई थी शायद इसका कारण इनका बार-बार दोहराब था...।


       पापा की बातों का माँ और नेहा पर जरा सा भी असर नहीं होता था । इतना अवश्य था कि पापा के सामने वे कुछ नहीं कहती थीं पर उनके जाते ही काम के अनगिनत बोझों के साथ तानों की बरसात प्रारंभ हो जाती...। वह चाहकर भी पापा से कुछ भी नहीं कह पाती थी । उसका बालमन भी यह बात समझ गया था कि अगर वह माँ की बातें पापा को बताएगी तो उनके मन में माँ के प्रति कटुता पैदा हो जायेगी । वह घर के वातावरण को अशांत नहीं करना चाहती थी । वह जानती थी कि माँ स्वयं को बदल नहीं सकतीं पापा से डांट खाकर उस समय वह भले ही चुप हो जायें पर बाद में तो उनका क्रोध उस पर ही निकलेगा । 


उसके चुप रहने के कारण माँ उसके प्रति और कटु होती गईं । एक बार काम पूरा न होने पर माँ ने उसे डाँटा ही नहीं मारा भी था वह उसे दिन माँ की डाँट और मार से बुरी तरह टूट गई थी । आफिस से आने पर पापा ने उसकी दशा देखी तो आते ही पूछ बैठे...माँ ने अपनी तरह से सफाई दी पर उस दिन एकांत पाते ही उसने पापा से पूछ ही लिया,‘ पापा, क्या मैं आपकी और माँ की ही बेटी हूँ  या आप मुझे कहीं से उठा लाये हैं ?’


                ‘ बेटा, ऐसा क्यों कह रही हो ?’


                ‘ फिर माँ मुझे दीदी की तरह प्यार क्यों नहीं करती, क्यों सदा मुझे डाँटती रहती है और आज जरा सी गलती करने पर मारा भी...।’


                ‘ बेटा, तू यह क्यों नहीं सोच लेती कि तेरी माँ ऐसी ही है । मुझसे एक वायदा कर कि तू पिछली सारी बातें भुलाकर पढ़ने में, सिर्फ पढ़ने में अपना मन लगायेगी । शिक्षा ही व्यक्ति के विकास में सहायक होता है...यह मत भूलना कि व्यक्ति शक्ल सूरत से नहीं, गुणों से महान बनता है । जिस दिन ऐसा होगा तेरी माँ तुझे खूब प्यार करेगी ।'


       अब वह नीरा को क्या बताते कि नेहा के पश्चात् उसकी माँ नीलम घर के वारिस के रूप में बेटा चाहती थीं पर बेटे की जगह बेटी को पाकर वह मायूस हो गई थी उस पर काला रंग...फिर भी विधि का विधान समझकर उसने उसे अपना लिया । दो वर्ष पश्चात् उसने पुत्र के लिये आग्रह किया तो उसने उसकी माँग को ठुकराते हुए कहा था, ‘ नीलम, मैं पुरानी मान्यताओं पर विश्वास नहीं करता...अगर उचित परवरिश और उचित माहौल मिले तो आज पुत्रियाँ पुत्रों से कम नहीं है...अतः मैं यही चाहूँगा कि  तुम इन्हें उचित संस्कार देकर जिम्मेदार नागरिक बनाओ ।’


       उनकी इस बात ने नीलम को विद्रोही बना दिया और अपना सारा आक्रोश वह नन्हीं नीरा पर निकालने लगी ।  उसे लगता था इसी के कारण उसकी इच्छा अधूरी रह गई...नीरा की उसे अवहेलना करते देखकर उन्हें दुख होता था पर चाहकर भी नीलम की इच्छा पूर्ण करने में असमर्थ थे क्योंकि उन्हें लगता था आज के मँहगाई के जमाने में दो की उचित परवरिश हो जाये, इतना ही काफी है वह तीसरा लाकर अपनी परेशानी नहीं बढ़ाना चाहते थे और अगर तीसरा भी पुत्री रूप में आ गया तब...इच्छा को तो कोई अंत ही नहीं है अतः जो प्राप्य है उसी में संतुष्ट होना क्या इंसान के लिये संभव नहीं है...कम से कम आज की घटना ने यह सिद्ध ही कर दिया था...इसी के साथ उन्होंने नीरा को बोर्डिग स्कूल में डालने का  निर्णय ले लिया । 

   

