Wednesday, September 14, 2022

सबसे प्यारी भाषा -हिन्दी

 



सबसे प्यारी भाषा


ह से हिन्दी

द से देश

सबसे प्यारा देश हमारा 

सबसे प्यारी भाषा।


अनेकों भाषाएं

विभिन्न धर्मावलंबी

एक सूत्र में जो बांधे

भारत माँ के भाल शोभा हिन्दी।


सहज़, सरल भाषा हिन्दी

मुख में मिठास घोले,

दिल में बसे ऐसे

पूजा का दीप जैसे।


शब्द सामर्थ्य,मुहावरे,

लोकोत्तियों से भरपूर

जन-जन को भाये

दूर अपनों से न कभी जाये।


हिन्दी बोलें, लिखें

प्रण आज करें हम 

सीखें विश्व की हर भाषा 

नाज हिन्दी पर करें हम ।


हिन्दी दिवस की शुभकामनायें


©सुधा आदेश



Thursday, July 7, 2022

 




 

 

अभिशप्त

 

            धड़ाम...धड़ाम...धड़ाम... नए बनते फ़्लाईओवर का आधा हिस्सा टूटकर गिरने के साथ ही कोहराम मच गया। सुधिया, बबुनी, वीरू, रामू, सरस्वती, दीपू,  फुलवा, श्यामू,रामलोचन नाम वातावरण में गूँजकर दहशत फैलाने लगे थे। सभी अपनों को खोज रहे थे। जितने लोग उतनी आवाजें...उससे भी ज्यादा दर्दनाक थी लोगों की चीखने,चिल्लाने और कराहने की आवाजें...। जिनके अपने मिल गए थे उनकी आँखों में ख़ुशियाँ थीं तथा जिनके अपने नहीं मिले थे, उनकी आँखों के आँसू उनके दर्द को बयान करते-करते धीरे-धीरे सूखने लगे थे, रह गई थी उनके चेहरे से झलकती चिंता, उनके दिल में व्याप्त दहशत, एक दर्दनाक खामोशी,आगत की चिंता एवं डर...।   

            ठेकेदार तथा उसके आदमी पीड़ित व्यक्तियों को मलबे से बाहर निकालने में सहायता करने की बजाय इस घटना में अपनी गर्दन फँसती देखकर,डर के कारण भाग गए थे। कोई अन्य उपाय न देखकर, बचे मजदूरों ने ही मलबे में दबे अपने मजदूर साथियों को बचाने का कार्य प्रारंभ कर दिया। किसी तरह से वे सरिया, मिट्टी,गारा हटाने का प्रयास कर रहे थे। जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा था...। कोई सरकारी सहायता न आने के कारण उनमें रोष भी व्याप्त होने लगा था। इसके साथ ही लोगों के अधिक संख्या में मरने की आशंका भी बढ़ती जा रही थी। उधर ठेकेदार तथा उसके आदमी इंजीनियर साहब के घर बैठे मजदूरों की चिंता छोड़कर, अपनी आगे की रणनीति पर विचार विमर्श कर रहे थे। दरअसल ठेकेदार और इंजीनियर को इस घटना में अपनी गर्दन फंसती नजर आ रही थी। वे लोग शहर के नामी वकील को बुलवाकर अग्रिम जमानत करवाने की जुगत में लगे हुए थे ।

            पिछले 2 वर्षों से इस पुल के निर्माण का कार्य चल रहा था पर पुल था कि बनने का नाम ही नहीं ले रहा था। कभी फंड का अकाल पड़ जाता तो कभी पुल का कोई हिस्सा टूटकर गिर जाता था। ऐसा होता देखकर कोई कहता कि इस पर किसी देवी देवता का प्रकोप है तभी पुल बार-बार टूट जाता है। कोई कहता लगता है शुभ साइत देखकर, इस पुल का निर्माण प्रारंभ नहीं किया गया है। वहीं दूसरा कुछ अपनी समझदारी दिखाते हुए कहते...अरे भाई, पल पर किसी देवी देवता का प्रकोप नहीं है। इस पुल का बार-बार टूटकर गिरना इंसानी राक्षसों की करतूत है जो कमीशन खोरी के चक्कर में, सीमेंट की जगह बालू भर रहे हैं।

            पुल के ढहने की  खबर आग की तरफ फैलने के बावजूद कोई रेस्क्यू टीम तो नहीं आ पाई पर मीडिया कर्मी तुरंत पहुँच गए। लोगों के दुख दर्द से बेखबर वे इस खबर को ऐसे पेश करने लगे जैसे यह कोई दुर्घटना नहीं वरन उनके न्यूज़ चैनल की टी.आर.पी.बढ़ाने के लिए कोई बढ़िया चटपटा मसाला है।


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2-

            “ माँजी, आप ऐसे क्यों रो रही हैं ? क्या इस हादसे में आपका अपना भी कोई फंसा है ?” न्यूज़ चैनल के एक रिपोर्टर ने एक रोती बिलखती महिला के पास जाकर पूछा।

            “ हाँ बचवा, बबुआ के बाबा नाहीं मिलल रहे हैं ।” उसने रोते हुए कहा।

            “ जरा इधर देखते हुए फिर से कहो...। ” उसने कैमरे की तरफ इशारा करते हुए उस महिला से पुनः कहा।  मानो उसे उस महिला के दर्द से अधिक, उसके चेहरे को अपने टी.वी. चैनल पर दिखाने फिक्र की अधिक  हो। 

            उस स्त्री ने अपनी बात पुनः दोहराई। तुरंत ही कैमरा घुटनों में मुँह छुपाए बूढ़े की ओर घूम गया …

            “ बाबा, आप चुप क्यों हैं ? क्या आपका भी कोई इस दुर्घटना में नहीं मिल रहा है ?” रिपोर्टर ने उससे प्रश्न किया।

            “ हाँ बचवा,  मेरी पोती फुलवा नहीं मिल रही है।” दर्द भरे स्वर में कहते हुए उस बूढ़े व्यक्ति ने अपना चेहरा थोड़ा ऊपर उठाया।   

            “कितनी उम्र रही होगी उसकी ?”

            “ 14 साल…।”

            “14 साल यानी नाबालिग...।” रिपोर्टर ने कैमरे के सामने देखते हुए कहा।  

            “ कितना देते थे उसे ?”रिपोर्टर ने पुनः उस बूढ़े व्यक्ति की ओर मुखातिब होकर पूछा।

            “कभी 200 या 300 रुपए...काम के हिसाब से मजूरी  मिलत रही। वह हमारा एकमात्र सहारा रही, अब हम उसके बिना कैसे जिएंगे?” कहते हुए उसकी आँखों से आँसू टपकने लगे।

            दुख के समय सांत्वना के दो बोल इंसान को हौसला देते है किन्तु रिपोर्टर के शब्दों में सांत्वना नहीं वरन अपनी डियूटी पूरी करने की भावना प्रबल थी...शायद इसीलिए उसने अपनी रिपोर्ट ऐसे पेश की...      

            “ देखा आपने...यहाँ नाबालिग बच्चों से भी काम लिया जाता है  किन्तु  मजदूरी कम दी जाती है।”

             तभी एक औरत के रोने की आवाज सुनकर, उस मीडियाकर्मी का ध्यान उस औरत की ओर गया । वह अपनी छाती पीट-पीटकर रोती हुई कह रही थी…

            “ इन मरदूदों ने 300 -400 रुपल्ली के लिए मेरी सरस्वती की जान ले ली ।”

            “ माँजी, सरस्वती कौन थी आपकी ?” रिपोर्टर ने माइक उसके मुंह के सामने रखते हुए पूछा।  

            “अरे बेटा, सरस्वती मेरी बहू थी...मेरा सहारा थी...। मेरा बेटा तो कुछ करता नहीं है...निखट्टू है...। मुझसे मेरी सांस की बीमारी के कारण अब कुछ नहीं हो पाता है। उसी के दम पर घर चल रहा था। अब अगर सरस्वती नहीं रही तो हम सबकी भूखों मरने की नौबत आ जाएगी।” कैमरे को देखकर वह और भी जोर-जोर से रोने लगी।

            सरस्वती की सास का दुख दिखाने के पश्चात कैमरा कई और लोगों की तरफ और घूमा तथा रिपोर्टर ने टी.वी. न्यूज़ कुछ इस तरह से पेश की...अभी-अभी आपने इतने बड़े हादसे को देखा।  किसी का पति, किसी का भाई, किसी की बेटी तो किसी की बहू इस हादसे में फंसे हैं। सभी बेहद परेशान और दुखी हैं। 5 घंटे बीतने के पश्चात भी अभी तक कोई सरकारी सहायता इन बेबस और बेसहारा मजदूरों तक नहीं पहुँच पाई है। लगभग 15 मजदूर लापता हैं। धीरे-धीरे उनके बचने की उम्मीद भी कम होती जा रही है। हमारे मजदूर भाई ही अपने मजदूर भाइयों की जान बचाने में लगे हुए हैं लेकिन सरकारी महकमा अभी भी चैन की नींद सो रहा है।


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3-

            टी.वी. पर इस घटना की न्यूज़ फ्लैश होते ही प्रशासन की नींद खुली। एक दूसरे पर आरोप मढ़ते हुए अंततः रेस्क्यू टीम भेजी गई। इसके साथ ही अधिकारियों का एक दल स्थिति का जायजा लेने के लिए घटना स्थल की ओर रवाना हुआ। इधर मजदूर यूनियन वाले घटना स्थल पर एकत्रित होकर बयान बाजी करते हुए प्रशासन को कोस रहे थे। अफसरों के आते ही उन्होंने   मुर्दाबाद के नारे लगाने प्रारम्भ कर दिये। जब तक रेस्क्यू टीम पहुँची तब तक मजदूरों तथा आसपास के गाँव के कुछ युवकों के सम्मिलित प्रयास से 3 शव तथा 5 घायल मजदूर निकाले जा चुके थे। एंबुलेंस आ चुकी थी। घायलों को तुरंत पास के अस्पताल में शिफ्ट करने का प्रयास किया जाने लगा।

            शवों को देखते ही भीड़ लग गई। वीरू का क्षत-विक्षत शव देखते ही बुधनी गश खाकर गिर पड़ी तथा उसके शव से चिपककर फफक-फफककर  रोते हुए बोली, “ मुझे किसके सहारे छोड़कर चले गए तुम, अब मैं तुम्हारे बिना कैसे जिऊंगी...इस बच्चे को कैसे पालूंगी ?”

            उसकी छाती से चिपका उसका 2 वर्षीय बेटा भी माँ को रोता देखकर रोने लगा …

            “धीरज धर बहन, जो हुआ, सो हुआ...कम से कम अपने बच्चे को तो देख, जो तुझे रोता देखकर रो रहा है।” उसे रोता देखकर उसके पास आकर एक औरत ने उसे संभालते हुए कहा। 

            बुधनी जैसा ही हाल सरस्वती की सास कमला का था जो अपनी बहू के शव को देखकर पागल सी हो गई थी। वह छाती पीटकर रोते-रोते बार-बार यही दोहराए जा रही थी, “मुऐ राक्षसों ने 300 -400 रुप्पली के लिए मेरी सरस्वती की जान ले ली है। इन्हें कभी चैन न मिले, कीड़े पड़ें, कुत्ते की मौत मरें। हे भगवान! तूने ये क्या किया,तू ही बता अब हम कैसे जीयेंगे?”

            जबकि कमला का बेरोजगार बेटा रामू वहीं बैठा टुकुर-टुकुर सबको निहारे जा रहा था। अभी इनकी चीत्कार रुकी भी न थी कि एक और शव आ गया...उसे देखकर उसके बूढ़े दादा की सांसें जैसे थम ही गईं...। वह उसके पार्थिव शरीर को  गोद में लेकर फफक-फफक कर रोते हुए बोल उठा,“ सुधिया…मेरी बच्ची...तू मुझ अकेले को छोड़कर कहाँ चली गई…? एक तू ही तो मेरे जीने का सहारा थी। तेरे माँ बापू तुझे मुझे सौंप कर गये थे। मैं भी कितना अभागा हूँ जो मैं उनकी अमानत नहीं संभाल पाया। ना जाने इन बूढ़ी आँखों को क्या-क्या देखना और बदा है!! कहाँ तो मैं सोच रहा था कि तेरे हाथ पीले कर डोली में विदा  करूँगा और अब यह हादसा...!! हे भगवान! तू मुझे भी उठा ले। सुधिया के बिना अब मैं कैसे जीऊँगा ?” 

             बेबस और बदनसीब लोगों के रुदन से आस-पास खड़े सभी लोगों की आँखों में आँसू आ गए थे। होनी को कौन टाल सकता है...कहकर लोग पीड़ित व्यक्तियों को समझा रहे थे। रस्मी तौर पर समझाना सिवाय झूठी तसल्ली देने के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता।  वैसे भी जिसका कोई अपना जाता है, उसका दुख उसके सिवाय अन्य कोई समझ ही नहीं सकता है। पीड़ित व्यक्ति को तो अपना पूरा जीवन बिखर गया प्रतीत होता है। ऐसे क्षणों में अपने आत्मीय से बिछड़ने के दुख के साथ-साथ उसे अपने बचे जीवन को समेटने की चिंता अलग परेशान करने लगती है। 

            बुक्का फाड़कर रोती औरतों और बच्चों को देखकर जहाँ लोग गमगीन थे वहीं घायलों की कराह तथा उनके रिश्तेदारों की उन्हें शीघ्र अस्पताल पहुँचाने की गुहार वातावरण को गमगीन बनाए जा रही थी। बड़ा ही हृदय विदारक दृश्य था। 


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4-

            रेस्क्यू कार्य जारी था...छोटे बड़े सभी अधिकारी वहाँ पहुँच गए थे। स्थिति काफी गंभीर थी।  लगभग 10 घंटे के अथक प्रयास के पश्चात मलबे में फंसे सभी जीवित और मृत व्यक्तियों को  निकाल लिया गया था।  घायलों को अस्पताल पहुँचाने की व्यवस्था की जा रही थी वहीं मृत व्यक्तियों के दाह संस्कार की व्यवस्था भी सरकारी अधिकारी ही कर रहे थे। लोगों का क्रोध और अधिक न भड़के इसलिए प्रशासन की ओर से मृतकों के परिवारों को 10,000 रुपए तथा घायलों के परिवार वालों को 5,000 रुपए सहायता राशि के रूप में दिए जाने के साथ ही हफ्ते भर का खाने का भी सामान भी आनन फानन में पीड़ित परिवारों को दिये जाने की व्यवस्था की गई।  

             यूनियन लीडरों को मजदूरों में अपनी धाक जमाने के साथ, उन्हें अपनी उपस्थिति का एहसास भी दिलाना था। वैसे ऐसे मौकों पर ही तो उनकी लीडरी काम आती है। कुछ खाने पीने को मिलता है अतः उन्होंने मजदूरों के हितों की रक्षा के लिए प्रशासन की ओर से मृतकों के परिवार को दो लाख रुपए तथा घायलों के परिवार वालों को पचास हजार रुपए मुआवजा राशि देने की माँग कर डाली। यूनियन लीडरों की सरकार से की इस मांग को सुनकर दुखी चेहरों पर थोड़ी शांति झलकी, वहीं कई अन्यों के चेहरों पर असंतोष व्याप्त हो गया।

            इस घटना के कारण हफ्ते भर से काम बंद था जिसके कारण मजदूरों को मजदूरी भी नहीं मिल रही थी। यह इस प्रोजेक्ट में काम करने वाले मजदूरों की ही नहीं, हर प्रोजेक्ट में दैनिक भत्ते पर गुजारा करने वाले मजदूर की यही हालत थी। काम नहीं तो मजदूरी नहीं। चाहे यह स्थिति मजदूरों की अपनी बीमारी की वजह से हो या ठेकेदारों के वक्त-बेवक्त काम रोक देने की वजह से हो...।

            इस बुरे वक्त में इस प्रोजेक्ट में काम करते एक मजदूर सलीम के बेटे को बुखार आ गया। काम रुकने तथा धीरे-धीरे खत्म होते पैसों के कारण वह अपने बुखार से पीड़ित बच्चे का उचित इलाज नहीं करवा पा रहा था। उचित इलाज के अभाव में अपने बच्चे को तड़पता देखकर वह दुखी स्वर में बोला,“ या अल्लाह! इससे तो तू मुझे उठा लेता। कम से कम मेरा बच्चा तो उन अभावों में नहीं पलता जिनमें मैं पला ।”

            उसकी पत्नी फरजाना ने उसकी बात सुनी और निर्विकार भाव से बुखार से तड़पते अपने बच्चे कासिम को गोद में उठाकर उसके माथे पर ठंडे पानी की पट्टी रखने लगी ।

             यह वही फरजाना थी जिसने कभी सलीम के साथ जीवन के हर सुख-दुख में जीने मरने की कसमें खाई थीं । घर चलाने के लिए उसके कंधे से कंधा मिलाकर ईंट गारा भी ढोया था पर जब से कासिम उसकी गोद में आया था तब से वह असंतुष्ट रहने लगी थी। शायद वह बच्चे के भविष्य को लेकर सशंकित हो चली थी । तभी बात-बात पर झगड़ा करना, बात-बात पर असंतोष जाहिर करना उसका स्वभाव ही बनता जा रहा है। अपनी इसी मनोवृति के कारण वह इस समय सलीम की बात का प्रतिकार नहीं कर पाई थी वरना पहले यदि मजाक में भी वह ऐसी बात कहता था तो वह उसके मुँह पर हाथ रखते हुए कहती थी...“ या अल्लाह !  मरे आपके दुश्मन,मैं तो सदा रब से यही दुआ माँगती हूँ कि वह आपसे पहले मुझे ही उठाए...। ”


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5-

            यह मानव स्वभाव  है कि परिस्थितिजन्य  कठिनाइयों या भीषण दुख के क्षणों में इंसान स्वयं को चाहे कितना भी कोस ले पर दूसरे से सहानुभूति चाहता है...। आज अपनी विवशता पर, अपनी अर्धांगिनी को चुप देखकर सलीम का दिल रो उठा और वह बिना कुछ कहे ही घर से निकल गया। जेब टटोली, उसमें बीस रुपये पाकर उसे लगा कि इतने रुपयों से क्या होगा ? उसने सोचा कि वह शिवा से उधार माँगकर देखे, आखिर बच्चे की दवा तो लानी ही होगी। उसे पिछले चार दिनों से ज्वर है। एक दो दिन तो वह यह सोचकर चुप लगा गया था कि मौसमी बुखार है, स्वयं ठीक हो जाएगा पर कल रात से वह मासूम तेज ज्वर से तड़प रहा है। अब भी अगर वह ढंग से इलाज नहीं करवाया पाया और खुदा न ख्वासता अगर कोई अनहोनी घट गई तो वह फरजाना से तो क्या स्वयं से भी नजरें नहीं मिला पाएगा...। उसके कदम शिवा  के घर की ओर मदद की उम्मीद में चल पड़े ।

            अभाव जहाँ इंसान को बुरी तरह तोड़ कर रख देते हैं वहीं कभी-कभी अभाव इंसान की इंसानियत, संवेदनाओं एवं भावनाओं को सूक्ष्मीकृत कर मुर्दा बना डालते हैं...। तभी तो कल तक जिनकी आँखों में आँसू थे उन्हीं में आज मुआवजे की राशि की बात को सुनकर, भविष्य की आशाओं के स्वप्न तिर आए थे।  

            सरस्वती की सास कमला सोच रही थी कि भगवान सरस्वती की आत्मा को शांति दे। जाते-जाते भी वह हमें स्वर्ग दे गई । इतने रुपयों से तो हमारे सारे दुख दर्द दूर हो जाएंगे । इन रुपयों से मैं रामू को ऑटो रिक्शा दिलवा दूँगी फिर तो उसके लिए लड़कियों की लाइन लगते देर न लगेगी। मैट्रिक पास होने के कारण ही तो वह ईट गारा नहीं ढोना चाहता...ऑटो चलाने में तो उसे कोई शर्म नहीं आएगी।

            “ हे भगवान! अगर इतना रुपया मिल गया तो मैं अपने बेटे कृष्णा को अच्छे इंग्लिश स्कूल में पढ़ाऊंगी ।  वह ऑफिस में नौकरी करेगा न कि मेरे और अपने पिता के समान ईंट, गारा ढोएगा । मैं इन पैसों में से कुछ पैसा बैंक में जमा करा दूँगी तथा कुछ पैसों से एक ढाबा खोल लूँगी जो कि इसके पिता वीरू का सपना था । इन रूपयों से वह न केवल वीरू के सपने को पूरा करेगी वरन कृष्णा को भी अच्छे स्कूल में पढ़ाकर बड़ा आदमी बनायेगी। वह अपने माता-पिता का नाम रोशन करेगा। ” बुधनी ने मन ही मन सोचा। कल तक जिन आँखों में चिंता के बादल झिलमिला रहे थे,आज उन्हीं आँखों में अपने सुनहरे भविष्य की चमक दिखाई देने लगी थी ।

            यही हाल सुधिया के बाबा का था। इतनी राशि मिलने की बात सुनकर, वह दूधिया के जाने का गम भूलकर, सोच रहे थे कि इतने रुपयों को वे कहाँ रखेंगे !! उन्होंने तो कभी एक हजार भी नहीं देखे...। दो लाख...बाप रे, इतने रुपए वह कहाँ और कैसे सहेजेंगे...कहाँ उसे खर्च करेंगे...? उन्हें संतोष था तो सिर्फ इतना कि कम से कम अब उन्हें अभाव में नहीं जीना पड़ेगा। उनका बुढ़ापा सुधर जाएगा ।

            आठ-दस दिनों में सब शांत हो गया...। प्रशासन ने दो लाख रुपये तो नहीं पर मृतकों के लिए एक लाख रुपये तथा घायलों के लिए पच्चीस हजार रुपये की राशि सहायता राशि अवश्य स्वीकार कर  ली। यूनियन के नेता मुआवजे की राशि पीड़ित व्यक्तियों को दिलवाने का श्रेय स्वयं ले रहे थे । लेते भी क्यों नहीं, आखिर उनकी वजह से ही मजदूरों को इतना पैसा मिल रहा है वरना उनको कौन पूछता । सभी  लोग यह सोचकर उनके आगे नतमस्तक थे कि चलो जितना मिल पा रहा है, बहुत है । मुआवजा राशि मिलने कि सूचना ने गमगीन चेहरों पर थोड़ी मुस्कान तो ला दी थी । उनके लिए तो इतना भी बहुत था । वहीं जिन मजदूरों का अपना कोई नहीं था उनके भी ढेरों रिश्तेदार निकल आए थे जो इस मुआवजे की रकम पर अपना दावा ठोकने लगे थे ।


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6-

            पुल का जो काम इतने दिनों से रुका हुआ था वह फिर चल निकला। महीना बीता, दो  महीने बीते पर मुआवजे की राशि अब तक किसी को नहीं मिल पाई। जब भी मजदूर शिकायत लेकर यूनियन नेताओं के पास जाते तो उनका एक ही जवाब होता...धीरज रखो, सरकारी काम में तो देरी होती ही है । वैसे भी सब कुछ इतना आसान थोड़े ही होता है । कुछ सर्टिफिकेट बनवाने पड़ेंगे ...आखिर यह तो सिद्ध करना ही पड़ेगा कि बुधनी वीरू की पत्नी है या सुधिया बालिग थी ।  सरस्वती, कमला की बहू या रामू की पत्नी थी...उनकी बात सुनकर वे लोग लौट जाते ।

             धीरे-धीरे छह महीने गुजर गए। समय के साथ दिल के जख्म भरने लगे थे...। मुआवजे की रकम मिलती न देख, सरकारी वायदे खोखले होते हैं, सोचकर वे सब फिर अपने-अपने कामों में लग गए थे।  वैसे भी उन जैसे गरीब अपनी  फरियाद लेकर जाते भी तो कहाँ जाते?  वे तो दैनिक भत्ते से गुजारा करने वाले गरीब मजदूर हैं जिन्हें पेट भरने के लिए हर दिन रोटी की चिंता रहती है। दिन भर खटने के बाद मामूली रकम उनके हाथ में ऐसे थमा दी जाती है मानो वे उन पर एहसान कर रहे हैं। यहाँ तक बीमारी में भी इन्हें दवा के लिए पैसे मिलने तो दूर, किसी की सहानुभूति भी नहीं मिलती है। ऐसा करते हुए ये अमीर लोग  यह भूल जाते हैं कि जिन गरीब मजदूरों की मेहनत पर वे ऐश कर रहे हैं वे नींव के ऐसे पत्थर हैं जिनकी वजह से ही कोई इमारत बुलंदियों को छूती है पर इस बात का इन्हें श्रेय देना तो दूर, किसी को भी इस बात का एहसास भी नहीं होता है...।

            आठ महीने पश्चात यूनियन लीडर राघवेंद्र का संदेश लेकर एक आदमी आया कि पीड़ित व्यक्तियों को साहब ने अपने डेरे पर बुलवाया है । आशा की किरण लेकर सभी लोग खुशी-खुशी उसके डेरे पर गये।  उन्होंने घायलों को पाँच-पांच हजार तथा मृतकों के परिवार वालों के हाथों में बीस- बीस हजार पकड़ाये। मजदूरों ने जब इतनी कम राशि मिलने का कारण पूछा तब तथाकथित हितेशी राघवेंद्र ने बेरुखी से कहा, “ क्या प्रमाण पत्र ऐसे ही बन जाता है? नीचे से लेकर ऊपर तक सबको खिलाना पड़ता है। तुम लोगों के इस काम के लिए हमें कहाँ-कहाँ नहीं जाना पड़ा,किस-किस के सामने नाक रगड़नी पड़ी, तुम क्या जानो! अब इधर-उधर आने जाने, खाने-पीने का खर्चा भी तो इसी मुआवजे की राशि में से ही निकालना पड़ेगा।  वैसे भी इतना पैसा मिल गया, गनीमत समझो...। यह हम सबकी मेहनत का फल है वरना सरकारी खजाने से पैसा निकालना इतना आसान नहीं होता ।”


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7-

             इतनी कम राशि पाकर सभी मजदूरों की उम्मीदों पर पानी फिर गया था । सब जानते थे कि पैसा कहाँ गया ? उन्हीं के पैसों से तो इनकी लीडरी चलती है...। वे तो उन कीड़े-मकोड़ों की तरह हैं जिन्हें रौंदते हुये हाथी चला जाता है। झुंड में होने के बावजूद भी बेचारी कमजोर चीटियां उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ पातीं। जब अपनी किस्मत ही फूटी हो तो दोष दें भी तो किसे दें !!

            घायलों में कुछ अपाहिज हो गए थे। रामू का तो घुटने के नीचे से पैर ही काटना पड़ गया था वहीं दीपू का हाथ...वहीं श्यामू कि हालत तो बेहद गंभीर थी।  उसकी रीढ  की हड्डी में चोट लगने के कारण उसका नीचे का हिस्सा ही बेकार हो गया था। वह खड़ा भी नहीं हो पाता था। उसकी पत्नी रामेश्वरी को उसके सारे काम  बिस्तर पर ही कराने  पड़ते थे। सच तो यह है कि अपाहिज होने के कारण वे सभी कोई काम करने लायक ही नहीं रहे थे। बोझ बनकर रह गए थे वे अपने-अपने परिवारों पर...। उनके लिए सिर्फ पाँच हजार...बैसाखी के सहारे आया रामू 25 हजार की जगह 5 हजार देखकर रोने लगा था । यही हाल दीपू का था और श्यामू की पत्नी रामेश्वरी का था। अभी भी उनके मन से उस दिन की घटना का असर ही समाप्त  नहीं हुआ था । घर परिवार की बेरुखी तथा अपनी स्थिति देखकर कभी-कभी उन्हें लगता था कि इससे अच्छा तो था कि वे भी मर जाते, कम से कम ऐसी जलालत भरी जिंदगी तो नहीं जीनी पड़ती ।

            रामू को हफ्ते भर पूर्व की घटना याद आई...वह ऐसे ही मन बहलाने के लिए बैसाखी के सहारे थोड़ा बाहर निकल गया था। लौटा तो भाभी की आवाज सुनकर उसके कदम बाहर दरवाजे पर ही रुक गये, “न जाने कब तक इस लंगड़े को रोटी खिलानी पड़ेगी ? अब तो इसकी शादी भी होने से रही ।”

            “ ऐसा न कह लालू की माँ, ,पच्चीस हजार मिल जायेंगे तो अपनी हालत भी सुधर जाएगी ।” भाई ने उसे टोकते हुए कहा।

            “ हमारे भाग्य ही फूटे थे...वरना यह भी मर जाता तो पूरे एक लाख मिल जाते, हमारे दिन भी बहुर जाते। अब यह  अपाहिज सारी उम्र हमारी छाती पर मूंग डालता रहेगा।”

            “ चुप रह कलमुंही, कुछ भी बोलती रहती है...अगर कहीं उसने सुन लिया तो वह हमें फूटी कौड़ी भी नहीं देगा ।” भाई ने भाभी को झिड़कते हुए कहा था।

             भाई-भाभी की बातें सुनकर रामू ठगा सा खड़ा रह गया...। उसके लिए उसके सगे भाई-भावज के मन में इतनी कड़वाहट...। कहाँ अपनी इसी भावज के हाथों में जब वह रोज की कमाई रखता था तब वह अपनी सहेलियों से उसकी तारीफ करते नहीं थकतीं थीं और अब जब उसे अपनों की जरूरत है तो वे इतने स्वार्थी हो गए हैं...रो पड़ा था उसका मन । कहाँ तो वह सोच रहा था कि मुआवजे की रकम मिलते ही वह सारी रकम भाभी के हाथ में पकड़ा देगा किन्तु उनका सारा वार्तालाप सुनकर वह वृतिष्णा से भर उठा… अब तो उन्हें कुछ भी देने का उसका मन नहीं कर रहा था। आज 25 हजार की जगह 5 हजार मिलते देख रामू भविष्य की आशंका से त्रस्त रोने के लिए किसी का कंधा चाहता था कि उसके साथ आया भाई उसके हाथ से रकम लेकर ऐसे मुँह फेर कर चला गया मानो वह उसका कुछ लगता ही नहीं है ।

            यही हालात दीपू की है। रामू की तो भाभी ऐसा सोचती है किन्तु उसकी तो अपनी पत्नी जब तब उसे उसकी अपंगता का एहसास कराती रहती है पर फिर भी  एक मोटी रकम मिलने की आस आस में वह उसे खाना पानी तो दे ही रही है। अब न जाने कैसे जिंदगी कटेगी ? आँखों में आँसू भरे वह समझ नहीं पा रहा था कहाँ जाये, क्या करे ? 

            सच अपंगता इंसान को इतना बेजार और असहाय बना देती है, उसने कभी सोचा भी ना था। उसे बचपन का वह दृश्य याद आया...उसका छोटा भाई बीमार हो गया था, पिताजी कहीं बाहर गए हुए थे। माँ ने उससे कहा, “ बेटा, तू इसे अस्पताल ले जाकर दिखा ला।”

            “ ना बाबा ना, इस लंगड़े को लेकर मैं अस्पताल नहीं जाऊँगा...। मेरे दोस्तों ने अगर मुझे इसके साथ देख लिया तो वे  मुझे चिढ़ायेंगे ।” अपने पोलियोग्रस्त भाई को अस्पताल ले जाने से मना करते हुए उसने माँ से कहा था ।  

            “बेटा, आज तूने अपने भाई के लिए जो कहा, वह आगे किसी के लिए न कहना...शरीर का क्या, आज है कल नहीं।  इसे लेकर इतना घमंड करना अच्छी बात नहीं है ।” कहते हुए उसकी माँ की आँखों से आँसू निकल आए थे ।

            माँ के दर्द को वह उस समय कहाँ समझ पाया था !! माँ के लिए तो उसका बच्चा चाहे जैसा भी हो जान से भी प्यारा होता है।  वह उसके लिए कुछ भी करने को तैयार रहती है। उसे आज भी याद है कि उसके मना करने पर माँ स्वयं उसके भाई को अस्पताल लेकर गईं थीं। यह बात अलग है कि माँ की देखभाल के बावजूद,पैसों की कमी के कारण, उचित  इलाज के अभाव में उसका वह अभागा भाई चल बसा था। आज बार-बार उसे माँ  के कहे शब्दों के साथ अपना वह भाई भी याद आ रहा है जो उसे इधर-उधर आते-जाते, खेलते देखकर एक कोने में बैठा टुकुर-टुकुर उसे देखता रहता था। वह उसकी अपंगता के कारण उसे अपने साथ न कहीं लेकर जाता था न ही किसी से उसे मिलवाता था। यहाँ तक कि उसके पास बैठ कर बातें करना भी उसे अच्छा नहीं लगता था । उसके लकड़ी से पैर न जाने क्यों उसके मन में वितृष्णा जगा देते थे। माँ-बाबूजी के लाख चाहने पर भी वह पढ़ नहीं पाया था। उनके जाने के बाद तो उसकी ज़िंदगी में मानो ग्रहण ही लग गया...। उसके अपने चाचा ने ही उसे उसका हिस्सा देने से मना करने के साथ उसे घर से ही निकाल दिया।  पेट भरने के लिए उसे मजदूरी करनी पड़ी किन्तु उस दुर्घटना ने उससे उसकी नौकरी भी छीन ली। मनुष्य को अपने अच्छे बुरे कर्मों का फल यहीं, इसी जन्म में  भुगतना पड़ता है, इस सत्य से उसका आज परिचय हो गया था। आज अगर उसकी पत्नी उसे ठीक से बात नहीं करती तो उसमें उसका क्या दोष ? आखिर उसने भी तो किसी के साथ ऐसा ही किया था। 

            रामेश्वरी की हालत तो और भी खराब थी। मन में ढेरों प्रश्न उमड़-घुमड़ रहे थे जिनका कोई उत्तर उसके पास नहीं था। उसके  विवाह को अभी सिर्फ छह महीने ही हुए हैं ।  क्या उसे अपना पूरा जीवन बीमार पति की देखरेख करते हुए ऐसे ही बिताना पड़ेगा? कैसे इलाज करा पाएगी वह श्यामू का ? उसकी अकेले की कमाई से क्या होगा ? इसके बावजूद श्यामू के अपाहिज होने के बाद उस ठेकेदार की उस पर पड़ती काम लोलुप नजरें। कैसे बचा पाएगी वह स्वयं को उन कामुक नजरों से ?


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8-

            जिनके अपने नहीं रहे थे उनकी तो हालत और भी बुरी थी। सरस्वती की सास की तो सारी आशाओं पर ही पानी फिर गया था। रुपये मिलने के इंतजार में, पिछले आठ महीने से हर काम को छोटा समझने के कारण, हट्टा कट्टा, मुफ्त की रोटी खाने का आदि उसका बेटा रामू बेकार बैठा है । घर खर्च भी उधार के रुपयों से चल रहा है । बनिया अगर कभी तकाजा भी करता तो वह मुआवजे की रकम से उधार चुकाने की बात कहकर जरूरत का सामान उधार ले आया करती थी।  पाँच हजार तो उधार चुकाने में ही निकल जायेंगे। बाकी बचे पैसों से ऑटो तो क्या रिक्शा भी नहीं आ पाएगा...। अगर जुगाड़ करके रिक्शा खरीदवा भी दिया तो क्या उसका कामचोर बेटा रिक्शा चलाने के लिए तैयार होगा ? वह तो सिर्फ सपने देखना जानता है पर यह नहीं जानता कि सपने पूरे करने के लिए प्रयत्न भी करना पड़ता है, मेहनत करनी पड़ती है। काम कोई छोटा नहीं होता। अब तो उसे लग रहा था कि उसकी सारी समस्या की जड़ उसकी अधूरी शिक्षा है...न तो वह बाबू बन सका और न ही मजदूर । यहाँ तक कि चपरासी का काम भी उसे हेय लगता है पर निठल्ले बैठे दूसरे की कमाई खाने में उसे कोई शर्म नहीं आती। वह यह भी नहीं सोचता कि पिता की मृत्यु के बाद मेहनत मजदूरी करके जैसे-तैसे उसकी माँ  ने उसे पढ़ाया लिखाया, खुद भूखी रही पर उसे खाने को दिया,पढ़ने के लिए स्कूल भेजा,कम से कम अब तो वह अपनी माँ की परेशानी और ना बढ़ाये । जो भी काम मिले कर ले पर नहीं...पर जिसे बैठे-बैठे मुफ्त का खाने  की आदत पड़  गई हो, वह मेहनत क्यों करना चाहेगा...!! अब तक कम से कम उसकी बहू सरस्वती उसकी गृहस्थी की गाड़ी तो खींच रही थी पर अब उसके न रहने पर जिंदगी कैसे कटेगी, सोच सोच कर वह परेशान हो उठी थी। बस मन ही  मन यही प्रार्थना  करती रहती थी कि ईश्वर उसके निखट्टू बेटे को सदबुद्धि दे।

            ऐसी ही हालत बुधनी की भी थी। कहाँ तो वह सोच रही थी कि एक लाख रुपये मिलते ही, कुछ रकम से वह अपने पति वीरू का सपना  ‘कृष्णा ढाबा ' की इच्छा पूरी करेगी तथा बाकी रकम को बैंक में डलवा देगी।  जैसे-जैसे कृष्णा बड़ा होगा,उसके खर्चे बढ़ेंगे तब अगर जरूरत पड़ी तो उस रकम में से कुछ रकम निकालकर उसकी पढ़ाई में लगाएगी जिससे उसकी शिक्षा बेरोकटोक भली प्रकार पूरी हो सके  पर इतनी छोटी सी रकम से वह क्या कर पाएगी ? वह कृष्णा को गोद में उठाए, बुझे मन से उस रकम को हाथ में दबाये चली जा रही थी...तभी सड़क के किनारे उसे छोटी सी चाय की दुकान दिखाई दी। उसने देखा कि उस छोटी सी झोंपड़ी में  एक बूढ़ी औरत चाय बनाकर बेच रही है। झोंपड़ी के सामने पड़े स्टूलों में कुछ राहगीर बैठे चाय पीते हुए बातें कर रहे हैं । एकाएक उसे लगा कि वह ढाबा नहीं किन्तु इन पैसों से चाय की एक छोटी दुकान तो खोल ही सकती है। एकाएक आँखों में चमक आ गई। उसे लगा कि उसे राह मिल गई है। उसने मन ही मन कहा... हाँ यही ठीक है। वह इस रकम से टेबल कुर्सी खरीदकर हाईवे के किनारे अच्छी जगह देखकर चाय की दुकान खोलेगी, साथ में नमकीन बनाकर भी बेचेगी । अगर उसकी चाय की दुकान चल निकली तो धीरे-धीरे उसे ढाबे में परिवर्तित कर लेगी। उसने सुना था सच्चे मन से, सच्ची नियत से प्रारम्भ किए कार्य में सदा सफलता मिलती है। वह अपने कार्य अवश्य ही सफल होगी...। कृष्णा को पढ़ाने का अपना और वीरू का सपना जरूर साकार करने का प्रयास करेगी ।

             सुधिया के दादाजी की हालत दूसरी ही थी वह तो इतनी रकम हाथ में आते ही मानो बौरा ही गए थे । वह सुधिया को  ढेरों आशीष देते हुए मन ही मन बुदबुदाए...बिटिया, मैं तुझे कुछ भी नहीं दे पाया पर जब तक तू रही तब तक तो तूने इस बूढ़े का ख्याल रखा ही और अब मर कर भी कुछ दिनों तक मेरे खाने-पीने का इंतजाम भी कर गई है। घर आकर उन्होंने रूपयों को गिनने की कोशिश की पर बार बार गलती होने पर उन्होंने उन रुपयों में से 100 रुपये का एक नोट निकाल कर, बाकी बचे रुपयों को लोहे की संदूकची में रखकर, उसमे ताला लगाकर , उसे लोहे की चेन से चारपाई से बाँध दिया। सौ का नोट अपने कुर्ते की जेब में रखकर, यह सोचकर ,दारू के अड्डे की ओर चल दिये कि आज तो वह दारु के साथ भजिया भी खाएंगे...खाली दारू पीते-पीते पेट में ऐंठन होने लगी है ।

             सच इंसानी जीवन भी एक अनबूझ पहेली है। क्या समाज के रामू, दीपू,रामेश्वरी, सरस्वती की सास और सुधिया के दादा जी जैसे लोगों की यही नियति है या वे ऐसा जीवन जीने के लिए अभिशप्त हैं? शायद हाँ...शायद नहीं...कुछ अपवादों को छोड़कर कठिनाइयां,  सुख-दुख, अभाव तो हर एक व्यक्ति के हिस्से में आते ही हैं । किसी के आने जाने, रहने या ना रहने पर जिंदगी रुकती नहीं है। वह तो चलती रहती है सतत...अनवरत...निरंतर...। यह निरंतरता ही जीवन का शाश्वत सत्य है। हाँ यह बात अलग है कि जीवन के इस सत्य से अपरिचित कोई व्यक्ति विपरीत परिस्थिति को अपनी नियति मानकर रुके पानी की तरह सड़ता रहता है तो कोई बुधनी की तरह कठिन से कठिन परिस्थितियों से जूझते हुए भी अपनी राह खोज ही लेता है।

 

सुधा आदेश

समाप्त

 

 


Monday, May 30, 2022

सबक

 


                                                                        

        

            सबक 


    ‘ कांच का टूटना अच्छा नहीं होता । जरा संभालकर काम किया कर ।’ पुष्पा ने अपनी बहू अंजना को  टोकते हुए कहा ।

    अंजना चाहकर भी कुछ न कह पाई...पिछले एक हफ्ते से उसकी तबीयत ठीक नहीं चल रही थी, उस पर नौकरानी के न आने के कारण काम भी बढ़ गया था । चाय का कप धोते हुए न जाने कैसे उसके हाथ से फिसल गया और टूट गया...उसने झाडू उठाई तथा फर्श पर पड़े कप के टुकड़े साफ करने लगी ।

    ‘ तेरी माँ ने कुछ सिखाया है या नहीं, अरे शाम ढले घर में झाड़ू लगाने से लक्ष्मीजी घर में प्रवेश नहीं करतीं । झाड़ू से नहीं कपड़े से इन टुकड़ों को उठा ।’ पुष्पा ने क्रोध भरे स्वर में अंजना से कहा ।

    उसी समय भावेश ने घर में प्रवेश किया । माँ को अंजना पर क्रोधित होते देख उसने शांत स्वर में कहा,‘ माँ तुम्हें याद है जब मैं इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा के लिये जा रहा था तो मुझे अचानक छींक आ गई    । तुमने मुझे दही, पेड़ा दुबारा खिलाकर उस अपशगुन को शगुन में बदला किन्तु जैसे ही मैं घर के दरवाजे से बाहर निकला एक काली बिल्ली मेरे सामने से निकल गई । तुमने तुरंत मेरा हाथ पकड़ते हुये कहा था कि दस मिनट के अंदर  दो-दो अपशगुन...आज मैं तुझे कहीं नहीं जाने दूँगी । तुम्हारी हर बात सुनकर सदा शांत रहने वाले पिताजी ने उस दिन मेरा हाथ पकड़कर खींचते हुये कहा था...’बेटा, चल पहले ही हम लेट हो गये हैं । अगर अपनी माँ की बात सुनता रहा, परीक्षा में लेट हो गया तो उससे बड़ा अपशगुन कोई नहीं होगा । माँ तुम्हारे उस अपशगुन के बावजूद उस वर्ष हायर सेकेन्डरी की परीक्षा में मेरिट लिस्ट में न केवल मेरा नाम आया वरन उसी वर्ष मेरा आई.आई.टी. कानपुर के लिये चयन भी हो गया । इसके बावजूद भी तुम आज तक शगुन अपशगुन, यह न करो वह न करो में लगी हुई हो । जिसे जैसा करना है करने दो... दुनिया बदल रही है तुम भी स्वयं को बदलो, अब यह टोका-टोकी बंद करो ।’  माँ को छोटी सी बात पर बिगड़ते देख सदा शांत रहने वाले भावेश के स्वर में आज न जाने कैसे तीखापन आ गया था। 

    ‘ बहुत आया बीबी की तरफदारी करने वाला...ऐसे ही तोड़ती फोड़ती रही तो जम चुकी तेरी गृहस्थी । तिल-तिल करके जोड़ी जाती है गृहस्थी । एक तुम लोग हो पूरा सेट बिगड़ गया और कुछ फर्क ही नहीं पड़ा । तभी तो आज की पीढ़ी दोनों के कमाने पर भी सदा पैसे की कमी का रोना रोती रहती है । एक हम लोग थे...पाई-पाई जोड़ी तभी तुम्हें आज इस लायक बना पाये हैं।’ बेटे का तीखा स्वर सुनकर भी पुष्पा चुप न सकी तथा अंजना पर लापरवाही का आरोप लगाते हुए आदतन बोल उठी ।

    ‘ क्यों राई का पहाड़ बनाने पर तुली हो ? जब देखो जरा-जरा सी बात पर टोका-टोकी...परेशान हो गया हूँ रोज की चिक-चिक सुनकर । एक कप ही तो टूटा है...घर आकर थोड़ा सुकून पाना चाहता हूँ पर यहाँ भी चैन नहीं !! वह प्रयत्न तो कर रही है तुम्हारे साथ निभाने की । तुम यह क्यों नहीं समझती कि तुम मेरी माँ हो तो वह मेरी पत्नी है...।’ 

    ‘ तो निभा न पत्नी के प्रति दायित्व...माँ का क्या वह तो कैसे भी रह लेगी !! भले की बात समझाओ तो वह भी बुरी लगने लगती है...न जाने कैसा जमाना आ गया है ?’ पुष्पा  ने कहा ।

    ‘ माँ, मैं तुम्हारी अवमानना नहीं कर रहा हूँ...सिर्फ यह समझाने का प्रयत्न कर रहा हूँ कि अगर अंजना से कभी कोई गलती हो भी जाती है तो उसे ताना मारकर समझाने की बजाय प्यार से भी तो समझाया जा सकता है...।’ भावेश ने स्वर में नर्मी लाते हुये कहा ।

    ‘ अब तो मेरी हर बात तुम लोगों को बुरी लगती है...। इसके कदम रखते ही तू इतना बदल जायेगा, मैं सोच भी नहीं सकती थी...। अब तो तेरे लिये सब कुछ वही है, वह सही, मैं गलत...।’ क्रोध से बिफरते हुए वह बोली ।

    ‘ मैं नहीं जानता क्या सही है और क्या गलत ? मैं घर में सुख शांति चाहता हूँ ।’ इस बार भावेश के स्वर में फिर तख्लली आ गई ।

    ‘ इसका मतलब मैं ही बेवजह लड़ाई करती हूँ...?’ पुष्पा ने क्रोधित स्वर में कहा । 

    अंजना ने बीच बचाव करने का प्रयत्न किया तो वह बिफरते हुई बोली,‘ पहले तो स्वयं आग लगाती है फिर अच्छी बनने के लिये पानी डालने आ जाती है...हट, मेरे सामने से, तेरी जैसी मैंने खूब देखी हैं...पहले मेरे बेटे को फँसा लिया, अब उसे मुझसे दूर करने पर तुली है...।’

    माँ की जली कटी सुनकर अंजना की आँखों में आँसू भर आए और वह अंदर चली गई...पर भावेश चुप न रह पाया । बहुत दिनों से माँ का अंजना पर छोटी-छोटी बात क्रोधित होना तथा चिल्लाना, यह न करो वह न करो की बंदिशों में बाँधना उससे सहन नहीं हो रहा था और आज कप टूटने पर इतना बखेड़ा… उसने बीच बचाव करते हुए माँ को समझाना चाहा तो बात संभलने की बजाये बिगड़ती ही चली गई । उसने सोचा कि जब बात इतनी बढ़ ही गई है तो आज निपटारा कर ही लिया जाये कम से कम रोज-रोज की चिक-चिक से तो छुट्टी मिलेगी अतः वह भी तेजी से बोला...

