Sunday, January 12, 2014

एक बार फिर भ्रष्टाचार का मुद्दा देश के मानस पर छाया हुआ है...अरविंद केजरीवाल धूमकेतु बनकर उभरे है पर उनको यह बात याद रखनी पड़ेगी कि कोई आदमी प्रारम्भ से भ्रष्टाचारी नहीं होता उसे भ्रष्टाचारी व्यवस्था और परिस्थितियाँ बनाती है...कुछ दबंग लोग अपना काम निकालने के लिए तथाकथित भ्रष्टाचारी को रकम पकड़ा कर उसे भ्रष्टाचार करने के लिए आमंत्रित करते है,सबसे छोटी और सच्ची बात रेलवे में आरक्षण न मिलने पर एक सीट पाने के लिए लोग 100 रुपए देने से नहीं हिचकते...तो जरा सोचिए अन्य काम निकालना ऐसे लोगों के लिए कुछ भी कठिन नहीं होगा,धीरे-धीरे देना-लेना इनके स्वभाव का हिस्सा बनता जाता है और उन्हें देने लेने में कोई शर्मिंदगी नहीं होती...भ्रष्टाचार को केवल कानून बनाकर या स्टिंग ऑपरेशन करवाकर व्यवस्था में सुधार की कल्पना करना बेमानी है...इसके लिए व्यक्ति की मानसिकता में परिवर्तन लाना आवश्यक है...व्यक्ति के मन में यह धारणा बननी आवश्यक है कि रिश्वत लेना और देना अपराध है...देने वाला मेरे विचार से लेने वाले से भी बड़ा अपराधी है,देने वाला ही व्यक्ति को भ्रष्टाचारी बनाने के लिए प्रेरित करता है। लगभग दो वर्ष पूर्व मेरे पति ने एक अर्धसरकारी विभाग से उच्चपदस्थ अधिकारी की हैसियत से अवकाशप्राप्त किया...अवकाशप्राप्ति के पश्चात मिलने वाले सारे लाभ प्राप्त करने के लिए इनके कुछ सहयोगियो ने सलाह दी कि संबंधित अधिकारी को कुछ नजराना पेश कर दो तो आनन फानन में तुम्हारा काम हो जाएगा पर इन्होने अपना पूरा जीवन ईमानदारी से जिया था किसी को कभी दिया न लिया,लोगों के कहने के बावजूद इनके मन में विश्वास था कि मेरा काम हो जायेगा और हुआ भी यही...मेरे कहने का मतलब है कि अगर हम व्यवस्था पर विश्वास रखें और संयम से काम लें तो कोई कारण नहीं कि भ्रष्टाचार का समूल नाश न हो पाये।

Tuesday, January 7, 2014

एक सच

आज व्यक्ति के लबों से मुस्कराहट तिरोहित होती जा रही है...ठहाकेदार हँसी,जहाँ अंदरूनी खुशी का परिचायक हुआ करती थी आज फूहड़ता का प्रतीक बनती जा रही है...मंद-मंद मुसकराना,ओठों पर नकली मुस्कान लिए घूमना आज आभिजात्य वर्ग का फेशन बनता जा रहा है। हँसना,खिलखिलाना और मुस्कराना इंसान का प्राकृतिक स्वभाव है...सच तो यह है स्वाभाविक एवं निर्दोष मुस्कान दुखी इंसान के चेहरे पर भी मुस्कान ला सकती है...नन्हा शिशु जब अकारण मुस्कराता है तब उसकी मुस्कान निर्दोष और स्वार्थरहित होती है पर जैसे-जैसे शिशु बड़ा होता जाता है उसकी मुस्कान कम होती जाती है किशोरावस्था तक आते-आते मुस्कान ओढ़ी हुई प्रतीत होने लगती है...कारण है चिंता और तनाव...। इंसान तनावों में भी अगर मुस्कराने की आदत डाल ले तो तनाव स्वयं ही भागने की राह खोजने लगेंगे...तनाव और चिंताओं से आज कोई भी अछूता नहीं रहा है...हमें जीवन की परिभाषा बदलते हुए इनके संग-संग ही जीना होगा...अगर हम इन्हें अपने जीवन का अंश बना लें तो इसमें कोई दो राय नहीं है कि जीवन सहज,सरल और सुगम होता जाएगा...तब ओठों की मुस्कान ओढ़ी हुई नहीं वरन व्यक्ति के व्यक्तित्व का अंश बनती जायेगी और व्यक्ति सर्वनाशक प्रवृतियों से दूर सर्वहित कार्य करता हुआ,अनायास ही सर्वप्रिय,सर्वमान्य और सर्वजयी होता जाएगा...।