       जब नीरा को पता चला तो उसने विरोध किया क्योंकि उसे लगता था माँ तो माँ अब तो पापा भी उससे दूरी बनाना चाहते हैं तब उन्होंने उसे यह कहते हुए समझाया था,‘ बेटा, मैं तुझसे स्वयं को दूर नहीं कर रहा हूँ  वरन् तुझे इस कष्टदाई माहौल से निकाल रहा हूँ जिससे तू अपना सारा ध्यान पढ़ाई में लगा सवके...वैसे वहाँ तू अकेली कहाँ रहेगी वहाँ तेरी बहुत सारी मित्र होंगी और फिर मैं भी तुझसे मिलने आता रहूँगा ।’


                पापा की बात को आत्मसात कर उसने अपना पूरा ध्यान पढ़ने में लगा दिया...कहते हैं अच्छा हो या बुरा समय किसी के लिये नहीं रूकता...वह स्कूल से कालेज में आ गई...अच्छे अंक लाने के बावजूद माँ के ताने समाप्त नहीं हुए...अब उन्हें लगने लगा  कि अगर ज्यादा पढ़ गई तो उसके विवाह में और अधिक परेशानी होगी...अच्छा लड़का देखने के कारण दहेज की मांग बढ़ती जाएगी पर वह यह नहीं समझ पा रही थीं कि शिक्षा व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में बाधक नहीं वरन् सहायक हुआ करती है...।


       नेहा का पूरा समय अपनी माँ की शह पाकर पूरा समय सजने संवरने और घूमने में बीतने लगा...। पढ़ाई उसके लिये द्वितीय वरीयता थी...नतीजा हुआ मैट्रिक में उसका रिजल्ट अच्छा नहीं रहा जिसके कारण हायर सेकेन्डरी में उसे अच्छे कालेज में दाखिला नहीं मिल पाया...पापा तो निराश हुए ही पर माँ ने यह कहकर हौसला बढ़ाया कि कोई बात नहीं बेटा यही तो तेरी मंजिल नहीं है कौन सी तुझे नौकरी करनी है, तू तो है ही इतनी सुंदर कि कोई भी तुझे यूँ ही ब्याह ले जायेगा...।


माँ की बात सच ही निकली ...समय के साथ नेहा को एक खानदानी घर का एक अच्छा लड़का मिल ही गया । माँ-पापा ने उसका विवाह धूमधाम से कर दिया । 


नीरा भी अब पोस्टग्रेजुएशन कर डिग्री कालेज में सहायक अध्यापिका के पद पर काम करने लगी थी साथ ही डॉक्टरेट भी कर रही थी । माँ का अब उसके प्रति रवैया बदलने लगा था । माँ का अपने प्रति बदलता नजरिया देख उसे पापा की बात याद आती...शिक्षा ही व्यक्ति के विकास में सहायक होता है...यह मत भूलना कि व्यक्ति शक्ल सूरत से नहीं, गुणों से महान बनता है । जिस दिन ऐसा होगा तेरी माँ तुझे खूब प्यार करेगी ।


एक दिन माँ की तबियत खराब हो गई, उन्हें अस्पताल में दाखिल करवाया तो पता चला कि उन्हें  हार्ट अटैक है । नेहा आई पर अपने पारिवारिक दायित्वों के कारण रुक न सकी ।  आखिर माँ ठीक होकर घर आ गईं पर कमजोरी काफी थी इसलिये डॉक्टर ने उन्हें पूर्ण विश्राम की सलाह दी थी । कॉलेज के साथ माँ की देखभाल के भी सारा दायित्व नीरा ही निभा रही थी ।एक दिन वह माँ के कमरे खाना लेकर जा रही थी कि उनकी आवाज सुनाई दी, ' आपने मेरी बात नहीं मानी, अभी तो नीरा है उसके जाने के पश्चात बुढ़ापे में कौन हमारी देखभाल करेगा ।'


' अरे हम दोनों तो हैं न, एक दूसरे की देखभाल करने के लिए ...।'


' आखिर कब तक…?'


' जब तक सांस है तब तक...।'


' आप चिंता क्यों करते हैं, मैं हूँ न...। मैं आप दोनों को छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी ।'


उसी समय नीरा ने निश्चय कर लिया था कि वह विवाह नहीं करेगी । 


समय के साथ माँ-पापा उसके लिए लड़का देखने लगे किन्तु उसने मना कर दिया । माँ-पापा उसके निर्णय से खुश नहीं थे पर उसकी इच्छा के आगे मजबूर थे ।


माँ उसके इस निर्णय के लिए स्वयं को दोषी मानने लगीं थीं । एक दिन वह ऐसी सोई कि उठी ही नहीं । पापा बहुत अकेले हो गए थे किंतु अब उनकी एक ही रट रहती...तू विवाह कर ले बेटा, वरना मैं चैन से मर भी नहीं सकूँगा ।