    ‘ तुमसे तुम्हारा बेटा दूर उसने नहीं वरन् तुम्हारी रोज की टोका-टोकी ने किया है । तुम समझती नहीं या समझना नहीं चाहती कि वह अब तुम्हारी बहू के साथ इस घर की सदस्य भी है । जब तुम उससे ठीक से बात करोगी तभी वह तुम्हारा सम्मान कर पायेगी ।’

    ‘ हाँ, हाँ मैं ही बुरी हूँ...। कितना कृतघ्न हो गया है तू...? तेरे लिये मैंने क्या-क्या नहीं किया...!! सब भूल गया । उस कल की छोकरी के लिये आज तू मेरा अपमान करने से भी नहीं चूक रहा है । इससे तो पैदा ही न हुआ होता तो कम कम से यह दुर्दिन तो नहीं देखना पड़ता...। अच्छा हुआ जो तेरे पिताजी यह अपमान सहने से पहले ही चले गये । हे ईश्वर ! तू मुझे पता नहीं क्या-क्या दिखायेगा । ’ क्रोध के साथ उनकी आँखों में आँसू भी आ गये थे । आज से पहले भावेश ने उनसे इस तरह की बात नहीं की थी ।

    ‘ उसी अहसान का बदला तो चुकाने की कोशिश कर रहा हूँ पर आखिर कब तक मुझे परीक्षा देनी होगी...? कब तक वक्त वेवक्त ताने सुनने पड़ेंगे...?’ माँ के इसी तरह के नित कड़ुवे वचन सुनकर भावेश भी स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख पाया तथा उसी तीक्ष्णता से उत्तर दिया और अंदर चला गया ।

    क्रोध से उबल रही पुष्पा ने बेटे बहू से तिरस्कार पाकर स्वयं को पूजा घर में बंद कर लिया । यही उनका ब्रह्मास्त्र था...। अंजना ने चाय के लिये आवाज दी पर उन्होंने दरवाजा नहीं खोला । खाने के लिये आवाज दी फिर भी वह नहीं पसीजीं । पसीजती भी कैसे...? इस बार बहू ही आकर पूछ रही थी । बेटा एक बार भी नहीं आया । आज से पहले जब-जब भी उसमें और बहू में तकरार हुई है वह उसे मनाकर उसके क्रोध को शांत कर दिया करता था तथा अंजना से भी ‘ सारी’ बुलवा दिया करता था पर आज बात कुछ ज्यादा ही बढ़ गई थी । सदा शांत रहने वाले पुत्र के मुँह से निकले शब्द अब भी उसके मन को मथ रहे थे । साथ ही उसका उनसे खाने के लिये भी न पूछना, उन्हें दंशित करने लगा, वह कुढ़कर रह गईं । 

    रात में जब भूख बरदाश्त नहीं हुई तो धीरे से दरवाजा खोलकर वह बाहर आईं । किचन में कुछ न पाकर बड़बड़ाई कि किसी को भी मेरी चिंता नहीं है । दोनों खाकर मजे से सो गये हैं । मैं जीऊँ या मरूँ , इससे किसी को मतलब ही नहीं रहा है । हे भगवान, न जाने कैसा जमाना आ गया है !!

    फ्रिज खोला तो उसमें सब्जी के साथ ही रोटी का डिब्बा रखा देखकर चैन की सांस ली । सब्जी की मात्रा तथा डिब्बे में रोटियों की संख्या देखकर उन्हें लगा कि किसी ने भी खाना नहीं खाया है । फिर मन में आया कुछ और खा लिया होगा । जब मेरे लिये इनके दिल में इतनी कड़ुवाहट है तो वे खाना क्यों छोड़ेंगे...? अशांत मन से सब्जी गर्म की और खाना खाकर सो गई । वह सुबह उठीं, पूरे कमरे को रोशनी से नहाया देखकर चौंक गईं । सुबह के आठ बज गये हैं...। इतनी देर तक तो वह कभी भी नहीं सोई । नित्य कृत्य से निवृत होकर बाहर आई तो देखा बहू किचन में थी तथा बेटा घर से आफिस के लिये निकल रहा है । उन्हें देखकर भी उसने उनसे कुछ नहीं पूछा न ही कहा, ‘ माँ मैं आता हूँ ।‘ उसे चुपचाप आफिस जाते देखकर मन में कुछ दरक गया...जिस बेटे के लिये इतना कुछ किया वह उनसे ऐसे मुँह मोड़ लेगा कभी सोचा ही नहीं था । 

    पति सिद्धार्थ के परमपिता में विलीन होने के पश्चात् उन्होंने अकेले ही पुत्र भावेश और पुत्री दीप्ति को हर कठिनाइयों से बचाते हुए पाला है । दीप्ति अपने घर संसार में इतनी डूब गई है कि उसे उनकी सुध ही नहीं है और आज भावेश ने अपनी पत्नी के लिये उसे खरी खोटी सुना दी । आज जब आराम करने का समय आया तो दोनों के ऐसे तेवर...अगर कुछ कह दिया तो दोनों के मुँह फूल गये...। यह भी नहीं सोचा कि माँ के दिल पर क्या बीत रही होगी ? 

    उसे देखकर अंजना ने उसके सामने चाय रखी तो वह भड़क कर बोलीं, ‘ बेटे को तो मुझसे दूर कर ही दिया...अब और भी कुछ करना बाकी है तो वह भी कर दे...। पता नहीं उसे क्या पट्टी पढ़ा दी है कि आज वह मुझसे बिना बात किये आफिस चला गया ।’

    इस बार अंजना भी चुप न रह सकी तथा बोली,‘ रात में चुपचाप उठकर आपने खाना खा लिया...। बहू की तो दूर पर क्या आप यह सोच भी पाईं कि बेटे ने भी रात में कुछ खाया है या नहीं । इस समय भी वह बिना खाये आफिस चले गये हैं...यहाँ तक कि टिफिन भी नहीं ले गये हैं ।’

    ‘ तेरा पति है, तू जाने उसने क्यों नही खाया...?’ चाय पीते हुये निर्लिप्त स्वर में उन्होंने कहा ।

    ‘ आप भी तो उनकी माँ हैं...। क्या आप का फर्ज नहीं है कि एक बार अपनी पेट पूजा से पहले अपने बेटे से भी पूछ लें कि उसने कुछ खाया है या नहीं...?’ सदा चुप रहने वाली अंजना भी आज चुप न रह पाई । वह भी आज भावेश के बिना खाये निकल जाने के कारण बेहद दुखी थी ।

    ‘ बहुत बोलने लगी है तू...। कर्म तो मेरे ही फूटे थे...वरना एक से एक लड़कियाँ आ रही थीं मेरे भावेश के लिये...। दहेज भी खूब मिलता, पर तूने उस पर न जाने कैसा जादू कर दिया कि वह तुझे ब्याह लाया...। एक तो गरीब घर की और ऊपर से बेशऊर...न बात करने का तरीका और न रहने का । मैं तो यह सोचकर तुझे अपनाने के लिये तैयार हो गई थी कि गरीब है तो क्या हुआ मेरे भावेश की पसंद है और शायद मेरे इस अहसान के बदले तू मुझसे दबकर रहेगी तथा मेरी हर बात मानेगी । पर बात माननी तो दूर, तू तो मेरे भावेश को ही मेरे विरूद्ध भड़काती रहती है वरना वह पहले ऐसा नहीं था...।’

    ‘ आखिर कब तक आप मुझे ताने देती रहेंगी...? गरीब हूँ तो क्या मैं इंसान नहीं हूँ ...? क्या मेरा कोई आत्मसम्मान नहीं है ? गरीब होने के बावजूद मेरे माता-पिता ने मुझे पढ़ाया, मुझे आई.आईटियन बनाया । भावेश ने मेरी योग्यता के कारण मुझसे विवाह किया था...। इस सबके बावजूद भी दिन रात ताने...आखिर कितना सहूँ ।’ अंजली ने रोते हुए कहा तथा अपने कमरे में चली गई ।

    ‘ जा...जा...इन टसुओं से मैं पिघलने वाली नहीं...। इन टसुओं के सिवा लाई ही क्या है...? मेरे सोने से घर को नर्क बनाकर रख दिया है ।’ पुष्पा ने जोर से चिल्लाते हुए कहा ।

    सास के स्वर अंजना के मनमस्तिष्क में शीशे की तरह चुभ-चुभकर उसे लहूलुहान कर रहे थे । विवाह के पश्चात् लड़की का जीवन बदल जाता है...यह तो उसने सुना था पर रिश्ते निभाने के लिये उसे अपमान भी सहना होगा यह उसने नहीं सोचा था । उसने अपनी सास की हर बात मानने तथा उनकी इच्छानुसार काम करने की भरपूर कोशिश की पर उसकी हर कोशिश नाकामयाब रही । उसकी हर बात में कमी निकालकर उसे बेशऊर सिद्ध करना उसकी सास को सुकून पहुँचता था । घर की सजावट में थोड़ा भी फेर बदल करने का प्रयत्न करती तो तुरंत कह देतीं कि यह मेरा ड्रीम हाउस है जब तक मैं हूँ, कोई फेरबदल नहीं होगा । आखिर उसने घर की साजसज्ज्जा के बारे में सोचना ही छोड़ दिया । उसके हिस्से में अधिकार की बजाय कर्तव्य ही आये । कर्तव्य करते-करते अगर कहीं कुछ भूल चूक हो जाती तो ऐसे ताने देकर लहूलुहान कर दिया जाता कि उसे लगता ही नहीं था कि वह इस घर की बहू है । छुटपन में माँ के गुजर जाने के कारण उसे बचपन से माँ का प्यार नहीं मिला था । सोचा था सास के रूप में माँ को प्राप्त कर वह सारी कमी पूरी कर लेगी पर माँ तो ऐसे व्यवहार करती जैसे वह उनकी बहू नहीं नौकरानी हो । 

    कल तो हद ही कर दी । जब वह उनको खाने के लिये कहने गई तब तो उन्होंने खाना खाने से मना कर दिया किन्तु भूख बर्दाशत न होने पर उन्होंने रात में चुपचाप उठकर खाना खाया और सो गईं जबकि माँ के न खाने के कारण भावेश ने भूख नहीं है, कहकर खाने से मनाकर दिया था । वह अकेले कैसे खाती !! उसे बना बनाया  खाना उठाकर फ्रिज में रखना पड़ा तथा आज सुबह भी भावेश नाश्ता बनने के बावजूद बिना कुछ खाये आफिस चले गये । वह समझ नहीं पा रही थी कि भावेश का गुस्सा उस पर है या माँ पर...। आखिर कैसे वह सामंजस्य स्थापित करे...? वही कितना झुके...? सब कुछ भूलकर वह सुबह की चाय देने गई तो फिर वैसी ही जली कटी...आँखों से आँसुओं की अविरल धारा बह रही थी...। मन इतना खराब था कि आज उसका ऑफिस जाने का भी मन नहीं हुआ । कमरे में आकर उसने छुट्टी का मेल कर दिया । 

    पुष्पा ने अंजना को कमरे में जाते देखा तो सोचा जाती है तो जाये, मुझे क्या ? मैं किसी को मनाने नहीं जाऊँगी ...। अपने आप अक्ल ठिकाने आ जायेगी । तेवर तो देखो इस लड़की के...पता नहीं अपने को क्या समझती है...?

    पूरी जिंदगी तो उसने बच्चों की परवरिश में लगा दी....दीप्ति के विवाह के बाद सोचा था कि बेटे का विवाह अपनी इच्छानुसार करूँगी । उसके विवाह में मोटा दहेज लेकर अपनी उन सारी इच्छाओं को पूरा करूँगी जो पारिवारिक दायित्वों के चलते पूरा नहीं कर पाई पर भावेश ने उसके सारे अरमानों पर पानी फेर दिया...। एक दिन इसे सामने लाकर खड़ा कर दिया तथा कहा,‘ माँ आशीर्वाद दो...।’

    वह भावेश के बर्ताव से अवाक थीं । वह सोच या समझ पातीं उससे पहले ही भावेश और अंजना उसके पैरों पर झुक गये । एकलौता बेटा है, विद्रोह करके जाती भी तो कहाँ जातीं...सोचकर उन्होंने उन्हें आशीर्वाद दे दिया ।  अग्नि में घी का काम किया उनकी पड़ोसन सीमा और मीनाक्षी के शब्दों ने...जो खबर मिलते ही उसे बधाई देने पहुँची तथा उससे पूछा,‘ पुष्पा बहन, बहू है तो सुंदर, सुना है लव मैरिज है...। अकेली ही आई है या साथ में कुछ लाई भी है...।’

    अब उनसे क्या कहती...मन मसोसकर रह गई थी । पुत्र से तो वह कुछ नहीं कह पाई लेकिन जब तब मन का आक्रोश अंजना पर निकलने लगा । कल जब वह अंजना को टोक रही थी तभी भावेश आ गया और वह उनसे उलझ पड़ा । उसे इस बात की कतई उम्मीद नहीं थी कि वह बहू का पक्ष लेगा । इससे पहले भी वह अंजना को यह न करो, वह न करो की हिदायतों के साथ उसे छोटी-छोटी बातों पर टोकती आई थी तथा अक्सर भावेश से उसकी शिकायत भी कर दिया करती थी पर हर बार वह अंजना को ही डाँटकर उनका पक्ष मजबूत करता रहा था...पर आज तो हद ही हो गई...। उसने न केवल अंजना का पक्ष लिया वरन् उसके रूठने पर भी उसे मनाने नहीं आया...पर मैं भी किसी से कम नहीं, इनसे दबूँगी नहीं, वरना ये मेरा रहना ही दूभर कर देंगे, सोचकर उसने स्वयं को समझाया तथा अंजना के द्वारा बनाई चाय पीकर नहाने चली गई । नहाकर पूजाकर जब बाहर आईं तो देखा अंजना कमरे से बाहर नहीं आई है । वे किचन में गई तो देखा भावेश का लंच पैक है । खोलकर देखा तो उसमें सब्जी परांठा था । कुछ बनाने की अपेक्षा उन्होंने उसे ही खाना श्रेयस्कर समझा तथा नित्य की तरह टी.वी. पर अपना मनपसंद सीरियल देखने लगीं ।

    दोपहर का एक बज गया । अंजना को कमरे से बाहर न आते देखकर उन्होंने टोस्टर में ब्रेड सेकी तथा एक कप चाय बनाकर खाने बैठ गई । उन्होंने न ही अंजना को आवाज दी और न ही उसके कमरे में गई...चार बजे चाय की तलब लगने पर स्वयं ही चाय भी बनाकर पी ली...पर अब तक उनका क्रोध चरम सीमा तक पहुँच चुका था । अब वह भावेश के आने का इंतजार करने लगीं...जैसे ही वह आया । मन का आक्रोश निकलने लगा...

    ‘ अब चुप भी करो माँ, क्या मैं तुम्हें नहीं जानता...? एक वक्त खाना बनाकर नहीं खिला पाई तो इतना हो क्रोध क्यों...? हो सकता है उसकी तबियत खराब हो...!! ’

    ‘ हाँ...हाँ अब तो माँ में ही तुझे कमी नजर आयेगी...वही तेरे लिये सब कुछ हो गई है । पल्लू से जो बाँध लिया है उसने तुझे...।’

    ‘ तुम सास बहू के चक्कर में मेरा जीना दुश्वार हुआ जा रहा है, तुम्हें जैसे रहना हो रहो...मैं ही घर छोड़कर जा रहा हूँ...।’ 

    ‘ तू क्यों जायेगा...जाना है तो मैं जाऊँगी...।’ सदा कि तरह उन्होने कहा ।  

    उनका वाक्य पूरा होने से पूर्व ही भावेश दनदनाता हुआ बाहर चला गया । वह जब तक बाहर आई तब तक वह जा चुका था ।

    भावेश को पैदल घर से जाते देखकर उसने सोचा, ऐसे ही किसी मित्र के घर चला गया होगा । क्रोध शांत होते ही आ जायेगा । सब मुझ पर ही गुस्सा निकालो...बहू के ऐसे तेवर...सुबह से पानी के लिये भी नहीं पूछा और शिकायत की तो बेटा भी घर छोड़ने की धमकी देने लगा । हे भगवान, अब तू मुझे उठा ही ले...उन्होने सदा की तरह ऊपर की ओर देखते हुये हाथ जोड़कर कहा ।

    आठ बजे पुष्पा बहू के कमरे की तरफ गई, एक बार सोचा आवाज लगाये पर स्वयं की अकड़ ने उसे रोक लिया । अपने लिये दो रोटी बनाई और पिछले दिन की बनी सब्जी से खा लीं तथा निश्चिन्त भाव से टी.वी. देखने लगी । नौ बजे, यहाँ तक कि दस बज गये, न बेटा लौटा और न ही बहू कमरे से बाहर निकली । अब उसे चिंता होने लगी...। एकाएक उसे लगा, बहू ठीक ही कह रही थी कैसी माँ हैं आप कि यह जाने बिना कि बेटे , बहू ने खाया है या नहीं, आपने खा कैसे लिया...? बहू की बात तो छोड़ दें पर उसके मन में रात में बिना खाये सोये तथा सुबह भूखा ही आफिस गये पुत्र के प्रति जरा सी भी संवेदना नहीं जगी । उससे कुछ खाने के लिये पूछने की बजाय उसके आते ही वह शिकायतों का पुलिंदा लेकर बैठ गई...। यह कैसी आत्मघाती प्रवृत्ति बनती जा रही है उसकी...?

    अब उन्हें पुत्र की चिंता हो रही थी वहीं बहू पर भी गुस्सा आ रहा था जो सुबह से अपने कमरे में बंद थी । उसकी नहीं, कम से कम अपने पति की तो चिंता होनी चाहिए उसे...भावेश के मोबाइल पर ट्राई किया तो स्विच आफ बता रहा था...। भावेश के मित्र नरेश को फोन किया तो उसने कहा, ‘ माँजी, भावेश मेरे पास तो नहीं आया...दीपक से पूछकर देखिये शायद उसे पता हो ।’

    दीपक के साथ पुष्पा ने भावेश के कुछ अन्य मित्रों को फोन किया वहाँ से नकारात्मक उत्तर पाकर उन्हें को कुछ नहीं सूझ रहा था । अब बहू के पास  जाने के सिवाय कोई चारा ही नहीं था । उसके कमरे में कदम रखा तो बिजली बंद थी...बिजली ऑन करते हुए कुछ कठोर शब्द मुँह से निकलने वाले थे कि देखा वह चादर ओढ़े लेटी है । शरीर बुरी तरह कंपकपा जा रहा है तथा मुँह से भी कुछ अस्पष्ट शब्द निकल रहे हैं...वह घबरा  गई...बहू की यह हालत और बेटे का कुछ पता नहीं...पास जाकर छूआ तो शरीर तप रहा था...। पहली बार आत्मग्लानि से भर उठा उनका मन...।

    कोई उपाय न देखकर अंजना की स्थिति बताते हुये दुबारा नरेश को फोन किया तो उसने कहा, ‘ आंटी, इतनी रात कोई डाक्टर आयेगा या नहीं, फिर भी मैं कोशिश करता हूँ...।’

    एक बार बेटी दीप्ति ने भी अंजना के प्रति उसके रूखे व्यवहार को देखकर कहा था,‘ माँ, रस्सी को इतना भी न ऐंठो कि वह टूट जाये...फिर यह मत भूलो कि तुम्हारे बुढ़ापे के यही सहारे हैं । आज तुम जैसा बोओगी वैसा ही पाओगी...।’

    ‘ तू अभी बच्ची है तभी ऐसा कह रही है । अगर अभी मैंने इन्हें टाइट करके नहीं रखा तो बाद में ये मेरे सिर पर चढ़कर नाचेंगे...।’ दीप्ति के उसे समझाने पर उसने उत्तर दिया था ।

    ‘ वह सब पुरानी बातें हैं...सच्चाई तो यह है कि हर संबंध प्यार दो और प्यार लो, के सिद्धांत पर टिका है, डराकर या दहशत पैदाकर आप कुछ समय के लिये भले ही उन्हें अपना गुलाम बना लो पर कभी न कभी तो उनके क्रोध का गुब्बारा फूटेगा तब उन्हें दोष मत देना ।’

    ‘ अच्छा, अब बंद भी कर अपना प्रवचन...।’ 

    उस समय उन्होंने दीप्ति को चुप करा दिया था पर आज अंजना की हालत देखकर तथा पुत्र का कोई अता पता न पाकर इस समय उसे दीप्ति का कहा एक एक शब्द सही लग रहा था...वरना सदा शांत रहने वाले तथा उसकी हर आज्ञा का अक्षरशः पालन करने वाले बेटे बहू मे इतना अंतर क्यों आया...? कहीं उसकी बेवजह की नुक्ताचीनी के कारण ही तो नहीं । 

    आज पुष्पा इस सबकी वजह स्वयं को समझने लगी थी...न ही वह इतनी कठोर या रूक्ष होती न ही भावेश घर छोड़कर जाता और न ही बहू की यह हालत होती...। आखिर किसी बात को सहने की भी एक सीमा होती है जब अति हो जाती है तो एक संवेदनशील इंसान ऐसे ही मानसिक संतुलन खो बैठता है...। उसे यह बात समझ में तो आई पर कुछ देर से...।

    लगभग आधे घंटे में नरेश डाक्टर को लेकर आया...आते ही उसने अंजना को इंजेक्शन दिया तथा समय से दवा खिलाने का निर्देश देते हुए ब्लड टेस्ट करवाने के लिये कहा । 

    भावेश का कहीं कोई पता नहीं था...इधर अंजना की तबियत ठीक होने का नाम नहीं ले रही थी...। पुष्पा जिसे अंजना के नाम से ही चिढ़ थी, अचानक उसके प्रति सहृदय होने लगीं । अंजना जब भी भावेश के लिये पूछती वह कह देती वह आफिस के काम से बाहर गया है...काम होते ही आ जायेगा । उसका मोबाइल अब भी स्विच आफ बता रहा था । अभी पुष्पा कशमकश से गुजर रही थी कि दीप्ति का फोन आया । न चाहते हुये भी उसे दीप्ति को बताना पड़ा । 

    दीप्ति ने सारी बातें सुनकर सिर्फ इतना कहा, ‘ माँ मेरी सासूमाँ की तबियत ठीक नहीं है वरना मैं आ जाती । जब तक भइया नहीं मिल जाते, तुम्हें संयम से काम लेना होगा, स्वयं के साथ भाभी को भी संभालना होगा ।’  

    जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा था झूठ बोलने के बावजूद अंजना सब समझ गई थी...। नरेश तथा उसके अन्य मित्र भी भावेश के बारे में कुछ नहीं बता पा रहे थे । अंजना पर इस बात का ऐसा असर हुआ कि उसने खाना पीना छोड़ दिया । यहाँ तक कि दवा खाने से भी उसने मना कर दिया । उसकी ऐसी हालत देखकर एक दिन वह उससे बोली,‘ बेटी, मैं तेरी दोषी हूँ , मुझसे  गलती हुई है , इसका प्रतिकार भी मुझे ही करना होगा । मुझे पूरा विश्वास है, भावेश एक दिन अवश्य आयेगा । वह तुझसे बहुत प्यार करता है आखिर कब तक वह तुझसे दूर रह पायेगा पर बेटा उसके लिये तुझे जीना होगा । यूँ खाना पीना छोड़ने से तो किसी समस्या का हल नहीं निकलेगा । कुछ दिन और देख लेते हैं वरना फिर पुलिस में कमप्लेंट करवाने के साथ पेपर में भी इश्तहार देगे...।’

    उसकी बात मानकर अंजना ने थोड़ा खाने की कोशिश की पर उसे उल्टी हो गई । ऐसा एक बार नहीं कई बार होने पर पुष्पा ने उसे डाक्टर को दिखाने का निर्णय लिया तथा वह अंजना को लेकर डाक्टर को दिखाने उनके नर्सिग होम गई...। 

    ‘ डाक्टर साहब, मेरी बहू ठीक तो है...।’ पुष्पा ने डाक्टर के चैक करने के पश्चात् पूछा ।

    ‘ हाँ...हाँ बिल्कुल ठीक है...मिठाई खिलाइये...आप दादी बनने वाली हैं...।’

    ‘ क्या...?’

    ‘ बिल्कुल सच अम्मा...आप दादी बनने वाली हैं...।’ 

    डाक्टर को दिखाकर वह कमरे से निकली ही थीं कि एक नर्स दौड़ती हुई आई तथा बगल के केबिन में घुसते हुए बोली, ‘ डाक्टर साहब, उस पेशेन्ट को होश आ गया है...।’

    ‘ सच, तुम चलो, मैं आता हूँ...।’

    ‘ क्या हुआ डाक्टर उस पेशेंट को...?’ नर्स की बात सुनकर अंजना से रहा नहीं गया, उसने डाक्टर के केबिन में घुसते हुए पूछा ।

    ‘ आप लोग कौन हैं तथा बिना इजाजत मेरे केबिन में कैसे घुस आये...?’ डाक्टर ने उसे ऊपर से नीचे तक निहारते हुए रूखे स्वर में कहा ।

    ‘ डाक्टर साहब, मेरे पति लगभग पंद्रह दिन से लापता हैं...इसलिये मैं इस पेशेन्ट के बारे में जानना चाहती हूँ ।’ अंजना ने डाक्टर की डाँट की परवाह किये बिना कहा ।

    ‘ पंद्रह दिन से लापता...लगभग इतने दिन पूर्व ही इस व्यक्ति को बुरी तरह जख्मी हालत में यहाँ लाया गया था । कोई पहचान का जरिया न होने पर हम उनके घर वालों को खबर नहीं कर पाये हैं । वह तो उस सज्जन की सज्जनता कहिए जो इसे इतनी जख्मी हालत में उठाकर लाये । वही इसके इलाज का खर्च भी उठा रहे हैं...।’ अचानक डाक्टर के स्वर में नर्मी आ गई ।

    ‘ क्या हम उससे मिल सकते है...?’ पुष्पा और अंजना ने एक साथ कहा ।

    ‘ हाँ...हाँ क्यों नहीं...।’

    वे दोनों डाक्टर के पीछे-पीछे गई...। भावेश को पाकर उनकी खुशी का ठिकाना न रहा पर भावेश ने उन्हें देखकर मुँह फेर लिया ।

    ‘ क्या आप इन्हें जानती हैं...?’

    ‘ यह मेरा बेटा भावेश है...हम पिछले पंद्रह दिन से इसे ढूँढ रहे हैं...।’ माँजी ने खुशी-खुशी डाक्टर से कहा ।

    ‘ चलो अच्छा हुआ...वरना हम इनकी आइडेंन्टी को लेकर परेशान हो रहे थे...।’ डॉक्टर ने कहा तथा समीप खड़ी सिस्टर को कुछ निर्देश देकर चला गया । 

    ‘ आज दो-दो खुशियाँ आपके दामन में समाई हैं माँजी...जमकर पार्टी दीजिए और हाँ मुझे बुलाना नहीं भूलियेगा...।’ पीछे से आवाज आई ।

    पुष्पा ने पीछे मुड़कर देखा तो वही नर्स खड़ी थी जिसने पेशेंन्ट के होश में आने की सूचना दी थी...

    ‘ आप अपना दवा का परचा वही भूल आई थीं । डाक्टर ने आवाज लगाई पर आपने सुना नहीं...लीजिए दवा का पर्चा...और हाँ पार्टी में बुलाने से नहीं भूलियेगा ।’ नर्स ने दवा का पुर्जा उसे पकड़ाते हुए पुनः कहा । 

    तुम्हें कैसे भूलूँगी...तुमने आज मुझे वह खुशी लौटाई हैं जो मुझसे मेरी गलती के कारण दूर हो गई थी माँजी मन ही मन बुदबुदाई ।

    ‘ मुझे माफ कर दे बेटा...।’ माँजी ने भावेश के बिस्तर पर बैठकर उसका मुँह अपनी ओर करती हुये कहा ।

    ‘ दूसरी खुशी कौन सी है, नहीं पूछेगा...।’

    बेटे की आँखों में प्रश्न देखकर वह फिर बोली,‘ तू पापा बनने वाला है और मैं दादी और यह खुशी मुझे मेरी बहू अंजना ने दी है...।’ कहते हुये पुष्पा ने अंजना की तरफ देखा तथा उससे कहा,‘ दूर क्यों खड़ी है, यहाँ आ न, तेरा भावेश तेरा इंतजार कर रहा है...।’

    पुष्पा अंजना भावेश के पास बैठाकर बाहर चली गईं तथा दीप्ति को फोन मिलाने लगीं । वह भी परेशान थी । बहुत दिनों के पश्चात् खुशियों ने उनके द्वार पर दस्तक दी है । वह अपनी जिंदगी जी चुकीं, बच्चों की जिंदगी में बेवजह दखल देकर अब वह ऐसा कोई काम नहीं करेंगी जिससे उनमें फिर से दरार आये । सच उन्हें आज जिंदगी से एक सबक मिला है । दीप्ति ठीक ही कहती कि प्यार देकर ही प्यार पाया जा सकता है । 


                            सुधा आदेश


अजब रंग जिंदगी के

 




 अजब रंग ज़िंदगी के  

 

इला जबसे भाई विमल के घर से लौटी है तबसे वह स्वयं को बेहद अस्थिर महसूस कर रही है। सच तो यह है कि भाई के सुखी घर परिवार को देखकर वह ईर्ष्याग्रस्त हो गई थी...। अपनी यह जिंदगी तो उसने स्वयं चुनी है, फिर आज यह कैसी दुविधा...उसने मन ही मन सोचा।

            वह आम भारतीय नारी की तरह माँग में गहरा लाल सिंदूर लगाये, गहने कपड़ों से सुसस्जित, घर परिवार के लिये दिन रात एक करने के बावजूद नित्य दिल को छेदते कटु वचनों के प्रहारों की असीमावस्था से निकलते आँसुओं से भरी आँखों के संग जीवन व्यतीत नहीं करना चाहती थी अतः उसने बचपन में ही आत्मनिर्भर बनने का निर्णय कर लिया था जिससे वह निज पर होते प्रहारों का प्रतिकार कर पाये...सम्मान से जी पाये। विवाह के प्रति उसके मन में अनिच्छा क्यों और कैसे जाग्रत हुई, उसे स्वयं ही पता नहीं था पर वह जीवन में कुछ करना चाहती थी, कुछ बनना चाहती थी। अंततः समाज सेवा के लिए उसने सिविल सर्विस में जाने का निश्चय किया।   

            अपने ध्येय की प्राप्ति के लिये वह अथक परिश्रम करने लगी। जब उसका भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयन हुआ तब न केवल वह वरन् उसके माँ-पापा भी बेहद प्रसन्न हुये थे। तीन चार वर्षो के पश्चात् उसके माँ-पापा ने उसके ऊपर विवाह के लिये दबाब बनाना प्रारंभ किया पर उसने अपनी व्यस्तता का हवाला देकर उन्हें यह कहकर चुप करा दिया कि उसका कार्यक्षेत्र उसे विवाह की इजाजत नहीं देता है। वह दो नावों में पैर नहीं रखना चाहती अंततः सबने उसकी जिद के आगे हार मान ली थी।

            उस समय विवाह उसे एक बंधन लगता था...। उसका मानना था कि अगर वह विवाह के बंधन में बंध गई तो कैरियर पर ध्यान नहीं दे पायेगी। अपनी इस सोच के तहत वह निरंतर आगे बढ़ती गई, उसने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा फिर आज यह आकुलता,व्याकुलता क्यों? आज उसे अपनी माँ की कही बातें याद आ रही थीं...उसे विवाह के लिये राजी करते हुये एक नहीं अनेकों बार उन्होंने कहा था... “बेटी, चाहे तू कितने भी बड़े पद पर क्यों न पहुँच जाये पर तेरा पद या तेरे साथ काम करने वाले तेरे सहयोगी सिर्फ जब तक तू पद पर है तभी तक साथ देंगे। उनसे तुझे परिवारिक प्रेम...रिश्तों की गर्माहट नहीं मिलेगी। मैं मानती हूँ कि जिम्मेदारियों के बोझ या अहंकार के कारण कभी-कभी पति-पत्नी के रिश्तों कड़वाहट आ जाती है पर बेटी यह भी सच है कि यही खट्टे-मीठे रिश्ते जीवन भर साथ निभाते हैं। माता-पिता, भाई-बहन कुछ दूरी तक ही चल पाते हैं...जीवनसाथी चाहे जैसा भी हो जीवन के अंतिम क्षण तक साथ निभाता है।”

            आज उसे माँ की बातें सच लग रही थीं...। उसे कुछ नहीं सूझा तो वह स्वयं को तरोताजा बनाने तथा अनर्गल मनमस्तिष्क में बबंडर मचाते विचारों से बचने के लिये, चाय बनाने चली गई।

            चाय का कप लेकर इला बालकनी में आकर बैठ गई...। दसवीं मंजिल से दूर-दूर तक फैले प्राकृतिक सौन्दर्य को निहारना उसे सदा से अच्छा लगता था पर आज उसे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था...। अंततः वह अपना मोबाइल लेकर बैठ गई।आजकल टाइम पास का यह भी एक अच्छा जरिया है। फेस बुक और व्हाट्सएप मैसेज से मन भर गया तो उसने फोटो गैलरी खोल ली। अचानक महीना भर पूर्व की गई यू.एस. ट्रिप की फोटोज पर उसकी आँखें ठहर गईं...। साथ में था उसका सहयात्री आदेश, उनके टूअर ग्रुप का सदस्य...। ट्रिप पर जाते हुये प्लेन में उसकी तथा आदेश की सीट अगल-बगल थी। बातों का सिलसिला चल निकला...वह बहुत बातूनी और जिंदादिल इंसान थे। उनके मध्य न जाने कब दोस्ती का रिश्ता कायम हो गया। वह पाँच वर्ष पूर्व बिजली विभाग के चीफ इंजीनियर पद से रिटायर हुये थे। उनकी पत्नी सीमा का पंद्रह वर्ष पूर्व निधन हो गया था। उनकी पुत्री अनुप्रिया  तथा पुत्र आदित्य अपने-अपने घर परिवार में व्यस्त थे। वह बच्चों के पास महीना पंद्रह दिन से ज्यादा नहीं रूक पाते थे। उनका मानना था कि बच्चों की अपनी जिंदगी है तथा मेरी अपनी जिंदगी है...निरंतर साथ रहना कभी-कभी दिल में दूरियाँ पैदा कर देता है। अगर उन्हें कभी मेरी आवश्यकता पड़ी तो मैं सदैव उनके पास रहने के लिये तैयार हूँ। उनके पास रहते हुये एक बात मुझे सदा दंश देती है कि मैं वहाँ आदेश भल्ला नहीं वरन् आदित्य का पापा ही रह जाता हूँ। भला अपनी आइडेन्टिटी खोकर जीना भी भला क्या जीना है!! कहते हुए वह हंस पड़े थे।

            इस यू.एस. ट्रिप में वही दोनों अकेले थे अन्य सभी अपने परिवारों के साथ थे अतः जाने अनजाने प्लेन की दोस्ती पूरे ट्रिप में भी कायम रही। एक तरह से वे आपस में बेतक्कलुफ भी हो गये थे। शिकागो के मिलीनेयम पार्क में फब्बारों के बीच तरह-तरह की आकृति बनाते चेहरे को देखते हुये आदेश खुलकर हँसे थे...यहाँ तक कि फब्बारे के पानी को अपनी अंजुली में भरकर उसने उसकी ओर भी फेंका था। उसे पानी की बौछारों से बचते देखकर उन्होंने क्षमायाचना के स्वर में कहा था, “सॉरी इलाजी, अगर आपको बुरा लगा हो तो...सच कहूँ, सीमा के जाने के पश्चात् बाद आज मैं पहली बार इतना हँसा हूँ...। पद की जिम्मेदारी के साथ बच्चों की जिम्मेदारी निभाते हुये मैं समाज से कट सा गया था। रिटायरमेंट के पश्चात् तो और भी अकेलापन महसूस करने लगा हूँ। अपनी मानसिकता के कारण बच्चों के पास भी ज्यादा रह पाता हूँ। मेरी मानसिक दशा देखकर एक दिन बेटे आदित्य ने कहा कि पापा हमारे पास तो समय नहीं है, आप देश विदेश घूमिये मन तरोताजा बना रहेगा। उसकी बात मानकर यह टूअर बुक करा लिया। सच शुष्क जिंदगी से कुछ दिन तक तो निजात मिली...।

            सच चाहे न्यूयार्क की स्टैचू आफ लिबर्टी हो या वाशिंगटन का रूजवेल्ट मेमोरियल, सेंट्रल पार्क या नियाग्राफाल की खूबसूरती में खोये हाथ में हाथ डाले वे एकदम बच्चे ही बन गये थे...। कभी-कभी लगता यही असली जिंदगी है, अभी तक तो वह बेमानी जिंदगी जी रहे थे। इक्कीस दिन कैसे बीत गये पता ही न चला...आखिर लौटने का दिन भी आ गया। आदेश भी उसी के शहर में रहता है, जानकर अंततः फोन नम्बरों के आदान प्रदान के साथ फिर से मिलने का वायदा करते हुये उन्होंने एक दूसरे से विदा ली।

            आज इला को उसकी बेहद याद आ रही थी। फोन पर उसका नाम खोजने के बावजूद वह उसका नम्बर मिलाने में झिझक रही थी। न जाने क्यों उसका हृदय नवयौवना की तरह धड़कने लगा था। आखिर दिल की जीत हुई और उसने कंपकंपाते हाथों से उसे फोन मिला दिया...

            “इला तुम...कैसी हो ? मैं भी तुमसे बात करना चाह रहा था पर...।”

            “मेरी तरह ही झिझक रहे थे...।” इला ने कहा।

            उधर से कोई उत्तर न पाकर इला ने पुनः कहा, “अगर आप आज  फ्री हों तो आज बारबीक्यू नेशन में मिलें। ”

            “मैं तो फ्री ही फ्री हूँ, बताओ कब मिलना है?” इस बार आदेश  ने बेतक्लुफ़्फ़ी से कहा।

            “आज 12- 12.30 बजे तक पहुँचते हैं।”

            “ठीक  है, मैं समय पर पहुँच जाऊँगा।”

            उस दिन खाना खाकर,मूवी देखकर देर रात जब इला घर लौटी तो मन पूरे दिन की सुखद यादों में डूबा हुआ था। आदेश बहुत ही सुलझे हुये व्यक्ति लगे। उनकी बातों में बनावट बिल्कुल नहीं थी। न जाने क्यों उसका दिल उनके साथ के लिये तरसने लगा था। बार-बार यही मन में आ रहा था कि क्या यही प्यार है?

