बुत
झूठ की दलहीज पर बना
कैसा है यह नगर,
चेहरे भी आते ही नहीं नजर
कैसी है यह डगर ।
ईंट पत्थरों की चोटों से
बन चुका है
हर एक चेहरा बूत
मानवता भी कहीं
आती नहीं नजर
कैसा है यह मंजर ।
स्पंदन हृदय का
खो गया है कहीं
ईमान लोगों का
सो गया है कहीं
इतने बड़े शहर में
अपना भी कोई
आता नहीं नजर
सच्चाई है या भ्रम ।
यह आवाज कहाँ से आई
अलबेली मस्त पवन
पैगाम किसका लाई ,
अजनबी से इस शहर में
किसको आज
याद हमारी आई !
लाभ-हानि पाप-पुण्य के
झमेले में तुम कैसे फँस गये
पाषाण थे तुम
हांड मांस के शरीर
कैसे बन गए !
यह शोर-शराबा किसलिये
यह खून-खराबा किसलिये
अपनों से ही व्यर्थ
दिखावा किसलिये !
घावों को कुरेद-कुरेदकर
खोखली हँसी को
जीवंत बनाने का प्रयत्न
अब रहने दो
बुत बन चुके हैं
बुत ही रहने दो ।
सुधा आदेश