आखिर उसे उनकी बात माननी पड़ी पर उसने कह दिया कि जिसके साथ मेरा विवाह होगा उसे मेरे साथ आपकी जिम्मेदारी भी उठानी होगी ।


पापा उसकी बात सुनकर हतप्रभ रह गए थे आखिर ऐसा लड़का कहाँ मिलेगा !! कई बसंत बीत गए । पापा की खोज जारी रही किन्तु कोई भी लड़का ऐसा नहीं मिला । उसकी पूर्णतया देखभाल करने के बावजूद पापा धीरे-धीरे कमजोर होते जा रहे थे वह समझ नहीं पा रही थी कि ऐसा क्यों हो रहा है । वह उन्हें चेकअप के लिए अस्पताल लेकर गई ...डॉक्टर चेक कर ही रहे थे कि पापा ने मन की बात कही, ' बेटा, मुझे कुछ नहीं हुआ है, अगर यह विवाह के लिए तैयार हो जाये तो मेरी सारी बीमारी दूर हो जाये पर यह मानती ही नहीं है, कहती है कि जो लड़का आपको रखने को तैयार होगा उसी से यह विवाह करेगी । '


' पापा, आप यहां स्वयं को दिखाने आये हैं न कि यह सब बातें कहने...।'


' कहने दीजिये मिस...।'


' जी नीरा...।'


' नीरा जी , आज बहुसंख्यक वृद्धों की यही समस्या है, आप लड़की हैं, इसलिए अपने पिता के बारे में इतना सोच रही हैं ।'


' आप चिंता न कीजिये, बाबूजी, आपकी बेटी को ऐसा लड़का मिल जाएगा । वैसे आपकी बेटी करती क्या हैं । '


' बेटा, मेरी बेटी डॉ नीरा डिग्री कॉलेज में प्रोफेसर है, बहुत होनहार और कर्तव्यपरायण है ।'


' वह तो मैं देख ही रहा हूँ ।' डॉ ने नीरा की ओर देखते हुए कहा ।


इसके साथ ही डॉ आशुतोष ने पर्चा लिखकर नीरा को देते हुए कहा, ' आपके पिताजी को कुछ नहीं हुआ है । थोड़ी कमजोरी है ,ये टॉनिक हैं, इन्हें देती रहिए , ठीक हो जाएंगे । अगर कुछ परेशानी हो तो फोन कर लीजिएगा । '


' जी...।' कहकर वे उठ गए ।


नीरा को पापा की बीमारी के सिलसिले में कई बार डॉ आशुतोष से मिलना हुआ ।


एक दिन वह क्लास लेकर आई ही थी कि डॉ आशुतोष को उसने इंतजार करते पाया । उन्होंने उससे कॉलेज की कैंटीन में चलने के लिए कहा । वह कॉफ़ी पी ही रहे थे कि डॉ आशुतोष ने उससे कहा, ' अगर आप मुझ पर विश्वास कर सकतीं हैं तो मैं आपकी शर्त के साथ सारी उम्र आपके साथ चलना चाहता हूँ । अगर आपकी इजाजत हो तो आपके घर जाकर आपके पिताजी से बात करूँ ।'


' आपके घर वाले…!!'


' मेरी माँ  बचपन में ही नहीं रहीं । पिताजी की अभी चार महीने पूर्व मृत्यु हो गई थी । तुम्हारे पापा को देखकर न जाने क्यों मुझे अपने पापा की याद आ जाती है...। ' कहते हुए उसने सिर झुका दिया था ।


' अरे कहाँ हो ? तैयार नहीं हुईं आज बाबूजी की बरसी है । अनाथाश्रम में बांटने के लिए फल, मिठाई लेकर आया हूँ । '


जैसे वह उस लीं डॉ आशुतोष के विवाह के प्रस्ताव पर चौंकी थी ठीक वैसे ही वह आज उनकी आवाज सुनकर अतीत से बाहर निकलते हुए चौंकी थी । यही तो वह भी चाहती थी पर पता नहीं क्यों कह नहीं पाई थी । उसने भरी आंखों से डॉ आशुतोष को देखा… पता नहीं क्यों उसे उन आंखों में पिताजी नजर आ रहे थे, वैसे ही केयरिंग न लविंग । 


सच पापा ने उसे राजकुमारी समझकर पाला ही नहीं, राजकुमारी जैसा जीवन भी दिया...शायद पाप की दुआओं का ही असर है कि उसे डॉ आशुतोष जैसा जीवन साथी मिला ।


सुधा आदेश