            कहाँ पिछले कुछ समय से वह यूँ ही पड़ी रहती थी अब वह पुनः बनाव श्रृंगार के प्रति सचेत रहने लगी विशेषतया तब जब उसे आदेशजी से मिलने जाना होता। कुछ ही मुलाकातों के पश्चात् उसे लगने लगा कि वह उसके बिना नहीं रह सकती। शायद यही हालत आदेश जी की थी क्योंकि अगर किसी दिन वह उन्हें फोन नहीं करती तो उनका फोन आ जाता और वे घंटों बात करते रह जाते। आखिर एक दिन उसने मन की बात आदेश जी  से कही...आदेश जी ने शांत स्वर में कहा, “मेरे मन में भी कई दिनों से यह बात आ रही थी पर मुझे डर था कि कहीं मैं पहल करूँ तो तुम मुझे गलत न समझ लो और हमारी मित्रता ही टूट जाये। अगर तुम भी यही चाहती हो तो मैं आज ही अपने पुत्र और पुत्री से बात करता हूँ।”

            “ठीक है, मैं भी अपना निर्णय अपने भइया भाभी को बता देती हूँ।”

            इला ने भइया-भाभी को अपना निर्णय बताया तो वे उसकी बात सुनकर आश्चर्यचकित रह गये। उन्होंने आदेशजी से मिलने की इच्छा जताई। उसने उन्हें उससे मिलवाने का वायदा कर लिया। दूसरे दिन आदेशजी  ने उसे बताया कि उनके पुत्र आदित्य को इस रिश्ते से कोई आपत्ति नहीं है पर पुत्री अनुप्रिया नहीं मान रही है। उसका कहना है मैं उसकी माँ की जगह किसी अन्य को कैसे दे सकती हूँ लेकिन तुम चिंता मत करो मैं उसे मना लूँगा।”

            “ठीक है...अगर तुम आज घर आ सकते हो तो आ जाओ, भइया-भाभी तुमसे मिलना चाहते हैं।”

            “ओ.के... मैं शाम को पहुंचता  हूँ।”

            भइया-भाभी को भी आदेश जी का व्यवहार अच्छा लगा अतः उन्होंने यह कहते हुये उसे इजाजत दे दी कि तुम दोनों परिपक्व हो, साथ जिंदगी निभाना चाहते हो तो हमें कोई एतराज नहीं है।

            आदेश अनुप्रिया को मना नहीं पाये...। अनुप्रिया की अनुपस्थिति में उनके विवाह के लिये मना करने पर आदित्य ने कहा कि वह अनुप्रिया से वह बात कर लेगा। आप अगर इला आंटी से विवाह कर लेंगे तो हमारी आपकी ओर से चिंता कम हो जायेगी...। हमें भी लगेगा आपकी देखभाल करने वाला कोई है। उसे आदित्य की सोच पर गर्व हुआ था...। उम्र के इस पड़ाव पर पहुँचकर वह भी चाहती थी कि कोई तो हो जिसके साथ मन की बातें शेयर कर सके। युवावस्था में तो इंसान को अपने कार्यक्षेत्र तथा पारिवारिक जिम्मेदारियों से ही फुर्सत नहीं मिलती है पर इस समय अगर वह चाहे तो सारी जिम्मेदारियों से मुक्ति पाकर जीवन का लुफ्त उठा सकता है। सच कहें तो ज़िंदगी साठ वर्ष की उम्र के बाद ही प्रारम्भ होती है।

            आखिर आदित्य और पुत्रवधू तृप्ति के आग्रह पर उन दोनों ने भइया-भाभी तथा आदित्य और तृप्ति  की उपस्थिति में कोर्ट मैरिज कर ली। इस बार भइया-भाभी ने गिफ्ट में उन्हें यूरोपियन टूअर की टिकट दी थीं। अनुप्रिया  की वजह से आदेशजी का कहीं जाने का मन नहीं था पर वे मना करके भइया-भाभी का का अपमान भी नहीं करना चाहते थे।  जब आदित्य को उनके इस टूर का पता चला तब उसने कहा, “पापा, आप अतुल को जानते हैं, वह आजकल लंदन में है, जब उसे पता चला कि आप यूरोप टूर पर जा रहे हैं  तब उसने कहा कि हफ्ते भर पूर्व यहाँ आ जायें,मैं उन्हें लंदन घूमा दूंगा वरना ये टूर वाले कुछ ही जगह घुमाते हैं।”

          “लेकिन हमारी बुकिंग ट्रिप के अनुसार है ।”

          “वह मैं मैनेज करा दूंगा। आप निश्चित दिन अपने टूर को ज्वाइन कर लीजिएगा।”

            “लेकिन क्या अतुल हमें इस रूप में...तुम तो जानते हो तुम्हारी माँ और उसकी माँ आपस में बहुत अच्छी मित्र थीं।”

            “ पापा, अतुल को मैंने सब बता दिया है...वह बहुत खुश है। यह उसकी आपको और इला आंटी... ममा को उसकी तरफ से ट्रीट है।”   

          वह आदित्य  को नाराज नहीं करना चाहते  थे अतः मान गए वैसे भी अतुल को वह अच्छी तरह जानते थे। वह आदित्य  के साथ स्कूल से लेकर कॉलेज तक पढ़ा था। नौकरी के बाद वे अलग हुए किन्तु आज भी उनकी दोस्ती वैसी ही है।      

           इस ट्रिप पर जाने के लिए उन्हें दो वीजा बनवाने की औपचारिकता पूरी करनी पड़ी। एक यू.के. का तथा दूसरा शेंगेन वीज़ा अन्य यूरोपियन देशों के लिए।  वीजा की औचारिकताओं को पूरा करके हम एअर इंडिया की फ्लाइट A। 161 से रात्रि 1.45 पर 20 जून को दिल्ली से चले। हमारे लिये महत्वपूर्ण पल था जब हमने लगभग साढ़े नौ घंटे की यात्रा करके इंग्लैंड की राजधानी लंदन के हीथ्रू एअर पोर्ट पर कदम रखा। यद्यपि हमारा ट्रिप 25 जून से प्रारंभ हो रहा था किन्तु आदित्य न और अतुल की बात मानकर 20 जून को वहाँ पहुँच गये । इमीग्रेशन की फारमेल्टी पूरी करके हम निकास मार्ग से बाहर आ गये । लंदन का समय हमारे भारतीय समय से साढ़े चार घंटे पीछे है । हमने लंदन के समय के अनुसार अपनी घड़ी सेट कर ली ।

      अतुल हमें लेने लेने आ रहा था । इसी बीच आदित्य का फोन आ गया । उसने सूचित किया कि अतुल पंद्रह मिनट में पहुँच रहा है, उसकी चिंता हमें भली लगी । उनकी दोस्ती सदाबहार है,उनमें आपस में काफी प्यार ही नहीं अच्छी अण्डरस्टैंडिंग भी है। वे सभी आपस में कनेक्ट रहते हैं । इसी बीच अतुल का भी फोन आ गया । हमने उसे बता दिया कि हम निकास द्वार के सामने पड़ी कुर्सियों पर बैठे हैं। वह बिम्बलडन में रहता है । थोड़ी ही देर में वह आ गया । लगभग एक घंटे की ड्राइव के पश्चात् हम उसके घर पहुँचे। अतुल की पत्नी, हमारी बहू समान निति हमारा ही इंतजार कर रही थी । उन्होंने हमारा सामान प्रथम तल पर स्थित हमारे लिये नियत कमरे में रख दिया । हमारे फ्रेश होते ही निति ने गर्मागर्म पनीर परांठे तथा चाय परोस दी । परांठे बहुत ही स्वादिष्ट बने थे । वैसे तो निति जॉब करती है पर उसने हमारे लिये अवकाश ले लिया था । उनकी बेटी आन्या तथा हमारी पोती स्कूल गई थी ।

            हम पूरी रात जगे थे अतः थकान हो रही थी। नाश्ता करके हम आराम करने चले गये। आँख खुली तो देखा तीन बज रहे हैं । निति खाने के लिये हमारा इंतजार कर रही थी। यद्यपि खाना खाने का मन नहीं था पर उसका मन रखने के लिये हमने थोड़ा-थोड़ा खाना खा लिया तथा वहीं बैठे-बैठे बातें करने लगे । डायनिंग टेबिल जिस खिड़की से सटी थी उससे एक बड़ा सा आँगन नजर आ रहा था जिसमें एक रस्सी पर भारत की तरह ही कपड़े पड़े हुये थे । बाउंडरी वाल से छन-छनकर सूरज की किरण हम तक पहुँच रही थीं । मौसम बहुत सुहावना था । अतुल वर्क फ्राम होम कर रहा था । जब-जब उसे समय मिलता वह आ जाता । थोड़ी देर पश्चात् आन्या आ गई । उसे हमारे आने का पहले ही पता था अतः वह हमें देखकर बेहद खुश हुई ।

            ‘ आंटी-अंकल जी अगर आपकी थकान उतर गई हो पास में ही पार्क है, चलें । आन्या भी वहाँ अपने दोस्तों के साथ खेल लेती है ।’ पाँच बजे निति ने हमसे कहा ।

            हमने अपनी स्वीकृति दे दी । हम निति के साथ चल दिये । आन्या साइकिल से जा रही थी तथा हम सब पैदल फुटपाथ पर चल रहे थे । कई क्रोसिंग पार की पर कोई परेशानी नहीं हुई क्योंकि हर जगह जेब्ररा क्रोसिंग थी । जेबरा क्रोसिंग से ही सिग्नल होने पर पैदल पथ यात्री को रोड क्रॉस करनी होती है जबकि हमारे भारत में सड़क पार करने के लिये अच्छी खासी मशक्कत करनी पड़ती है । सड़क के दोनों ओर एक ही तरह के घर बने हुये थे । हमें उन्हें देखता देखकर निति ने हमारी जिज्ञासा को शांत करते हुये कहा । इस कालोनी में बने घर सौ सवा सौ वर्ष पुराने हैं । जिस राजा या रानी के समय इन घरों का निर्माण हुआ था उसी के नाम से इन्हें जाना जाता है । जो घर क्वीन विक्टोरिया के समय बने उन्हें विक्टोरियन तथा जो क्वीन एलिजाबेथ के जमाने में बने, उन्हें एलिजाबेथ कालीन नामों से जाना जाता है । सबसे बड़ी बात यह लगी कि घरों की नम्बरिंग एक तरफ सम थी दूसरी ओर विषम थी । लगभग सात सौ आठ सौ मीटर चलकर पार्क पहुँचे ।

            पार्क के अंदर घुसते ही बड़ा सा मैदान नजर आया जहाँ बहुत से कपल अपने बच्चों को लेकर आये थे । पार्क मे बैडमिंटन तथा टेनिस कोर्ट भी था । जहाँ बच्चों को कोचिंग भी दी जाती थी । आन्या अपनी हमउम्र सहेलियों के साथ खेलने लगी तथा हम वहीं पार्क में पड़ी बेंच पर बैठ गये । ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी । लग ही नहीं रहा था कि हम भारत से बाहर हैं क्योंकि हमें वहाँ कई इंडियन तथा पाकिस्तानी बच्चे भी नजर आये । अभी हम बैठे ही थे कि एक महिला अपने छोटे बेटे को प्राम में लेकर आई । वह निति की भारतीय मित्र रागिनी थी । उसने उनका परिचय करवाया । वह चंडीगढ़ से थी। उसका आठ नौ महीने का बेटा बहुत ही क्यूट था । उसे देखकर मुझे आदित्य के उसी की उम्र के बेटे शुभम् का ख्याल आ गया ।

हमारे साथ वह आधे रास्ते तक आई फिर अपने घर को दिखाते हुए हमसे अपने घर आने का आग्रह करते हुए विदा ली।

" बहुत अच्छी है तुम्हारी मित्र रागिनी और उसका बेबी।"

" जी आंटी...मन से भी बेहद मजबूत है।"कहते हुए निति के चेहरे पर उदासी छा गई।

"क्या कह रही हो तुम ?"

"हाँ, आंटी, जब बेबी के होने के एक महीने पूर्व ही लंदन मेट्रो ब्लास्ट में रागिनी के पति राहुल का देहांत हो गया। दोनों ने लव मैरिज की थी अतः उसे कहीं से कोई सपोर्ट नहीं मिला। आज वह  स्कूल में पढ़ाते हुए अकेले ही जिंदगी की जद्दोजहद से जूझ रही है लेकिन कभी चेहरे पर शिकन नहीं आने देती।"

"ओह! यह तो बहुत ही बुरा हुआ। यह टेरेरिस्ट भी न जाने क्या चाहते हैं। हर जगह आतंक...।"

घर आ गया था। सच जिंदगी भी न जाने कैसे-कैसे रूप दिखाती है। इंसान तो बस एक मोहरा है।

            लगभग एक घंटा पार्क में बिताकर हम घर लौटे । चाय की तलब लग आई थी । निति ने चाय बनाकर दी तथा रात के खाने की तैयार करने लगी । यहाँ घर का सारा काम, बर्तन धोने से लेकर घर की साफ सफाई तथा कपड़े धोना, सुखाना सब स्वयं ही करने पड़ते हैं । माना सब काम मशीनों से होते हैं पर समय तो लगता ही है । बहुत हुआ तो समर्थ परिवार हफ्ते में एक या दो दिन काम वाली को बुलाकर आवश्यकतानुसार काम करवा लेते हैं । वैसे भी जब दोनों पति-पत्नी जॉब करते हैं तो उनके लिये कामवाली के लिये रोज-रोज समय निकालना ही संभव नहीं होता ।

            निति ने खाना लगा दिया। सामने सूरज चमक रहा था। खाना देखकर मुँह से निकला, “खाना इतनी जल्दी...।”

            “ आंटी जी साढ़े आठ बज रहे हैं।” उत्तर निति ने ही दिया ।

            “ क्या...?” कहते हुये उसने घड़ी पर निगाह टिकाई ।

            दरअसल सामने सूरज चमकता देखकर लगा कि अभी तो दिन ही है । अतुल ने बताया कि यहाँ रात देर से होती है। हम सबने खाना खा लिया। निति भी काम निबटाकर सोने की तैयारी करने लगी। दूसरे दिन उसे आफिस जाना था। हम भी अपने कमरे में आ गये। कमरे की बड़ी-बड़ी खिड़कियों से अभी सूरज की रोशनी आ रही थी। सामने लाल रंग के पत्थर से बने एक ही तरह के कॉटेज टाइप घर नजर आ रहे थे । गाड़ियाँ भी हर घर के सामने ही पार्किंग एरिया में खड़ी थीं । हमने उस नजारे को कैमरे में कैद किया तथा सोने की तैयारी करने लगे ।

            रात में आँख खुली तो सामने अच्छी खासी रोशनी देखकर घड़ी देखी तो चार बजा रही थी । आश्चर्य हुआ कि रात इतनी छोटी होती हैं । मैंने पुनः खिड़की से एक फोटो ली तथा फिर से सोने की कोशिश करने लगी ।

 

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            सुबह छह बजे इला नीचे आई। निति किचन में आ चुकी थी । उसके हाथ मशीन की तरह चल रहे थे । उसने नाश्ते की तैयारी कर ली थी तथा अपने और आन्या के लिये टिफिन पैक कर रही थी । मुझे देखकर पूछा...

            “आंटी जी चाय बना दूँ !!”

            “हम चाय नहीं पीते । इस समय गर्म पानी पीयेंगे।”

            “ओ.के. आंटी जी।”

            उसने दो गिलास गर्म पानी मुझे देते हुये पूछा... 

            “ आंटी जी सब्जी छोंक दी है । दाल, चावल भिंगो दिये हैं । आप कहें तो बना जाऊँ !! अतुल आज भी वर्क फ्रोम होम करेंगे।”

            “खाना दो बजे खायेंगे.. मैं बना लूँगी।” कहते हुए इला ने उसे आश्वस्त किया । स्वयं पानी पीकर एक गिलास ऊपर कमरे में आदेशजी के लिये लेकर गई ।

            निति भी आन्या को जगाने, उसे तैयार करने तथा स्वयं तैयार होने चली गई । उसे आन्या को छोड़कर आफिस जाना था पर आज थोड़ा देर होने के कारण उसने अतुल से आग्रह किया । अतुल आन्या को छोड़ने चला गया तथा निति आफिस । हम वहीं बैठे-बैठे बातें करने लगे । अमेरिका के विपरीत यहाँ घर सेंटरली कूल नहीं थे । भारत की तरह ही हम यहाँ मौसम को एन्जाए कर सकते हैं । घर के पिछवाड़े दालान था जहाँ आराम से बैठकर शुद्ध हवा का सेवन कर सकते हैं। अतुल आन्या को छोड़कर लौट आया था। मैंने उससे नाश्ते के लिये पूछा तो उसने कहा कि आप लोग नाश्ता कर लीजिये । मुझे फोन कॉल अटेंड करनी है।  मैं बाद में नाश्ता कर लूँगा । मैंने अपना और आदेशजी का नाश्ता बना लिया तथा अतुल का बनाकर रख दिया। हमने नाश्ता किया तथा फ्रेश होने चले गये । थोड़ी देर में अतुल ने आकर हमसे कहा...

            “अंकल जी, शाम पाँच बजे लंदन घूमने चलेंगे । लंदन में कार पार्किग की बहुत समस्या है अतः मेट्रो से ही चलेंगे।”

            ‘ जैसा तुम उचित समझो ।’ आदेशजी ने कहा ।

            लंच हमने साथ-साथ किया । अतुल ने आम काटे । आम का टेस्ट अच्छा था । पूछने पर पता चला कि ये मैक्सिकन आम हैं । खाना खाकर हम आराम करने चले गये । शाम को निति और आन्या आ गई हमने शाम की चाय पी तथा अतुल के साथ चल दिये। अतुल के घर से लगभग दस मिनट की पैदल दूरी पर बिम्बल्डन चेस मेट्रो  स्टेशन था।

            अतुल ने पास खरीद लिये थे जिनकी सहायता से हम बस या ट्रेन किसी से भी यात्रा कर सकते थे । जैसे ही हम बिम्बल्डन चेस मेट्रो स्टेशन पहुँचे हमें तुरंत ही मेट्रो मिल गई । मेट्रो से बिम्बल्डन स्टेशन गये । बिम्बल्डन  से दक्षिण पश्चिम मुख्य लाइन पर स्थित वाटरलू पहुँचे । वाटरलू से हमने लंदन की ड्रीम लाइन लोकल ट्रेन  पकड़ी । लंदन की ड्रीम लाइन और सिटी लाइन लोकल ट्रेन इस शहर की लाइफ लाइन है। इन ट्रेन की फ्रीक्वेंसी इतनी अच्छी है कि लोग इन जगहों पर आने के लिये अपनी कार की अपेक्षा इन पब्लिक ट्रांसपोर्ट से जाना अधिक पसंद करते हैं । जगह-जगह ऊँचे-ऊँचे एक्सलेटर, दौड़ते भागते लोग इस महानगर की व्यस्तता बता रहे थे । अब हमें बस पकड़नी थी अतः पैदल चलने लगे। मौसम अच्छा था, इसके अतिरिक्त हर जगह फुटपाथ बने हुये हैं । अगर रोड भी क्रास करनी होती तो जेबरा क्रोसिंग से क्रास करनी होती थी। न कोई डर न कोई परेशानी । वैसे भी यहाँ अधिकतर लोग पैदल ही चल रहे थे । कुछ लोग साइकिल भी चला रहे थे । रोड साइड में स्टैंड में खड़ी साइकिल देखकर हमारे चेहरे पर प्रश्न टँगा देखकर अतुल ने बताया कि यहाँ से साइकिल किराये पर लेकर गंतव्य स्थान पर छोड़ी जा सकती है । यहाँ पर लंदन साइकिल किराया योजना के लिये कई डाकिंग स्टेशन हैं ।

            गंतव्य स्थान पर पहुँचकर हमने 76 नम्बर की बस पकड़ी तथा लंदन के वेस्टमिनिस्टर एरिया में पहुँचे। बस से उतरकर हम पैदल चले।  सामने सेंट पाल कैथेड्रल दिखाई दे रहा था। यह लंदन शहर के उच्चतम बिंदु पर लुडगेट हिल पर स्थित है। इसको 1675 से 1711 के बीच क्रिस्टोफर व्रेन ने बनवाया था। यह यूरोप का सबसे बड़ा कैथेड्रल है। पहले यहाँ पाँच चर्च थे। 604 ए. डी. में बने पहले चर्च को एपोस्टिल पाल को समर्पित किया गया था । इसको किंग एथिलबर्ट ने बनवाया था । उस समय यह लकड़ी से बना था । बाद में सातवीं शताब्दी में लंदन के विशप एरिकेंवाल्ड ने पत्थर से बनवाया। 962 तथा बाद में 1087 में यह कैथेड्रल आग से नष्ट हो गया। इसको फिर से बनाया गया। तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी में इस कैथेड्रल के रिनोवेशन के साथ पुनःनिर्माण किया गया। अब यह यूरोप के सबसे बड़ा चर्च हो गया था । 1665 में क्रिस्टोफर व्रेन सेंट पाल चर्च जो नष्ट होने लगा था पुनःनिर्माण का बीड़ा उठाया किंतु 2 सितम्बर 1666 को लंदन में भयंकर आग लग गई जिसमें 13,200 घर तथा 89 चर्च भी नष्ट हो गये जिसमें सेंट पाल चर्च भी था । क्रिस्टोफर व्रेन को इसके पुनःनिर्माण का दायित्व सौंपा गया । क्रिस्टोफर व्रेन ने अपने ही बनाये डिजाइन में कई परिवर्तन किये । 21 जून 1675 को इसका निर्माण प्रारंभ हुआ तथा 1711 में इस रूप में चर्च आया।   इसमें तीन गैलरी हैं । इस चर्च की पहली गैलरी विस्परिंग गैलरी कहलाती है।  दूसरी गैलरी  53 मीटर की ऊंचाई पर डोम के बाहर स्थित है। इस गुम्बद के टाप पर  85 मीटर की ऊँचाई पर एक पतली गोल्डन गैलरी है  जो लेन्टर्न बेस घिरी है । यहाँ से पूरी सिटी का दृश्य दिखाई देता है । इसका आंतरिक सौन्दर्य मन मोह लेता है । इसका गुम्बद रोम के सेंट पीटर बैसीलिका से बड़ा है । इसके गुम्बद की ऊँचाई 111 मीटर है तथा इसका वेट 66,000 टन है । प्रिंस चार्ल्स और लेडी डायना का विवाह इसी चर्च में हुआ था ।

            हम धीरे-धीरे आगे बढ़ते गये। अब थेम्स नदी दिखाई देने लगी थी । इसके साथ ही इस पर बना लंदन टावर ब्रिज तथा लंदन आई भी । टावर ब्रिज के बारे में कहा जाता है कि जब बड़े जहाज आते थे तब यह बीच से खुल जाता था जिससे जहाज पार हो सकें। यह 120 वर्ष पुराना है। नये लोग जो लंदन घूमने आते हैं वे गलती से इसे लंदन ब्रिज समझ लेते हैं । लंदन ब्रिज टावर ब्रिज से 0.8 किमी दूर है। पुराना लंदन ब्रिज जो कई बार टूटा एवं बना । अठारवीं शताब्दी में प्रसिद्ध बाल गीत ‘लंदन ब्रिज इस फालिंग डाउन’ काफी प्रचलित हुआ । वर्तमान लंदन ब्रिज 1973 में खुला था। विक्टोरियन गोथिक शैली एवं  स्टोन आर्च डिजाइन से बना लंदन ब्रिज थेम्स नदी पर लंदन के मध्य में स्थित है। 125 वर्ष पुराना,244 मीटर लंबा, 32 मीटर चौड़ा,65 मीटर ऊंचे दो टोवरों पर बना यह वेस्क्यूल / सस्पेंशन ब्रिज कारीगरी का बेजोड़ नमूना तथा लंदन की पहचान है। टावर ब्रिज को टावर ब्रिज नाम इसके पास में ही स्थित लंदन टावर तथा प्रसिद्ध महल तथा किले के कारण मिला।

            जून 1018 में जब हम वहाँ गये थे तब भी वेस्टमिंस्टर पैलेस तथा बिग बेन में रिनोवेशन कार्य चल रहा था । जब हम लौटने लगे तो देखा पुल के एक तरफ एक आदमी एक बोर्ड लगाकर बैठा है जिसमें लिखा था ‘आई एम होमलेस ।’ एक जगह एक आदमी वायलन बजा रहा था । अतुल ने हमें बताया गया कि यह यहाँ का रोज का दृश्य है। इस ब्रिज पर कई मूवी की शुटिंग भी हुई है। घर पहुँचने पर अतुल ने हमें एक वीडियो फिल्म दिखाई जिसमें एक हिंदू परिवार के बेटे की बारात नाचते गाते इसी ब्रिज से गुजर रही थी...बारात शायद किसी शक्तिशाली आदमी के बच्चे की होगी ।

            रात्रि के आठ बज चुके थे पर अभी भी ऐसा लग रहा था जैसे भारत के शाम के पाँच बज रहे हों। अब हमें लौटना था । अतुल ने कहा, “आंटी अंकल थेम्स नदी में क्रूज का आनंद भी ले लीजिये।”

            हम उस स्थान पर पहुँचे जहाँ से क्रूज को चलना था। लगभग बीस मिनट के इंतजार के पश्चात् हमें अपने गंतव्य पर पहुँचने वाला क्रूज मिला। क्रूज में बैठे-बैठे पाया कि लंदन की स्काईलाइन बहुत ही खूबसूरत है। बीच में ग्रीनविच लाइन भी दिखी जिसकी बेधशाला से अंतर्राष्टफीय मानक समय ( ग्रीनविच मीन टाइम ) का निधारण किया जाता है । इसी समय को मानक मानकर संसार के विभिन्न देशों में समय क्षेत्र के अनुसार समय का निर्धारण होता है ।

            लगभग आधे घंटे के पश्चात् हम अपने गंतव्य स्थान पर पहुँच गये । 02 नामक थियेटर के निकट से गुजरते हुये अतुल ने हमें बताया कि इसमें नियमित रूप से गीत संगीत के कार्यक्रम के अतिरिक्त स्टेज शो भी होते हैं।  अतुल हमें भारतीय रेस्टोरेंट में भारतीय खाना खिलाना चाहता था। यहाँ पर रात्रि दस बजे रेस्टोरेंट बंद होने लगते हैं जब तक हम रेस्टोरेंट पहुँचे, रेस्टोरेंट बंद हो चुका था। अंततः पास में ही स्थित साउथ इंडियन रेस्टोरेंट में खाकर अपनी भूख मिटानी पड़ी ।

            पुनः मेट्रो पकड़कर घर पहुँचते हुये रात्रि का एक बज गया था । हम सभी बहुत थक गये थे । खुशी थी तो सिर्फ इतनी कि हमने लंदन का मुख्य भाग काफी अच्छी तरह से देख लिया । इसके साथ ही हमने यहाँ की  ट्रांसपोर्ट सिस्टम की भी थोड़ी बहुत जानकारी प्राप्त कर ली । हम उस दिन मेट्रो , बस, लोकल ट्रेन ( ड्रीम लाइन और सिटी लाइन ) में भी बैठे ।


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                        सेवेन सिस्टर चाक क्लिफ

 

            दूसरे दिन अतुल ने हमें ‘सेवेन सिस्टर चाक क्लिफ’ ले जाने का प्लान बनाया। सुबह नाश्ता करके हम चले । निति और आन्या आज भी हमारे साथ नहीं थे क्योंकि आन्या का स्कूल था तथा निति को भी आफिस जाना था । लगभग दो घंटे की डफाइव के पश्चात् लगभग 85 माइल की दूरी तय करने के पश्चात् हम इंग्लिश चैनल द्वारा बनाई गई सात बहनों की चाक से बनी क्लिफ के पास पहुँचे। इंग्लिश चैनल के किनारे बसे सात स्ट्रक्चर प्रकृति के अनुपम रूप हैं। सेवेन सिस्टर इंग्लिश चैनल द्वारा बनी चाक चट्टानों की एक श्रृखंला हैं जो इंग्लिश चैनल की लहरों के लगातार किनारे से टकराकर शनैः-शनैः उसके इरोजन (क्षरण) से बनी हैं। ये दक्षिणी इंग्लैंड में सीफर्ड और ईस्टबोर्न के कस्बों के बीच पूर्वी ससेक्स के दक्षिण भाग में स्थित हैं। यह दक्षिण डाउन नेशनल पार्क के भीतर के तट पर बने हैं जो कुकमेरी तथा ए 25 9 सड़क से घिरा है । यह सबसे ऊँचा चाक क्लिफ है । इसकी ऊँचाई सी लेबिल से 162 मीटर है। अपनी सुंदरता के साथ यह एक सुसाइड स्पाट भी बन गया है। 

            दो बज रहे थे । अतुल ने हमसे कहा कि कुछ खा लेते हैं क्योंकि वहाँ से हमें ब्राइटेन बीच जाना था । वह वहाँ स्थित रेस्टोरेंट से हमारे लिये काफी के साथ वहाँ के फेमस डोनाल्ड तथा बर्गर ले आया । हमने बाहर पड़ी कुर्सियों पर बैठकर इंगलिश चैनल की उफान मारती लहरों को देखते हुये हमने इनका सेवन किया । अतुल ने बताया कि यहाँ सेंडी बीच नहीं होते अर्थात् समुद्र के किनारे बालू नहीं होती वरन् चट्टानों के टूटने से बने छोटे-छोटे पत्थर (बजरी ) होते हैं । यूरोप के हर पर्यटक स्थल में वाशरूम की सुविधा अवश्य होती है । कहीं यह सुविधा फ्री होती है तो कहीं पेड । हम फ्रेश होकर चले।

 

                         ब्राइटन बीच

            सेवेन सिस्टर से ब्राइटन बीच लगभग 30 किमी है। इस बीच मैंने इंटरनेंट पर ब्राइटन के बारे में जानना चाहा... ब्राइटन इंग्लैंड के दक्षिण तट पर समुद्र के किनारे बना खूबसूरत रिसोर्ट है जो लंदन के दक्षिण में 47 मील दक्षिण पूर्व ब्रासेक्स और होव शहर का हिस्सा है। जार्जियाई युग में ब्राइटन एक फैशनेबिल समुद्र का किनारा रिर्सोट के रूप में विकसित हुआ। जिसे प्रिंस रिजेंट के संरक्षण के बाद प्रोत्साहित किया। बाद में राजा जार्ज चतुर्थ ने रीजेंसी युग में रायल मंडप का निर्माण करवाया। 1841 में रेलवे के निर्माण के पश्चात् ब्राइटन पर्यटन के मुख्य केंद्र के रूप में विकसित हुआ । मेट्रोपोल होटल जो अब हिल्टन होटल के नाम से जाना जाता है, के साथ ग्रैंड होटल, वेस्ट पियर और ब्राइटन पैलेस पियर समेत विक्टोरियन युग में कई प्रमुख आकर्षणों का निर्माण किया गया। ब्राइटन अपने विविध समुदायों, क्विर्की शापिंग एरिया, सांस्कृतिक, संगीत और कला तथा अपनी एल.जी.बी.टी.  आबादी के लिये प्रसिद्ध है। इसे यू.के. की अनौपचारिक समलैंगिक राजधानी भी कहा जाता है। ब्राइटन यू.के. में रहने वालों के रहने के लिये पसंदीदा पर्यटन स्थल के साथ विदेशी पर्यटकों के लिये सबसे अधिक पसंदीदा समुद्रीय तट है । इसे ब्रिटेन का ‘ हिप्पेस्ट’ सिटी भी कहा जाता है ।  

            ब्राइटन समुद्री पैलेस पियर को 1899 में खोला गया । इसमें एक रेस्तरां तथा आर्केड हाल है । 1888 में रानी विक्टोरिया की जयंती के लिये बनाया गया ब्राइटन क्लाक टावर ब्राइटन के व्यस्ततम मार्गो के चौराहे पर स्थित है। वोल्क का इलेक्ट्रिक रेलवे लाइन ब्राइटन पियर से ब्लैक रॉक और ब्राइटन मरीना तक समुद्र तट के अंतर्देशीय किनारे के साथ-साथ चलती है। यह 1883 में बनाया गया था और यह दुनिया का सबसे पुराना आपरेटिंग इलेक्ट्रिक रेलवे है ।

            हम लगभग चार बजे तक ब्राइटन बीच पहुँचे। यह स्थान हमें अपनी मुंबई के मैरीना बीच जैसा लग रहा था। एक ओर लहराता उफनता समुद्र तथा दूसरी ओर बड़ी-बड़ी, ऊँची-ऊँची इमारतें...। अतुल ने अपनी कार पार्किग एरिया में खड़ी की। हम सड़क के किनारे बने फुटपाथ पर चलते-चलते हम ब्राइटन पियर पहुँचे । ब्राइटन पियर के गेट से पहले हमें एक स्त्री पुरूष का जोड़ा स्थिर अवस्था में बेंच पर बैठा मिला । एक नजर में वह स्टेच्यू लगी । मैं उसके किनारे खड़े होकर फोटो खिंचवाने लगी । उसी समय लगा कि एक स्टैच्यू हल्की सी हिली है । जिंदा इंसानों को स्टेच्यू की तरह बैठे देखकर आश्चर्य हुआ । वैसे तो हमारे भारत में भी विवाह के अवसरों पर ऐसे स्टेच्यू मिल जाते हैं पर सार्वजनिक स्थान पर ऐसे बैठना निसंदेह चैलेन्जिग है। अतुल ने बताया कि यह इनकी कमाई का जरिया है।

            ब्राइटन बीच पर समुद्र के अंदर बनी बड़ी सी इमारत है। हम बड़े से कारीडोर से चलकर एक बड़े हाल में पहुँचे जो यहाँ का शापिंग कांपलेक्स था। सोवनियर शॅाप के साथ यहाँ अन्य चीजें भी मिल रही थीं। शाप से  बाहर निकलकर आगे बढ़े...चारों ओर पानी ही पानी था। यहाँ तक कि हम जिस पथ पर चल रहे थे वह हल्का जालीदार था जिसके कारण नीचे भी पानी नजर आ रहा था। दृश्य इतना अच्छा था कि हम वहीं पड़ी चेयर पर बैठकर चारों ओर के मनोरम दृश्यों का आनंद लेने लगे। दूसरे छोर पर अनेकों विंड मिल दिखाई दे रही थीं। वेस्ट पियर के किनारे के अंत में एक टावर दिखाई दे रहा था अतुल ने बताया कि इस टावर से पूरे शहर का नजारा देखा जा सकता है । यह 162 मीटर ऊँचा, ब्रिटिश एअरवेज आई 360 अवलोकन टावर कहलाता है । इसे 4 अगस्त 2016 में खोला गया । यह लंदन आई से भी ऊँचा है । यहाँ पर कई रेस्टोरेंट हैं । बीच के किनारे बहुत से कपल बैठे थे, कुछ सन बाथ ले रहे थे वहीं कुछ बच्चे खेल भी रहे थे ।

             शाम के छह बज गये थे अब थकान होने लगी थी हमने लौटने का निर्णय लिया । ब्राइटन से लंदन 54 मील दूर है । इस दूरी को पार करने में डेढ़ से दो घंटे लगने थे। अभी गाड़ी में बैठे ही थे कि आदित्य का फोन आ गया। उसने न केवल उनसे बात कि वरन अतुल से भी बात की। उससे हाल चाल मिलने पर आदेश जी ने अनुप्रिया को फोन मिलाया। उसने फोन नहीं उठाया। आदेश जी ने कुछ कहा तो नहीं किन्तु उनके चेहरे पर एक दर्द भरी टीस उभर आई थी। बेटी के नाराज होने का दुख...शायद वह सह नहीं पा रहे थे। वह आदेश जी का दुख महसूस कर सकती थी किन्तु विवश थी। लगभग आठ बजे हम घर पहुँचे । हमारे पहुँचते  ही निति ने खाना लगा दिया । कुछ देर बातें करने के पश्चात् हम अपने कमरे में चले गये । दूसरे दिन हमें विंडसर पैलेस जाना था ।

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विंडसर पैलेस

            सुबह नाश्ता करके हम विंड्सर किला को देखने निकले। आज हमारे साथ निति तथा आन्या भी थी। लगभग एक घंटे की ड्राइव के पश्चात् हम विंड्सर कासल पहुँचे। अतुल गाड़ी पार्क करने चला गया तथा हम आगे बढ़े। सड़क के दोनों ओर दुकानें थीं। थोड़ी ही देर में हम किले के पास पहुँच गये। वहाँ पर्यटकों की भारी भीड़ थी। हम भी लाइन में लग गये। धीरे-धीरे चलते हुये हम मुख्य द्वार पर पहुँचे। अंदर एक हाल था। वहाँ स्थित काउंटर से हमने टिकट खरीदी । सिक्यूरिटी चैक हुआ । यहीं पर हमें एक बैटरी के द्वारा चलने वाला एक यंत्र दिया गया जिसके द्वारा हमें इस कैसल के बारे में पूरी जानकारी मिलनी थी। इसे हमें हमने गले में डाल लिया तथा इसके स्पीकर को कान में लगा दिया । पर्यटकों की सुविधा के लिये इसमें अपनी भाषा चुनने की स्वतंत्रता थी। अब हम किले के अंदर दाखिल हुये।

            विंड्सर कैसल, इंग्लैंड के बर्कशायर काउंटी के विंड्सर नामक स्थान में स्थित एक शाही किला है। यह वर्तमान में विश्व का विशालतम रिहाइशी किला है। महारानी एलिजाबेथ द्वितीय यहाँ छुट्टियों मनाने आती हैं। लंदन के बकिंघम पैलेस की तरह ही इस किले का स्वामित्व भी ब्रिटिश राजशाही के पास है। इस आलिशान एवं एतिहासिक किले का अंग्रेजी तथा ब्रिटिश राजपरिवार के साथ लंबा एवं गहरा रिश्ता रहा है। इस किले को प्राथमिक तौर पर 11 वीं सदी में इंग्लैंड पर नार्मन आक्रमण के दौरान, नार्मन सेना के नेता विलियम द काँकरर ने बनवाया था। हेनरी प्रथम के समय से ही इस महल को इंग्लिस्तान तथा ब्रिटेन के सभी शासकों द्वारा उपयोग किया जाता रहा है। यह विश्व में अपनी वास्तुकला के लिये जाना जाता रहा है।

            यह किला थेम्स नदी के पास स्थित एक ऊँची पहाड़ी पर स्थित है। इस किले ने अंग्रेजी गृहयुद्ध की उथल-पुथल का समय भी देखा है। उस समय जब संसदीय बलों द्वारा इस महल को सैन्य मुख्यालय के रूप में इस्तेमाल किया गया। चार्ल्स प्रथम को इसी महल में बंदी बनाकर रखा गया। राजतंत्र के पुनरुस्थापन  के पश्चात् चार्ल्स द्वितीय द्वारा इस किले का बरूकी शैली में नवनिर्माण करवाया । समय-समय पर पदस्थापित राजाओं ने इसमें कई निर्माण करवाये । द्वितीय विश्वयुद्ध के समय इस महल को शाही परिवार की पनाहगाह के रूप में इस्तेमाल किया गया । आज इस किले में करीब 500 लोग रहते और काम करते हैं । यह विश्व का सबसे बड़ा रिहाइशी एवं कार्यशील किला है ।

            पर्यटकों के लिये इस किले का एक हिस्सा ही खोला गया है । इस किले में कई सुसज्जित कमरे हैं । इनमें रानी का बैडरूम, रिसेप्शन हाल, कान्फ्रेंस हाल, वार रूम में तरह-तरह के हथियार, एक कमरे में सभी राजाओं की फोटो लगी हुई थीं । इनके अतिरिक्त कुछ अन्य दीर्घायें भी थीं । लगभग एक घंटे में सभी दीर्घाओं से होते हुये हम बाहर निकले। इसकी बाउंडरी के दूसरी ओर एक विशाल इमारत नजर आ रही थी । बाहर कुछ गाड़ियाँ खड़ी थीं तथा चौकसी करते लाल अचकन, सफेद ट्राउजर तथा कैप पहने गार्ड दिखाई दिये । इमारत के ऊपर एक झंडा भी लहरा रहा था। अतुल ने बताया कि जब रानी इसी महल में रहती हैं तब झंडा झुका रहता है । झंडा झुका था इसका अर्थ था कि उस समय रानी इसी कैसल में थीं ।

            कैसल के अंदर लगी ग्रीनरी को देखते हुये हम बाहर आये । भूख लगी थी अतः अतुल हमें एक रेस्टोरेंट में ले गया । वहाँ हम सबने बर्गर तथा फ्रेंच फ्राई खाये । बाहर निकले तो कतार में बनी एक सोवनियर शाप से आन्या हमारे लिये एक सोवनियर खरीदकर लाई । वह विंडसर कैसल का मोड्यूल था । हर दुकान के बाहर लगी एक छोटी सी बास्केट में तरह-तरह के रंगीन फूल जहाँ आस-पास का सौन्दर्य बढ़ा रहे थे वहीं हम जैसों को आकर्षित भी कर रहे थे ।

            अब हम पार्किग की ओर चल दिये । लौटते हुये स्टोनहॅन्ज गये । स्टोनहॅन्ज ब्रिटेन की विल्टशायर काउंटी में स्थित एक प्रसिद्ध प्रागैतिहासिक स्थापत्य कला का नमूना है । यह एक महापाषाण शिलावर्त है । इसमें सात मीटर से भी ऊँची शिलाओं को सीधा खड़ाकर, पृथ्वी में गाढ़कर एक चक्र बनाया गया है । इतिहासकारों के अनुसार इसका निर्माण पाषाण युग तथा कांस्य युग में 3000 ईसा पूर्व से 2000 ईसा पूर्व काल में सम्पन्न हुआ । स्टोनहॅन्ज के निर्माताओं के ध्येय के बारे में विद्ववानों में मतभेद हैं । यहाँ 3000 ईसा पूर्व काल के मानव कब्रों के चिंह मिलते हैं। वैज्ञानिकों की टीम ने चार वर्ष तक तीन हजार एकड़ जमीन की खुदाई की जिसमें यहाँ बर्तन, औजार और हथियारों सहित अनेक चीजें मिली हैं जिनसे यह प्रतीत होता है कि लंबे समय तक यहाँ कोई नगर था।  खुदाई में पाँच से ढाई हजार वर्ष पूर्व की मानव हड्डियाँ भी मिलीं। जिससे अनुमान लगाया गया कि यहाँ कब्रिस्तान भी था । कुछ वैज्ञानिकों को मानना है कि इस स्मारक का उपयोग बेधशाला के रूप में किया जाता था क्योंकि स्टोनहॅन्ज की स्थिति ग्रीष्मकालीन संक्रांति इक्कीस जून को प्रकट करती है और यदि इसे उलटा कर दिया जाये तो यह सर्दकालीन संक्रांति तेइस दिसम्बर की स्थिति को दर्शाता है ।  

 आज का दिन आन्या और नीति ने खुशनुमा बना दिया था। कल हमें लॉन्गलीट सफारी जाना था।

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लान्गलीट सफारी


            निति और आन्या आज हमारे साथ नहीं थीं । निति को घर का काम निबटाना था । आन्या कई बार देख चुकी थी अतः उसे भी उत्सुकता नहीं थी । निति ने नाश्ते में उड़द की दाल की कचौड़ी के साथ आलू टमाटर की सब्जी बनाई थी । आज उसने हमारे साथ नाश्ते का भी सामान रख दिया था । हम लोंगलीट सफारी पार्क के लिये चल दिये । कुछ देर तो मैं बातें करते हुये इधर-उधर फैले प्राकृतिक सौन्दर्य को आत्मसात करने का प्रयास करती रही फिर समय पास करने के लिये मैंने गुगुल में लोंगलीट सफारी पार्क के बारे में जानने के लिये सर्च करना प्रारंभ कर दिया ।

            इंग्लैंड के विल्टशायर में लोंगलीट सफारी और एडवेंचर पार्क 1966 खोला गया। यह अफ्रीका के बाहर पहला पार्क है जिसमें स्वयं ड्राइव करते हुए  घूमा जा सकता है । इस पार्क की अवधारणा जिमी सिपरफील्ड नामक व्यक्ति के मस्तिष्क की उपज थी जो सीपरफील्ड सर्कस के भी को-डायरेक्टर थे ।

            लान्गलीट इंग्लैंड के 11 सुंदर घरों सम्मिलित है। यह वर्तमान में हार्निंगहम के गाँव के निकट और समरसेट में विल्टशायर और फ्राम में वार्मिनस्टर के नजदीक 7 मारक्यूस बाथ का घर है। यह भूलभुलैया जैसा बना है । इसके परिदृश्य पार्कलैंड और सफारी पार्क के लिये जाने जाते  है । यह घर 9000,000 एकड़ पार्कलैंड में स्थित है जिसे मि0 ब्राउन द्वारा निर्मित किया गया है । जिसमें 8,000 एकड जंगल और खेत की भूमि है । यह जान स्मिथ द्वारा बनाया घर है । यह पहला स्टेटली होम है जो पब्लिक के लिये खुला है । यह अफ्रीका के बाहर पहला सफारी पार्क है। 1557 में लान्गलीट धर्मिक स्थल का मूल भाग आग से नष्ट हो गया था । इसके बाद इसे मुख्य रूप से राबर्ट स्माइथन द्वारा डिजाइन किया गया। इसे बनाने में लगभग 12 वर्ष लग गये। यह ऐलिजाबेथन काउंटी हाउस, मक्का की फसल तथा आस-पास के दर्शनीय स्थानों के लिये प्रसिद्ध है । यह ब्रिटेन में एलिजाबेथ कालीन अद्भुत वास्तुकला के बेहतरीन उदाहरणों में से एक है ।

            इस पार्क में लगभग 500 जानवर हैं । इनमें जिराफ, बंदर, रिनो, टाइगर, भेड़िया हैं मुख्य हैं । छह चीते 11 अगस्त को आये हैं । सितम्बर 2011 को चार शेर के बच्चे पैदा हुये । उस वर्ष 10 शेर के बच्चे पैदा हुये । उनका नाम सिंबा और नाला रखा गया ।

            लगभग ढ़ाई घंटे में 108 मील की दूरी तय करके हम लान्गलीट सफारी पार्क पहुँचे । अतुल ने लान्गलीट सफारी के पार्किंग एरिया में गाड़ी खड़ी की । कुछ दूर पर ही वाशरूम था । जाना आवश्यक था । फ्रेश होकर बाहर निकले तो अनेक रेस्टोरेंट दिखाई दिये । अतुल ने कुछ खाने के लिये कहा तो हमने मना कर दिया । सामने ही हमें जंगल किंगडम का गेट दिखाई दिया । यह 2011 में खुला है । इसे पेट कारनर भी कहा जाता है । इसमें छोटे-छोटे बाड़े में बंद कई जानवर थे जिनमें क्रिस्टेट पोरक्यूपाइन (कलगी साही ), छोटे पंजे वाले ऊदबिलाव, बिन्तुरोंग नामक जानवर ( एशियाई भालूबिल्ली )  यह भालूबिल्ली बुलाये जाने के बावजूद न तो भालू है और न ही बिल्ली । इसका नाम बिन्तुरोंग एक विलुप्त हो चुकी मलेशायाई भाषा से आया है । इस शब्द का अर्थ अज्ञात है । यह पशु वनों की ऊँची शाखाओं रहना पसंद करता है । यह पूर्वोत्तर भारत के अलावा बंगला देश, भूटान ,वर्मा, कम्बोडिया, लाओस ,चीन, इत्यादि के जंगलों में पाया जाता है । इसके अतिरिक्त लाल टाँगों वाला सिरीमा ( एक प्रकार का पक्षी ), जाइन्ट एन्टिएटर, पेंटागानियन मारा तथा आडर्वार्क दक्षिण एशिया का सूअर जैसा एक जानवर बाड़े में था।  

            अब हम लान्गलीट रेलवे की तरफ बढ़े । लान्गलीट रेलवे 1965 में बना तथा 1976 में इसे विस्तार मिला।  यह 381 मिमी गेज का है । इसे जंगल एक्सप्रेस भी कहा जाता है । जंगल एक्सप्रेस की यात्रा आनन्ददाई रही क्योंकि यह छोटी ट्रेन दो किमी का सफर तय कर अपने यात्रियों को वुडलैंड के सौन्दर्य, लेक की खूबसूरती के साथ उसकी हद में आये कई जानवरों से भी परिचय करवाती है ।

            अब हम जंगल क्रूसी की तरफ गये । आधे घंटे के सफर में हमने गुरील्ला निको का घर देखा । गुरील्ला बहुत बूढ़ा हो गया था । उसका देहान्त 7 जनवरी 2018 को हो गया था पर यह घर उसकी स्मृतियों को सहेजे हुआ था । इसमें रह रहे अन्य गुरील्ला दिखाई दिये । लेक के किनारे पेलिकन पंक्षी दिखे जो काफी बड़े थे । हिप्पोपोटेमस (दरियाई घोड़ा ) का भी घर दिखाई दिया । इस लेक में अनेक समुद्री शेर अठखेलियाँ करते नजर आये जिन्हें क्रूज में बैठे कुछ यात्री उनका मनपसंद भोजन मछली खिला रहे थे । जब कोई मछली फेंकता वह उछल कर मुँह में ले लेते तथा पुनः जल में चले जाते थे । आधे घंटे का सफर कैसे समाप्त हो गया पता ही नहीं चला ।

            क्रूज से उतरकर हम लान्गलीट स्टेट के बड़े से घर, खूबसूरत उद्यान में लगे खूबसूरत पेड़ों को देखते हुये पार्किंग स्थल तक पहुँचे। अब हमें कार मे बैठकर सफारी में रह रहे जानवरों को देखना था । हमारी गाड़ी आगे बढ़ी इसके साथ ही हमें जेबरा, जिराफ, बंदर, हाथी इत्यादि जानवरों को देखने के पश्चात् हम शेर, चीता के बाड़े के निकट पहुँचे । अन्य जगहों की अपेक्षा यहाँ खूँखार  जानवरों के बाड़ों के सामने एक लोहे का गेट लगा दिखाई दिया । अंदर जाने से पहले हमें सिक्योरिटी से परमीशन लेनी पड़ी । गेट के पास ही एक सिक्योरिटी वैन खड़ी थी । खतरे के समय हम हार्न बजाकर सिक्योरिटी दस्ते को बुला सकते थे । गाड़ी में बैठे-बैठे ही हमने अपने-अपने बाड़े में मौजूद शेर , चीता और पैंथर को देखा । वैसे तो हमने कई वर्ष पूर्व दुधवा नेशनल पार्क में अपनी गाड़ी से घूमते हुये स्वच्छंद विचरते जंगली जन्तुओं को देखा था पर यह उससे काफी बड़ा था । शाम हो गई थी अब हमें लौटना था । बीच में अतुल ने ‘ स्टार बक ’ रेस्टोरेंट में खाने के लिये एक जगह गाड़ी पार्क की । घर पहुँचते –पहुँचते सात बज गये थे । निति और आन्या हमारा इंतजार कर रही थीं । उनको फीड बैक देकर खाना खाकर हम अपने कमरे मे चले गये...। 

            दूसरे दिन हमने विश्राम करने का फैसला लिया क्योंकि 25 तारीख से हमारा  टूर प्रारंभ हो रहा था । हमें होटल में शिफ्ट होना था ।

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       दूसरे दिन निति आफिस चली गई तथा आन्या स्कूल । अतुल घर से ही काम कर रहा था । हमने सुबह ही अपना सामान पैक कर लिया तथा पूरे दिन ही आराम किया । शाम को निति और आन्या के आने के पश्चात् ही हमें होटल में शिफ्ट होना था । अतुल भी पूरे समय बिजी ही रहा । उसकी व्यस्तता देखकर हमने उससे कहा भी कि हम टैक्सी करके चले जायेंगे पर उसने हमसे कहा कि वह स्वयं छोड़कर आयेगा । आन्या हमारे जाने की खबर सुनकर उदास हो गई थी । उसे उदास देखकर हमें भी बुरा लग रहा था पर जाना तो था ही ।

 

सफर सुहाना


            लगभग सात बजे हम ‘ होली डे इन ’ होटल के लिये निकले। लगभग आधे घंटे में हम ‘ होली डे इन ’ होटल पहुँच गये । भारत की अपेक्षा हमें यहाँ पर सामान स्वयं ही होटल के अंदर ले जाना था । हम अंदर रिसेप्शन में पहुँचे । आवश्यक डाक्यूमेंट दिखाने के पश्चात् हमें रूम एलाट कर दिया । हम अपने रूम में चले गये । हमारा सामान एडजेस्ट करवाने के पश्चात अतुल ने जाने की इजाजत माँगी । हम उसे छोड़ने नीचे गये । लौटते हुये आदेश जी ने एस.ओ.टी.सी. के टूर मैनेजर यतिन पाठक से बात की तथा कहा कि हमने चैक इन कर लिया है । उससे अन्य जानकारी प्राप्त करने के लिये हम उसकी बताई जगह पर पहुँचे । हमारी उपस्थिति रजिस्टर करने के पश्चात् उसने हमसे पूछा...

            “आप खाना वेज पसंद करेंगे या नान वेज।”  

            “हम जैन खाना पसंद करेंगे।” आदेश जी ने कहा ।

            आदेश जी को लहसुन प्याज से परहेज नहीं है, कभी-कभी तो चलता है पर पंद्रह दिन तक रोज खाना...जब ऑप्शन मिल ही रहा है, हमने जैन खाना चुनना ही पसंद किया था। जैन  खाने में हमारे अतिरिक्त चार और लोग थे ।

            “आज का डिनर तथा कल का ब्रेकफास्ट होटल में ही करना है। कल से जैन खाने की व्यवस्था हो जायेगी।” यतिन ने कहा ।  

            “ओ.के.।”आदेश जी ने कहा ।

            “कल ब्रेकफास्ट टाइम सुबह सात से साढ़े सात बजे होगा । आठ बजे हमें निकलना होगा। अतः आप सभी समय का ध्यान रखें।” 

            उस समय तक कुछ ही लोग आ पाये थे। यतिन के बताये डायरेक्शन को फोलो करते हुये हम डायनिंग हाल में गये । चुन-चुनकर हमने वेज खाना खाने की कोशिश की क्योंकि ज्यादातर नॉन वेज ही था। यहाँ हमारी सिलीगुड़ी से आये युगल तथा एक मुंबई से आये परिवार से हमारी जान पहचान हुई। वे हमारी पंद्रह दिन की यात्रा के सहयात्री बनने वाले थे । खाना खाकर हम अपने कमरे में चले गये । सुबह जल्दी उठना था अतः जल्दी ही सोने की कोशिश करने लगे ।

            सुबह जल्दी फ्रेश होकर सात बजे ब्रेक फास्ट के लिये पहुँचे गये । रिसेप्शन पर मौजूद एक वृद्ध औरत सबके कार्ड चैक कर उन्हें उनकी टेबिल तक पहुँचा  रही थी। हमारे देश में जिस उम्र में लोग बच्चों पर निर्भर हो जाते हैं, उस उम्र में भी उसकी कार्यक्षमता देखकर आश्चर्य हो रहा था। समझ में नहीं आ रहा था,यह उसकी मजबूरी थी या शौक। हमारा नम्बर आने पर उसने हमें हमारी टेबिल तक पहुंचाया। कान्टिनेंटल ब्रेकफास्ट था। दूध कार्नफ्लेक्स, टोस्ट, फल , जूस इत्यादि।

            ब्रेकफास्ट के बाद हम उस जगह पहुँचे जहाँ हम सभी को यतिन,हमारे टूर मैनेजर ने एकत्रित होने के लिये कहा था। सभी लोगों के आने पर यतिन की अगुवाई में हम बस की ओर चले । अब तक सभी सहयात्री आ गये थे । बस में बैठते ही बस चल दी । यतिन ने सबका स्वागत करते हुये आज के दर्शनीय स्थलों के बारे में बताया। दिन के पहले प्रहर में हमें सिटी टूर करना था।

            कुछ दूर जाने पर हमें शहर के बारे में जानकारी देने के लिये गाइड आ गया। वह स्त्री थी। उसने बताया कि लंदन एक प्राचीन, सांस्कृतिक विरासत वाला बहुत ही विविधता वाला देश है। लंदन व्यवसायिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के साथ एक महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल भी है। लंदन की जनसंख्या नौ मिलियन है। यहाँ प्रतिवर्ष लगभग सत्ताइस मिलीयन दर्शक पर्यटन के लिये आते हैं।

            बस जिन-जिन स्थलों से गुजरती, टूरिस्ट गाइड हमें वहाँ की जानकारी देती जा रही थी । उसने हमें हाइड पार्क, नेल्सन मंडेला, विंसटन चर्चिल, नेशनल गैलरी, ट्राईफेंगलर स्कावायर, पिकार्डियली सर्कस, म्यूजियम, वेस्टमिंनिस्टर स्कावायर, बिग बेन, वेस्टमिनिस्टर पैलेस, लंदन का अपर हाउस और लोअर हाउस दिखाते हुये, उनके महत्व के बारे में बताते हुये जानकारी भी दी । बस से घूमते हुये टावर ब्रिज के बारे में बताया । शहर के पाश इलाके से भी बस गुजरी जहाँ करोड़ों डालर के घर थे । उनकी कलात्मकता देखने योग्य थी । मुख्य बात यह थी कि वे घर देखने में एक जैसे ही लग रहे थे । एक रेस्टोरेंट के बाहर ‘ प्रेट मैनेजर ‘ लिखा हुआ था । उसने हमें बताया गया कि यह भारत की हल्दीराम भुजियावाला जैसी फूड श्रंखला है ।

            अभी हम देख ही रहे थे कि गाइड ने हमें बताया कि बस को टावर ब्रिज के पास बनी पार्किंग स्थल में रोका जायेगा । आधे घंटे पश्चात् आप सभी यहीं आ जाइयेगा । स्टॉप आते ही हम उतरकर चल दिये...यद्यपि टावर ब्रिज हम देख चुके थे फिर भी हम गये तथा फिर से थेम्स नदी पर बने टावर ब्रिज को निहारते हुये कुछ फोटो खींची।  

            अब हमें बकिंघम पैलेस देखने जाना था। हमारी गाइड ने बताया कि यहाँ स्कूली शिक्षा फ्री है जबकि उच्च शिक्षा बहुत ही मँहगी है। डेढ़ पाउंड में हम लाल बस से कहीं भी आना जाना कर सकते हैं । लोग यहाँ अपनी कारों में चलने की अपेक्षा पब्लिक ट्रांसपोर्ट से चलना अधिक पसंद करते हैं क्योंकि यहाँ पार्किंग बहुत मँहगी है। आखिर हम बंकिंघम पैलेस पहुँच गए।  


बंकिंघम पैलेस


 अभी हम बस से उतरकर पैलेस को निहार ही रहे थे। कि गाइड ने बताया कि बकिंघम पैलेस ब्रिटिश राजशाही का लंदन के वेस्टमिंस्टर शहर में स्थित अधिकारिक निवास स्थान है। यह राजमहल राजकीय आयोजनों और शाही आतिथ्य का केंद्र है ।

            मूलतः बकिंघम हाउस के नाम से जाना जाने वाला यह भवन जो आज के महल का महत्वपूर्ण हिस्सा है, 1703 में बकिंघम के डियूक के लिये बनाया गया एक विशाल टाउन हाउस था । जो कम से कम 150 वर्ष तक निजी स्वामित्व के आधीन रहा । 1761 में इसे जार्ज तृतीय ने महारानी चार्लोट के लिये एक निजी आवास के रूप में अधिगृहीत कर लिया गया और इसे क्वींस हाउस के नाम से जाना जाने लगा ।

            1837 में महारानी विक्टोरिया जो विलियम चतुर्थ के मरने के पश्चात्, गद्दी पर बैठीं । वह पहली सम्राज्ञी बनीं । बकिंघम पैलेस उनका प्रमुख शाही निवास बन गया ।19 वीं सदी के समय वास्तुकारों जान नैश और एडवर्ड ब्लोर द्वारा एक केंद्रीय प्रांगण के आस-पास की तीन बालकनियाँ बनाकर इसका विस्तार किया गया। आखिरी सबसे बड़ा संरचनात्मक बदलाव उन्नीसवीं एवं बीसवीं शताब्दी में किया गया। पूरब के सामने के हिस्से में एक बड़ी बालकनी बनवाई गई जहाँ से शाही परिवार पारंपरिक रूप से बाहर मौजूद भीड़ को संबोधित करता है। हालांकि महल के छोटे गिरजाघर को द्वितीय विश्वयुद्ध में एक जर्मन बम द्वारा नष्ट कर दिया गया था, बाद में इस जगह क्वींस गैलरी बनाई गई जिसे 1962 में इसे शाही कलाकृति की प्रदर्शनी के हेतु सार्वजनिक रूप से खोल दिया गया। बकिंघम पैलेस का गार्डन लंदन का सबसे बड़ा निजी गार्डन है।

            आखिरी प्रमुख निर्माण कार्य किंग जार्ज पंचम के शासन के समय में कराया गया । 1913 में सर एस्टन वेब ने ब्लोर के 1850 ईस्ट फ्रंट को दुबारा डिजाइन करके चेशायर में गाइकोमो लियोनीज लाइम पार्क को कई हिस्सों में बाँट दिया। दोबारा डिजाइन किये प्रमुख गृह मुख ( पोर्टलैंड स्टोन के ) को विक्टोरिया मेमोरियल की पृष्ठभूमि के रूप में डिजाइन किया गया था । महारानी विक्टोरिया की एक विशाल प्रतिमा मुख्य दरवाजे के बाहर स्थापित की गई, उस ओर इंगित करते हुए गाइड ने एक प्रतिमा की ओर इशारा किया।

            प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के समय इस महल में काफी क्षति हुई थी। समय-समय पर यहाँ पदस्थापित राजाओं ने इसमें अपनी आवश्यकतानुसार अनेक परिवर्तन करवाये गए। रायल कलेक्शन विभाग द्वारा सन 1999 में प्रकाशित पुस्तक में कहा गया है कि इस महल में 19 राजकीय कक्ष, 52 प्रमुख बैडरूम,188 स्टाफ बैडरूम,92 कार्यालय और 78 बाथरूम हैं ।

            हर वर्ष लगभग 50,000 आमंत्रित अतिथियों का स्वागत गार्डन में आयोजित पार्टियों में होता है। बकिंघम पैलेस के फोरकोर्ट को चेंजिंग आफ गार्ड के लिये उपयोग किया जाता है जो एक भव्य समारोह और पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है । यह आयोजन गर्मियों में प्रतिदिन तथा सर्दियों में हर दूसरे दिन होता है। महल के राजकीय कक्षों को सन 1993 के बाद से अगस्त से सितम्बर तक पर्यटकों के लिये सार्वजनिक रूप से खोल दिया जाता है।

            बकिंघम पैलेस अपनी भव्य रेलिंगों, दरवाजों और विशाल बालकनी के कारण ब्रिटिश राजशाही के घर के साथ अपनी दर्शनीय गैलरी, मुख्य द्वार के सामने बने विक्टोरिया मेमोरियल की विशाल प्रतिमा तथा चारों ओर फैले खूबसूरत नजारे के कारण पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र भी बन गया है। जून जुलाई में आस-पास लगे फूलों की मनमोहक क्यारियाँ प्राकृतिक दृश्यों के शौकीनों का मन मोह रहे थे। रायल कलेक्शन की पुस्तक में इस महल को ‘ एक महल किसी की कल्पना जैसा ’ कहकर इसका महिमामंडन किया है । यह न केवल महारानी और प्रिंस फिलिप का घर है वरन् डयूक आफ आर्क एवं आर्ल और वेसेक्स की बेगम का भी लंदन का निवास है । महल शाही परिवारों का कार्यालय और 450 लोगों का कार्यस्थल भी है । 

            गाइड की बात आत्मसात कर, महल की खूबसूरती को निहारते हुए सचमुच यही लगा... एक महल किसी की कल्पना जैसा। आधा घंटा यहाँ व्यतीत करने के पश्चात् पुनः हम बस में बैठे । अब हमें कहा गया कि अब हम लंच के लिये जा रहे हैं । कुछ ही समय में हम भारतीय रेस्टोरेंट में पहुँच गये । जैन खाने के आप्शन के कारण हमें एक टेबिल अलोट की जिसमें छह लोगों के बैठने की व्यवस्था थी क्योंकि हमारे अतिरिक्त चार लोग और थे जिन्होंने जैन खाने का आप्शन चुना था। हमारे लिये अलग सब्जियाँ लाई गई जबकि अन्य चीजें मसलन रोटी, चावल, सलाद पापड़, दही इत्यादि हमें बुफे में लगे खाने से लानी थी । खाना इंडियन टेस्ट का था ।

            खाने के पश्चात् फिर हम बस में बैठे । अब हमें मैडम तुसाद म्यूजियम जाना था। हमारी गाइड ने इस म्यूजियम के बारे में बताना प्रारंभ किया...

 

मैडम तुसाद म्यूजियम

 

            मैडम तुसाद संग्रहालय लंदन में मोम की मूर्तियों का संग्रहालय हैं। इसकी अन्य शाखायें विश्व के प्रमुख शहरों में है। इसकी स्थापना सन 1835 में मोम शिल्पकार मेरी तुसाद ने की थी । मेरी तुसाद एक फ्रांसीसी कलाकार थीं जिनका जन्म 1 दिसम्बर 1761 में हुआ था तथा निर्वाण 16 अप्रेल 1850 को । उन्होंने ही लंदन में इस मोम के म्यूजियम की स्थापना की । उनका पूरा नाम मेरी गोजोल्स तुसाद था । उसके पिताजी जोसेफ ग्रोशोल्ट्ज एक सिपाही थे जो उसके जन्म के दो महीने पूर्व मशहूर सेवेन डेज वार में मारे गये। उनकी मृत्यु के पश्चात् उनकी माँ ऐनी ने डा0 फिलिप कर्टियस जो कि एक मशहूर चिकित्सक थे, के घर काम करना प्रारंभ किया । डा0 कर्टियस को मोम की मूर्तियाँ बनाने में महारत हासिल थी। उस समय चिकित्सा केंद्रों में मानव अंगों के अध्ययन के लिये मोम की प्रतिकृतियों का प्रयोग किया जाता था तथा इस प्रकार के मोम निर्मित अंगों की भारी मांग थी। इसके अलावा मोम की मूर्तियों की मांग स्थानीय चर्च तथा ऊँचे तबके के लोगों में भी थी, जो अपने शारीरिक विकार को मोम के अंगों से ढका करते थे ।

            कुछ समय पश्चात् किसी मित्र के कहने पर डा0 कर्टियस ने अमीर लोगों के लिये संपूर्ण आदमकद मूर्तियाँ बनानी प्रारंभ कर दी। उन्होंने उन मूर्तियों को सलोन डे सायर के नाम से प्रदर्शित करना प्रारंभ कर दिया । लोगों ने पसंद किया। श्रीमती गोंजोल्स की बेटी मेरी को मोम के द्वारा शिल्प निर्माण में विशेष रूचि थी । उसकी रूचि देखकर डा0 कर्टियस ने अपनी इस कला मेरी गोंजोल्स को सिखाने का निश्चय किया । जिससे उनकी यह कला उनके मरने के बाद लुप्त न हो जाये । मेरी ने पूरे मन से इस कला को सीखा उसने अपना पहला पोट्रेट फ्रेंकोइस मेरे अरोटॅ नामक धनाड्य व्यक्ति का बनाया। इसके बाद बेंजामिन फ्रेंकलिन का भी बनाया । डा0 कार्टियस भी अपना उत्तराधिकारी पाकर बेहद प्रसन्न हुये । डा0 कार्टियस की लोकप्रियता तथा संपर्क की वजह से मेरी गोंजोल्स को फ्रांस के राजा लुई सोलहवें की बहन को मूर्तिकला में पारंगत करने के लिये उन्हें निजी शिक्षक की नियुक्ति मिल गई।

            सन् 1794 में डा0 कर्टियस का देहान्त हुआ । अपनी मृत्यु से पूर्व ही डा0 कर्टियस ने अपना सारा कार्य और संग्रह मेरी गोंजोल्स के नाम कर दिया । 1795 में मेरी ने एक इंजानियर फ्रेकोइस तुसाद से विवाह कर लिया । अब वह मेडम मेरी तुसाद के नाम से जानी जाने लगीं । उनके दो पुत्र हुये किंतु मेरी की महत्वाकांक्षा के कारण उनका विवाह केवल आठ वर्ष ही चला । प्रारंभिक दिनों में वह ब्रिटेन के विभिन्न शहरों में चक्कर लगाकर अपने कार्यो की प्रदर्शनी लगाती रहीं । 1835 में लंदन की बेकर स्ट्रीट में मैडम तुसाद ने अपना पहला स्थाई स्टूडियो खोला । इस स्टूडियो अथवा संग्रहालय का मुख्य आकर्षण था 'चैम्बर आफ हारर' जिसे फ्रेंच क्रांति के समय मारे गये लोगों तथा अन्य अपराधियों की मूर्तियाँ थीं ।

            सन 1884 में मैडम तुसाद म्यूज़ियम का स्थान परिवर्तन हुआ । वह मेरिलबोन रोड पर खोला गया । आज भी वह वहीं स्थित है । मैडम तुसाद ने 1842 में अपनी स्वयं की मूर्ति बनाई जो आज लंदन के मैडम तुसाद संग्रहालय के मुख्य द्वार पर आगंतुकों का स्वागत करती है । 88 वर्ष की उपयोगी जिंदगी जीकर मैडम तुसाद ने सन 1850 में निर्वाण प्राप्त किया । लंदन के बाद अब इसकी शाखायें कई अन्य देशों के शहरों में भी बन गई हैं जो दर्शकों को आकर्षित कर रही हैं ।               

             कुछ  ही समय में हम मैडम तुसाड म्यूजियम में पहुँच गये। हमारे टूर मैनेजर यतिन पाठक ने हमें हमारी टिकट देने के साथ ही डेढ़ घंटे पश्चात् उसी जगह लौट आने का आग्रह किया । अब हम लाइन में लग गये । धीरे-घीरे हमने म्यूजियम में प्रवेश किया ।

            मैडम तुसाड म्यूजियम कई तलों में बना है । यहाँ हमने विश्व के राजनीतिक, संगीत, खेल तथा फिल्मों से संबंधित मशहूर शख़्सियतों के साथ भारतीय शख़्सियतों में महात्मा गांधी, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी के साथ नरेंद्र मोदी की स्टेचू भी देखी जो डेविड कैमरून तथा बराक ओबामा के बीच स्थापित की गई है । इसी के पास में ऐश्वर्या राय, सलमान खान, शाहरूख खान, सचिन तेंदुलकर की भी मूर्तियाँ हैं । इनके अतिरिक्त नेल्सन मंडेला, एडोल्फ हिटलर,चार्ली चैपलिन,पोप जॉन पॉल, मर्लिन मुनरो की स्टेचू के साथ अन्य स्टैचू भी हमने देखीं । एलिजाबेथ द्वितीय का पूरा परिवार एक ही जगह स्थित है। उनके साथ कई लोग फोटो खिंचा रहे थे। हमने भी खिंचवाई। स्लीपिंग ब्यूटी की मूर्ति ने भी हमें आकर्षित किया। हमने कई जगह फोटो खींचीं । यह मूर्तियाँ इतनी अच्छी तरह से बनी थीं कि लगता रहा था कि बोल पड़ेंगीं। यहाँ बस एक बात की कमी लगी अगर इन मूर्तियों के पास इनके नाम के टैग लगा दिये जायें तो दर्शकों को पहचानने में आसानी रहेगी क्योंकि कभी-कभी किसी व्यक्ति को नाम से तो जानते हैं पर चेहरे से नहीं या चेहरे से पहचानते हैं पर नाम याद नहीं आता । दर्शक इन मोम के बने पुतलों को देखते जाते हैं बिना यह जाने समझे कि ये किसके है। लगभग डेढ़ घंटा हो गया था अब हमें बाहर निकलना था। हम बाहर उस स्पाट पर आ गये जहाँ हमारे टूर मैनेजर ने एकत्रित होने के लिये कहा था ।

 

लंदन आई

            सभी सहयात्रियों के आने पर हम बस की ओर बढ़े । सबके बैठते ही बस  चल पड़ी। गाइड चली गई थी। हमारे बस में बैठते ही हमारे टूर मेनेजर यतिन पाठक ने अब हमें बताया कि अब हम ‘ लंदन आई ’ जा रहे है । लंदन आई ’ के बारे में सूक्ष्म जानकारी देते हुये बताया...लंदन आई थेम्स नदी के दक्षिण किनारे पर बना यूरोप का सबसे बड़ा फेरी व्हील (घूमने वाला चक्का ) है । हर वर्ष इसे 3.75 मिलियन पर्यटक इसे देखने आते हैं अर्थात् यह पर्यटकों का पसंदीदा स्थल है। इसका आकार 135 मीटर ऊँचा तथा इसके चक्के का व्यास 120 मीटर है । लंदन आई को 31 दिसम्बर 1999 को उस समय के प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर द्वारा राष्ट्र को समर्पित किया गया किन्तु इसके कैप्सूल की क्लच प्राब्लम के कारण यह जनता के उपयोग में नहीं लाया जा सका । यह 9 मार्च 2000 को पुनः प्रारंभ किया गया । उस समय यह विश्व का सबसे ऊँचा फैरी व्हील था किन्तु अब लास वेगास, सिंगापुर में इत्यादि में इससे भी ऊँचे फैरी व्हील बन चुके हैं । लंदन आई के कैबिन से लंदन से हम लंदन की विस्तृत स्काई लाइन को देख सकते हैं । लंदन आई के व्हील की बाहरी परिधि को सपोर्ट स्टील के तारों से मिला है जैसे साइकिल के पहिये को मिला होता है । इसमें लैड लाइट के द्वारा रोशन किया जाता है ।

            लंदन आई में नंबर के हिसाब से 33 हैं किन्तु यहाँ प्रचिलित अंधविश्वास के कारण इसमें 13 नंबर का   कैप्सूल नहीं है अर्थात 12 के बाद 14 नंबर का कैप्सूल आ जाता है जिसके कारण लंदन आई में सिर्फ 32 अंडाकार, सील्ड एवं पारदर्शी कैप्सूल हैं। इसे पोमा नामक कंपनी ने डिजाइन तथा सप्लाई किया है। हर कैप्यूल व्हील की बाहरी परिधि पर स्थित है जिसे बिजली की मोटर के जरिये चलाया जाता है। दस टन का हर कैप्सूल लंदन के नगरों का प्रतिनिधित्व करता है। हर कैप्सूल में 25 लोग जा सकते हैं। इसमें बैठने की व्यवस्था भी है पर चलते समय आप चाहें तो आराम से घूमकर बाहर के दृश्यों का आनंद ले सकते हैं । लंदन आई का व्हील 26 सेमी पर सेकेंड  तथा 0.9 किलोमीटर प्रति घंटा के हिसाब से घूमता है। इसका एक चक्कर पूरा होने में लगभग 30 मिनट लगता है। यह सामान्यतः रूकता नहीं है इसकी गति इतनी कम है कि बेस स्टेशन पर पर्यटक आसानी से उतर और चढ़ सकते हैं। कभी-कभी दिव्यांग व्यक्तियों को उतरने और चढ़ने में सुविधा के लिये मैनेजमेंट को अपनी कार्यप्रणाली में छूट भी देनी पड़ती है। 2 जून को लंदन आई के कैप्सूल का नाम कारनेशन कैप्सूल, महारानी एलिजाबेथ की 60 एनिवर्सरी के उपलक्ष्य में रखा गया । 

            लंदन आई को जूलिया बारफील्ड तथा डेविड मार्क दम्पति ने डिजाइन किया है। सर रिचार्ड रोगरस जो 2007 के प्रिटजकर आर्कीटेक्ट प्राइज के विजेता हैं, उन्होंने अपनी पुस्तक में लिखा है...लंदन आई लंदन के लिये वही किया जो एफिल टावर ने फ्रांस के लिये किया । इन्होंने अपने शहर को पहचान दिलवाई । हम लगभग आधे घंटे में लंदन आई तक पहुँच गये । बस के पार्किंग एरिया में रूकते ही हम बस से उतरे तथा टूर मैनेजर यतिन पाठक को फोलो करते हुये एक बेस स्टेशन पहुँचे। उसने हमसे कहा कि वह टिकिट लेने जा रहा है। इसके साथ ही उसने एक इमारत की ओर इशारा करते हुये कहा कि तब तक आप लोग वहाँ दिखाई जा रही वीडियो फिल्म देख सकते हैं । हम उस ओर गये जिधर यतिन ने बताया था । थोड़ी देर इंतजार के बाद हमने एक हाल में प्रवेश किया क्योंकि फिल्म 3 डायमेंशन थी अतः हाल में घुसने से पूर्व ही हमें चश्मा दिया गया। लगभग दस पंद्रह मिनट की फिल्म थी जिसमें ब्रिटिश राजशाही के बारे में बताया गया था। फिल्म समाप्त होते ही हम बाहर निकले। गेट के पास ही हमारा टूर मैनेजर खड़ा था। उसने हमें टिकट पकड़ाई तथा क्यू में लगने के लिये कहा। क्यू काफी लंबी थी लगभग बीस मिनट बाद हमारा नंबर आया। सिक्यूरिटी चैक के पश्चात् हमने बेस स्टेशन में प्रवेश किया। जैसे ही कैप्सूल आता उसका दरवाजा खुल जाता तथा लोग उससे उतरते तथा चढ़ते। कैप्सूल बहुत धीरे-धीरे मूव हो रहा था जिससे हमें बैठने में कोई परेशानी नहीं हुई। जैसे ही उसने बेस स्टेशन छोड़ा दरवाजा बंद हो गया। धीरे-धीरे वह उठ रहा था तथा कुछ लोग बैठकर तथा कुछ खड़े होकर चारों ओर के विहंगम दृश्य को देखकर आनंदित हो रहे थे। कुछ फोटोग्राफी भी कर रहे थे । धीरे-धीरे नीचे से ऊपर तथा ऊपर से नीचे उतरता हमारा कैप्सूल अपने बेस स्टेशन पर पहुँच ही गया । जैसे उसका दरवाजा खुला हम सभी बाहर निकलकर उस जगह पहुँचे जहाँ हमें एकत्रित होने के लिये कहा था । एक फिर हम बस में सवार हुये तथा डिनर करके पुनः अपने होटल पहुँच  गये । दूसरे दिन हमें फ्रांस जाना था । सात बजे ब्रेकफास्ट करके आठ बजे अपने सारे साजोसामान के साथ निकलना है । इसके लिये हमें 7. 45 बजे तक हाल में एकत्रित होना था ।

 

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फ्रांस की यात्रा 

 

            दूसरे दिन होटल में ही नाश्ता करके हम हाल में इकट्ठे हो गये। सभी सहयात्री के एकत्रित होते ही हम बस में सवार हो गये। बस पूरी तरह ए.सी. थी । यतिन ने बताया कि अब यही बस हमारे पूरे ट्रिप में हमारे साथ रहने रहेगी।

            लगभग एक घंटे में हम यूनाइटेड किंगडम के फोलेस्टोन जहाँ से हमें चैनल सुरंग के जरिये फ्रांस जाना था , पहुँच  गये । यतिन ने हमें बताया गया कि यह 50.45 किमी0 लंबी रेल सुरंग है। जो इंग्लिश चैनल में करीब 115 मीटर नीचे से गुजरेगी अर्थात् हमारे ऊपर भी पानी तथा नीचे भी पानी। इसकी गति 160 किलोमीटर प्रति घंटा रहेगी । इस दूरी को तय करने में हमें 30 से 40 मिनट लगेंगे । यह सुरंग सबसे लंबी अंडर सी अर्थात समुन्द्र के अंदर बनी सुरंग है हालांकि जापान में बनी सेकन सुरंग इससे थोड़ी लंबी है ।

            सबसे बड़ी बात  यह थी कि इस ट्रेन में हमारी बस सभी यात्रियों सहित चढ़ा दी गई। यतिन ने हमें बताया कि इस तरह की कई अन्य गाड़ियाँ इसमें लोड हो सकती हैं। ट्रेन  के अंदर हम बस से उतरे तथा साइड विंडो से देखने का प्रयत्न किया, कुछ दिखाई नहीं दिया। ट्रेन  के अंदर बने वाशरूम को यूज कर हम पुनः ट्रेन में चढ़ गये। इसमें बिजली तथा वेंटीलेशन की पूर्ण व्यवस्था है । 25 केवी 50 हर्टज पर एक ओवरहैड लाइन के माध्यम से इस यूरो टनल ट्रेन को बिजली दी जाती है। प्रत्येक टर्मिनल पर 400 केवी के दो उपस्टेशन हैं । आपात स्थिति में सुरंग की रोशनी तथा संयंत्र को दोनों सरकारों इंग्लैंड और फ्रांस द्वारा संचालित किया जा सकता है ।

            टनल सुरंग ब्रिटिश तथा फ्रांस की सरकारों में काफी लंबे विचार विमर्श के पश्चात् बनी है । दोनों पक्षों की सहमति के आधार पर ग्यारह सुरंग बोरिंग मशीन के माध्यम से दो रेल सुरंग और एक सेवा सुरंग बनाई गई । टनल बनाने का काम 1988 में प्रारंभ हुआ तथा 6 मई 1994 में कैलाइस में आयोजित समारोह में महारानी एलिजाबेथ द्वितीय तथा फ्रांसीसी राष्ट्रपति फ्रैंकोइस मिटरैंड द्वारा मूलरूप से योजनाबद्ध होने के एक वर्ष पश्चात् इसे अधिकारिक रूप से खोला । रानी ने यूरो स्टार ट्रेन में सुरंग के माध्यम से कैलाइस की यात्रा की ।

            समय होते ही ट्रेन चल पड़ी । लगभग आधे घंटे में हम कैलाइस यूरोटनल स्टेशन पहुँच गये । ट्रेन के रूकते ही हमारी बस बाहर आई । बाहर निकलते ही हमें फ्रांस का बोर्ड दिखाई दिया अर्थात् हमने फ्रांस की सीमा में प्रवेश कर लिया था। हमारी बस आगे बढ़ी तथा एक पार्किंग स्थान पर रूकी । वहाँ हमें अपने पासपोर्ट वीजा चैक कराने थे क्योंकि अब हम यू.के. छोड़कर फ्रांस की सीमा में प्रवेश कर रहे थे । पासपोर्ट चैक होते ही हम अंदर गये । यह एक शापिंग मॉल था । हमने इधर-उधर घूमकर देखा...अंततः हम बस में आकर बैठ गये ।

            बस पुनः पड़ी... शाम तक हमें फ्रांस की राजधानी पेरिस पहुँचना था । अभी हमें 300 किमी और चलना था । लगभग साढ़़े तीन चार घंटे की ड्राइव और थी। यतिन ने बताया कि यूरोप पृथ्वी पर स्थित सात महादीपों में से एक महादीप है। यूरोपियन संघ मुख्यतः यूरोप में स्थित 28 देशों का एक राजनैतिक और आर्थिक मंच है जिनमें आपस में प्रशासकीय साझेदारी भी होती है जो संघ के कई या सभी राष्ट्रों पर लागू होती है। इसका अभ्युदय सन 1957 में रोम की संधि द्वारा यूरोपीय आर्थिक परिषद के माध्यम से छह यूरोपीय देशों की भागीदारी से हुआ था । धीरे-धीरे इसमें अन्य देश भी जुड़ने लगे । इसके साथ ही इसकी नीतियों में भी अनेक परिवर्तन किये गये। 1 नवंबर 1993, मास्ट्रिच, नीदरलैण्ड मैं हुई संधि जिसे मास्ट्रिच संधि कहा जाता है, के द्वारा इस संघ के आधुनिक वैधानिक स्वरूप की नींव रखी गई । दिसम्बर 2007 में लिस्बन समझौते के तहत 1 जनवरी 2008 से इसमें व्यापक सुधारों प्रक्रिया शुरू की गई । यद्यपि द्वितीय विश्व युद्ध के समय इन देशों ने एक साथ मिलने का निर्णय लिया था किन्तु इसको वैधानिक स्वरूप बाद में मिला ।इन्होंने अपने बार्डर खोल दिये लेकिन यू.के. इस यूनियन का हिस्सा नहीं बना । पहले इन सबकी अलग-अलग करेंसी थी जिससे एक देश से दूसरे देश जाने पर परेशानी होती थी इस परेशानी से बचने के लिये इन्होंने अपनी एक करेंसी यूरो बनाई जबकि यू.के.की करेंसी पाउंड ही है।

            यूनाइटेड किंगडम क्योंकि इस यूनियन का हिस्सा नहीं है इसलिये यू.के. के लिये अलग वीजा बनता है तथा अन्य यूरोपियन देशों के लिये अलग शेंगन वीजा बनता है । शेंगेन क्षेत्र में वे यूरोपियन देश सम्मिलित हैं जिन्होंने लक्जमबर्ग के शेंगेन शहर में सन 1985 में एक ही वीजा समझौते को लागू करने की संधि पर हस्ताक्षर किये । शेंगेन क्षेत्र, अंतरराष्ट्रीय यात्रा के लिये काफी हद तक एक एकल राष्ट्र  माना जाता है अर्थात शेंगन वीजा द्वारा इन सब देशों को घूमा जा सकता है। इस क्षेत्र के अंदर आने वाले तथा बाहर जाने वाले के लिये तो सीमा नियंत्रण होता है पर आंतरिक सीमा नियंत्रण नहीं होता ।  यह वीजा 180 दिनों के लिये यूरोप के 26 देशों में घूमने की स्वतंत्रता प्रदान करता है इसीलिये फ्रांस की सीमा में प्रवेश करते समय हमें अपना पासपोर्ट एवं वीजा चैक कराना पड़ा। हमें  याद आया कि अपनी इस यूरोप यात्रा से पूर्व हमें भी दो वीजा बनवाने की फ़ार्मैलिटी पूरी करनी पड़ी थी।  

"क्या आपको पता है यूरोपीय संघ का क्षेत्रफल तथा जनसंख्या कितनी है ?" अचानक यतिन ने पूछा।

सबको चुप देखकर उसने पुनः कहा,"यूरोपीय संघ का क्षेत्रफल 4,233,262 वर्ग किलोमीटर है तथा जनसंख्या 449,206,135 है जबकि हमारे देश भारत का क्षेत्रफल 32.87 लाख वर्ग किलोमीटर है तथा जनसंख्या 139 करोड़ के लगभग है । इस तरह से देखा जाए तो यूरोपियन संघ का क्षेत्रफल भारत से काफी ज्यादा है जबकि जनसंख्या भारत की अधिक है।'

           यतिन ने आगे कहा- फ्रांस शब्द लातीनी भाषा के फैन्किया ( Francia ) शब्द से बना है । 67.3 मिलियन जनसंख्या वाला फ्रांस एक स्वतंत्र, प्रभुसत्ता संपन्न देश है । इसकी राजधानी पेरिस है । यह यूरोपीय संघ का सदस्य है । जो उत्तर में बेल्जियम, लक्जमबर्ग, पूर्व में जर्मनी, स्विटजरलैंड, इटली, दक्षिण पश्चिम में स्पेन तथा पश्चिम में अटलांटिक महासागर, दक्षिण में भूमध्य सागर तथा उत्तर पश्चिम में इंग्लिश चैनल से घिरा है। मध्ययुग के उत्तरार्ध में फ्रांस यूरोप का शक्तिशाली राष्ट्र बन गया । रोम ने  51 ईसा पूर्व में इस क्षेत्र पर कब्जा कर लिया । 17 वीं शताब्दी में लुइस 14 के कार्यकाल में फ्रांस यूरोप का महत्वपूर्ण राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा सैन्य शक्तियुक्त देश बना । अठारवीं शताब्दी के अंत में फ्रेंच क्रांति ने राजतंत्र को उखाड दिया तथा आधुनिक इतिहास के सबसे पुराने गणराज्यों में से एक बना । नागरिकों को उनके अधिकार दिये गये ।

            19 वीं शताब्दी में नेपोलियन ने सत्ता हासिल की तथा पहला फ्रांसीसी साम्राज्य स्थापित किया। नेपोलियन के समय हुये युद्धों ने ही वर्तमान यूरोप के महाद्वीपीय स्वरूप को आकर दिया । फ्रांस प्रथम विश्वयुद्ध में एक प्रमुख भागीदार था जहाँ यह विजयी हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध में फ्रांस मित्र राष्ट्रों में से एक था । सन1940 में यह धुरी शक्तियों के कब्जे में आ गया । 1944 में मुक्ति के पश्चात् चौथे  फ्रांसीसी गणतंत्र की स्थापना हुई  जिसे बाद में अल्जीरिया युद्ध के दौरान भंग कर दिया । पाँचवां फ्रांसीसी गणराज्य, चार्ल्स डी गाल के नेतृत्व में सन 1958 में बना जो आज तक कार्यरत है। अल्जीरिया तथा अन्य उपनिवेश सन 1960 के दशक में स्वतंत्र हो गये पर फ्रांस के साथ इनके आज भी आर्थिक और सैन्य संबंध कायम हैं ।

            फ्रांस लंबे समय से कला, विज्ञान और दर्शन का वैश्विक केंद्र रहा है । कुल घरेलू संपदा के संदर्भ में यह दुनिया में चौथे स्थान पर है। शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, मानव विकास के क्षेत्र में अपने कार्यो के कारण फ्रांस की अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग अच्छी है । फ्रांस विश्व की महाशक्तियों में से एक है । वीटो का अधिकार प्राप्त यह अधिकारिक परमाणु संपन्न देश है । यह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पाँच स्थाई सदस्यों में से एक है ।

            यतिन ने बताया कि फ्रांस दुनिया का छठा कृषि उत्पाद वाला देश है। यहाँ हरी सब्जियाँ बहुतायत में होती हैं। पश्चिमी भाग में सूअर का मांस, मुर्गी पालन तथा सेब के उत्पादन में विशेष महत्व रखता है। उत्तरी फ्रांस गेंहू के उत्पादन के लिये जाना जाता है। यहाँ का शैपेंन्जी प्रोविंस, सफेद रंग की या इसी तरह की अन्य कई तरह की शराब के उत्पादन के लिये जाना जाता है। यहाँ शराब और शैपेंन्जी बहुतायत रूप में होती है। कानून के अनुसार यहाँ जमीन को आय के अनुसार बांटा जाता है। यहाँ कोआपरेटिव फारमिंग अर्थात सामुदायिक खेती को बढ़ावा दिया जाता है जिसके कारण खेतों में कोई बाउंडरी नहीं होती। किसी के घर में तार नहीं होते अर्थात बिजली के तार

कंसील्ड होते है। सड़क के किनारे लगे पेड़ों को लकड़ी के फ्रेम लगते है  जिससे वह गिरकर आवागमन को बाधित न करें।

            यू.के. को छोड़कर अन्य यूरोपियन देशों में लेफ्ट हैंड ड्राइव होती हैं। हाई वे पर इनकी स्पीड 100 किमी प्रति घंटा होती है । जबकि कारों 130 किमी प्रति घंटे चल सकतीं हैं । जर्मनी में कोई स्पीड लिमिट नहीं होती । गाड़ियों की नम्बर प्लेट अपने-अपने देशों के कोड का प्रतिनिधित्व करती हैं। गाड़ी के सामने लगी नम्बर प्लेट सफेद होती है तथा पीछे की पीली। अगर कोई गाड़ी स्पीड लिमिट का उल्लंघन करती है तो स्पीड कैमरा उसे पकड़ लेता है तथा फ़ाइन देना पड़ता है ।

            होटल में ‘ होली डे इन ’ में चैक इन के पश्चात् इवनिंग फ्री थी । यतिन ने बताया कि अगर हमें इवनिंग आफ पेरिस देखने जाना है तो उसके साथ हमें शैंपेन के साथ पैराडिस लैटिन शो भी देखना होगा । इवनिंग आफ पेरिस शो में यहाँ के लैंडमार्क को लाइटों से झिलमिलाते देखना रोमांचक होगा। इसके लिये हमें 85 यूरो प्रति व्यक्ति अलग से देने थे। इसके लिये कोई तैयार नहीं हुआ । 

            यूरोपियन देशों के बारे में संक्षिप्त जानकारी देने के पश्चात् यतिन ने कहा कि लगता है आप सब मेरी बातों से बोर होने लगे हैं। उसने टॉपिक चेंज करते हुए  अब हमसे अपना-अपना परिचय देने के लिये कहा । यह आवश्यक भी था क्योंकि हमें 15 दिन साथ-साथ रहना था। बारी-बारी से सबने अपना परिचय दिया । जब हमारी बड़ी आई तब आदेश जी ने कहा," मैं पाँच वर्ष पूर्व चीफ इंजीनियर पी.डब्ल्यू. डी. के पद से रिटायर हुए हूँ किन्तु अब एक आम इंसान हूँ। जीने के तरीके ढूंढ रहा हूँ।"

"और मैं इनकी पत्नी चीफ सेक्रेटरी ऑफ उत्तर प्रदेश के पद से पिछले वर्ष ही रिटायर हुई हूँ । अब हम जिंदगी की नई पारी में प्रवेश करते हुए जीना सीख रहे हैं।" इला ने आदेश जी की ओर देखते हुए कहा।

" अरे वाह!तब तो आपकी उम्र 5 वर्ष तथा मेडम की एक वर्ष हुई।" मुम्बई से आये विश्वास कॉल ने कहा।

"क्या कह रहे हैं आप?" जयपुर से आये रतन सिंह ने कहा।

" मैं ठीक कह रहा हूँ । वास्तव में जन्म से लेकर हम अपने-अपने दायित्वों में लगे रहते हैं। वास्तव में जिंदगी  रिटायरमेंट के बाद ही जीते हैं।" कलकत्ता से आये विश्वास ने कहा। वह इनकम टैक्स कमिश्नर के पद से छह वर्ष पूर्व रिटायर हुए थे। 


इस वार्तालाप से माहौल खुशनुमा हो गया था। मुंबई से पाँच फैमिली थीं । गुडगांव, अहमदाबाद, जयपुर, दुर्गापुर, कानपुर, सिलीगुड़ी तथा अन्य स्थानों से भी कुछ परिवार थे । इनमें कुछ सर्विस क्लास वाले भी थे तथा कुछ बिजनिस मैन । चार बैचलर लड़के भी इस यात्रा का हिस्सा थे । एक यंग कपल भी हमारी इस यात्रा का हिस्सा था जो शायद अपने हनीमून ट्रिप  पर आया था।  एक महिला अपनी माँ, बहन और अपने पाँच वर्षीय पुत्र के साथ भ्रमण के लिये निकली थी । वह बिजनिस वुमन थी उसका मुंबई में व्यवसाय था । वह स्त्री सशक्तिकरण का हमारे सम्मुख एक उदाहरण थी । लगभग आठ कपल ऐसे थे जो सीनियर सिटीजन थे तथा रिटायर्ड जिंदगी जी रहे थे । उन सबका जोश देखकर ऐसा लग रहा था कि इंसान तन से नहीं मन से बूढ़ा होता है । हमारे इस ग्रुप में दो वर्ष के बच्चे से लेकर सत्तर वर्ष के जवान थे ।

            इस परिचय ने हमें एक दूसरे के पास ला दिया । दो घंटे पश्चात् हम लंच के लिये एक पार्क में रूके । वहाँ कुछ पत्थर की बनी राउंड टेबिल तथा उसके चारों ओर पत्थर की बेंच थीं । हम भी एक जगह बैठ गये । इस समय हमें पैक लंच मिलना था । यतिन ने हमें हमारा लंच पैक तथा पानी की एक-एक बोतल दे दी । हमारे साथ गुड़गांव से आये माथुर कपल थे जिनकी पत्नी भावना एच. आर मैनेजर हैं । वह आत्मविश्वास से लबरेज थीं । हम लोग बातें कर ही रहे थे कि कानपुर से आया कपल अपने दो वर्षीय बेटे के साथ आ गया। वह मुस्लिम था किंतु उसकी पत्नी हिन्दू । बातों-बातों में उसने बताया कि उनके विवाह को स्वीकृति तेरह वर्षो पश्चात् मिली । उसका नाम वंदना था किंतु विवाह के पश्चात् धर्म परिवर्तन के पश्चात् वान्या हो गया । वान्या का कहना था कि धर्म परिवर्तन की शर्त के अतिरिक्त उस पर कोई पाबंदी नहीं है । अपने प्यार को पाने के लिये यह कुछ भी नहीं है । घर में सब उसे बहुत प्यार करते हैं।

        आधे घंटे के पश्चात् हम फिर चले । हम लगभग सुबह आठ बजे से बस में बैठे थे इस समय दोपहर का तीन बज रहा था किंतु फिर भी बहुत थकान नहीं लग रही थी । सड़कें अच्छी थी । बस भी बहुत आराम दायक थी।  हमारे बैठते ही बस चल पड़ी।करीब दो घंटे की यात्रा के पश्चात् हमारी बस एक इंडियन रेस्टोरेंट के पास रूकी । हमने खाना खाया तथा फिर होटल के लिये चल दिये। यतिन ने हमें अगले दिन का कार्यक्रम बताते हुए कहा कि कल हमें ब्रेकफास्ट करके सुबह आठ बजे निकलना है । पेरिस के एफिल टावर, साइट सीन तथा अंत में डिजिनेवर्ड जाने का कार्यक्रम था।

            हम करीब आठ बजे अपने होटल ‘ होली डे इन ’ में पहुँचे । कमरा मिलते ही हम लिफ्ट से अपने कमरे में जा रहे थे कि हमारे साथ ही जा रहे एक यंग युगल जोड़े ने हमसे पूछा, “आंटी-अंकल, क्या आप रात्रि में पेरिस की लाइट देखने जायेंगे?”

            हमने प्रतिउत्तर में उनसे पूछा। उनके सहमति देते ही हमने भी स्वीकृति दे दी तथा चलने का समय बताने के लिये कह दिया। लगभग आधे घंटे पश्चात् उनका फोन आया कि नौ बजे चलेंगे । अब जब घूमने आए थे तो जाना ही था। न जाने क्यों मन बच्चा बन गया था वरना नौ बजे घूमने जाना…ठीक नौ बजे वह युगल जोड़ा हमारे पास हमारे कमरे में आ गया।     

हम तैयार ही थे तुरंत निकल पड़े।पता चला कि हमारे होटल से कुछ ही दूरी से मेट्रो चलती है। हम टैक्सी से मेट्रो पहुंचे तथा मेट्रो से एफिल टावर ।

मेट्रो के सफर में हुई बातचीत से पता चला कि  उनका लगभग दो वर्ष पूर्व विवाह हुआ था। फैमिली बढ़ाने से पूर्व उन्होंने अपनी इस यात्रा को प्लान किया था। सच आज के युवा अपनी जिंदगी की बहुत अच्छी तरह से प्लानिंग करते हैं। जबकि उनके समय में विवाह हुआ नहीं कि लड़की के पैरों में घर गृहस्थी की जंजीर ऐसे डाल दी जाती थी कि पढ़ाई लिखाई सब व्यर्थ हो जाती थी। इला ने सोचा। उसे रोहित और रागिनी बहुत ही कोऑपरेटिव तथा समझदार लगे जो अपनी जिंदगी के लक्ष्य के प्रति तो आश्वस्त थे ही, बड़ों की इज्ज़त करना भी जानते हैं।

 रात में एफिल टावर को जगमगाते देखना किसी सपने से कम नहीं था। उस दिन होटल के कमरे तक लौटते हुए हमें रात्रि के दो बजे गए थे।   

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दूसरे दिन सुबह पाँच बजे ही आँख खुल गई सोचा बच्चों से ही बात कर लें । नेट था ही अतः वाट्सअप काल करने में कोई परेशानी नहीं थी...। आज भी सिर्फ आदित्य और तृप्ति से बात हुई। अनुप्रिया ने फोन ही नहीं उठाया। अभिषेक को फोन मिलाया तो उसने सारे हाल-चाल पूछने के बाद इतना ही कहा... “ममा-पापा आप अपना ट्रिप एंजॉय कीजिये। आज नहीं तो कल वह मान ही जाएगी। आप तो जानते ही है कि वह सदा से जिद्दी रही है। एक बात जो मन में सोच लेती है, उस पर वह अडिग रहती है... पर आप परेशान मत होइए, एक न एक दिन उसे इस संबंध को स्वीकार करना ही होगा।”  

            अभिषेक की बात सुनकर आदेशजी को शून्य में निहारते देखकर इला समझ नहीं पा रही थी कि आदेश जी से कैसे क्या कहे ? अंततः वह उठी इलेक्ट्रिक केटल में पानी गर्म किया। सुबह चाय पीने की आदत नहीं थी अतः पानी पीकर एक-एक करके हम फ्रेश हुये। तब तक ब्रेकफास्ट का समय हो गया था। बेमन से ही सही वे आगे कि यात्रा के लिए तैयार हो गए।   

 

फ्रांस

 

            ब्रेकफास्ट कर हम नियत समय पर होटल के हाल में पहुँच गये। हमारी बस ठीक आठ बजे चल दी। हम एफिल टावर जा रहे थे। यतिन ने बताया कि एफिल टावर फ्रांस की राजधानी पेरिस में स्थित एक लौह टावर है। इसका निर्माण सन 1887- 1889 में शैमप दे मार्स में सीन नदी के तट पेरिस में हुआ था। यह टावर विश्वप्रसिद्ध इमारत के साथ फ्रांस की सांस्कृतिक पहचान भी है । इसकी अवधारणा गुस्ताव एफिल के द्वारा की गई थी, उनके नाम पर ही इसका नामकरण हुआ । एफिल टावर का निर्माण सन 1889 में फ्रांसीसी क्रांति के सौ वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में वैश्विक मेले के लिये किया गया था । इसे प्रत्येक वर्ष लगभग सात लाख लोग देखने आते हैं। इस टावर की ऊँचाई 324 मीटर है। एंटिना शिखर के बगैर यह टावर फ्रांस के मियो शहर के फूल के पश्चात् दूसरी सबसे बड़ी इमारत है। इसके निर्माण में दो वर्ष, दो महीने पाँच दिन लगे। इसकी चोटी पर पहुँचने के लिये 1665 कदमों का प्रयोग होता है ।

            एफिल टावर में लिफ्ट लगाना आसान नहीं था क्योंकि चार स्तंभों पर खड़े टावर का आकार पिरामिड की तरह है नीचे चौड़ा तथा ऊपर शनैः शनैः पतला होता जाता है। प्रथम तल तक पहुँचने के लिये मीनार के स्तम्भ के 56 डिग्री झुकाव के कारण सीधा मार्ग नहीं मिल गया अतः लिफ्ट लगाने में  परेशानी हुई। पूर्व और पश्चिमी स्तंभ में लिफ्ट लगाने के लिये रोक्स, काम्बेलूजर और लीपेप कंपनी ने कई जोड़ी मजबूत चेन लगाई जिससे कि लिफ्ट के केबिन के भार को संतुलित किया जा सके ।  इस लिफ्ट के केबिन को नीचे से पुश किया जाता है न कि ऊपर से खींचा जाता है जिससे कि चेन को मुड़ने से रोका जा सके । हल्के झटके के साथ केबिन यात्रियों को लेकर आगे बढ़ती है।

            द्वितीय तल की लिफ्ट लगाना और भी कठिन था क्योंकि यहाँ मीनार के स्तंभों का झुकाव 76 डिग्री हो गया था। अंततः ओइटिस कंपनी ने इसका बीड़ा उठाया। केबिन को दो भागों में विभक्त किया गया। इसका हर एक केबिन 25 यात्रियों को ले जा सकता है। इसको हाईड्रोलिक प्रेशर से चलाया जाता है।

            द्वितीय से तृतीय लेबिल पर जाने के लिये लिफ्ट का स्टेशन दूसरी मंजिल की केंद्रीय इमारत के अंदर है । यहाँ लिफ्ट को सीधा मार्ग मिल जाता है जो पर्यटकों को मुख्य कक्ष में ले जाता है। सन 1889 में यहाँ पाँच हाईड्रोलिक प्रेशर से चलने वाली लिफ्ट थीं किन्तु धीरे-धीरे इसमे सुधार हुए अब एफिल टावर कि लिफ्ट कंप्यूटर की सहायता से बिजली से चलाई जाती है। इसके साथ ही अब इसमें लिफ्ट की संख्या 6 हो गई है।     

            एफिल टावर वर्गाकार है जिसके हर किनारे की लंबाई 125 मीटर है। टावर के चारों स्तंभ चार प्रमुख दिशाओं में बने हैं। दिशाओं के अनुसार ही उनका नामकरण किया गया है जैसेकि उत्तर स्तंभ, दक्षिण स्तंभ, पूरब स्तंभ तथा पश्चिम स्तंभ । उत्तर स्तंभ, पूरब स्तंभ तथा दक्षिण स्तंभ में टिकट घर तथा प्रवेश घर हैं जहाँ से पर्यटक टिकट खरीदकर टावर में प्रवेश कर सकते हैं। उत्तर और पूरब स्तंभों में लिफ्ट की सुविधा है तथा दक्षिण स्तंभ में सीढियाँ हैं जो कि पहली और दूसरी मंजिल तक पहुँचती हैं। दक्षिण स्तंभ में दो निजी लिफ्ट भी हैं जिनमें एक सर्विस लिफ्ट है तथा दुसरी ला जुल्स वर्नेस नामक रेस्टोरेंट में पहुँचाती है ।

एफिल टावर की पहली मंजिल 57 मीटर की ऊँचाई पर है। इसका क्षेत्रफल 4200 वर्ग मीटर है। इस तल पर 3000 लोग एकत्रित सकते हैं। इस तल पर मंजिल के चारों ओर बाहरी तरफ जालीदार छज्जा है जिसमें पर्यटकों की सुविधा के लिये पैनोरमिक टेबल तथा दूरबीन रखे हुये हैं। जिसके द्वारा पेरिस शहर की दूसरी एतिहासिक इमारतों को देख सकते हैं । सन 2012 से सन 2013 तक इसकी पहली मंजिल का नवीनीकरण करवाया गया। इसके फर्श का एक हिस्सा शीशे का बनाया गया है जिस पर खड़े होकर पर्यटक 60 मीटर नीचे का दृश्य देख सकते है।  इसके बाहरी तरफ श्रद्धांजलि के रूप में गुस्ताव एफिल तथा अन्य महान वैज्ञानिकों का नाम स्वर्णाक्षरों लिखा हुआ है जो नीचे से भी दिखाई देता है। यहाँ कांच की दीवार वाला 58 टूर एफिल नामक रेस्टोरेंट भी है जिसमें अपना मनपसंद व्यजंन खाते हुये शहर की खूबसूरती का लुफ्त उठा सकते हैं ।

            115 मीटर की ऊँचाई पर स्थित एफिल टावर की दूसरी मंजिल का क्षेत्रफल 1650 है जो एक साथ 1600 लोगों को समाने की क्षमता रखता है। जब मौसम साफ हो तब यहाँ की आबजरवेटरी से 70 मील की दूरी का नजारा  साफ नजर आता है । इस मंजिल पर एक कैफेटेरिया तथा सोवनियर खरीदने की दुकानें भी है जिनसे खाने पीने की चीजों के अतिरिक्त यहाँ की दर्शनीय स्थलों के स्मृतिचिन्हों को अपने लिये या अपने इष्ट मित्रों को उपहार देने के लिये खरीदा जा सकता है। यहाँ स्थित उपमंजिल से तीसरी मंजिल के लिये लिफ्ट चलती है।

            275 मीटर की ऊँचाई पर स्थित तीसरी मंजिल का क्षेत्रफल 350 वर्ग मीटर है । यहाँ केवल 400 लोग आ सकते हैं। इस मंजिल को चारों ओर से कांच से बंद किया गया है । इस मंजिल पर एफिल टावर के निर्मात्ता गुस्ताव एफिल का आफिस भी है जिसमें गुस्ताव एफिल की मोम की मूर्ति रखी हुई है । तीसरी मंजिल पर एक उपमंजिल भी है जहाँ सीढ़ियों से जा सकते हैं । इस उपमंजिल को चारों ओर से जाली से घेरा गया है तथा पेरिस की खूबसूरती का नजारा देखने के लिये दूरबीनें भी रखी हैं। इसके ऊपर भी एक मंजिल है जहाँ पयर्टकों का जाना निषेध है। यहाँ रेडियो तथा टी.वी. की प्रसारण के एन्टीना लगे हैं । हर रात को एक बजे तक एफिल टावर को 20,000 बिजली के बल्बों से रोशन किया जाता है। उस समय उसकी खूबसूरती देखते ही बनती है।  

           यतिन के विस्तार से बताने के कारण मनमस्तिष्क में एफिल टावर का एक चित्र अंकित हो गया था। लगभग एक घंटे में हम एफिल टावर पहुँच गये। बस से उतरकर हम सब एक जगह खड़े हो गये तथा यतिन टिकट काउंटर से टिकट लेने चला गया। संसार के सातवें आश्चर्य को अपनी आँखों से देखना बहुत अच्छा लग रहा था । तब तक यतिन टिकट ले आया तथा हम सबको देकर लाइन में लगने के लिये कहा। लाइन काफी लंबी थी । कई ग्रूप थे। एस.ओ.टी.सी. के एक और ग्रुप के साथ थोमस कुक का भी एक ग्रुप था । टूर मैनेजर के हाथ में लिये झंडे हमें हमारे ग्रुप की पहचान देते थे । लगभग आधा पौन घंटा हमें मुख्य द्वार तक पहुँचने में लग गया।  

            सिक्यूरिटी चैक के पश्चात् हम मुख्य स्टेशन पर पहुँचे । वहाँ से लिफ्ट से प्रथम तल तक गये। इस तल पर बने ग्लास के फर्श पर खड़े होकर देखना मन को रोमांचित कर रहा था, वहीं मन में डर भी लग रहा था कि कहीं टूट गया तो… प्रथम से द्वितीय तथा अंत में हम तृतीय तल तक पहुँचे। 275 मीटर की ऊँचाई से नीचे बहती नदी तथा चारों तरफ के बिहंगम दृश्यों को देखकर मन रोमांचित हो उठा। यतिन के पबले सारी बातें बताने के कारण समझने और ददखने में अच्छा लग रहा था। सच अगर गाइड अच्छा हो तो किसी भी स्थान को देखने का मजा दुगुना हो जाता है। 

आदेश जी कहने लगे, हमारे साथ बच्चे भी आते तो कितना अच्छा होता किन्तु तभी अनुप्रिया के बारे में सोचकर वह उदास हो गए। इला ने उनका हाथ दबाकर सांत्वना दी। समय आगे बढ़ रहा था…हमारे सहयात्री लौटने लगे तो हम भी लिफ्ट की ओर बढ़ गए। तीन लिफ्ट के द्वारा हम नीचे आये । हमारी निगाह एक स्तंभ पर पड़ी जिसके ऊपर के भाग में मूर्ति बनी थी तथा स्तम्भ पर एफिल लिखा था । उसके नीचे 1832-1923 लिखा हुआ था । हम अपने गंतव्य स्थान तक पहुँचे...कुछ सहयात्री आ चुके थे, आने बाकी थे । सभी सहयात्रियों के आते ही हम विश्वप्रसिद्द इमारत की ओर अंतिम दृष्टि डालकर पार्किंग की ओर चले । मार्ग में एफिल टावर का माडल लिये कुछ लोग खड़े थे । दो यूरो से चार यूरो में एफिल टावर के माडल बिक रहे थे। वे लोग अधिकतर  मैक्सिन थे । सबसे बड़ी बात कि वे सब हिन्दी में भी बात करने की चेष्टा कर रहे थे पर यतिन ने हमें पहले ही चेतावनी दे रखी थी कि आप इन सबके चक्कर में न पड़ियेगा क्योंकि यहाँ चोरियाँ बहुत होती हैं अतः अपना सामान भी यथासंभव संभालकर रखियेगा।


पेरिस सिटी   

 

 

            हमारी यात्रा पुनः प्रारंभ हुई अब हमें सिटी टूर करना था। सिटी के बारे में बताने के लिये एक गाइड आ गया। उसने बताया...पेरिस फ्रांस की राजधानी है । पेरिस शहर शीन नदी के तट पर बसा है इसका एरिया 105 स्क्वायर मीटर है। लंदन के पश्चात् यूरोपीय संघ में पेरिस दूसरा सबसे बड़ा जनसंख्या वाला महानगर क्षेत्र है । पेरिस का ‘चार्ल्स डी गाल  हवाई अड्डा’ लंदन के ‘हीथ्रो हवाई अड्डे’ के बाद, सबसे व्यस्तम हवाई अड्डा है ।   

            17 शताब्दी में पेरिस, यूरोप में वित, वाणिज्य, फैशन, विज्ञान और कला के प्रमुख केंद्रों में से एक था। उसने अपना यह दर्जा आज भी बरकरार रखा है। पेरिस के कई महत्वपूर्ण संस्थान हैं जिनमें एफिल टावर के अतिरिक्त लूव्र संग्रहालय, मुसे डी ओर्से, फ्रांसीसी इंपीरियनिस्ट कला संग्रह के लिये प्रसिद्ध है। आर्क द ट्रिम्फो , नोट्रे डेम डी पेरिस तथा लावरे के पिरामिड, सैंट-चैपल, यूनिवर्सल प्रदर्शनी ग्रैंड पैलेस, पेटिट पालिसी इत्यादि यहाँ के प्रसिद्ध स्थल हैं। शान्ज-एलिसीज खरीददारी, रंगमंच, फैशन और स्मारकों के लिये जाना जाता है। सीन नदी के साथ शहर के केंद्रीय क्षेत्र को यूनेस्को विरासत स्थल के रूप में विकसित किया गया है।

            लगभग एक डेढ़ घंटे तक हम बस में बैठे-बैठे घूमते रहे तथा हमारा गाइड हमें मुख्य स्थलों से हमारा परिचय करवाते हुए उनके बारे में रोचक जानकारी भी दे रहा था। पेरिस के मुख्य आकर्षण स्थल चार्ल्स द गाल सेंट्रल के केंद्र में स्थित ‘आर्क द ट्रिम्फो’ हमें दिल्ली में स्थितअपने इंडिया गेट की तरह लगा। इस संरचना को सन 1806 में नेपोलियन ने ऑस्ट्रिया, रूस गठबंधन से जीत की स्मृति में, उन सभी सैनिकों की याद में  बनवाने का आदेश दिया था जिन्होंने फ्रांस की रक्षा करते हुये अपनी जान दे दी थी। लगभग बीस वर्ष पश्चात सन 1836 में यह अपने मूल रूप में आया। यहाँ फ्रांस के राष्ट्रीय दिवस 14 जुलाई के अवसर पर हर वर्ष भव्य आयोजन किया जाता है । बस ने हमें एक भारतीय रेस्टोरेंट के पास लंच के लिये छोड़ा। लंच लेकर हमें डिजनीलैंड के लिये जाना था।

 

डिजनीलैंड   

 

            डिजनीलैंड पेरिस, पेरिस के केंद्र से 32 किमी पूर्व में स्थित एक शहर मार्ने-ला-वल्ली में, वाल्ट डिजने कंपनी ने 12 अप्रेल 1992 को बनवाया था। यह न केवल एक मनोरंजन रिजार्ट, वरन् यूरोप में सबसे ज्यादा देखा जाने वाला थीम पार्क है। यह रिजॉर्ट 4,000 एकड़ में फैला हुआ है। इसमें दो थीम पार्क, कई रिज़ॉर्ट होटल, एक शॉपिंग, डायनिंग और मनोरंजन कांप्लेक्स शामिल हैं । सन 2002 में एक दूसरा वाल्ट डिस्ने स्टूडियो पार्क खोला गया। सन 1983 में टोक्यिो डिजनी रिजार्ट के उद्दघाटन  के पश्चात् यह अमेरिका के बाहर खुलने वाला दूसरा डिजनी पार्क बन गया है ।

            हम डेढ़ घंटे की यात्रा के पश्चात् लगभग तीन बजे डिज्नीलैंड पहुँचे। पहुंचते ही यतिन टिकट काउंटर से टिकट लेने चला गया। लगभग 15-20 मिनट में  यतिन ने टिकट लाकर हमें दे दीं तथा शाम छह बजे का समय हमें नियत स्थान पर लौटने के लिये दिया गया। 

प्रवेश द्वार से डिज्नीलैंड का मुख्य गेट काफी दूर था। दर्शकों  की सुविधा के फ्लैट एक्सलेटर भी थीं जिन्हें चलने में थोड़ी परेशानी थी वह उस पर खड़े होकर आगे जा़ सकते थे। लगभग 1 किमी पैदल चलकर हमने डिजनीलैंड रिजॉर्ट में प्रवेश किया। कई रास्ते नजर आ रहे थे...समझ में नहीं आ रहा था कि किधर चलें। यद्यपि हमारे पास मार्गदर्शिका भी थी फिर भी हम कंफ्यूज थे।  तभी मुंबई से आये हमारे सहयात्री मेहता साहब की बेटी पल्लवी ने हमसे कहा,“ आंटी, अंकल आप आइये मैंने नेट लगा लिया है। अब जहां हमें जाना हो जा सकते हैं।”  

हमारे साथ बैंगलोर से आये याकूबजी तथा उनकी बेगम भी थीं । हम सबने साथ-साथ घूमने का फैसला लिया।

 सबसे पहले हम सिंडरेला कैसल गए। सिंडरेला कैसल दो डिज्नी थीम पार्को में परी कथा महल है। इस कैसल में विभिन्न माध्यमों से सिंड्रेला की कहानी बताई गई है । इसको देखने के पश्चात थंडर माउंटेन, फेंटासीलैंड, एलिस इन वंडरलैंड, पिनोचियो, एडवेंचरलैंड में अलाउद्दीन और इंडियाना जोनस इत्यादि देखे। अंत में हम रोलर कोस्टर राइड गए। यहां ज्यादातर बच्चों की विभिन्न प्रकार की राइड थीं। बच्चों के साथ उनके पेरेंट्स भी इन राइड का मजा ले रहे थे। हमें इन सब में कोई इंटरेस्ट नहीं था। हम ऐसे ही  इधर-उधर घूमने लगे। एक जगह नृत्य का शो चल रहा था वह देखा फिर एक जगह बनी पत्थर की शिला पर बैठ गये। यहाँ बैठकर चारों तरफ का नजारा काफी अच्छा लग रहा था विशेषतया यहाँ लगे फूल...। 

    यहाँ हमें साढ़े पाँच बजे से होने वाला शो देखना था। पाँच बजे हम उस जगह जहाँ शो होना था पहुँचे तथा वहाँ एक बेंच पर बैठ गये। हमसे पहले भी वहाँ बहुत से लोग बैठे हुये थे तथा जो लोग बाद में आये उन्हें जहाँ जगह मिल रही थी वहाँ बैठते जा रहे थे। यह शो डिजनीलैंड की एक रोड पर हो रहा था। कुछ लोग जिस सड़क पर शो हो रहा था उसका अतिक्रमण कर रहे थे। दो लड़कियाँ रोड को खाली कराने में लगी थीं जबकि कुछ लोग उनके आग्रह को ठुकरा कर बार-बार अपने पैर रोड पर रख देते थे। शाम के पाँच बज रहे थे पर धूप इतनी तेज थी मानो अपने भारत के दो बज रहे हों। हमारे सामने ही एक लड़की अपनी आँखों पर अपने हाथ रखकर जमीन पर ही लेट गई। कुछ लोग हमारी बेंच के नीचे, हमारे पैरों के पास ही पलटी मारकर बैठ गए। सच यहाँ लोग बहुत ही बेतकल्लुफ होते हैं। उन्हें इस बात की भी परवाह नहीं होती कि लोग उनके बारे में क्या सोच रहे हैं !! 


शो प्रारंभ हुआ... प्रारंभ में महारानी अपनी गाड़ी से निकलीं । उसके बाद कई गाड़ियों में अनेक झांकियाँ निकली। इन झांकियों के साथ में कई नाचते गाते लड़के, लडकियाँ अपनी मस्ती में चले जा रहे थे। यह शो लगभग आधे घंटे तक चला।  शो इतना अच्छा यह कि बच्चे तथा बड़ों सबको इस शो ने आदि से अंत तक बांध रखा।

            शो समाप्त होते ही हम सब बाहर निकले। यतिन बाहर खड़ा हम सबका इंतजार कर रहा था। सबके आते ही हमे बस चल पड़ी।उस दिन रात का डिनर कर होटल पहुँचने में रात्रि के लगभग आठ बज गये थे। दूसरे दिन हमें साढ़े सात बजे होटल में ब्रेकफास्ट करके, अपने पूरे साजोसामान के साथ नीचे हाल में पौने आठ बजे तक एकत्रित होना था। ठीक आठ बजे हमें बेल्जियम के लिये निकलना था ।

 

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बेल्जियम

 

जैसे ही बस चली यतिन सदा की तरह हमारी आज की यात्रा के बारे में बताने लगा तथा सभी ध्यान से सुनने लगे। यतिन ने कहा कि आज हम बेल्जियम की राजधानी ब्रूसेल्स जा रहे हैं जिसकी पेरिस से दूरी 320 किमी है। ब्रूसेल्स, बेल्जियम की राजधानी तो है ही, यूरोपीय संघ की भी राजधानी है। ब्रूसेलस 19 महानगर पालिकाओं के साथ बेल्जियम का सबसे बड़ा शहर है। इसका क्षेत्रफल 161. 4 किलोमीटर स्कावायर है । इसकी जनसंख्या 1. 199 मिलियन है ।        ब्रुसेल्स शहर की स्थापना दसवीं शताब्दी में किलों के शहर के रूप में हुई थी जिसे चर्लिमगने के एक वंशज ने स्थापित किया था । द्वितीय विश्वयद्ध के अंत के पश्चात ब्रुसेल्स अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का मुख्य केंद्र रहा है।  यहाँ यूरोपीय संघ की मुख्य इमारतों के साथ-साथ उत्तरी अटलांटिक संधि संस्था (नाटो ) का मुख्यालय भी है । आज यहाँ हम विश्व प्रसिड ‘मैनकेन पीस’ तथा ग्रैंड प्लेस देखेंगे। लगभग तीन साढ़े तीन घंटे की ड्राइव के पश्चात पेरिस से हम ब्रुसेल्स पहुँचे। आज इस समय को सबने अंताक्षरी खेलकर बिताने का निश्चय किया। आदमी और औरतों के अलग ग्रुप बन गए थे। खूब मजा आया तथा समय का पता ही नहीं चला।

            पार्किग में बस खड़ी हुई। हम बस से उतरकर यतिन को फालो करते हुये चले। लगभग पंद्रह मिनट पश्चात् एक बहुत बड़ी वर्गाकार जगह पहुँचे जिसके चारों ओर इमारतें ही इमारतें थीं । यतिन ने बताया कि यह ग्रैंड  प्लेस है ।


 ग्रैंड प्लेस या ग्रोट मार्केट

 

            ग्रैंड प्लेस या ग्रोट मार्केट ब्रुसेल्स का केंद्रीय स्थान है। बहुत बड़े वर्ग में स्थित यह स्थान गिल्ड हाल और दो बड़े भवनों, शहर के टाउन हाल और किंग्स हाउस या ब्रेड हाउस जिसमें संग्रहालय है, की इमारतों से घिरा हुआ है । यह ब्रुसेल्स का महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल है तथा यादगार स्थलचिंह भी है । यह यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल के साथ यूरोप का खूबसूरत स्थल भी है ।

            दसवीं शताब्दी में चार्ल्स, लोअर लोरेन के डियूक ने सेंट गैरी द्वीप पर एक किला बनवाया जो अंतर्देशीय बिंदु पर था। यहाँ स्थित सेनेई नदी उसे नौ सेना के लिये उपयुक्त लगी शायद इसी कारण उसने इस शहर को बसाया था । ग्यारहवीं शताब्दी के अंत में सैंड बैंक (बालुई किनारे) से घिरे किले के पास एक बाजार बनाया गया जिसे लोअर मार्केट कहा जाता है। 


   समय के साथ समय-समय पर इसमें कई परिवर्तन हुये। 13 अगस्त 1965 को मार्शल फैंकोइस डी नेफविले, डक डी विलेरोय की अगुवाई में 70,000 मजबूत फ्रेंच सेना ने आक्रमण किया। तोपों और मोर्टारों के साथ बमबारी प्रारंभ की गई जिससे ग्रैंड प्लेस और टाउन हाल को बहुत नुकसान हुआ। 18 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ब्रैबेट क्रांतिकारियों ने ग्रैड प्लेस की महत्ता को नकारते हुये, वहां स्थित मूर्तियों और ईसाई धर्म के प्रतीकों को नष्ट कर दिया। 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में यहां की राजशाही अपनी विरासत के प्रति संवेदनशील हुई तथा इनके पुनः निर्माण के बारे चिंतन प्रारंभ हुआ । प्रथम विश्व युद्ध के समय ग्रैंड प्लेस में शरणार्थियों ने शरण पाई । उस समय टाउन हाल में अस्थाई अस्पताल बना था। सन 1959 में यहाँ बाजार बना। इसे डच में ग्रेट मार्केट या ग्रोट मार्केट कहा जाता है। यह ग्रैंड प्लेस सन 2010 में यूरोप की सबसे खूबसूरत जगह चुनी गई तथा अब यह पर्यटकों का पसंदीदा स्थान बन गया है ।   

            टाउन हाल ग्रैंड प्लेस का केद्रीय भवन है। यह 96 मीटर लंबा है जिसे सन 1402 से सन 1455 के बीच कई चरणों में बनाया गया था। यह ग्रैंड प्लेस का एकमात्र मध्ययुगीन भवन है। इसे ब्रैबेंटिन गोथिक आर्किटेक्चर की उत्कृष्ट कृति माना जाता है। इसके शिखर पर ब्रुसेल्स के संरक्षक संत सेंट माइकल की एक पाँच मीटर की मूर्ति है जिसके बारे में यह प्रचिलित है कि यह राक्षसों का सर्वनाश करती है ।

            टाउन हाल असमान है। इसका टावर इमारत के बीच में नहीं है । एक पुरानी किंवदंती के अनुसार जिस वास्तुकार ने इस इमारत को डिजाइन किया था, उसने अपनी गलती महसूस करने के बाद बेल्फ्री के शीर्ष से कूदकर आत्महत्या कर ली । वास्तव में दोनों भागों को एक साथ नहीं बनाया गया था ।


            ब्रुसेल्स शहर का संग्रहालय किंग्स हाउस या ब्रेड हाउस में स्थित है। 12 शताब्दी के प्रारंभ में किंग्स हाउस एक लकड़ी की इमारत थी जहाँ रोटी बेची गई थी इसलिये डच में इसे ब्रूडुईस (ब्रेड हाउस ) भी कहा जाता है । 15 वीं शताब्दी में इसकी मूल इमारत को एक पत्थर की इमारत में बदल दिया गया जिसमें ब्रैंबेंट के डियूक की प्रशासनिक सेवायें थीं इसलिये इसे डियूक हाउस भी कहा जाता था जब डियूक स्पेन का राजा बन गया तब इसे किंग्स हाउस कहा जाने लगा । 


16 वीं शताब्दी में रोमन सम्राट चार्ल्स वी ने गोथिक शैली इसका पुनःनिर्माण करवाया । उस समय यह टावर और दीर्घाओं के बिना बना था । सन 1665 में हुई बमबारी में इसका काफी नुकसान हुआ ।  सन 1873 में वास्तुकार विक्टर जमेर द्वारा इसका पुनःनिर्माण हुआ। सन 1887 में इसे ब्रुसेल्स का संग्रहालय बनाया गया । सन 1985 में इसकी पुनः आंतरिक सज्जा कर नया रूप दिया गया। अब यतिन ने मैनकेन पीस की ओर बढने का इशारा किया जो यहाँ का मुख्य दर्शनीय स्थल है।   

 

            मैनकेन पीस


            थोड़ी देर रूककर हम आगे बढ़े पतली-पतली गलियों से होते हुये लगभग पाँच मिनट के पश्चात् ‘मैनकेन पीस’ पहुँचे जिसका अर्थ यहाँ की भाषा में छोटा आदमी है । जिसका डच में अर्थ है लिल पिडलर । ब्रुसेल्स की यह एक एतिहासिक छोटी मूर्ति है । इसमें एक नग्न छोटे लड़के को एक फब्बारे के रूप में पेशाब करते हुये दिखाया गया है । मैनकेन पीस ब्रुसेल्स के लोगों की पहचान है। यह ब्रुसेल्स की भाषा ज्वारजे के अनुसार हास्य की भावना और उनकी स्वतंत्रतता का भी प्रतीक है । इसे हिएरोनिमस डुक्सेनाय द्वारा सन 1618 में बनाया गया था ।

           यतिन ने बताया कि मैनकेन पीस के अस्तित्व का सबसे पहला उल्लेख सन 1451-1452 ब्रुसेल्स में जल आपूर्ति करने वाले फब्बारे के रूप में की गई । प्रारंभ में फब्बारे ने पीने के पानी के वितरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। कहा जाता है कि  इस मूर्ति को कई बार कई खतरों का सामना करना पड़ा। फ्रांसीसी सेना द्वारा की गई बमबारी में इसे बहुत नुकसान पहुँचा था जिसके कारण कुछ समय तक शहर में पानी की आपूर्ति बंद हो गई थी।

           'मैनकेन पीस' की संरचना को रेंलिंग द्वारा संरक्षित किया गया है। अब इसमें सजावटी एवं प्रतीकात्मक रूप में या दर्शकों के मनोरंजनार्थ फब्वारा चलाने का प्रोविजन किया गया  है। सन 1817 में एंटोइन लाइसेंस द्वारा मूर्ति की चोरी कर ली गई थी तथा मूल मूर्ति को ग्यारह टुकड़ों तोड़ दिया गया था। बाद में मूर्तिकार गिल्स-लैम्बर्ट की देखरेख में टुकड़ों का मिलानकर एक मोल्ड बनाया जिसमें कांस्य डालकर प्रतिमा का निर्माण किया गया । मैनकेन पीस की यह मूर्ति अन्य कई दुश्वारियों को सहकर भी अडिग रहने वाली 61 सेंटीमीटर की कांस्य की बनी एक एतिहासिक मूर्ति है ।

            मैनकेन पीस मूर्ति के मूल संस्करण को अब ग्रैड प्लेस पर मैसन डुरोई ब्रूडहिस में ब्रुसेल्स शहर के संग्रहालय में दूसरी मंजिल पर रखा और प्रदर्शित किया है । रूई डू चेन और एल एटयूब के कोने पर प्रदर्शित होने वाली वास्तविक  मूर्ति नहीं वरन उसी की समान प्रतिकृति है ।

            मैनकेन पीस के पीछे कई किंवदंतियाँ हैं लेकिन सबसे अधिक प्रसिद्ध लेयूवन के डियूक गाडफ्रे तीसरे के बारे में प्रसिद्ध है। सन 1142 में इस दो वर्षीय भगवान की सेनायें रांसबेके (नीडर-ओवर-हीमबीक) में ग्रिबर्गबर्ग के बर्थआउट्स के सैनिकों के विरूद्ध लड़ रही थीं । सैनिकों ने उन्हें प्रोत्साहित करने के लिये शिशु भगवान को एक टोकरी में रखकर एक पेड़ से लटका दिया। शिशु ने  बर्थआउट के सैनिकों पर पेशाब कर दिया जिन्हें बाद में हार का सामना करना पड़ा।

            एक अन्य किंवदंती में कहा गया है कि चौदहवीं शताब्दी में एक विदेशी शक्ति बुसेल्स शहर की घेराबंदी कर रही थी। हमलावरों ने शहर पर कब्जाकर उसे नष्ट करने के लिये शहर में विस्फोटक लगाने की योजना बनाई । लूलियंस नामक लड़का उनकी जासूसी कर रहा था । उसने जलती फ्यूज पर पेशाब करके शहर को नष्ट होने से बचाया । उसकी स्मृति में पेशाब करते लड़के की पत्थर की मूर्ति स्थापित की गई है ।

            मैनकेन पीस को पहले से बताई योजना के अनुसार हर हफ्ते कई बार विभिन्न परिधान भी पहनाते हैं। किस दिन कौनसा परिधान पहनाना है इस योजना को फाउन्टेन के किनारे बनी रेलिंग पर चिपका दिया जाता है। सन 1954 से मैनकेन पीस को परिधान पहनाने की योजना का नियंत्रण अलाभकारी समिति के पास था। सन 2016 में इसके परिधानों की संख्या 950 से अधिक हो गईथी।   इसके कई परिधान उन राष्ट्रों की राष्ट्रीय पोशाक का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनके नागरिक ब्रुसेल्स में पर्यटक के रूप में आते हैं । इसकी पोशाकों को ग्रैंड प्लेस में स्थित सिटी संग्रहालय में संग्रहीत किया जाता है ।

            ग्रैंड प्लेस से बाहर आने पर हम कुछ देर यहाँ बने एक छोटे से पार्क में पेड़ की छाया में बैठे । यहाँ पर बीच में एक बड़ी सी मूर्ति बनी थी । इसके चारों ओर कुछ बेंच थीं। अभी हम बैठे ही थे कि वान्या के  पति आबिद ने आकर हमसे अपने दो वर्षीय बेटे को यह कहकर पकड़ने के लिए कहा कि वान्या वाशरूम गई है उसका नमाज पढ़ने का समय हो गया है। वह बच्चे को हमें पकड़ाकर वहीं नमाज पढ़ने लगा। सच ये लोग भी...समय और नमाज के बारे में इतने कट्टर होते है।   इतनी देर में वान्या आ गई। उसने हमारे पास बैठते हुए हमें थैंक्स कहा।  

            इस पार्क के चारों ओर बनी सड़क के किनारे कुछ रेस्टोंरेंट थे जो यहाँ घूमने आये यात्रियों की क्षुधा मिटाने हेतु थे। हमने भी यहाँ काफी पी। बैंक के ए.टी.एम. से कुछ यूरो निकलवाये क्योंकि हमारा अपना कुछ खर्चा हो या न हो पर प्रत्येक दिन हमें अपने टूर मैनेजर को तीन यूरो देने होते थे जिसमें उसका, ड्राइवर का, गाइड का तथा रेस्टोरेंट तथा होटल की टिप भी सम्मिलित रहती है। सब सहयात्रियों के आने पर हम चल दिये। अब हमें हौलेंड जाना था जहाँ मेडुरामा नामक मिनीयेचर पार्क देखना था ।

 

मिनी यूरोप या मादुरोदम

 

            लगभग लगभग 181 किमी का सफर कर हम मिनी यूरोप या मादुरोदम पहुँचे। मादुरोदम नीदरलैंड में हेग के शेवेनिंग जिले में बना लघु पार्क एवं पर्यटकों के आकर्षण का मुख्य केंद्र है । यह मशहूर डच स्थलों, ऐतिहासिक शहरों और विकास के 1.25 पैमाने पर खरी उतरी मॉडल प्रतिकृतियों की शृंखला का खूबसूरत घर है। पार्क को सन 1952 में खोला गया था तबसे अब तक लाखों पर्यटकों ने इसको देखा है। सन 2012 में इसने अपनी साठवीं वर्षगांठ मनाई ।

            मादुरोदम लघु पार्क का नाम डच नागरिक जॉर्ज मादुरो के नाम पर रखा गया । जार्ज मादुरो एक वकील थे । जार्ज मादुरो नाजियों से लड़ते हुये सन 1945 में मारे गये । सन 1946 में जॉर्ज मादुरो को अपनी वीरता के लिये मरणोंपरांत नीदरलैंड के सर्वोच्च मिलिटरी अवार्ड मेडल आफ नाइट से सम्मानित किया गया ।

          पहली बार  मादुरोदम पार्क का विचार श्रीमती बून-वान डेर स्टार्प के मस्तिष्क में आया था। वह डच स्टूडेंट सेनीटोरियम फाउन्डेशन की सदस्य थीं । इस सेनीटोरियम में टी.बी. के मरीज छात्रों के इलाज साथ उनकी पढ़ाई भी कराई जाती थी। उनकी देखभाल के लिये आर्थिक सहायता की आवश्यकता थी । श्रीमती बून-वान डेर स्टार्प ने इंग्लैंड के बेकोन्सकोट ( bekonscot ) में एक लघु पार्क बीकोन्सफील्ड ( Beaconsfield ) के बारे में सुना था । पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र होने पर यहाँ काफी कमाई होती है। इस कमाई का काफी हिस्सा हर वर्ष लंदन के अस्पताल को दान दिया जाता था।

            अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिये श्रीमती बून-वैन डेर स्टार्प ने जॉर्ज  मादुरो के माता-पिता से मिलने का फैसला किया । उन्होंने अपने पुत्र की स्मृति में मादुरोदम प्रोजेक्ट के लिये  दान करने का फैसला लिया । इस पार्क को बनाने के लिये प्रसिद्ध आर्किटेक्ट श्री एस.जे.बोमा की सेवायें ली गई । श्रीमती स्टार्प बेकोन्सफील्ड जैसा  पार्क चाहती थीं उस तरह का पार्क बनवाने के लिए वह जे.एस.बोमा के साथ बेकोन्सफील्ड ( Beaconsfield )गई तथा मादुरोदम पार्क की थीम ‘मुस्कराता छोटा शहर ‘ ( the little city with smile ) के विचार साथ अपने प्रोजेक्ट को मूर्त रूप देने का निश्चय किया।।

            सन 1952 में एक किशोरवय राजकुमारी बिट्रिक्स मादुरोदम की मेयर बनी। उन्होंने इस नाम को हटा दिया। उनके त्यागपत्र के बाद एक नई परंपरा प्रारंभ हुई । अब हर वर्ष हेग स्टूडेंट में से ही मेयर चुना जाने लगा । यूथ कौंसिल बनाई गई। यूथ कौंसिल के सदस्य ही पैसे के लेन-देन के लिये बनी वितरण समिति के सदस्य रहते थे। मादुरोदम  का अपना फंड था जिससे युवाओं के कल्याण के लिये चलती संस्थाओं को भी दान दिया जाता था।

             सन 2011 में ऐसा अनुभव हुआ कि इस पार्क के प्रति लोगों का रूझान कम हो गया है तब इसके नवीनीकरण का विचार आया । पार्क मैनेजमेंन्ट ने सन 2012 में इसकी साठवीं वर्षगांठ पर आठ मिलियन यूरो खर्च कर इसे नया रूप देकर क्वीन बीट्रिक्स द्वारा राष्ट्र को समर्पित किया ।

            पार्क को अब तीन विषयों में बाँटा गया । पानी...हमारा मित्र या शत्रु, ऐतिहासिक शहर तथा नीदरलैंड दुनिया के लिये प्रेरणास्त्रोत । मादुरोदम की हर वस्तु 1. 25 के स्केल से बनाई गई है अतः सड़क तथा पेड़ पौधों के साथ हर वस्तु के मॉडल को बनाने के लिये उसके आकार, प्रकार एवं रंग के बारे में गहरा शोध किया गया। कंप्यूटर के द्वारा हर वस्तु का नाप लेकर सारी जानकारी मशीन को दे दी जाती जो वास्तविक मॉडल बना देती थी। फिर उसे पेंटिंग रूम में भेजा जाता था जहाँ उसे वास्तविक रूप मिलता था ।

            मादुरोदम पार्क में हर स्थान का मॉडल  लाइट एवं हल्के संगीत के साथ चल रहे थे जो मन को मोह रहे थे । छोटे-छोटे पुल हैं । विंड मिल के मॉडल  हैं । मिनीयेचर ट्रेन हैं । छोटे-छोटे पेड़ों से  सुस्ज्जित बाग मन को मोह लेते हैं । छोटी इमारत के आस-पास खड़े छोटे-छोटे आदमी आश्चर्यचकित कर रहे थे वहीं एम्स्टर्डम एअरपोर्ट पर खड़े छोटे-छोटे हवाई जहाजों ने भी बेहद आकर्षित किया । यहाँ संग्रहालय के साथ बिननहाफ सरकार का हैडआफिस, परंपरागत डच हाउस, ट्यूलिप फील्ड, एम्सटर्डम हवाई अड्डा, विंड मिल, डच कोर्ट, राटरडम बंदरगाह, रॉटरडम की स्काईलाइन...इरेस्मस ब्रिज, रोमास्ट सेंट्रल रेलवे स्टेशन, क्यूब हाउस एवं यूनीलीवर का मुख्यालय के लघुरूप जहाँ मन को मोहते हैं वहीं इस कला को देखकर मन आश्चर्य से भर उठता है । एक जगह बड़े-बड़े अक्षरों में अंग्रेजी में मादुरोदम लिखा था । हमने वहाँ फोटो खिंचवाई । सच तो यह है इस पार्क के द्वारा डच लोगों की जीवन शैली को बखूबी प्रदर्शित किया गया है । फ्रांस से बेल्जियम जाते हुये लगभग पूरे रास्ते में विंड मिल दिखाई देतीं रहीं। आज हमने 500 किमी की दूरी तय की । फ्रांस से बेल्जियम, हालैंड तथा अंत में नीदरलैंड ।

            रात होने वाली थी । आठ बजे तक हमें होटल पहुँचना था। यहाँ के नियमों के अनुसार ड्राइवर एक दिन में बारह घंटे से अधिक ड्राइविंग नहीं कर सकता था । बारह घंटे की ड्राइविंग में उसे ढाई-ढाई घंटे पश्चात् दो पंद्रह मिनट के लघु ब्रेक तथा एक बड़ा ब्रेक देना होता है । उसी के अनुसार सारे प्रोग्राम तय होते हैं ।

            हमारे बस में बैठते ही हमें बताया गया कि अब हम डिनर के लिये जा रहे है। उसके पश्चात् हम नीदरलैंड में होटल एन.एच. नारदेन में रूकेंगे । नीदरलैंड में सभी इलेक्ट्रिक ट्रेनों को पवनचक्की से प्राप्त उर्जा से चलाया जाता है । यतिन ने बताया कि कल सुबह नौ बजे पुनः हमें एम्सटर्डम के लिए निकलना था।

            एम्सटर्डम


            हम सुबह ब्रेकफास्ट करके ठीक नौ बजे बस में बैठ गये। बस में यात्रा में लगभग दो घंटे लगने थे। नितिन ने बताया कि एम्सटर्डम नीदरलैंड की राजधानी है। एम्सटर्डम का नाम एम्स्टल नदी के नाम पर रखा गया है। यह नीदरलैंड का सबसे अधिक जनसंख्या वाला शहर है। एम्सटर्डम का अपना अलग झंडा है। झंडा बहुत साधारण और सुंदर है। इसमें तीन एक्स बने हैं। झंडा एम्सटर्डम के कोट आफ आर्मस ( राज्य चिन्ह) पर आधारित है। यह लाल रंग का है जिसमें काले रंग की पट्टी है। इस पट्टी पर तीन सिल्वर कलर के क्रास बने हैं । क्रास को सेंट एंड्रयू क्रास के नाम से जाना जाता है । इनका अर्थ है...बहादुर, दृढ़ एवं दयालु । 


संत एंड्रयू एक मछुआरे थे। अपने प्रवचनों के कारण वह कुछ अतिवादियों के निशाने पर आ गये। उनके विचारों से असहमत अतिवादियों ने उन्हें एक एक्स के आकार के क्रास ( crus decussate ) में  लटकाकर मृत्युदंड दिया था। बाद के वर्षो में उन्हें ईश्वरीय दूत का दर्जा दिया गया तथा उनकी याद में सन 1505 में एम्सटर्डम को तीन एक्स चिंह मिला । इसको सभी जहाजों पर लगाया जाता है ।     

            आखिर हम एम्सटर्डम पहुँच ही गये । शहर बेहद व्यवस्थित एवं खूबसूरत लग रहा था। ट्राम भी चल रही थीं तथा  साइकिल से भी लोग आ जा रहे थे । साइकिल चलाने वालों के लिये लाल रंग का ट्रैक बना हुआ था।


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 आखिर हम एम्सटर्डम के सिटी केनाल क्रूसी स्टेशन पहुँच गये। यहाँ से चलने वाली ब्लू बोट कंपनी की बोट से हमें यात्रा करनी थी। सदा की तरह यतिन ने हमें एक जगह खड़ा रहने का निर्देश दिया तथा क्रूस की टिकिट लेने चला गया। लगभग आधे घंटे पश्चात हमारी क्रूस की यात्रा प्रारंभ होनी थी। हमारा समय होते ही हम अपने क्रूस की ओर चल दिये तथा कतार में चलते हुए सभी सहयात्री सीट पर बैठ गये। क्रूस की लगभग 75 मिनट की यात्रा थी। क्रूस के चलने से पूर्व ही  हमें इयर फोन दिया गया जिसे हम अपनी सीट में बने सोकेट में लगा सकते थे...। जैसे ही क्रूस चला। कमेंट्री शुरू हो गई। इस इअर फोन द्वारा 21 भाषाओं में बताया जा रहा था। इन 21 भाषाओं में से एक भाषा हमारी हिन्दी भी है, जानकर बेहद प्रसन्नता हुई।              


हमने कान में इअर फोन लगा लिये । कमेंटरी चल रही थी...इस नगर की स्थापना 12 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में एम्स्टल नदी के मुहाने पर हुई थी। उस समय यहाँ कोई नहीं रहता था। मछली पकड़ने के उद्देश्य से दो मछुआरों ने घर बनाकर यहाँ रहना प्रारंभ किया । बाद में इसकी पहचान एक मछली पकड़ने के क्रेंद्र के रूप में हुई । 13 वीं शताब्दी में जार्ज पंचम ने इसे एम्सटर्डम नाम दिया । तब यह गरीबों का ठिकाना था ।  17 वीं शताब्दी में डच स्वर्ण युग के समय यह दुनिया के सबसे बड़े बंदरगाहों में से एक बन गया जिससे व्यापार तो बढ़ा ही, इसका विकास भी हुआ । उस समय यह हीरे के व्यापार तथा वित्त क्षेत्र में अग्रणी था । 19 वीं शताब्दी में शहर का अत्यधिक विस्तार हुआ । कई नगर और उपनगरों की योजना बनाई गई तथा निर्माण किया गया । अब यह गरीबों से अमीरों का शहर बन गया । एम्सटर्डम शहर देश के पश्चिम में उत्तर होलेंड प्रांत में स्थित है । इसका नाम यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में है । एम्सटर्डम नीदरलैंड की सांस्कृतिक राजधानी के साथ वाणिज्यिक राजधानी भी भी है । यह यूरोप की शीर्ष वित्तीय केंद्रों में से एक है । आज एम्सटर्डम बंदरगाह देश में दूसरा तथा यूरोप में पाँचवां बंदरगाह है ।

एम्सटर्डम नदी में 11 मिलियन लकड़ी के पोल बने हैं। यह पोल पंद्रह से बीस मीटर लंबे हैं जो कीचड़ में और बालुई लेयर में ग्यारह मीटर नीचे तक हैं । पुराने घर इन्हीं 10 से 15 पोलों पर बने होते थे । घरों में दरवाजे पतले, तथा खिड़कियाँ चौड़ी होती हैं। कहा जाता है राजा इन्हीं खिड़कियों से प्रजा को देखते थे। यहाँ का  सेंट्रल स्टेशन 9,000 पोलों पर बना है । यहाँ 165 कैनाल हैं जो 100 किलोमीटर की दूरी तय करती हैं । सन् 2010 में यह कैनाल एरिया यूनेस्को की वर्ड हैरिटेज में सम्मिलित किया गया ।

            एम्सटर्डम में 1,281 पुल हैं । इनमें से 80 पुल एम्सटर्डम के केंद्रीय भाग में ही हैं । 2,500 हाउसबोट हैं । ये सीविरेज प्रणाली से जुड़े हुये हैं । वनस्पति उद्यान भी दिखा । डच कलाकार ने ब्रोकेन पिलर नामक स्मारक बनाया । पहले इसमें लोग रहते थे पर अब ये खाली हैं । यहाँ पर साइकिलें बहुतायत में चलती हैं । यहाँ बीयर और काफी शॉप बहुतायत में हैं । 

नदी के किनारे बड़ी-बड़ी इमारतें बनी हुई हैं । क्रूस से घूमते हुये हमें आई.बी.आई.एस. तथा नोवाटोल होटल दिखे। क्रूज से ही हमें समुद्री संग्रहालय तथा नौसेना का गोदाम भी  दिखा। कुछ रेस्टोरेंट भी नजर आ रहे थे।    

            

एम्सटर्डम स्टॉक एक्सचेंज, दुनिया का सबसे पुराना स्टॉक एक्सचेंज है। एम्सटर्डम के कई ऐतिहासिक आकर्षण हैं… रिजक्स म्यूजियम, वान गाग म्यूजियम, स्टैडेलिस्क म्यूजियम, हेर्मिटेज एम्सटर्डम, एनी फ्रैंक हाउस, एम्सटर्डम संग्रहालय इत्यादि। 

एम्सटर्डम में बस द्वारा प्रवेश करते तथा बाहर निकलते समय तथा लगभग 75 मिनट की केनाल क्रूसी की यात्रा में हमने काफी कुछ देख लिया था क्योंकि एम्सटर्डम नदी के किनारे-किनारे ही अधिकतर महत्वपूर्ण बिल्डिग बनी हुई थीं । एम्सटर्डम की नहरें विश्वविख्यात हैं । इनमें कई नगर के बीचों बीच हैं । इस कारण इस शहर की तुलना वेनिस से की जाती है।

            हम वापस बस में बैठ गये । यतिन ने बताया कि लंच करके अब हमें ‘जानसे सचान्स विंड मिल’ को देखने जाना था जो एम्सटर्डम से 15 किमी दूर उत्तर पश्चिम में जानसे सचान्स जांदम, जानस्टेड गाँव, जो उत्तरी हालैंड में स्थित है । यहाँ कई ऐतिहासिक इमारतें तथा विंड मिल हैं ।

 

जानसे सचान्स विंड मिल


            लगभग आधे घंटे में हम एक बहुत पुरानी डी काट, जानसे सचान्स विंड मिल पहुँच गये । यह दुनिया की पुरानी चालू हालत में विंड मिल है । यह पवन चक्की सन 1646 में वायु से उत्पन्न उर्जा से चलने वाली आयल मिल के रूप में स्थापित हुई । सन 1782 में यह मिल आग में क्षतिग्रस्त हो गई । इसका पुनःनिर्माण किया गया । सन 1904 तक यह चलती रही । यह पुनः आंशिक  रूप से क्षतिग्रस्त हुई । सन 1960 में आठ तरफा ( eight sided ) की इस पेंट मिल को अर्बन विकास के लिये हटाकर एक पुराने स्टोर हाउस में रखवा दिया। जहाँ मिल को पेंट बनाने के लिये उपयुक्त आने वाले कच्चे माल को ग्राइंड करने के काम में लाया जाने लगा । बाद में  इस मिल को वेरेनीगिंग डी जानसचे मोलन ने खरीद लिया ।

            वायु से बनने वाली बिजली जर्मनी के लिये एक उभरता उद्योग है । ये पवन चक्कियाँ सन् 2017 में  55. 5 गीगावाट बिजली पैदा करती थी जो इस देश की बिजली की खपत का 18.7 है । जर्मनी के संघीय ढाँचे में इस समय 26,772 से अधिक विंड मिल, पवन चक्कियाँ हैं । अब हमें 280 किमी की दूरी तय करके कोलोन जाना था इसे तय करने में लगभग साढ़े तीन घंटे लगने थे।

 

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      बस में बैठते ही यतिन आगे की यात्रा के बारे में जानकारी देते हुए बताने लगा कि कोलोन उत्तरी राइन-वेस्टफेलिया के जर्मनी के सबसे अधिक आबादी वाले संघीय राज्य का सबसे बड़ा शहर है तथा यूरोप के प्रमुख महानगरीय क्षेत्रों में से एक है । शहर का प्रसिद्ध कोलोन कैथेड्रल, कोलोन के कैथोलिक आर्कबिशप द्वारा संचालित होता है अर्थात् वह यहाँ अपनी विशेष राजगद्दी पर बैठकर, केथेड्रल में आने वाले अनुयायियों को प्रवचन देता है। शहर में उच्च शिक्षा के कई संस्थान हैं...कोलोन विश्वविद्यालय, कोलोन तकनीकी विश्वविद्यालय, जर्मन स्पोर्ट्ज यूनिवर्सटी इत्यादि। कोलोन बार्न एअरपोर्ट जर्मनी का सातवां सबसे बड़ा हवाई अड्डा है जो शहर के दक्षिण पूर्व में स्थित है । राइन-रूहर क्षेत्र के लिये मुख्य हवाई अड्डा डसेलफोर्ट एअरपोर्ट है।  मघ्ययुग में कोलोन एक उच्चकोटि का व्यावसायिक स्थल था किन्तु द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान हुई बमबारी में इसे काफी क्षति पहुँची । इसके पुनःनिर्माण के परिणाम आज यह एक अद्वितीय शहर बन गया है ।

           

कोलन कैथेड्रल


            कोलोन पहुँच कर हम कोलोन कैथेड्रल गये । यह कैथेड्रल संत पीटर को समर्पित है। गोथोलिक आर्किटेक्ट के अनुरूप बने इस कैथेड्रल का निर्माण सन 1248 में शुरू हुआ किंतु कुछ कारणों से यह सन 1473 तक पूरा नहीं हो पाया । कुछ वर्षों पश्चात इस कैथेड्रल का काम पुनः प्रारंभ हुआ तथा सन 1880 में इसका निर्माण पूरा हुआ । यह चर्च उत्तरी यूरोप का सबसे बड़ा गोथोलिक चर्च है । इसके दो बड़े शिखर इसे दुनिया के सभी चर्चो से अनूठा रूप देते हैं । इन शिखरों की ऊँचाई 157 मीटर है । चर्च के पूर्वी भाग की अधिकतम ऊँचाई और चौड़ाई का अनुपात 3.6: 1 है ।  पर्यटक 533 सीढ़ियाँ चढ़कर,  सौ मीटर की ऊँचाई पर स्थित प्लेटफार्म पर पहुँचकर, राइन नदी और आसपास के विहंगम द्श्यों का आनंद ले सकते हैं। 

            कोलोन कैथेड्रल में संत क्रिस्टोफर की मध्ययुगीन प्रतिमा पर्यटकों का स्वागत करती प्रतीत होती है । इसमें लगी लकड़ी की बनी वर्जिन मेरी और जीसस की  मूर्तियां भी आकर्षित करती हैं।  कैथेड्रल में उन्नीसवीं सदी में कई खिड़कियों के शीशे पर बनाई गईं रंगबिरंगी पेंटिंगों ने भी मन को मोहा। कैथेड्रल  में ग्यारह घंटियाँ हैं सबसे बड़ी घंटी संत पेटर्सगलोके ( st.petersglocke ) है जो 24 टन की है । इसे सन 1922 में लगाया गया था । पहली घंटी ‘ बेल आफ थ्री किंग ’ कहलाती है जिसे सन 1418 में लगाया गया था। इस घंटी  का वजन 3.8 टन है ।

            कैथेड्रल में स्थित क्रास, गेरो नामक कोलोन के आर्कबिशप ने लगवाया था। इसलिए यह गेरो क्रॉस के नाम से विख्यात है। गेरो क्रास जिसके द्वारा लकड़ी की बनी जीसस क्राइस्ट की छह फीट की आकृति को सूली पर चढाते दर्शाया गया है। यह आकृति मध्ययुगीन आर्ट का बेहतरीन नमूना है । यह उस समय का पहला सबसे बड़ा क्रास था ।    

            तीन राजाओं की कब्र इस कैथेड्रल की एक अन्य दर्शनीय कृति है। जिसे फिलिप वोन हेंसबर्ग नामक आर्कविशप ने सन 1167 में बनाने की स्वीकृति दी थी।  इसे निकोलस आफ वरडून ने सन 1190 में पूरा किया गया। यह कब्र एक बड़ी समाधि के आकार की है जो पीतल और चांदी से बनी, रत्नों से जड़ित आलंकारिक मूर्तिकला, की अनुपम कृति है ।

            जब हम लौटने लगे तो एक जगह कुछ लोगों को हमने लकड़ी के बने विशिष्ट तरह के बाजों को बजाते देखा। पर्यटक बहुत उत्सुकता से उन्हें बाजा बजाते देख रहे थे। हमने भी कुछ देर रुककर इनके सुमधुर संगीत का आनंद लिया फिर चल दिये । चलते-चलते हम रोमन जर्मन म्यूजियम के पास पहुँचे । हमने वहाँ फोटो खींची तथा पुनः अपने गंतव्य स्थल की ओर चल दिये जहाँ हमें एकत्रित होना था । 

बस के आते ही हमने प्रस्थान किया । सदा की तरह भारतीय रेस्टोरेंट पहुँचकर  हमने डिनर किया तथा रात्रि विश्राम के लिये होटल के लिये प्रस्थान किया । यतिन ने हमें बताया कि आज हमें फ्रेंकेन्थल के विक्टर रेजीडेंसी होटल में रूकना था । दूसरे दिन हमें जर्मनी के ब्लैक फोरेस्ट, कुक्कू क्लॉक तथा राइन फाल देखना था उसके लिये सुबह आठ बजे निकलना था।


            ब्लैक फोरेस्ट


            सदा की तरह हम सुबह ब्रेकफास्ट करके हाल में एकत्रित हो गये । ठीक आठ बजे मय सामान बस में बैठ गये । अब तो आदत पड़ गई थी जगता था जैसे बच्चों की बस समय से चलती है वैसे ही हमें भी समय से चलना है । अगर देरी हो गई तो पूरा शिड्यूल ही गड़बड़ा जायेगा अतः समय का ध्यान रखना बेहद आवश्यक था। अब आदेश जी भी सहज होने लगे थे। उन्हें देखकर इला भी अपराधबोध से मुक्त होकर ज़िंदादिल कपल कि तरह हंसने मुस्कराने लगे थे।

            फ्रेंकेन्थल से दुब्रा की दूरी 250 किमी थी। इस दूरी को तय करने में लगभग तीन घंटे लगने थे। हमारे बैठते ही यतिन ने कहा कि आज से बस में आप लोग रोस्टर सिस्टम अपनाएंगे अर्थात आज आप जिस सीट पर बैठे हैं, कल उसके आगे वाली सीट पर बैठेंगे। दरअसल बच्चे हों या बड़े आगे की सीट लेने के लिए  उनमें होड़ लग जाती है। वे अपना सामान रखकर सीट घेर लेते हैं। इसी का उपाय उसने खोजा था। जिससे सीट की मारामारी न हो।


अब  ब्लैक फोरेस्ट  के बारे में बताते हुए यतिन ने कहस कि ब्लैक फारेस्ट दक्षिण-पश्चिम जर्मनी के बादेन-वुर्टेमबर्ग में स्थित एक वनाच्छादित पर्वत श्रंखला है । इसकी दक्षिणी और पश्चिमी सीमा पर राइन घाटी स्थित है। फेल्डबर्ग इसका सबसे ऊँचा शिखर है जिसकी ऊँचाई लगभग 1,493 मीटर है। 200 किमी की लंबाई तथा 60 किमी की चौड़ाई के साथ यह आयताकार क्षेत्र है। इसका क्षेत्रफल 12,000 स्कावायर किलोमीटर है। रोमन लोगों ने इसे ब्लैक  फोरेस्ट नाम दिया क्योंकि यहाँ पर घने जंगलों वाले पर्वत को सिल्वा नीग्रा अर्थात् ब्लैक  फोरेस्ट कहा जाता है। दरअसल इसके अंदर स्थित घने चीड़ देवदार के शंकुवृक्षों के कारण वन में प्रकाश प्रवेश नहीं कर पाता है जिससे यहां ज्यादातर अंधेरा रहता है।

            इस वन में अधिकतर चीड़ और देवदार के वृक्ष हैं। मध्ययुगीन काल में यहाँ कई खदानें थीं । इस क्षेत्र कई छोटे-छोटे रिहाइशी इलाकों के साथ कई झरने भी हैं । लकड़ी पर नक्काशी इस क्षेत्र का पारंपरिक कुटीर उद्योग है । अठारवीं शताब्दी से यहाँ बनाये जा रहे नक्काशीदार आभूषण आज भी पर्यटकों की पसंद हैं। वे लोग इन आभूषणों को यहाँ के स्मृतिचिंह के रूप में साथ ले जाते हैं। ब्लेक फोरेस्ट हैम तथा ब्लैक फारेस्ट केक की उत्पत्ति इसी क्षेत्र से हुई । यह ‘ब्लैक  फोरेस्ट चेरी केक ’ के नाम से भी जाना जाता है जो चाकलेट केक, क्रीम, खट्टी चेरी तथा किर्श ( चेरी की शराब ) से बना होता है ।

 

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कुक्कु क्लाक फैक्टरी

            आखिर हम दुब्रा में स्थित कुक्कु क्लाक फैक्टरी पहुँच गये। चारों ओर से ब्लैक फोरेस्ट की पहाड़ों से घिरा यह स्थान बेहद खूबसूरत है। नाम को ही यह ब्लैक फोरेस्ट है, हमें तो यह अपने भारत के आम पहाड़ी इलाके जैसा ही लगा। यहाँ की एक लकड़ी से बनी इमारत के ऊपरी भाग में एक बड़ी घड़ी लगी है। हमें बताया गया कि यह कुक्कू क्लाक...कोयल घड़ी है । कोयल घड़ी पेंडुलम के द्वारा चलाई जाने वाली घड़ी है जिसका पेंडुलम हर घंटे के पूरा होने पर हिलकर समय के पूरा होने की सूचना देता है इसके साथ ही कोयल की तरह मधुर सुरीली आवाज निकलकर घंटे के पूरा होने की सूचना देती है। 

            इस इमारत में घड़ी के ऊपर के हिस्से में बनी चार छोटी-छोटी खिड़कियों में हमें दो जोड़े गुड्डे-गुड़ियाँ खड़े दिखाई दिये । जैसे ही घड़ी ने बारह बजाये, गुड्डे गुड़िया का जोड़ा बारी-बारी से बाहर निकलकर डांस करता हुआ अंदर जाने लगा। इस घड़ी में हमें चार गुड्डे- गुड़िया के जोड़े नजर आये। घंटे के पूरा होने की सूचना देने के साथ ही गुड्डे- गुड़िया का नृत्य करते हुए अंदर बाहर जाने के साथ संगीतमय मधुर ध्वनि का स्वर मन को मोह रहा था। वास्तव में कुक्कू क्लॉक पेंडुलम के द्वारा चलाई जाने वाली घड़ी है जिसका पेंडुलम हर घंटे के पूरा होने की सूचना देता है। इसके साथ ही घड़ी में स्थित एक आकृति बाहर निकलकर कोयल की तरह मधुर सुरीली आवाज निकालकर घंटे के पूरा होने की सूचना देती है।  यह हमारे देश में प्रयोग में लाई जाने वाली पेंडुलम घड़ी के समान ही है सिवाय गुड्डे गुड़िया के नृत्य के। अनायास ही इला को 90 के दशक में भ्रमण किये अपने हैदराबाद ट्रिप की याद आई जिसमें उसने सालारजंग म्यूज़ियम में इसी तरह की घड़ी देखी थी।


            इसी इमारत के पास कुक्कू क्लाक का शो रूम स्थित है जहाँ आधे घंटे के शो के दौरान कुक्कू क्लाक के इतिहास के बारे में बताया जाता है । अन्य यात्रियों के साथ वे शो रूम में गये। वहां उपस्थित व्यक्ति ने उन्हें कुक्कू क्लॉक के बारे में बताते हुए कहा कि  कुक्कू क्लाक ब्लैक फारेस्ट के पेड़ों की लकड़ी से बनाई जाती हैं । यह बहुत ही भारी और मँहगी होती है । कुक्कू क्लाक जर्मनी की सांस्कृतिक पहचान है । यह घड़ियाँ अपनी शैली, गुणवत्ता और नक्काशी में शीर्ष पर हैं । उसने यह भी कहा कि यह ज्ञात नहीं है कि सबसे पहले इसे किसने बनाया । यह माना जाता है कि पहली कुक्कू क्लाक जर्मनी के शॉनवाल्ड गाँव में घड़ी निर्माता फ्रांज एंटोन केटेरर ने सन 1730 के आस पास बनाई थी। वर्तमान आकार वाली कुक्कू क्लाक 18 वीं शताब्दी के मध्य से यह प्रचलन में है। सन  1860 में विस्तृत नक्काशी के पाइन के कोन के आकार के भारी पेंडुलम भी लगाये गये तथा इसे दूसरे देशों में भी निर्यात किया गया । पर्यटकों के लिये भी यह आज भी आकर्षण का क्रेंद्र है, यादगार के तौर पर हर कोई इसे अपने साथ ले जाना चाहता है ।  

            कुक्कू क्लाक की डिजाइन पारंपरिक है। परंपरागत तरीके से बनी कुक्कू क्लाक लकड़ी की बनी होती है। लकड़ी को काटकर पत्तियों या जानवरों की आकृति में ढालकर इसे सजाया जाता है । इसे दीवार पर लगाया जाता है । घंटे के पूरा होने पर इसमें एक छोटे से दरवाजे से एक चिड़िया निकलकर आवाज करते हुये घंटे के पूरा होने की सूचना देती है। इसके लिये इसमें एक ओटोमैटिक मशीन लगी होती है जिसके द्वारा घड़ी के पीछे लगा लकड़ी का हाथ इसमें लगी चिड़िया या अन्य आकृति को बाहर निकालकर घुमाता है तथा इसमें लगा म्यूजिक बाक्स से कोयल जैसी मधुर आवाज निकलती है इसलिये इसे कुक्कू क्लाक अर्थात् कोयल घड़ी कहा जाता है । कुक्कू क्लाक की कुक्कू की आवाज घड़ी में लगे जीडैक दो पतले पाइप से मिलती है । पारंपरिक कुक्कू क्लाक में यह आवाज एक दिन तथा आठ दिन के चलने के प्रोग्राम वाली होती हैं ।

            समय के साथ क्वार्टज बैटरी वाली कुक्कू क्लाक बनने लगीं जिसमें घंटा पूरा होने पर इसमें निहित खिड़की का दरवाजा खुलता है कुक्कू बाहर आती है तथा गाना गाकर अंदर चली जाती है । इस सारी प्रक्रिया को इलेक्ट्रो मैग्नेट फंक्शन द्वारा कंट्रोल किया जाता है । रात में आवाज न हो इस इसमें निहित प्रोग्राम के तहत या इसमें लगे सेंसर से रोका जा सकता है । अब पेंडुलम सिर्फ सजावट के लिये लगया जाता है क्यों घड़ी अब बैटरी से चलती है ।

            कोयल घड़ी को 300 से लेकर 3000 यूरो तक में अपनी सुविधा के अनुसार खरीदा जा सकता है । कुछ लोगों ने घड़ी खरीदी। समय हो रहा था...उसी कैंपस में स्थित कैंपस में स्थित रेस्टोरेंट में हमने लंच किया । आज लंच में पिज्जा और बर्गर था।

            लंच करने के पश्चात् हम पुनः बस में बैठ गये । यतिन ने बताया कि अब हमें राइन फॉल जाना है जो यहाँ से 62 किमी दूर है जिसे पूरा करने में एक से डेढ़ घंटा लगना है ।

 

राइन फाल

            यतिन ने बताया कि राइन फाल का निर्माण आज से 14,000 से 17,000 वर्ष पूर्व पिछले हिमयुग में चट्टानों के कटाव एवं क्षरण के कारण हुआ है । यह समुद्र से 364 मीटर ऊँचाई पर स्थित है । राइन फाल उत्तरी स्विटजरलैंड में शफहौसेन शहर के बगल में न्यूहौसेन एम राइनाफाल और लाफेन-उहविसेन / डचसेन की नगरपालिकाओं के बीच, स्काफहौसेन और ज्यूरिख के कैंटों की सीमा पर हाई राइन पर स्थित है । यह 150 मीटर चौड़ा, 23 मीटर ऊँचा  है। जाड़ों में औसत पानी का फ्लो 8,800 क्यूबिक फीट प्रति सेंकेड है तथा गर्मी में 21,000 क्यूबिक फीट प्रति सेकेंड है । राइन नदी जर्मनी के पूर्वी भाग में स्थित नार्थ सी में जाकर मिलती है ।


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            यतिन ने राइन फॉल के बारे में बताते हुए कहा कि राइन फॉल  से पर्यटक वोरथ कैसल भी देख सकते हैं । नाव के द्वारा राइन फाल्स के नजदीक तक जाया जा सकता है। बस में बैठते ही यतिन ने यह भी कहा कि आज रात्रि हम यूरोप के मनोरम स्थल स्विटरलैंड में विश्राम करेंगे । कल का दिन फ्री है अगर आप चाहें कल हम जंगफ्राउच जा सकते हैं लेकिन इसके लिये आपको प्रति व्यक्ति 160 यूरो देना होगा । जो-जो जाना चाहे वह हाथ उठा दे जिससे टिकट बुक कराई जा सके । आठ दस लोगों को छोड़कर लगभग सबने ही अपने हाथ उठा दिये । जो-जो जाना चाहते थे उसने उनके नाम नोट किये । कुछ लोगों ने पैसे दे दिये, कुछ ने बाद में देने की बात की ।

            लगभग डेढ़ घंटे की यात्रा के पश्चात् ड्राइवर ने गाड़ी पार्किग एरिया में खड़ी की। इस समय को सबने अन्ताक्षरी खेल खेल कर बिताया। वहाँ से पाँच-सात  मिनट के पैदल रास्ते से हम राइन फाल के नजदीक पहुँचे । बहुत ही सुंदर दृश्य था...ठंडी हवायें, कल-कल गिरते झरने की आवाज, झरने का सुंदर दृश्य हमारे तन-मन को विभोर कर रहा था यहाँ तक कि आँखें पलक झपकाना ही भूल गई थीं । हम काफी देर तक झरने के सामने बनी बेंच पर बैठकर झरने का सौन्दर्य निहारने लगे । राइन नदी में कुछ नाव चलती नजर आ रही थीं । हमारे साथ के एक सहयात्री विशाल ने  हमसे वोटिंग करने के लिये पूछा पर हमने मना कर दिया। बायीं ओर एक पुल नजर आ रहा था, हम उस ओर बढ़े...इतना साफ पानी था कि पुल के नीचे मछलियाँ तैरती नजर आ रही र्थीं । आगे बढ़े तो कुछ रेस्टोरेंट थे । दूर एक इमारत नजर आ रही थी शायद वही वोरथ कैसल था । शायद वहाँ तक वोट जा रही थीं क्योंकि वहाँ से नावें आती जाती दिख रही थीं । हमने भी यहाँ बैठकर चारों ओर फैले मनोरम दृश्य को निहारते हुये काफी पी। समय ने चलने का आग्रह किया वरना उठने का बिल्कुल भी मन नहीं था ।

            बस में सवार होकर हम आगे बढ़े सदा की तरह रात्रि का भोजन भारतीय रेस्टोंरेंट में करके अपने ड्रीम डेस्टिनशन स्विटलरलैंड के एंजिलबर्ग में स्थित अपने होटल टेरेस पहुँचे । 

अभी हम बस से उतर ही रहे थे कि श्री एवं श्रीमती नेमा जो भोपाल से थे तथा शायद हमारे ग्रुप में सबसे वरिष्ठ भी थे, उनकी श्रीमती सीता नेम का पैर बस से उतरते ही मुड़ गया, वह "आउच " कहते हुए वह गिरने ही वाली थीं कि उनके पहले ही उतरी इला ने उनकी आवाज सुनकर, उन्हें सहारा देने की कोशिश कर ही रही थी कि तभी नेमा ने उन्हें पीछे से पकड़कर उन्हें गिरने से बचा लिया तथा उन्हें पकड़कर पास पड़ी बेंच पर बिठा दिया। थोड़ी ही देर में सब लोग उनके चारों ओर घेरा बनाकर खड़े हो गए। यतिन को जब पता चला तो उसने कहा, "आप परेशान मत होइए,डॉक्टर को दिखा लेना ही अच्छा है। अभी मैं कार का अरेंजमेंट करता हूँ।"

अन्य यात्रियों को देखते हुए उसने पुनः कहा," कृपया आप लोग भीड़ मत लगाइए। आप लोग होटल चलिए।" 

पल्लव जो पांच बैचलर लड़कों में से एक था उसने कहा," मैं आंटी, अंकल के पास रुकता हूँ । आप सब जाइये।"

उसकी बात सुनकर सब यतिन को फ़ॉलो करते हुए आगे बढ़े ।

होटल टेरेस काफी ऊँचाई पर स्थित है अतः उस तक पहुँचने के लिये काफी चलने के साथ अलग-अलग जगह स्थित दो लिफ्टों का सहारा लेना पड़ा । लॉबी में पहुँचने तक हम काफी थक चुके थे । तभी यतिन ने सभी से एक स्थान की ओर इशारा करते हुये कहा कि यहाँ चाय उपलब्ध है वह भी फ्री में । इसके साथ ही उसने कहा, इस होटल के रूम में इलेक्ट्रिक केटल एवं प्रेस नहीं है आप चाहें तो कुछ पैसे जमा कराकर काउंटर से ये सामान ले सकते हैं जब आप जमा करायेंगे तो आपको आपके पैसे मिल जायेंगे । यहाँ पर अगर आपका मोबाइल चार्जर न लगे तो आप चार्जर भी इश्यू करा सकते हैं । वह रूम एलाट कराने चला गया तथा हम चाय के काउंटर की ओर बढ़ गये । पहली बार यूरोप ट्रिप  में अच्छी चाय मिली ।    

 

स्विटजरलैंड


            स्विटजरलैंड के समुद्र तल से 1,013 मीटर ऊँचाई पर स्थित कस्बे एंजिलबर्ग के होटल टैरेस के कमरे में हमने जैसे ही कदम रखा, कमरे में स्थित बड़ी-बड़ी ग्लास की खिड़कियों से बर्फाच्छादित पहाड़ियों को देखकर अभिभूत हो गये । एंजिलबर्ग को एल्पाइन टाउन भी कहा जाता है । एंजिलबर्ग लूर्सन नदी के किनारे बसा खूबसूरत कस्बा है। यह मध्य स्विटजरलैंड का सर्दी और गर्मी में घूमने वाला सबसे बड़ा पर्यटक स्थल है । एंजिलबर्ग के बीच में क्लोस्टर एंजिलबर्ग बारहवीं शताब्दी में बनी मोनेस्ट्री है । 

             स्विटजरलैंड यूरोप का एक अति विकसित देश है जो पूरब में आस्ट्रिया , पश्चिम में फ्रांस, उत्तर में जर्मनी तथा दक्षिण में इटली से घिरा है । इसकी राजधानी बर्न है । इसके आर्थिक शहर ज्यूरिख और जेनेवा हैं । इसका क्षेत्रफल 41,285 स्कावायर किमी है । 2002 में यह यूनाइटेड नेशन का सदस्य बना । सफेद पृष्ठभूमि पर लाल क्रास का जन्म 1864 में जेनेवा सम्मेलन के समय हुआ जो लाल क्रास के प्रणेता हेनरी दुनन्त को समर्पित है । यह युद्ध के समय चिकित्सा कर्मियों की पहचान था किन्तु अब पूरे विश्व में चिकित्सा कर्मिर्यो की पहचान बन चुका है । क्रास इस समय स्विस फ्लैग की भी पहचान है किन्तु फ्लैग में इसका बैकग्राउंड लाल है तथा क्रास सफेद रंग का है । स्विटजरलैंड में चार भाषायें बोली जाती हैं...जर्मन, फ्रेंच, इटालियन तथा रोमन।

     स्थिर होने के पश्चात् हम खिड़की के पास आकर खड़े हुये । ध्यान से देखा तो पाया कि दूर से छोटे-छोटे हमारे यहाँ के रोप वे जैसे कुछ कैबिन नीचे उतर रहे हैं तथा कुछ ऊपर जा रहे हैं । बाद में हमें पता चला कि सामने दिखता पहाड़ ही माउंट टिटलिस है तथा छोटे-छोटे केबिन को माउंट टिटलिस एक्सप्रेस गोन्डोला कहा जाता है इन्हीं गोन्डोला के द्वारा पर्यटक मांउट टिटलिस जाते हैं । जुलाई, अगस्त के महीने में पूरे यूरोप में दिन बड़ा तथा रात बहुत ही छोटी होती हैं । सूरज सुबह चार बजे ही अपनी लालिमा बिखेरने लगता है तथा रात्रि दस बजे के लगभग विश्राम को जाता है ।अन्य दिनों की अपेक्षा आज हम अपने होटल के कमरे में जल्दी पहुँच गये थे अतः उस दिन हमने अपने कमरे में बैठे आस-पास के सौन्दर्य को निहारते हुये आदित्य और तृप्ति से बात की किन्तु अनु ने फोन नहीं उठाया, उस दिन भी अभिषेक से बात करके ही संतोष करना पड़ा। यही कारण था कि उसे उदास देखकर उन्होंने उसका हाथ दबाकर सब कुछ ठीक होने की आशा जताई।   


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            यतिन ने हमें बता दिया था कि दूसरे दिन हमें सुबह नौ बजे हमें मुख्य पर्यटक स्थल जंगफ्राउच के लिये निकलना होगा। अतः हमने विश्राम करने का निश्चय कर लिया।     

          होटल टेरेस के रेस्टोरेंट में नेमा दंपति को न देखकर यतिन से पूछा तो उसने कहा," उनका नाश्ता रूम में  भिजवा दिया है।"

उनके पैर के बारे में पूछा तो उसने कहा,"कल उन्हें डॉक्टर को दिखाया था, मोच बताई है। क्रेप बैंडेज बांध दी है ।दवा दी है ।"

"फिर आज उनका ट्रिप...!"

" वह भी चलेंगे, उनके लिये व्हील चेयर का इंतजाम हो गया है।" यतिन ने कहा।

यतिन सहृदयतापूर्ण व्यवहार बहुत ही अच्छा लगा। सच काम तो सब करते हैं पर दिल से काम करना अलग बात है। 

आज नाश्ते में अन्य नाश्तों के साथ हमारे भारतीय व्यंजन पोहा, तथा उपमा के साथ हमारी स्वीट डिश जलेबी भी थी। हम लगभग नौ बजे अपने होटल से जुंगफ्राउच के लिये निकले। सीता नेमा व्हील चेयर पर थीं। यतिन आज अपने बनाये नियम को ब्रेक करते हुए उन्हें आगे की सीट पर बैठाया। 

बस के चलते ही सदा की तरह  यतिन बताने लगा कि जुंगफ्राउच, समुद्र तट से 3,450 मीटर ऊँचाई एलपाइन पर्वत श्रंखला के दो पर्वत जंगफ्रू और मोंच के बीच यूनेस्को नेचुरल वर्ल्ड हैरिटेज प्रोपर्टी द्वारा नामांकित  खूबसूरत पर्यटक स्थल है । लगभग डेढ़ घंटे की सड़क यात्रा के पश्चात् हम लॉटरब्रूनेन रेलवे स्टेशन पहुँचे जिसकी ऊँचाई समुद्र तल से 802 मीटर है। वाशरूम स्टेशन के बाहर नीचे ही था। जिनको जाना था उन्होंने वाशरूम यूज किया फिर सीढ़ियाँ चढ़कर हम प्लेटफार्म पर आये । स्टेशन सामान्य ही था ।


जंगफ्राउच

            यतिन ने हमारी ट्रेन यात्रा की टिकट खरीदीं । थोड़ी ही देर में हमारी ट्रेन आ गई । हम सबके ट्रेन में सवार होने के कुछ मिनट पश्चात ही ट्रेन चल पड़ी । हल्के झटके के साथ ट्रेन पहाड़ पर चल रही थी। दरअसल हम कोगवील्ड ट्रेन में बैठकर हम यात्रा कर रहे थे । कोगवील ट्रेन में ट्रेन के पहियों के साथ पटरियों में भी दाँतेदार उभार बने रहते हैं । जब ट्रेन चलती है तो ट्रेन के पहिये में बने दाँते, पटरी में बने दाँते में बैठकर आगे बढ़ते जाते हैं । कोगवील ट्रेन को सीधी चढ़ाई वाले हिस्सों चलाया जाता है जिससे कि ट्रेन को स्पीड मिल सके तथा उसके पीछे जाने की संभावना न रहे । यद्यपि इसके निर्माण की योजना का विचार 20 जून 1883 को एडोल्फ गुयर जेलर को आया था पर निर्माण कार्य 21 दिसम्बर 1894 को प्रारंभ हो पाया । टनल तथा स्टेशन के निर्माण में लगभग 16 वर्ष लग गये । ट्रेन का प्रारंभ एक अगस्त 1912 में संभव हो पाया था । इसके निर्माण कार्य में 160 लाख फ्रेंक लगे थे । लगभग आधे घंटे की यात्रा के पश्चात् हम क्लिन स्कीइडेग पहुँचे ।

            क्लिन स्काईडेग से जुंगफ्राउच जाने के लिये हमें दूसरी ट्रेन पकड़नी थी । जिस जगह हम खड़े थे वहीं एक बोर्ड लगा था जिसमें कई भाषाओं के साथ हिन्दी में स्वागत लिखा देखकर हमें बेहद खुशी हुई । लगभग दस मिनट के अंतर पर ही दूसरी ट्रेन मिल गई । यह भी कोगवील ट्रेन थी । इसकी कोच पहले वाली ट्रेन से अच्छी थीं । क्लिन स्काईडेग से जंगफ्राउच जाते हुये ट्रेन ईगरवेयर में रूकी। यहाँ हमसे यतिन ने एक तरफ जाने के लिये इशारा किया तथा लौटने के लिये पाँच मिनट का समय दिया। निश्चित जगह पहुँचकर हमें एक बड़ी सी खिड़की नजर आई जहाँ से पहाड़ों की बेहद मनमोहक श्रृंखला नजर आ रही थी। हमें बताया गया कि यह जगह टनल बनाते हुये विस्फोट के कारण बनी है। अब ये पहाड़ियाँ पर्वतारोहियों की चहेती हैं । अपने सौन्दर्य के कारण कुछ फिल्मों की शूटिंग भी इन पर्वत श्रृंखलाओं पर हुई है ।

            पाँच मिनट के पश्चात् ट्रेन पुनः रवाना हुई तथा कुछ ही मिनटों में हम जुंगफ्राउच  पहुँच गये । जंगफ्रोच के मुख्य हाल में स्टेशन से जाया जा सकता है । इस हाल के सीधी तरफ कॉफी शाप है तथा बायीं तरफ नीले रंग का निशान है जिसमें ‘टूर’ लिखा है। हमें इसी निशान को फॉलो करना था । इस टूर का पहला आकर्षण जंगफ्रू पेनोरामा है जिसमें सिनेमा के जरिये चार मिनट की फिल्म के जरिये जंगफ्रू के इतिहास के बारे में बताया जाता है । जंगफ्रू पैनोरमा को देखने के पश्चात् हम लिफ्ट के जरिये पाँचवें तल पर स्थित स्फिनिंक्स टेरेस केवल 27 सेकेन्ड में पहुँच गये । समुद्र तल से स्फिनिंक्स टेरेस की ऊँचाई 3,571 मीटर है । इसकी स्थापना सन 1937 में हुई थी । यह स्विटजरलैंड की द्वितीय सबसे ऊँची ऑबजरवेशन डेक है । लिफ्ट से बाहर आकर, दीवारों पर लगे एरो के निशानों के आधार पर हमने चलना प्रारंभ किया...अंत में बर्फ के पहाड़ पर आ गये...चारों ओर बर्फ ही बर्फ...बहुत ही खूबसूरत नजारा था।

            यहाँ से एलिटेस्च ग्लेसियर दिखाई दिया जो 22 किलोमीटर लंबा है । साफ मौसम तथा सूर्य की रोशनी में यहाँ से फ्रांस का वोगीस पर्वत तथा जर्मनी का ब्लैक फोरेस्ट भी दिखाई देता है । स्फिनिक आबजरबेटरी में दो लेबोरेटरी हैं...वेदर ऑबजरवेशन स्टेशन, वर्कशाप, तथा दो टैरेस हैं एक एस्ट्रोनोमिकल क्यूपोला तथा दूसरा मेट्रोलोजिकल क्यूपोला । एस्ट्रोनोमिकल क्यूपोला में 76 सेमी का टेलीस्कोप भी है । यहाँ दर्शकों को जाने की इजाजत नहीं है । दर्शकों के लिये खुली डेस्क से जंगफ्रू, मोंच तथा ईगर पहाड़ियों की खूबसूरती देखते ही बनती है । यहाँ पर स्थित स्नो फन में स्लेडज पार्क ,स्कीइंग के साथ, समुद्र तल से 3,454 ऊँचाई पर 250 मीटर केबिल राइड रोमांचक अनुभव देती है ।

            बर्फीले पहाड़ो पर सूर्य की किरणें इन्हें चमकदार बना देतीं हैं जो आँखों को नुकसान पहुँचा सकती हैं अतः सन गलास अवश्य पहनें । यहाँ बिताया हर क्षण रोमांचक था । कुछ इंगलिश तथा हिन्दी मूवी क्रिश 3 की शूटिंग इस ऑबजरबेटरी पर शूटिंग हुई है ।

            अब हम सबबे में स्थित एलपाइन सेनसेशेन में गए । यहां अतीत और वर्तमान के जंगफ्रू के टूरिज्म के बारे में बताया गया है कि किस तरह जंगफ्रू स्टेशन तथा रेलवे लाइन का निर्माण किया गया था तथा इसमें क्या-क्या कठिनाइयाँ आई !! इनके सम्मिलित प्रयत्नों के कारण ही आज लोग स्फिनिंक्स ऑबजरवेटरी में आकर प्रकृति के सौन्दर्य को आत्मसात कर पाते हैं। 


एलपाइन सेनसेशेन देखने के पश्चात  हम आइस पैलेस में पहुँचे जिसका निर्माण सन 1930 में हुआ था। पूरी तरह आइस से बना यह पैलेस मानव मूर्तिकला का बेहतरीन नमूना है । 1000 स्कायर मीटर में बर्फ के द्वारा बने इस एरिया को पूरा देखने में पूरे 14 मिनट लग जाते हैं । बर्फ के बने मार्ग पर चलते हुये फिसलने का भी डर लगता है अतः सावधानी आवश्यक है । चारों ओर फैले सौन्दर्य...बर्फ की बनी ईगल, पेनगुइन इत्यादि की मूर्तिर्यो के बेहतरीन नमूनों को देखकर मन कलाकारों के प्रति नतमस्मक होने लगता है जिन्होंने इतने मनोयोग से, अपने हुनर का इस्तेमाल करते हुये इन आकृतियों को अपने हाथों से ढाला । इस आइस पैलेस को किसी भी मौसम में देखा जा सकता है । प्रत्येक वर्ष बर्फ के मूर्तिकार नई-नई बर्फ की मूर्ति बनाते हैं इनमें इगल, पेइनगुन तथा पोलर बियर तथा बर्फ के बनाये अन्य मॉडेल भी दर्शनीय हैं । इसमें अगर आप एक बार अंदर चले जाइये तो पीछे नहीं जा पायेंगे क्योंकि यहाँ का टूर ऐसे प्लान किया गया है कि हर दर्शनीय स्थल को देखते हुये आप बाहर की ओर बढ़ते जाते हैं । एक स्थान पर ‘टॉप आफ यूरोप’ लिखा हुआ था उसके सामने खड़े होकर इला और आदेश जी ने फोटो खिंचवाई ।  

सबसे खुशी की बात तो यह थी कि चाहे ट्रेन हो या जंग फ्राउच के दर्शनीय स्थल , व्हील चेयर या तो यतिन के पास रहती या फिर पल्लव के....यद्यपि वह हर जगह तो नहीं जा पाई पर फिर भी काफी कुछ उन्होंने अपनी आंखों से देख ही लिया।          

            जंगफ्रू रेलवे का अपना फायर ब्रिगेड है । इसका अपना हाईड्रोइलेक्ट्रिक पावर स्टेशन भी है । जंगफ्रू रेलवे अपनी ट्रेन से उतरते समय, अर्थात् नीचे आते समय सन 1912 से ही अपनी बिजली स्वयं पैदा करती है । जंगफ्रू का नाम इंटरलेकन के कान्वेन्ट तथा जंगफ्रू पहाड़ के नीचे स्थित एल्प के कारण पड़ा । यहाँ पर पोस्ट आफिस भी है । जुंगफ्राउच काम्पलेक्स में सोविनयर शाप, पोस्ट आफिस, रेस्टोरेंट, कोन्फ्रेंस रूम भी है । आप यहाँ से मनपसंद खरीददारी कर सकते हैं।   

            लगभग दो बजे हमने यहाँ स्थित रेस्टोरेंट में खिड़की से बर्फाच्छादित मनमोहक पहाड़ियों को देखते हुये खाना खाया । तत्पश्चात् कोगवील ट्रेन से हम वापस लॉटरब्रूनेन पहुँचे । लॉटरब्रनून से हमें इन्टरलेकेन जाना था । लगभग आधे घंटे की ड्राइव के पश्चात् हम इंटर लेकेन पहुँचे।

 

            इंटरलेकेन

 

            इंटरलेकेन पारंपरिक रिजार्ट शहर है जो बरनीज ओबरलैंड क्षेत्र में स्विटजरलैंड के सेंट्रल में स्थित है । यह पश्चिम में लेक थुन और आरे नदी के किनारे तथा पूर्व में ब्रायनज के दो झीलों के मध्य भाग में बसा है । यहाँ लकड़ी से बने घर बहुतायत में पाये जाते हैं । घर और पार्क आरे नदी के किनारे बने हैं । इंटरलेकेन चारों ओर पर्वतों के मध्य बसा छोटा किंतु बेहद खूबसूरत शहर है ।

            बस से उतरकर एक पतली सड़क से हम एक पार्क में गये । इस पार्क में एक खूबसूरत फब्बारा दिखाई दिया तथा वहाँ लगे रंगबिरंगे फूल मुस्कराकर अपनी छटा बिखेर रहे थे । बिखेरें भी क्यों न यही सीजन तो है इनके खिलने और मुस्काराने का । फूलों की खूबसूरती देखते हुये हम आगे बढ़ने लगे...कुछ दूरी पर एक आदमकद मूर्ति दिखाई दी यतिन ने बताया कि यह महशूर फिल्म निर्देशक यश चोपड़ा की मूर्ति है। मूर्ति के सामने लगे पत्थर में उनके जन्म और मृत्यु के बारे में लिखा हुआ है। यश चोपड़ा को यह शहर इतना पसंद आया कि उन्होंने यहाँ स्थित विक्टोरिया यंगफ्राओ होटल में अपने लिये एक कमरा बुक कर रखा था । जब उनका मन एकांत चाहता वे यहाँ आ जाते थे । आज भी उनकी याद में यहाँ एक विशाल कक्ष को यश चोपड़ा सूट के नाम से जाना जाता है । इस कमरे को भारतीय कलाकृतियों से सजाया गया है । दरअसल यहाँ की सरकार ने इस जगह को भारतीय पर्यटकों में लोकप्रिय बनाने के लिये यश चोपड़ा को अपना दूत बना दिया था । 

तभी याद आया कि कुछ दिन पहले अखबार में हमने पढ़ा था कि अब वहाँ चांदनी गर्ल प्रसिद्ध अभिनेत्री श्रीदेवी की भी स्टैच्यू लगने वाली है। 

कहा जाता है कि इन्टरलेकन में सबसे पहले भारत के मशहूर शो मैन राजकपूर ने अपनी फिल्म ‘संगम’ की शूटिंग की थी तथा बाद में प्रसिद्ध फिल्ममेकर यश चोपड़ा ने यहां की मुख्य  सड़क पर ‘ दिल वाले दुल्हनिया ले जायेंगे ’ तथा ‘ चांदनी ’ मूवी के लिये गाने की शूटिंग की थी । आखिर हम अब हम मुख्य सड़क पर आ ही गए थे। हमने देखा कि इस लेन में लगभग हर दुकान के सामने टोकरी में रंग बिरंगे फूल लगे हुये हैं। यतिन ने बताया कि ये फूल न केवल सौन्दर्य बढ़ाते हैं वरन् छोटे-छोटे कीटों को भी भगाते हैं । शायद इसीलिए टोकरी में लगे ऐसे फूल पूरे यूरोप में दुकानों के साथ हर घर की खिड़की पर भी दिख जायेंगे । 

            हमने इंटरलेकेन की मशहूर सड़क पर चहलकदमी की । कुछ दुकानों में भी गये पर ऐसा कुछ नहीं लगा कि खरीदा जाये । एक गुम्बदनुमा इमारत ने हमारा ध्यान आकर्षित किया । पता चला कि यह इमारत विक्टोरिया  जंगफ्राओ ( Victoria Jungfrau ) होटल की है जिसमें यश चोपड़ा ठहरा करते थे । सड़क पर घूमने के बाद कुछ देर इस सड़क के सामने बने पार्क में पड़ी बेंच पर बैठकर आनंद लेने का मन बनाया । कुछ ही देर में दो डिब्बों वाली टाय ट्रेन जैसी एक गाड़ी आई । यह बड़े तथा बच्चों के लिये आकर्षण का केंद्र थी । इसके द्वारा इंटरलेकन सिटी को आराम से घूमा जा सकता है ।

अभी वे इधर-उधर देख ही रहे थे कि उनके बगल वाली बेंच पर शालिनी अपने पांच वर्षीय बेटे ओम के साथ आकर बैठते हुए बोली," आंटी, इस लड़के ने तो परेशान कर दिया है। जहां आइसक्रीम मिलती देखता है, जिद शुरू कर देता है। जंगफ्राउच में लंच के बाद मिली आइसक्रीम इसने खाई नहीं, और अब  4 यूरो की एक आइसक्रीम…।"

" बच्चे तो होते ही ऐसे हैं ।" कहकर इला ने प्यार से ओम की तरफ देखा। 

इला की बात का समर्थन करते हुए व्हील चेयर पर बैठी सीता नेमा ने कहा, " तुम ठीक कह रही हो इला। सच में बहुत प्यार बच्चा है ओम। पूरी बस में घूम-घूमकर वह सबका मनोरंजन करता रहता है।"

            उस दिन हमें होटल पहुँचने में रात्रि हो गई थी । खाना खाकर हमने आराम करना उचित समझा क्योंकि दूसरे दिन हमें माउंट टिटलिस जाना था। 

यतिन ने कल की यात्रा की जानकारी देने के साथ ही बताया कि माउंट टिटलिस उऱी आल्पस का पर्वत है जो आबवाल्डेन और बर्न के कैंटों की सीमा पर स्थित है । समुद तल से 3,238 मीटर की ऊँचाई पर यह बर्नीज ओबरलैंड और सेंट्रल स्विटजरलैंड के बीच सस्टेन पास के उत्तर की सीमा का उच्चतम शिखर है । माउंट टिलिस के लिये एंजिलबर्ग से ही जाना पड़ता है । एंजिलबर्ग दुनिया की पहली रोटेटिंग केबिल कार की साइट के लिये भी प्रसिद्ध है । मार्च 1967 में केबिल कार का उद्घाटन हुआ जो पर्यटकों को क्लेन टिटलिस के लिये ले जाती है 1967 से चलती केबिल कार की जगह 2015 में विकसित टेक्नोलोजी वाली टिटलिस एक्सप्रेस गोन्डोला लिफ्ट ने ले ली । पर्यटकों की पसंदीदा टिटलिस क्लिफ वाक को गेर्सनियलिप की 110 वीं वर्षगांठ पर दिसम्बर 2012 में खोला गया । एंजिलबर्ग से टिटलिस एक्सप्रेस गोन्डोला लिफ्ट से केबिल कार गेर्सनियलप सिस्टम, जिसकी ऊँचाई समुद्रतल से 1262 मी0 से तीन चरणों के माध्यम से क्लेन टिटलिस 3028 के शिखर तक पहुँचा जाता है । माउंट टिटिलिस, स्विजरलैंड के केन्द्रीय भाग में स्थित स्विटजरलैंड के मस्तक पर सुशोभित ताज में हीरा है । यह एक अकेला ग्लेशियर है जो आमजनों के लिये खुला है ।

 

माउंट टिटलिस


            दूसरे दिन होटल में ही ब्रेकफास्ट किया। आज अन्य नाश्ते के साथ दक्षिण भारतीय व्यंजन इडली सांभर, नारियल की चटनी देखकर मन खुश हो गया। मद्रास से आये स्वामी दंपति तो बेहद खुश थे आज उन्हें मनपसंद नाश्ता मिल रहा था। यहां की मसाला चाय भी अन्य जगहों की तुलना में अच्छी थी।  नाश्ता करके हम माउंट टिटलिस के लिये चले। 

सबसे अच्छा तो आज नेमा दंपति को रेस्टोरेंट में देखकर हुआ। यद्यपि आज भी वह रेस्टोरेंट में व्हील चेयर पर आईं थीं किन्तु कल से काफी अच्छी लग रहीं थीं। सच इंसान अगर मन से स्वस्थ हो तो तन तो स्वमेव मन का साथ देने को तैयार हो ही जाता है।


लगभग दस मिनट की ड्राइव के पश्चात् हम सब माउंट टिटलिस जाने के लिये बनाये गए वैली स्टेशन टिटलिस केबिल वे पहुँच गये। इसकी समुद्र तल से ऊँचाई 996 मी0 है । यतिन ने टिकट लाकर हमें दीं । टिकट लेकर हम यतिन को फॉलो करते हुए हमारे भारत में मेट्रो स्टेशन में लगे सेंसर गेट जैसे सेंसर गेट से गुजर कर  उस स्थान तक पहुँचे जहाँ से टिटलिस एक्सप्रेस गोन्डोला लिफ्ट चलती है । टिटलिस एक्सप्रेस गोन्डोला लिफ्ट के केबिन के नीचे आते ही उसका ऑटोमैटिक दरवाजा खुल गया । इसमें आठ लोग बैठ सकते हैं । हमारे बैठते ही केबिन का दरवाजा बंद हो गया तथा गोंडोला धीरे-धीरे उठने लगा। 

हमने नीचे देखा तो ग्राउंड में बहुत सारी गायें घूमती हुई दिखाई दीं । थोड़ी देर में दूसरा स्टेशन टुब्सी आ गया जिसकी समुद्र तल से ऊँचाई 1,796 मीटर है । हमें यहाँ उतरना नहीं था अतः बैठे रहे । टिटलिस एक्सप्रेस फिर चल पड़ी कुछ समय पश्चात् तीसरा स्टॉप स्टैंड जिसकी ऊँचाई 2,428 मीटर है, आ गया ।

            स्टैंड पर्यटकों का स्कीइयिंग के लिये पसंदीदा स्थान है । स्टैंड से ही हम दुनिया की पहली रोटेटिंग कार जिसे टिटलिस रोटेटर गोन्डोला कहा जाता है, में प्रवेश कर गये । इसमें पचास साठ लोग एक साथ जा सकते हैं। इसमें बैठने का प्रोविजन नहीं है, अतः खड़े-खड़े ही जाना पड़ता है। जिसको जहां जगह मिली वह वहां खड़ा हो गया। निर्धारित मनुष्यों की संख्या होते ही टिटलिस रोटेटर गोन्डोला का ऑटोमैटिक दरवाजा बंद हो गया।  रोटेटर के चलते ही रोटेटर ओपरेटर ने कई अन्य भाषाओं के साथ हिन्दी में स्वागत कहकर हमें आश्चर्य में डाल दिया। अपनी हिन्दी भाषा को विश्वरूपी मान्यता पाते देख हमें गर्व का अनुभव हो रहा था । टिटलिस रोटेटर गोन्डोला अपने पाँच मिनट के ट्रिप में 360 डिग्री घूमकर आसपास के मनोरम, खड़ी ऊँचाई के बर्फाच्छिादित पहाड़ों के दर्शन कराती हुई सुम्मित ( summit ) स्टेशन जो समुद्र तल से 3,020 मी0 की ऊँचाई पर स्थित है, पहुँच  गई । टिटलिस रोटेटर से उतरकर सीधे प्रवेश द्वार से हमने अंदर प्रवेश किया । यहाँ पर बहुत सारे रेस्टोरेंट, दुकानें के अतिरिक्त वाशरूम की सुविधा भी हैं । यह स्थान चाकलेट और घड़ियों के लिये भी प्रसिद्ध है ।

            प्रवेश द्वार से एक छोटे से पुल से हमने क्लेन टिटलिस ग्लेशियर में प्रवेश किया जिसकी समुद्र तल से ऊँचाई 3,238 मी0 है । नीचे तथा चारों ओर बर्फाच्छित पर्वतमालओं का सौन्दर्य हमें अभिभूत कर गया । बर्फ पर घीरे-धीरे कदम बढ़ाते हम आगे बढ़े अचानक बादलों ने हमें घेर लिया । कुछ क्षणों के लिये कुछ भी दिखाई देना बंद हो गया । बादलों के छँटते ही हम आगे बढ़े । एक जगह कृत्रिम बर्फ की बारिश हो रही थी । हमने यहाँ बर्फ के गोले बनाकर एक दूसरे पर फेंके। यूँ ही नहीं कहा जाता कि बच्चे बूढ़े एक समान.. सच कुछ समय के लिए हम सब भी बच्चे बन गए थे। सबने खूब एंजॉय किया। मौसम अच्छा न होने के कारण क्लिफ वाक पर नहीं जा पाये जो स्विटजरलैंड का सबसे ऊँचा...10,000 फीट की ऊँचाई पर स्थित हैंगिंग ब्रिज है यद्यपि कुछ लोग गये भी पर हमने रिस्क लेना उचित नहीं समझा।

            लगभग एक घंटा वहाँ बिताकर लौटे। हमने देखा कि मुख्य प्रवेश द्वार के पहले एक स्थान पर टेबिल कुर्सी पड़ी हैं । कुछ लोग वहाँ खाते हुये प्रकृति के अनुपम सौन्दर्य को निहार रहे हैं। हम भी कुछ देर वहाँ बैठ गये हमारे साथ अहमदाबाद से आये देसाई तथा साथ में नेमा दंपति भी  थे। वे दोनों के एक टेबल पर बैठे गपशप कर रहे हैं।अचानक शीला देसाई ने कहा," मालिनी आज अकेली पल्लव के साथ…। कुछ भी कहो, जोड़ी बहुत प्यारी लग रही है। मालिनी मुम्बई में सॉफ्ट वेयर इंजीनियर के तौर पर काम कर रही है वहीं पल्लव पुणे की सॉफ्टवेयर कंपनी कार्यरत है।" 

" सच दोनों बहुत ही अच्छे हैं, अगर ये दोनों तथा यतिन के अतिरिक्त आप सभी मेरा ख्याल नहीं रखते तब शायद हमारा घूमना नहीं हो पाता शायद हमें अपने रूम में ही रहना पड़ता।" सीता नेमा ने कहा। उनकी आंखों में वात्सल्य उमड़ आया था।

" सीता जी आप ऐसा क्यों सोच रही हैं, आज यह आपके साथ हुआ , कल किसी दूसरे के साथ भी हो सकता है। अगर हम ही एक दूसरे का साथ नहीं देगें तो एक साथ सफर करने से क्या लाभ?"इला ने कहा फिर शीला की ओर देखते हुए कहा,

"आपको मालिनी और पंकज के बारे इतना सब  कैसे पता है।" 

" अरे ! इसमें आश्चर्य की क्या बात है !! हमें पांच छह दिन तो हो ही गए हैं, साथ रहते-रहते। थोड़ी बहुत जानकारी हो ही जाती है।" शीला ने सहजता से कहा।

इला भी मालिनी और पल्लव को नजरों-नजरों में ही तौलते हुए सोचने लगी कि  यूँ तो लड़के लड़की का एक साथ काम करना, बातें करना आम है पर शीला की बात सुनकर लगा कि न जाने ऐसा क्यों है कि एक स्त्री पुरुष की मित्रता को स्वाभविक रूप से नहीं ले पाते हैं। 

"आंटी, आप भी अंकल के साथ खड़ी हो जाइए। फ़ोटो मैं खींच देता हूँ।"

पल्लव की आवाज ने उसकी विचार तंद्रा को भंग किया। नजर घुमाई तो देखा याकूब दंपत्ति 

निकास द्वार के किनारे ‘ दिल वाले दुल्हनियाँ ले जायेंगे ’ के प्रसिद्ध सितारों शाहरूख खान  तथा काजोल का आदमकद कट आउट के सामने खड़े हैं तथा पल्लव उनकी फोटो खींच रहा है।  हमने वहाँ अपनी फोटो खिंचवाई । यह कट आउट हमारे बालीबुड सितारों तथा फिल्मों की प्रसिद्ध की दास्तां बयान करते प्रतीत हो रहे थे। 

फ़ोटो खिंचवाने के पश्चात हम अंदर गए।  हमने यहाँ बनी ग्लेशियर केव जो ग्लेशियर की सतह से 66 फीट नीचे है, में प्रवेश किया । यह गुफा 150 फीट लंबी है तथा पूर्णतः बर्फ की बनी है । यह भी अच्छी है पर उतनी अच्छी नहीं, जितनी जुंगफ्राउच में है। वहाँ से बाहर निकले तो कुछ लोगों को एक दूसरी जगह जाते देखा। हमने भी उनका अनुसरण किया यह एक सुरंग थी जिसके अंत में एक एक बड़ी सी खिड़की थी । उस पर शीशा लगा था किंतु उससे देखने पर बाहर का दृश्य बहुत मनोरम लग रहा था । यहाँ पर एक फोटो शॉप भी थी जहाँ लोग अपने फोटो खिंचवाकर यहाँ के दृश्यों को यादगार बना सकते हैं। कुछ लोगों ने यहाँ फ़ोटो भी खिंचवाई पर आदेश जी को इसमें रुचि नहीं थी। समय हो गया था अब हम बाहर आ गये। गोन्डोला के पहले स्टेशन टुब्सी में इग्लू गाँव भी दर्शनीय है। लौट तो हम रहे थे लेकिन मन स्विट्ज़रलैंड की वादियों में ही रह गया था।

            स्विटजरलैंड को झीलों का देश भी कहा जाता है । इसकी राजधानी बर्न है । इसके चप्पे-चप्पे पर प्राकृतिक सौन्दर्य बिखरा पड़ा है । आवश्यकता है प्रकृति के नजदीक कुछ पल गुजार कर उसे महसूस करने की, आनंदित होने की । आप अपनी सुविधानुसार सर्दी गर्मी में कभी भी जा सकते है । जब भी जायें वहाँ के तापमान के अनुसार गर्म कपड़े अवश्य रखें । दमा के मरीज जाड़ों में न जायें तो अच्छा है क्योंकि जैसे-जैसे हम ऊपर (चढ़ाई ) जाते हैं हवा में आक्सीजन कम होती जाती है । अपनी सभी आवश्यक दवाओं के साथ अपने साथ फर्स्ट एड किट्स अवश्य रखें । छाता, सनग्लास तथा बर्फ पर चलने वाले जूते भी आपके सामान का हिस्सा रहें । याद रखें जब स्वास्थ्य ठीक रहेगा तभी आप अपनी यात्रा का आनंद ले पायेंगे ।  

             स्विटजरलैंड जाने के लिये जून से अगस्त का सीजन सबसे अच्छा माना जाता है।  इस समय मौसम अच्छा होता है। दिन बड़े होते हैं, अतः आप आराम से घूम सकते हैं। अगर आपको लेक फारेस्ट को देखना है तो स्प्रिंग बेस्ट है अगर आप बर्फ के लिये जाना चाहते हैं स्कीइंग करना चाहते हैं तब दिसम्बर से मार्च अच्छा है । इस समय तापमान जीरो से कम हो जाता है । समर में तापमान 18 से 28 डिग्री सेलशियस होता है । मेरे कहने का तात्पर्य है स्विट्ज़रलैंड को हर मौसम में घूमा जा सकता है अतः आप रुचि के अनुसार सीजन का चुनाव कर सकते हैं।    


            ल्यूसर्न


माउंट टिटलिस देखने के पश्चात हमने रास्ते में लंच करके हमने  ल्यूसर्न  के लिये चल पड़े । माउंट टिटलिस से ल्यूसर्न  की दूरी 41 किमी है । इस दूरी को पार करने में हमें  एक घंटा लगना था । हम ल्यूसर्न नदी के किनारे बनी सड़क के किनारे-किनारे  चल रहे थे । नदी की तरफ ही शहर बसे हुये थे । ज्यूरिख को भी हमने दूर से देखा । लगभग एक घंटे की सड़क यात्रा के पश्चात् हम ल्यूसर्न  पहुँचे । ल्यूसर्न, ल्यूसर्न कैंटन की राजधानी है । समुद्र तल से 422 ऊँचाई पर स्थित, लगभग 8,1057 की आबादी के साथ ल्यूसर्न  झील के किनारे बसा ल्यूसर्न  मघ्य स्विटजरलैंड का सबसे अधिक आबादी वाला शहर है । यहाँ पर मुख्यतः जर्मन भाषा बोली जाती है।

            ल्यूसर्न पहुँचकर हम सबसे पहले इस मध्ययुगीन शहर के पूरब में स्थित तालाब के ऊपर स्थित सैंड स्टोन की बनी चट्टान की दीवार पर उकेरी शेर की बड़ी सी आकृति जो दस मीटर लंबी तथा छह मीटर ऊँची है, देखने गये । यह स्विटजरलैंड के सबसे प्रसिद्ध स्थलों में से एक है । इस मोनूमेंट को स्विस सैनिको की वीरता और निष्ठा के लिये समर्पित किया है। यह  लायन मोनुमेंट के नाम से विख्यात है।  

            हमें बताया गया कि 17 शताब्दी के पूर्वार्ध में स्विस रेजीमेंट की टुकड़ी फ्रांसीसी राजशाही के अंतर्गत काम करती थी । सन 1789 में राजा लूईस सोलहवें को वरसेलीस पैलेस से टूलीरीज पैलेस, पेरिस में शिफ्ट होना पड़ा। सन 1792 में फ्रेंच रिवोलूशन के समय पेरिस के टूलीरीज पैलेस पर फ्रेंच सैनिकों ने आक्रमण कर दिया । रायल फैमिली को टूलीरीज पैलेस से भागकर विधान सभा में शरण लेनी पड़ी । वहाँ स्थित सैनिक, फ्रेंच सैनिकों द्वारा अचानक हुये हमले का प्रतिकार न कर पाये तथा शहीद हो गये ।

            सन 1815 के बाद जब फ्रांस और स्विटजरलैंड एक हो गये तब कार्ल फीफर नामक स्विस आफिसर ने वीर गति प्राप्त सैनिकों की याद में एक मोनूमेंट बनवाने का विचार आया। उसके प्रयासों से ही यह मोनूमेंट आकार ले पाया । इसका डिजाइन बर्टल थोरवालडसेन नामक डेनिश मूर्तिकार ने किया तथा लूकास एहोर्न ने सन 1820/1821 में इस डिजाइन को असली जामा पहनाया । इस युद्ध में लगभग 600 सैनिक मारे गये तथा 300 के लगभग कैद में मारे गये । शहीदों की याद में बनाया यह मोन्यूमेंट ल्यूसर्न  का मुख्य पर्यटक स्थल है । इसके लिये कोई फीस नहीं लगाई गई है ।

            ‘ लॉयन मोनूमेंट ’ देखने के पश्चात् के हम ल्यूसर्न शहर के मध्ययुगीन यूरोप में लकड़ी से बना, यूरोप का सबसे पुराना कपेलब्रुक पैदल पुल, जिसे चैपल ब्रिज भी कहा जाता है, देखने गये । इसका नाम संत पीटर चैपल के नाम पर रखा गया है । यह सन 1365 में बना था । इसकी लंबाई 204.7 मीटर है । उस समय इसे रोस नदी के ऊपर शहर के पुराने हिस्से को नये हिस्से से मिलाने के लिये बनाया गया था । पैदल पार होने वाले इस पुल की दो विशेषतायें हैं पहली तो यह ऊपर से ढका पुल है दूसरी यह कि यह ढलावदार छत और खंभों के तिकोन के बीच सत्रहवीं शताब्दी पूर्व की चित्रकला से सजा है। इस शहर के आकर्षण का केंद्र इस पुल का बड़ा हिस्सा 18 अगस्त 1993 में आग में क्षतिग्रस्त हो गया था जिसके कारण इसके अधिकांश चित्र नष्ट हो गये । उनमें से कुछ का ही पुनः निर्माण किया जा सका । पुनःनिर्माण के पश्चात् चैपल पुल 14 अप्रैल, 1994 को फिर से उपयोग में लाया जाने लगा। पहले इसमें 158 पेंटिंग थीं अब केवल 30 ही पुरानी पेंटिंग को बचाया जा सका । इन चित्रों में ल्यूसर्न के इतिहास से जुड़ी घटनाओं को दर्शाया गया है। पुल के दोनों ओर गमले नजर आ रहे थे जिनमें लगे फूल बहुत सुंदर लग रहे थे। यह पुल न केवल इस शहर की पहचान है वरन् एक प्रसिद्ध पर्यटक स्थल भी है।

यह विश्व का सबसे बड़ा ट्रस ब्रिज है। ट्रस ब्रिज, लकड़ी या धातु के त्रिकोणों की एक श्रृंखला से बना पुल होता है। अनेकों त्रिकोणों वाली सरंचनाओं से युक्त पुल के त्रिकोण इसे स्थिर रूप प्रदान करते हैं जो एक लंबी अवधि में  बाहरी भार का समर्थन करने में सक्षम होता है।


             इस पुल से सटा 34. 5 मीटर लंबा एक स्तंभ है जिसे पानी में बना होने के कारण वाटर टावर नाम दिया गया है । यह टावर, पुल से भी तीस वर्ष पुराना है। फिलहाल इस टावर में प्रवेश निषेध है पर एक जमाने में इसका प्रयोग जेल तथा प्रताड़ना केंद्र के रूप में किया जाता था। आज यह ल्यूसर्न ही नहीं वरन् पूरे स्विटजरलैंड के प्रतीक के रूप में विख्यात है। स्विटजरलैंड में  चाकलेटस के कवर पर आप इस टावर को देख सकते हैं ।

सबसे अच्छा यह देखकर लगा कि व्हील चेयर पर बैठी सीता नेमा हर दर्शनीय स्थल को बड़े ध्यान से देख रही हैं।

यहाँ हम सभी को शोपिंग के लिये वक्त दिया गया । हम कुछ शाप में गये पर ऐसा कुछ नहीं लगा कि जो हमारे भारत में न मिलता हो जबकि देसाई तथा याकूब दंपति के साथ अन्य लोगों ने खूब शॉपिंग की।  हम ल्यूसर्न नदी के सामने बने शॉपिंग काम्प्लेक्स के किनारे बनी बेंच पर बैठ गये। सामने पहाड़ थे तथा बीच में ल्यूसर्न नदी बह रही थी जिसमें  बड़ी नावें चल रही थीं । अन्य लोग शोपिंग कर रहे थे जबकि हमने वहीं बैठकर प्रकृति के मनोहारी दृश्य का आनंद लेने लगे । हमने देखा कि थोड़ी-थोड़ी देर के पश्चात विभिन्न लोकेशन के नाम वाली बसें आतीं तथा लोग उनमें बैठकर गंतव्य स्थान के लिये चल पड़ते । बस के रूकते ही बस के दरवाजे के खुलने के साथ ही बस का दरवाजे के पास वाला हिस्सा थोड़ा और नीचे आ जाता जिससे वृद्धों और बच्चों को चढ़ने में कोई परेशानी न हो । बसों की आवाजाही इतनी अधिक थी कि यात्रियों को जरा भी इंतजार नहीं करना पड़ रहा था ।

            परंपरा और आधुनिकता की विशाल परंपरा संजोये लूसर्न शहर सांस्कृतिक कार्यक्रमों की एक विस्तृत विविधता के लिये लूर्सन फेस्टिवल सिटी के नाम से भी जाना चाहता है । पब्लिक ट्रांसपोर्ट अच्छा होने के कारण यह कार फ्री सिटी बन गया है। यहाँ पर घड़ियों की बहुत अच्छी और बड़ी-बड़ी दुकानें हैं। एक अच्छा शॉपिंग  सेंटर है। आप यहाँ से सोवनियर के साथ अपनी मनपसंद चीजों की शापिंग भी कर सकते हैं।

             समय ने दस्तक दे दी थी । अब हमें चलना था...। हमें बताया गया कि कल हमें आस्ट्रिया जाना है । डिनर करके हम अपने होटल सीदाम प्लाजा फ्रेइएनबच ( freienbach ) पहुँच गए। विश्राम करने का मन था क्योंकि सुबह आठ बजे हमें फिर निकलना था ।


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आस्ट्रिया


            दूसरे दिन होटल के रेस्टोरेंट में नाश्ता करके,जैसे ही सभी मय समान सवार हुए बस चल पड़ी । आज हमें आस्ट्रिया के वाटन शहर जाना था जिसकी freienbach, स्विटजरलैंड से दूरी लगभग 267 किमी थी। इस दूरी को तय करने में हमें सवा तीन घंटे लगने थे। हमें यतिन ने बताया गया कि वाटन में हमें सोवारास्की क्रिस्टल वर्ल्ड देखना है तथा उसके बाद इन्नसब्रुक ( Innsbruck ) में गोल्डन दाची ( golden Dachi ) गोल्डन रूफ ( golden roof ) तथा हेबलिंगघाउस ( heiblinghaus ) नामक इमारत देखनी है जो वेडिंग केक जैसी प्रतीत होती है ।

            आस्ट्रिया गणराज्य मध्य यूरोप का जर्मन भाषा बोलने वाला देश है। आस्ट्रिया की राजधानी वियेना है पर वह हमारे ट्रिप में शामिल नहीं थी । आस्ट्रिया का अधिकतर हिस्सा ऐल्पस पर्वतों से घिरा है । इसकी सीमायें उत्तर में जर्मनी और चेक गणराज्य, पूर्व में स्लोवाकिया और हंगरी से, दक्षिण में स्लोवेनिया और इटली तथा पश्चिम में स्विटजरलैंड तथा लीचटेनस्टीन ( Liechtenstein ) से मिलती हैं । इस देश का उदभव नौवीं शताब्दी के दौरान ऊपरी और निचले हिस्से में आबादी बढ़ने के साथ हुआ। आस्ट्रिया के झंडे में तीन समानान्तर पट्टियाँ हैं...ऊपर नीचे की लाल तथा बीच में सफेद । बीच के सफेद भाग में राज्य चिंह है । इस रास्ते में थोड़ी-थोड़ी दूर पर यातायात को सहज बनाने के लिये बड़े-बड़े पहाड़ों को काटकर सुरंग बनाई गई हैं । स्विटजरलैंड से आस्ट्रिया जाते हुये हमें अनेकों सुरंगों से गुजरना पड़ा । सड़क के दोनों ओर के दृश्य इतने मनमोहक थे कि बार-बार कैमरे में कैद करने का मन कर रहा था । हमने मन की सुनी तथा कई वीडियो बनाये जो हमारी स्मृतियों के साथ हमारे कैमरे में भी कैद हो गये। समय था अतः यतिन ने रितिक रोशन की मूवी ‘क्रिश’ लगा दी। तीन घंटे का समय कैसे बीता पता ही नहीं चला।

 

स्वारोवस्की क्रिस्टल वर्ल्ड

 

            मूवी के समाप्त होने के कुछ ही पल पश्चात् हमारी बस स्वारोवस्की क्रिस्टल वर्ल्ड के पार्किंग एरिया में रूकी। हम पाँच मिनट की पैदल दूरी तय करके मुख्य भाग में पहुँचे। चारों ओर पहाड़ियों से घिरे बहुत हरे भरे वैल मेन्टेंड बड़े पार्क में एक छोटी सी पहाड़ी जैसे स्थान पर एक बहुत ही खूबसूरत बड़ी-बड़ी आँखों वाली मूर्ति दिखाई दी जिसे पहाड़ी को तराश कर बनाया गया था। उसके मुँह से पानी निकलकर नीचे बने गोलाकार कुंड  में गिर रहा था । बताया गया कि इस मूर्ति की आँखें स्वारोवस्की क्रिस्टल से बनी हैं। इस भाग में एक कैफे भी है। यह संग्रहालय पूरे वर्ष खुला रहता है ।

            यतिन टिकिट लेने चला गया। लौटकर उसने सबको टिकट देते हुये बताया कि स्वारोवस्की कंपनी की स्थापना सन 1895 में डेनियल स्वारोवस्की ने की थी। एक शताब्दी के बाद मल्टीमीडिया कलाकार आंद्रे हेलर को संग्रहालय को चौदह  कक्षों के साथ डिजाइन करने की जिम्मेदारी सौंपी गई। इसकी 100 वीं वर्षगांठ सन1995 में मनाई गई थी। 

स्वारोवस्की क्रिस्टल वर्ल्ड में सोलह चैम्बर हैं जो अलग-अलग विषय पर आधारित हैं। स्वारोवस्की क्रिस्टल वर्ल्ड में चैंबर आफ वंडर में अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर के मान्यता प्राप्त कलाकारों, डिजाइनरों और आर्किटेक्ट्स ने अपने-अपने तरीके से क्रिस्टल की व्याख्या की है ।

            अब तक हमारा नम्बर आ गया था हम क्रिस्टल वर्ल्ड के मुख्य गेट की ओर बढ़े। अंदर घुसते ही स्वारोवस्की क्रिस्टल जड़ा बहुत ही सुंदर घोड़ा दिखाई दिया। आगे बढ़ते हुए हमने देखा कि एक जगह क्रिस्टल डोम (crystal dom ) लिखा हुआ है। उसमें डोम के आकार के क्रिस्टल से बने आकार दिखाई दिये। दूसरा भाग था साइलेंट लाइट...इसमें अंधेरा था तथा क्रिस्टल से बनी कुछ आकृतियाँ बानी हुई हैं जो बहुत ही कलात्मक लगीं । आगे बढ़ने पर हमने इन टू लैटिस सन (into lattice sun ) नामक गैलरी में प्रवेश किया इसमें क्रिस्टल की बनी ज्यामीतिय आकार की अनेक आकृतियां हैं। थोड़ा आगे बढ़े तो उसके प्रवेश द्वार पर रेडी टू लव (ready to love  ) लिखा पाया...इस भाग में छोटे-छोटे पार्टीशन में क्रिस्टल की बनी विभिन्न आकृतियां हैं । इस भाग को देखकर निकले तो आगे दरवाजे पर आइस पैसेज ( ice passage ) लिखा पाया। अंदर प्रवेश किया...इस भाग में ऐसा लगता है जैसे प्रकाश हमारे पैरों  का अनुसरण कर रहा है जिससे फ्लोर पर एक पुल का निर्माण होता प्रतीत होता है जो कभी बनता है कभी बिगड़ता है। इस भाग को देखने के बाद जो भाग है उसका नाम  ट्रांसपेरेंट ओपेसिटी ( transparent opacity ) है। इस भाग में शीशे में कुछ आकृतियाँ रखी हुई थीं जिनके आर पार देखा जा सकता है। इसके बाद था ( studio job wander kammer ) जिसमें क्रिस्टल की बनी घर जैसी आकृतियाँ दिखाई दीं । इस क्रिस्टल वर्ल्ड के बाद अब हमने  ( La primadonna assoluta ) में प्रवेश किया...इस गैलरी में मंद -मंद संगीत में पर्वतीय आकार के बड़े-बड़े क्रिस्टल मन मोह लेते हैं ।  इसके पश्चात् (eden  )गैलरी आई इसमें एक आकृति ऐसी थी जो झरने जैसी लग रही थी । इसके बाद जो गैलरी थी उसका नाम (Famos) था इसमें एम्पायर स्टेट बिल्डिंग जैसे कुछ देशों के मोनूमेंट क्रिस्टल से बने थे । इसके बाद की गैलरी का नाम (55 million crystal ) थी इसमें पिरामिड जैसी आकृतियाँ बनी हुई थीं । बाहर निकले तो दूसरी गेलरी के प्रवेश द्वार पर  (el sol  )लिखा दिखाई दिया । इस भाग में क्रिस्टल के बने बड़ी सी गोला कार आकृति के सामने खड़े होकर हमने फोटो खिंचवाई । इसके बाद वाली गैलरी का नाम (Timeless ) था । इसमें क्रिस्टल के बने जूते, गाउन तथा जेवर थे। क्रिस्टल से बनी कलात्मक गैलरी निसंदेह बेहद खूबसूरत है। कुछ लोगों ने शोपिंग भी की इस गैलरी को देखते हुये हम बाहर आये यहाँ स्वारोवस्की क्रिस्टल का शापिंग स्थल है। हम क्रिस्टल के बने गहनों की इस गैलरी को घूम-घूमकर देखने लगे । कुछ लोगों ने शोपिंग भी की। यहाँ हमने अपनी बहू तृप्ति तथा बेटी अनुप्रिया के लिए स्वरोवस्की क्रिस्टल का खूबसूरत सेट खरीदा। अंततः हम बाहर आ गये...अब हमें गोल्डन डांची अर्थात् प्रसिद्ध सुनहरी छत नामक विख्यात ऐतिहासिक स्थल को देखने जाना था ।

सबसे अच्छी बात यह थी कि आज सीता नेमा व्हील चेयर पर नहीं वरन स्टिक लेकर चल रहीं थीं।

 

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            वेनिस इटली की उत्तरी पूर्वी सीमा पर स्थित वेनिटो रीजन की राजधानी है जो एड्रीयाटिक सागर में स्थित आइसलैंड पर बस हुआ है। इटेलियन और वेनीशियन भाषाओं में इसका नाम लागुना वेनेटा झील है। कहा जाता है कि वेनिस का निर्माण रोमन सभ्यता के पतन के बाद हुआ था। यह 118 छोटे-छोटे आइसलैंड को मिलाकर बना है। ये आइसलैंड कैनालों द्वारा अलग-अलग हैं तथा 400 छोटे-छोटे पुलों से जुड़े हुए हैं । इस शहर की संरचना इतनी अनूठी है कि मुख्य वेनिस छह सौ वर्षो से लगभग वैसा ही है। पानी में एक आईलैंड की तरह तैरते शहर की खूबसूरती किसी को भी आकर्षित कर सकती है । पानी में तैरते द्वीप की तरह लगने वाला यह शहर कई मायनों में अपनी प्राकृतिक छटा और खूबसूरती के कारण दुनिया के अन्य शहरों से अलग है। इस शहर में करीब 120 द्वीप हैं। उनके बीच नहरें हैं, पुल हैं । इस शहर को या तो नावों से घूमा जा सकता है या पैदल । यहाँ स्थित हर घर का दरवाजा पानी में खुलता है । घर के बाहर ही नाव रहती हैं ये नावें ही  घरों में रहने वाले व्यक्तियों  के  आवागमन का साधन हैं।

            वेनिस यूरोप का सबसे खूबसूरत शहर है। यह शहर कभी सोता नहीं है । लोगों की आवाजाही यहाँ सदैव लगी रहती है। पूरी तरह पानी पर बसा यह शहर सैलानियों में इतना लोकप्रिय है कि ढाई लाख से कम आबादी वाले शहर में हर वक्त कम से कम 50,000 पर्यटक हमेशा मौजूद रहते हैं।  गलियों के अतिरिक्त यहाँ पर सड़कों की भूमिका में नहरें हैं, जिनमें नाव चलती हैं जिन्हें गोंडोला कहते हैं। इन नहरों पर चार सौ पुल बने हैं जो शहर के एक छोर को दूसरे छोर से जोड़ते हैं । नहरों के किनारे आलीशान इमारतें बनी है जो प्राचीन वेनिस की याद दिलातीं हैं । ये इमारतें दलदली भूमि पर बनी हैं जो लकड़ियों के सहारे टिकी हुई हैं । वेनिस की सबसे बड़ी नहर ग्रांड नहर एस ( S ) शेप में है जो पूरे शहर को दो भागों में बाँटती है। ढाई मील फैली यह नहर सोलह फीट गहरी है। यहाँ की एक गली को दुनिया की सबसे पतली गलियों में शुमार किया जाता है जिसकी चौड़ाई 53 सेंटीमीटर है। प्रत्येक वर्ष वेनिस में डेढ़ करोड़ टूरिस्ट आते हैं। दुनिया की पहली ग्रेजुएट महिला एलेना लुक्रजिया कोरनारो पिस्कोपिया जिसका जन्म सन 1646 में हुआ था, वेनिस की रहने वाली थीं। वह 25 जून 1678 में ग्रेजुएट हुईं थीं।  दुनिया का पहला पब्लिक कैसीनो  वेनिस में सन1638 में बना।

            वेनिस में व्यापार और आवागमन गोंडोला बोट के जरिये होता है । गोंडोला बोट 35.5 फीट लंबी तथा 4.5 फीट चौड़ी होती हैं। इनका वजन 1,500, 700 किलोग्राम होता है। ये आठ तरह की लकड़ी...लाइम, ओक, वालनट, चेरी, फीर, लार्च, एलम, महागोनी के 280 हाथ से बने टुकड़े से बनाई जाती है । इसको बनाने में लगभग दो महीने लगते हैं। एक गोंडोला वोट की कीमत 38,000 यूरो आती है। 

            आखिर हम वेनिस के क्रूसी टर्मिनल पहुँच गये। यहाँ से वाटर शटल से हमें सेंट मार्क स्कावयर जाना था। इसमें लगभग 45 मिनट लगने थे। जैसे ही हमारी शटल चली थोड़ी ही देर में हमारा लंच हमें परोस दिया । लंच में समौसे, बर्गर, कोल्ड ड्रिंक तथा अंत में आइसक्रीम थी। क्रुसी में बैठकर खाना अलग आनंद प्रदान कर रहा था। इसके साथ ही समुंद्र के दोनों किनारों पर सालों पुरानी ऐतिहासिक इमारतें दिखाई दे रही थीं जो तेरहवीं से अठारवीं शताब्दी के दौरान बनाई गई थीं। लंच समाप्त होते ही हमारा गंतव्य भी आ गया।

            हम शटल बोट से सेंट मार्क स्कावयर पर उतरे तथा चारों ओर का विहंगम दृश्य निहारते हुये चार-पाँच पुलों को पार कर सबसे पहले मुरेनो ग्लास फैक्टरी देखने गये। मुरेनो ग्लास फैक्टरी के प्रवेश द्वार से अंदर प्रवेश करते ही एक हाल आये। इस हाल में हमने एक बड़ा सा शीशे का घोड़ा रखा हुआ देखा । आगे बढ़े तो एक छोटे से कमरे में दस पंद्रह मिनट के शो के द्वारा बताया जा रहा था कि कैसे शीशे को पिघला कर मूर्तियाँ बनाई जाती हैं । इसके बाद इस रूम के साथ ही बने शो रूम में हमने 24 कैरेट सोने के काम के बने बहुत मंहगे फूलदान, वाइन ग्लास, कॉफी सेट ज्यूलरी सेट के अलावा कुछ गिफ्ट आइटम भी देखे । वेनिस का मुरानो बीडस, या वेनेशियन ग्लास दुनिया भर में मशहूर हैं । यहां के एक और दीप बुरानो में लेस और कढ़ाई का काम होता है। वैसे तो इटली का हर शहर मंहगा है लेकिन वेनिस यूरोप का सबसे मंहगा शहर है। किसी भी सामान की यूरो में कीमत को, रूपये में कनवर्ट करने पर खरीदने की हिम्मत नहीं होती ।   

            हम फैक्टरी से बाहर निकलकर थोड़ा आगे बढ़े तो अचानक पानी बरसने लगा। हम वहीं किनारे शेड में बैठ गये । देखा बहुत सारी कुर्सी पड़ी थीं,लग रहा था कि वहाँ कोई शो होने वाला है। छाता हमारे पास नहीं था अतः हमने वहीं हमारे देश के ठेलों जैसे बहुतायत में खड़े सामान बेचने वाले से,पाँच यूरो में एक छाता खरीदा वरना वहीं बैठे रह जाते। 

            सामने बहुत बड़ी इमारत दिखाई दे रही थी। हमें बताया गया कि यह इस शहर का प्रसिद्ध रोमन कैथोलिक सेंट बैसीलिका कैथेड्रल चर्च है। यह इटालियन बीजान्टिन आर्कीटेक्ट का बेहतरीन उदाहरण है। यह चर्च पियाजा सेन मार्को के पूर्वी भाग में स्थित है तथा डोज पैलेस से मिला हुआ है। यह ग्यारहवीं शताब्दी से वेटिनीटियन धन और शक्ति का प्रतीक बना हुआ है। इसको सोने का चर्च भी कहा जाता है। आज की इस इमारत का निर्माण सन1063 में हुआ था। समय-समय पर इसमें बहुत परिवर्तन हुये किन्तु इसकी मूल आंतरिक संरचना वैसी ही है। कैथेड्रल के अंदर दसवीं शताब्दी में बनी संत माइकेल की सोने के पानी चढ़ी भव्य मूर्ति है। इसके अंदर बने डोम में उकेरी हुईं कलाकृतियाँ बेहतरीन आर्ट का अनुपम उदाहरण हैं।

            इस चर्च के ऊपर वेनिस के प्रतीक एवं संरक्षक संत मार्क की मूर्ति है तथा इसके नीचे शेर की पंख वाली सुनहरे रंग की मूर्ति है। यह संत और वेनिस का प्रतीक चिन्ह है। इस चर्च का पश्चिमी बाहरी भाग तीन भागों में बंटा है। सेंट मार्क बैसीलिका की बालकनी में घोड़े के जोड़े बने हुये हैं। घोड़े की मूर्तियाँ सन 1204 में लगीं थीं। नेपोलियन द्वारा इन्हें सन 1797 में पेरिस ले जाया गया किन्तु सन 1825 को इन्हें वेनिस को लौटा दिया। इनकी मरम्मत कर सन 1970 में इन्हें सेंट मार्क के म्यूजियम में रख दिया गया। कैथेड्रल में आज पीतल की बनी इनकी प्रतिकृति रखी हुई है। चर्च के बायीं ओर स्थित मार्क्स क्लॉक टावर दर्शकों के आकर्षण का केंद्र है। यह वेनिस के पुनःजागरण काल का बेहतरीन नमूना है। इसमें लगी घड़ी पंद्रहवीं शताब्दी की है। इसकी मैकेनिज्म में समय-समय  पर सुधार हुये। यह घड़ी ऐसी जगह स्थित है जो दूर से दिखाई देती है तथा वेनिस की ऐश्वर्य और प्रसिद्धि की परिचायक है। इसमें स्थित सीढ़ियों द्वारा इसकी छत तक पहुँचा जा सकता है ।

             इस चौक में 323 फीट ऊँचा एक बेल टावर तथा और दो खूबसूरत कॉलम पर लॉयन आफ वेनिस की मूर्ति और हाथ में भाला लिये खड़े सेंट थियोडोर खड़े हैं । सेंट मार्क स्क्वायर के पास ही डाज पैलेस और कोरेर म्यूजियम है। वेनिस की खूबसूरती के बीच यह भी एक सच है कि यह सिटी हर वर्ष 0.8 से लेकर 1 मिलीमीटर तक समुद्र में समा रहा है ।

            डोकाल पैलेस में सत्रहवीं शताब्दी तक अपार्टमेंन्ट, शहर के कोर्टरूम तथा जेल थी जो ‘ ब्रिज आफ साई ’  ( दुख का पुल ) से डोज पैलेस से जुड़े था । अब डोकाल पैलेस वेनिस नेटवर्क के सिविक संग्रहालय का हिस्सा बन गया है।       

            वेनिस में बहुत सारे पुल हैं जो बारोक वास्तुकला से बने हैं पर इनमें सन 1600 में बना रोमांटिक ब्रिज आफ साई है । इसे एन्टोनियो मारिया द्वारा डिजाइन किया गया है। सफेद पत्थर से बना यह पुल रियो दि प्लाजो से गुजरता हुआ न्यू प्रिजन से जुड़ता है। न्यू प्रिजन से इसके द्वारा डोज पैलेस में स्थित कैदियों से पूछताछ वाले कमरे तक पहुँचा जा सकता है। इसे दुख का पुल शायद इसलिये कहा जाता है कि कैदी इस पुल से गुजरते हुये आखिरी बार वेनिस के सौन्दर्य को देख पाते हैं। यह 36 फीट चौड़ा है । पास से देखेंगे तो पायेंगे कि इसकी बाहरी संरचना में कई चेहरे बने हैं जिनमें एक को छोड़कर सभी उदास हैं। यह कहा जाता है कि खुश चेहरे वाली मूर्ति इस पुल की अभिभावक है। कहा जाता है गोन्डोला राइड के समय जो युगल इस पुल के नीचे से गुजरते हुये किस करता है उसका प्यार और खुशी अनंत काल तक रहती है। हमने भी गोंडोला राइड की। पुलों के नीचे से गुजरती यह राइड बेहद रोमांचक थी ।

            तीसरी शताब्दी में रोमन राज्य को स्थिर रखने के लिये राजा डिओसेलेटियां ( Diocletian ) ने अपने अधीनस्थ चार शासक के नियम को लागू किया। उनकी स्मृति में इन चार राजाओं का प्रतीक एक चार मुख वाली मूर्ति इस  बैसीलिका के दक्षिणी पश्चिमी भाग में लगाई गई है।

            अब हमारा समय हो गया था तथा हम उस जगह पहुँचे जहाँ हमारे सभी सहयात्रियों को एकत्रित होना था। वापस भी हमें शटल बोट से ही जाना था क्योंकि इसके अतिरिक्त अन्य कोई साधन ही नहीं था। मुख्यतः पानी में बसे वेनिस की खूबसूरती को निहारते हुये हम शटल बोट से बाहर निकले। 

हम सबके पहुंचते ही बस अपने गंतव्य स्थान रोम के लिये चल पड़ी । डिनर करके हम होटल मरक्यूरी में रूके। अगले दिन हमें फ्लोरेन्स जाना था।

 

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            फ्लोरेन्स

           

            होटल मरक्यूरी से फ्लोरेंस की दूरी लगभग 300 किमी थी इस दूरी को तय करने में लगभग चार घंटे लगने थे। यतिन ने  हमें बताया गया कि फ्लोरेंस को फूलों का शहर भी कहा जाता है। यह  तुस्कानी के इतावली क्षेत्र की राजधानी है । यह तुस्कानी क्षेत्र का सबसे अधिक आबादी वाला क्षेत्र है । फ्लोरेंस मध्ययुगीन यूरोपीय व्यापार और वित्त का केंद्र था तथा उस युग के सबसे धनी शहरों में से एक था। इसे पुनर्जागरण का जन्मस्थान माना जाता है। इसे मध्ययुगीन एथेंस भी कहा जाता है। सन 1865 से सन1871 तक यह शहर इटली के हाल में स्थापित राज्य की राजधानी था। यह शहर अपनी संस्कृति, पुनर्जागरण कला, वास्तुकला और स्मारकों के लिये प्रसिद्ध है । इस शहर में कई संग्रहालय एवं कला दीर्घायें शामिल हैं। जैसे उफीजी गैलरी और पलाज्जो पिट्टी । फ्लोरेंस की कलात्मक एवं स्थापत्य विरासत के कारण, इसे  फोबर्स पत्रिका ने दुनिया के सबसे खूबसूरत शहरों में से एक के रूप में स्थान दिया है । फ्लोरेंस के ऐतिहासिक केंद्र को सन 1982 में यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल घोषित किया है । यह शहर हर वर्ष लाखों पर्यटकों को आकर्षित करता है ।

            फ्लोरेंस इतावली फैशन के रूप में जाना पहचाना नाम है। चौदहवी शताब्दी में यहाँ बोली जाने वाली भाषा को इतावली नाम दिया गया। बाद में साहित्यिक भाषा के रूप में फ्लोरेंटाइन भाषा को अपनाया गया । पंद्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लोरेंजा डी मेडिसी को को इटली का राजनैतिक और सांस्कृतिक मास्टरमाइंड माना जाता था। बाद में इनके नागरिकों के फ्रांस के नागरिकों के साथ वैवाहिक संबंध भी हुये । अठारवीं एवं उन्नीसवीं शताब्दी मेडिसी राजवंश विलुप्त हो गया तथा बाद के वर्षो में तुस्कानी क्षेत्र का ऑस्ट्रिया में समावेश हो गया। द्वितीय विश्व के दौरान एक वर्ष तक फ्लोरेंस जर्मन कब्जे में रहा, बाद में इसे मुक्त कर दिया गया । फ्लोरेंस कैथेड्रल, डुओमो शहर का सबसे लंबा कैथेड्रल  है जिसका सन 1296 में गोथिक शैली में अर्नाल्फो डी कैम्बियो ने  निर्माण प्रारंभ किया जो सन 1436 में पूरा हुआ जिसके गुंबद फिलिपो ब्रुनेलेस्ची द्वारा डिजाइन किये गये थे जो अभी भी दुनिया के सबसे बड़े गुंबद माने जाते हैं। समय पास करने के लिए आज यतिन ने ' कभी खुशी कभी गम' नामक मूवी लगा दी। मूवी खत्म ही हुई थी कि  हम फ्लोरेन्स पहुँच  गए।

            पियाजा डेला सिगनोरिया  

            बस से उतरकर लगभग आधा घंटा चलते हुये, गलियों से होते हुये हम  (Piazza della signoria) पहुँचे । इतावली भाषा में Piazza  का अर्थ एक बड़ा चौराहा होता है जहाँ मार्केट, पर्यटन स्थल या बिजनिस एक्टिवटी होती हैं । अभी हम चारों ओर लगी विभिन्न मूर्तियों को देख ही रहे थे कि हमें गाइड करने एक गाइड आ गया। 

      उसने बताया कि फ्लोरेंस गणतंत्र के शासक सिंगनोरिया के नाम पर ( piazza della signoria)  नामक स्थान को नामांकित किया गया। इस स्थान को  Palazzo vecchio भी कहा जाता है। यह फ्लोरेंटाइन गणतंत्र के उद्गम तथा इतिहास का महत्वपूर्ण स्थल है। यह अभी भी शहर का राजनीति का महत्वपूर्ण केंद्र बना हुआ है। 

Palazzo vecchio  कई गोथिक तत्वों के साथ बनी रोमनस्क इमारत है । एक समय यह इस महल में मेडिसी परिवार रहता था । अब इसके कुछ हिस्सों को जनता के लिये खोल दिया है । यह राजनीतिज्ञों तथा पर्यटकों का मिलन स्थल भी है ।

            Palazzo vecchio शहर का तथा टुस्केनी का महत्वपूर्ण टाउन हाल है। इसके प्रवेश द्वार पर माइकल एंजिलो डेविड की मूर्ति है तथा इसके पास ही मूतिर्यो की एक दूसरी गैलरी Loggia dei Lanzi  है जो इटली का एक महत्वपूर्ण स्थल है। इस स्थान पर बनी गैलरी में हमें बहुत सारी मूर्तियाँ दिखाई दीं जो प्रागैतिहासिक काल की बहुमूल्य धरोहर होने के साथ समय-समय पर हुई ऐतिहासिक घटनाओं पेश करती हैं। इसके समीप बना  चौड़ा  मेहराब सड़क की ओर जाता है। यहाँ पर कई म्यूजियम हैं जहाँ अक्सर सांस्कृतिक कार्यक्रम होते रहते हैं ।

            यह स्थान Piazza del duomo के पास है तथा Uffizi Gallery जाने का मार्ग भी है। पियाजा डेल डुओमो कैथेड्रल काम्पलेक्स में बैपिस्टरी ( वह स्थान जहाँ ईसाई धर्म की शिक्षा और संस्कार दिये जाते हैं) और गियट्टो कैम्पेनिल सम्मिलित हैं। ये तीनों इमारतें यूनेस्को की विश्वधरोहर स्थल का हिस्सा हैं जो फ्लोरेंस के ऐतिहासिक केंद्र को कवर करती है और तुस्कनी क्षेत्र का एक प्रमुख पर्यटक स्थल है।

            यह शहर के सबसे प्रसिद्ध चर्चो में से एक है जिसे गोथिक कला से सजाया संवारा गया है। इसकी बाहरी दीवारों को सफेद, हरा, लाल रंगों की समानानंतर पट्टियों तथा कुछ स्थानों पर पोलिक्रोम संगमरमर से भी बनाया गया है। इसके अंदर मोजेक के फुटपाथ हैं इसमें मूर्तियों के साथ दो दरवाजे हैं एक उत्तर की तरफ तथा एक दक्षिण की तरफ। इसमें छह खिड़कियाँ हैं। दो खिड़कियाँ सजावटी हैं जबकि अन्य चार से प्रकाश से आता है। क्लीरेस्टोरी खिड़कियाँ (ऐसी खिड़कियाँ जो ऊँचाई पर स्थित होती हैं) गोल हैं। इन खिड़कियों को इमारत में हवा और प्रकाश के लिये बनाया जाता है। इतावली गोथिक कला में यह एक आम विशेषता है। कैथेड्रल  के बगल में सेंट जान की अष्टभुजी बैपटिस्टरी है जिसका फ्लोरेंस में धार्मिक महत्व है।

            गैलीरिया डिगली उफीजी फ्लोरेंस का सबसे प्रतिष्ठत संग्रहालय और इटली की सबसे बड़ी कला दीर्घाओं में से एक है। यह मेडिसी के प्रशासनिक केंद्र में स्थित है। दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण कलाकारों जैसे कि माइकल एंजिलो, रैफैल्लो, टिजियानो और बोटीसेली द्वारा निर्मित इस कला दीर्घा को देखकर हम सब हतप्रभ थे। गाइड सब कुछ इतनी अच्छी तरह से बता रही थी कि कुछ को छोड़कर सभी हर दीर्घा को देखते हुए उसकी बात ध्यान से सुन रहे थे। इला सदा की तरह इस बार भी गाइड की बातों को सुन भी रही थी तथा रिकॉर्ड भी कर रही थी।

           गाइड ने बताया कि Campanile de Gitto , घंटी टावर, गुलाबी, सफेद और हरे संगमरमर से बना, गोथिक वास्तुकला का एक बेहतरीन उदाहरण है। गियेटो द्वारा इसका सन 1334 में निर्माण प्रारंभ किया। वह केवल तीन वर्ष ही काम कर पाया उसकी मृत्यु हो गई। उसके पश्चात् आन्द्रेया पिसानो ( Andrea pisano ) ने काम कर इसकी दो मंजिलों को बनाया इसके बाद का काम फ्रांसेस्को ने पूरा किया । इस पर बनी मूतियाँ बेहद सुंदर हैं ।

            प्लाज्जो पट्टी फ्लोरेंस ( Palazzo pitti Florence )के सबसे बड़े वास्तुकला स्मारकों में से एक है। सन1549 में इसे मेडिसी परिवार द्वारा ले लिया गया। बाद में ग्रैंड डियूक परिवार का हिस्सा बन गई। आज यह म्यूजियम बन गया है । पहली मंजिल पर 'द पैलेटिन गैलरी' है जिसमें सोलहवीं और सतरहवीं शताब्दी से पेंटिंग का विराट एवं विस्तृत संग्रह है । इसके रायल अपार्टमेंट में उन्नीसवीं शताब्दी का सामान संरक्षित है। ग्राउंड फ्लोर पर स्थित सिल्वर संग्रहालय में मेडिसी का घरेलू सामान है । आधुनिक कला की गैलरी शीर्ष मंजिल पर है, साथ ही चीनी मिट्टी के बर्तन का संग्रहालय, कास्टयूम गैलरी जो एक फैशन संग्रहालय है।

                        पोंटे वेक्चिओ पुल

            बाहर आये तो सामने एक पुल था । हमें बताया गया कि यह पोंटे वेक्चिओ ( Ponte Vecchio ) नामक ओल्ड ब्रिज है । यह एक अद्भुत बंद स्पेंड्रल आर्केड पुल है जो अरनो नदी पर बना है। यह रोमन साम्राज्य में बना पहला पुल माना जाता है। सन 996 में सबसे पहले इसका उल्लेख किया गया था। मूल रूप से लकड़ी से निर्मित यह पुल सन 1333 की बाढ़ में नष्ट हो गया था। बाद में इसे पत्थरों से बनाया गया। पुल के ऊपर भी एक मार्ग है जिसका उपयोग वे मेडिसी लोग करते हैं जो अपनी पहचान छिपाना चाहते हैं। फैंसी गहनों की दूकानों के लिए प्रसिद्ध फ्लोरेंस का यह पोटें वेचियो पुल  द्वितीय विश्वयुद्ध में नष्ट होने वाला एकमात्र पुल होने के लिये आज भी विख्यात है। 

हम अरनो नदी के किनारे चलते-चलते लगभग आधे घंटे में पार्किग स्थल पर पहुँचे। वाशरूम जाने की इच्छा हो रही थी वहीं पास में बने एक रेस्टोरेंट में गये । वहाँ वाशरूम प्रयोग में लाने के लिये एक यूरो था। काफी मँहगा लगा लेकिन मजबूरी थी।

            सभी सहयात्रियों के बैठते ही बस चल पड़ी...यतिन ने हमें बताया गया कि कल हमें वैटिकन सिटी जाना है। रात का खाना खाने पश्चात हमें आज अरेज्जो पार्क होटल में रूकना है। हमें इटली में मकानों तथा यातायात रूल में अन्य यूरोपीय देशों की तुलना में काफी अंतर लगा। घर तो बहुत कुछ भारतीय जैसे ही लगे। जलवायु में भी काफी अंतर है। धूप भी काफी तेज थी। हमने जैसे शहर में प्रवेश किया हमें छतरी के आकार के पेड़ दिखाई दिये जो देखने में बहुत अच्छे लग रहे थे। पहले तो हमें लगा शायद कटिंग कर उन्हें शेप दी होगी पर बहुतायत में ऐसे पेडों को देखकर हमारी धारणा बदलने लगी । पार्क होटल से वैटिकन सिटी की दूरी 214 किमी है जिसे तय करने में लगभग ढाई तीन घंटे लगना है अतः कल भी नाश्ता सात बजे तथा आठ बजे निकलना होगा ।

            

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            अपने पूरे सामान के साथ हम सदा की तरह साढ़े सात बजे तक नाश्ता करके होटल के हॉल में एकत्रित हो गये । ठीक आठ बजे हम चल दिये। 


कोलोसियम 


सबसे पहले हम कोलोसियम गए। हमें बताया गया कि यह विश्व के सात आश्चर्यो में से एक है। पुराने रोम में एक एम्फीथियेटर का निर्माण किया गया था,उसे ही कोलोसियम कहा जाता है। यह बालू और कोन्क्रीट की बनी इमारत है जिसमें जनता के मनोरंजन के लिये अनेक कार्यक्रमों का आयोजन होता था। यह खुला हुआ है। भूकंप तथा पत्थर की चोरी करने वालों के कारण आज यह भग्न अवस्था में है । यतिन ने हमसे एक साथ खड़े होने के लिए कहा। उसके द्वारा बुलाये गए फोटोग्राफर ने हमारी एक ग्रुप फ़ोटो खींची जिससे न केवल हमे यह यात्रा वरन इस यात्रा के सभी मित्र सदा हमारी यादों के साथ हमारी एलबम में भी सदा के लिए कैद हो जाएं। 


इसके पश्चात हम ( victor Emmanuel second of Italy ) नामक स्थान पर गये जो इटली के पहले राजा की स्मृति में बनाया गया है। इन्हें इटली का पितामह कहा जाता है। ये सन 1849 से 17 मार्च 1861 तक इटली के सरदीनिया नामक स्थान के राजा रहे थे। उस समय में उन्हें पहली बार इटली का राजा कहा गया। बाद में वह संयुक्त इटली के राजा बने। बस द्वारा रोम के कुछ मुख्य स्थल देखते हुये हम वैटिकन सिटी पहुँच गये।



वेटिकन सिटी 

            बाहर से वैटिकन एक किले की तरह नजर आ रहा था जिसके चारों ओर ऊँची-ऊँची दीवार बनी हुई थीं । सामने गेट पर MUSEI VATCANI लिखा हुआ था। टिकट लेकर आये यतिन ने हमें हमारे समय के बारे में बताया। दरअसल अंदर ज्यादा भीड़ न हो इसलिये हर ग्रुप को एक टाइम दिया जाता है। समय आने पर हमने वेटिकन सिटी के प्रवेश द्वार से अंदर गये। 


सिक्यूरिटी चैक के पश्चात् ही हमें अंदर प्रवेश करने की इजाजत मिली। एरो का निशान वाशरूम को इंगित कर रहा था जिसको जाना था वह गये। इसके पश्चात् वहाँ स्थित हॉल में हम सब एकत्रित हुये। वहाँ हमें एक गाइड मिली। उसने हमें यह कहते हुये एक हैडफोन दिया कि यहाँ जोर से बात करना मना है,  इस हैड फोन के द्वारा आप मेरी आवाज सुन सकेंगे तथा इस स्थान के बारे में जानकारी प्राप्त कर पायेंगे।


            गाइड ने हमें बताया कि आठवीं शताब्दी में रोम के निकटवर्ती प्रदेशों पर चर्च का शासन स्वीकार किया जाने लगा। इस प्रकार ‘ पेपल स्टेट्स ’ का अभ्युदय हुआ।  सन् 1870 में इटली ने ‘ पेपल स्टेट्स ’ को अपने अधिकार में ले लिया। इससे इटली और चर्च में टकराव होने लगा क्योंकि रोमन कैथोलिक चर्च अपने परमाध्यक्ष को ईसा का प्रतिनिधि मानकर यह आवश्यक समझता था कि वह किसी के आधीन न रहे। सन् 1929 इसवीं में ( Pope Pius) ग्यारहवें ने इटली के साथ लैटरन संधि पर हस्ताक्षर किये जिसके अंतर्गत रोमन कैथोलिक चर्च के साथ समझौता करके उसे संत पीटर गिरजाघर के आसपास लगभग 109 एकड़ जमीन दे दी गई और क्षेत्र को पूर्ण स्वतंत्र मान लिया। इस प्रकार ‘ चिट्टाडेल वाटिकानो ’ अर्थात् वैटिकन नगर एक अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त स्वतंत्र स्वायत्त राज्य बन गया । इसी वर्ष 7 जून 1929 वैटिकन सिटी ने अपना एक फ्लैग चुना जिसमें गोल्ड और सफेद रंग की खड़ी लाइनें हैं। फ्लैग के सफेद बाहर वाले भाग के बीच में वैटिकन सिटी का कोट आफ आर्म ( राज्य  चिंह) स्थापित है।

            वेटिकन सिटी की भाषा लातिनी है। यह ईसाई धर्म के प्रमुख सम्प्रदाय रोमन कैथोलिक चर्च का प्रमुख केंद्र है तथा इस सम्प्रदाय के सर्वोच्च धर्म गुरू पोप का निवास स्थान भी है। इसमें सेंट पीटर गिरजाघर, वैटिकन प्रसाद समूह, वैटिकन बाग, अन्य कई गिरजाघर सम्मिलित हैं । इसकी अपनी अपनी मुद्रा, अपना डाकघर, रेडियो स्टेशन इत्यादि हैं। इसके नागरिकों की संख्या लगभग सात सौ है जो चालीस विभिन्न डिपार्टमेंट के लिये काम करते हैं । इस केंद्र से पोप पूर्ण स्वतंत्रता से दुनिया भर में फैले हुये रोमन कैथोलिक चर्च का आध्यात्मिक संचालन करते हैं। यहाँ इटालियन, जर्मन, अंग्रेजी स्पेनिश, फ्रांसीसी, पुर्तगाली भाषायें बोली जाती हैं पर इटालियन भाषा मुख्य है। पोप के सुरक्षा गार्ड (पापले स्विस गार्ड ) की भाषा जर्मन है।

            विश्व का सबसे छोटा देश होने के बावजूद यह अपने नागरिकों को पासपोर्ट की सुविधा भी प्रदान करता है। इसकी अपनी सेना भी है। वैटिकन की शासन व्यवस्था राजशाही है। पोप यहाँ का राजा होता है जिसे न्यायपालिका,  कार्यपालिका और विधायिका की भी शक्ति प्राप्त है। पोप पाँच वर्ष के लिये वेटिकन का राष्ट्रपति नियुक्त करता है। यहाँ का राष्ट्रपति आमतौर पर कैथोलिक चर्च का कार्डिनल होता है। इस देश के रेलवे स्टेशन को 1930 में बनाया गया। इस रेलवे स्टेशन का मजा अधिकतर पर्यटक ही लेते हैं ।

            पोप के सरकारी निवास का स्थान भी वैटिकन है। यह रोम नगर में, टाइबर नदी के किनारे, वैटिकन पहाड़ी पर स्थित है तथा ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं घार्मिक कारणों से प्रसिद्ध है। यहाँ के प्रसादों का निर्माण विश्वप्रसिद्ध कलाकारों द्वारा किया गया है। इस राज्य के पोप 45 करोड़ 60 लाख रोमन कैथोलिक धर्मावलंबियों के द्वारा पूजित हैं। इस देश के राजनायिक संबंध लगभग सभी देशों से हैं ।

            हमारी गाइड धीरे-धीरे वेटिकन सिटी के बारे में जानकारी देती हुई आगे बढ़ती जा रही थी उसके पीछे-पीछे हम सब भी...। सबसे पहले हम हॉल से एक बड़ी एवं लंबी गैलरी में पहुँचे जिसकी दीवारों पर बेहद खूबसूरत चित्र बने थे जो क्रिस्चेनिटी के बारे में बता रहे थे । गाइड ने बताया कि यह सिस्टाइन चैपल गैलरी है । इसे पोप जूलियस द्वितीय ने सोलवीं शताब्दी के प्रारंभ में बनवाया था। यह गैलरी काफी लंबी थी...इसकी छत को माइकल एंजेलो द्वारा सजाया गया था। stanze di raffaello  गैलरी को राफेल नामक कलाकार ने सजाया था । यह गैलरी वेटिकन संग्रहालय देखने आने वाले लोगों का प्रवेश मार्ग भी है। वेटिकन संग्रहालय में 54 दीर्घायें हैं तथा इन दीर्घाओं में अनुमानतः 70,000 मूर्तियाँ हैं जिनमें से केवल 20,000 ही दर्शनीय हैं। ईसाई कला का यह संग्रहालय वेटिकन सिटी की चारदीवारी के अंदर ही निहित है। यह विश्व का चौथा सबसे अधिक देखा जाने वाला कला संग्रहालय है।

            चलते-चलते हमने pinacoteca vaticana गैलरी में प्रवेश किया। 27 अक्टूबर 1032 में उद्घाटित इस गैलरी को लूका वेस्ट्रमी ने डिजाइन किया गया था। इसमें लियोनादो डी विन्सी, गिओटो के अतिरिक्त कई मूर्तिकारों की बनाई मूर्तियाँ हैं ।

            एक अन्य गैलरी आधुनिक धार्मिक आर्ट की है जिसे सन 1973 में बनाया गया था। इस गैलरी की चित्रकारी तथा मूर्तियों को पाबलो पिकासो, विनसेंट वान गोघ इत्यादि चित्रकारों एवं मूर्तिकारों ने बनाकर एक अनूठा रूप दिया है।

            इसी तरह की कई गैलरियाँ देखीं जिनकी कलाकृतियाँ अनूठी हैं। इसकी एक अनूठी संरचना है गोलाकार सीढ़ियाँ जिसे गियूसिपे मोमो ( Giuseppe Momo ) ने सन 1932 में डिजाइन किया था।सभी गैलिरियों  को देखते हुये हम संत पीटर बैसिलिका में पहुंचे। वास्तव में संत पीटर बैसीलिका पुराने वेटिकन चर्च का पुनरूद्धार कर निर्मित की गई है। यह विश्व के सबसे बड़े पुराने चर्च के पुनरूद्धार का अनूठा उदाहरण है। यह न चर्च है न कैथेड्रल है वरन् यह कैथेलिक धर्मावलियों के लिये एक पवित्र तीर्थस्थान है।

            कैथोलिक परंपरा के अनुसार यह बैसीलिका संत पीटर की कब्रगाह है जो जीसस के प्रमुख शिष्य तथा रोम के विशप थे। इस बैसीलिका में संत पीटर की बड़ी मूर्ति है। कहा जाता है कि इस मूर्ति के नीचे, ही संत पीटर की कब्र है। यहाँ  संत पीटर के अतिरिक्त अन्य संतों की भी मूतियाँ हैं। आज की बैसीलिका का निर्माण चौथी शताब्दी ( A. D. ) की पुरानी संत पीटर बैसीलिका को पुनरूद्धार कर बनाई गई है। इसका निर्माण 18 अप्रैल 1506 में प्रारंभ हुआ तथा 18 नवम्बर 1626 को पूरा हुआ । इसकी लंबाई 220 मीटर, चौड़ाई 150 मीटर तथा ऊँचाई 136.6 मीटर है । इसके डोम का डाइमीटर 42 मीटर है ।

            संत पीटर बैसीलिका क्रिस्चियन लोगों के तीर्थ स्थल है। पोप यहीं रहते हैं तथा समय-समय पर 15,000 से 80,000 से अधिक शिष्यों को इस बैसीलिका के अंदर या इससे सटे संत पीटर स्कवायर पर प्रवचन देते रहते हैं। अंततः हम संत बैसीलिका के बड़े से हॉल से निकलकर बाहर आये। यहाँ बड़ी बालकनियाँ थीं जिनसे सेंट पीटर स्कावायर का बहुत बड़ा एरिया दिखाई दे रहा था। गाइड ने बताया कि मुख्य अवसरों पर पोप इसी बालकनी में बैठकर सेंट पीटर स्कवायर पर एकत्रित अनुयाइयों को संबोधित करते हैं। अंत में हम संत पीटर स्कावायर पर आये। लगभग तीन बज रहे थे। घूमते-घूमते ढाई तीन घंटे हो गये थे। धूप काफी तेज थी। हैड फोन जमा करने की जगह बताकर गाइड ने हमें अलविदा कहा। हमने स्विस गार्ड के समीप फोटो खिंचवाई। वह अपनी परंपरागत परिधान में थे। दरअसल हम वे ही स्थान देख पायें जहाँ दर्शकों को जाने की इजाजत थी । अब तक यतिन आ गया उसके साथ हम पार्किग स्थल की ओर चल दिये। अब हमें ट्रिवी फाउन्टेन जाना था। आधे घंटे का रास्ता था। 


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            बस में बैठते ही वेटीकन सिटी के बारे और अधिक जानने के लिये मोबाइल में सर्च करने लगी । एक जगह नजर ठहर गई...भारतीय इतिहासकार पी.एन. ओक ने अपने शोध में दावा किया है कि वेटिकन सिटी प्राचीनकाल में शिवमंदिर हुआ करता था। ईसा पूर्व पहली सदी में इसे नष्ट करके यहाँ के लोगों को ईसाई बनने को मजबूर किया गया। पी.एन.ओक ने वैटिकन सिटी और शिव मंदिर में कुछ समानतायें बताई हैं जैसेकि वैटिकन शब्द संस्कृत के ‘ वाटिका ’ शब्द से आया है जिसका अर्थ है पवित्र या धार्मिक स्थान । ध्यान देने योग्य बात यह है कि वैटिकन सिटी को वहाँ की भाषा में ‘ चिट्टाडेल वाटिकानो ’ कहते हैं । वैटिकन के संत पीटर मंदिर के आँगन और शिवलिंग के बीच गजब की समानता है । शिवजी के माथे पर तीन रेखायें और एक बिंदु होता है जिसे शिवलिंग पर भी अंकित किया जाता है । लगभग ऐसी ही रेखायें और एक बिंदु संत पीटर के मंदिर में आँगन के डिजाइन में भी है । ईसाई धर्म को अंग्रजी में क्रिश्चैनिटी कहते हैं । पी.एन. ओक के अनुसार क्रिश्चेनिटी शब्द ‘कृष्ण नीति’ से बना है अर्थात् कृष्ण नीति। इसका एक प्रमाण वैटिकन सिटी की खुदाई के दौरान मिला शिवलिंग है जिसे ग्रिगोरीअन म्यूजियम में रखा गया है ।

 

ट्रिवी फाउन्टेन

 

            अंततः हम ट्रिवी फाउन्टेन पहुँच गये...नितिन ने बताया ट्रिवी फाउंन्टेन को देखे बिना रोम की यात्रा अधूरी है । यह झरना रोम के Quirinale शहर में स्थित है। चौथी शताब्दी से यह रोम के 1,352 झरनों में से एक है। झरने में नेप्चून की मूर्ति है जिसे समुद्र का देवता माना जाता है। वे एक खोल के आकार के रथ में सवार हैं जिन्हें दो घोड़ों द्वारा खींचा जा रहा है। इनमें एक घोड़ा शांत है तथा दूसरा बगावत करता नजर आ रहा है इनके द्वारा समुद्र के विभिन्न रूपों को दर्शाया जा रहा है। यह झरना 19 बी.सी. में रोम में बनी एक्वा विरगो नहर के अंतिम सिरे पर बना है जो तीन सड़कों का संगम स्थल भी है। इन तीन सड़कों के नाम पर ही इसका नाम ट्रिवी फाउंन्टेन पड़ा । कहा जाता है एक्वा विरगो नहर का नाम एक कुंवारी लड़की के नाम पर पड़ा जो प्यासे सैनिकों को पानी पिलाती थी ।

            रोम से 22 किमी0 दूर स्थित शहर टिवोली में स्थित गर्म पानी के झरने से प्राप्त कैलशियम कारबोनेट खनिज पदार्थ के साथ ट्रेवरटाइन पत्थर जो लकड़ी से बना होता है, के सम्मिश्रण से ट्रिवी झरने का निर्माण हुआ है। इसको बनाने में अनेकों लोगों का श्रम लगा है । 

            यह झरना 86 फीट ऊँचा है तथा 161.3 फीट चौड़ा है। पानी को कई स्त्रोतों से पंप किया जाता है। इस झरने के द्वारा प्रति दिन 2, 824, 800 क्यूबिक फीट पानी निकलता है। सबसे अच्छी बात यह है कि इस झरने का पानी आज भी इतना साफ है कि इसे आप ऐसे ही पी सकते हैं। इसके चारों ओर बनी दीवार पर नल भी लगे हैं जिससे लोग पानी पी भी रहे थे।

            ऐसा माना जाता है कि जो इस झरने में सिक्के डालता है, पानी के देवता उसकी यात्रा सफल बनाते हैं तथा वह वापस रोम अवश्य आता है। जो लोग अपना प्यार पाना चाहते हैं अगर वे दूसरा सिक्का भी इसमें डालते हैं तो उन्हें उनका प्यार अवश्य मिलता है। उसने पल्लव और मालिनी को सिक्के डालते देखा।

तो क्या सचमुच एक दूसरे को प्यार करने लगे हैं ? एक प्रश्न मनमस्तिष्क में उभरा। 

तभी यतिन ने कहा, "कहते हैं इस झरने में रोजाना 3,000 यूरो डाले जाते हैं। ये सिक्के हर रात को इकट्ठे किये जाते हैं तथा इटली की संस्था caritas को दिये जाते हैं जो सुपर मार्केट में एक कार्यक्रम चलाती है जिसके तहत जरूरतमंद लोगों को एक कार्ड देती है जिससे वे ग्रोसरी...किराना के सामान खरीद सकें। इस झरने से सिक्के चुराना अपराध है। ट्रिवी झरना पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र तो है ही, यहाँ कई फिल्मों की शूटिंग भी हुई है।"

            समुंद्र के देवता नेप्चून की सफेद संगमरमर से बनी मूर्ति सचमुच बेहद आकर्षक थी। उससे झरने के रूप में निकलता पानी गर्मी में भी ठंडी हवा देता बेहद सुकून पहुंच रहा था।  

शाम हो गई थी, अब हमें उठाना ही था।  हम गंतव्य स्थान की ओर चल दिये । ट्रिवी फाउंटेन से जुड़ी तीन सड़कें हैं अर्थात् यह तीन सड़कों के संगम स्थल पर है। हम भूल से दूसरी सड़क पर आगे बढ़ गए । जैसे हम आगे बढ़े हमें अपनी भूल का एहसास होने लगा। कोई सहयात्री भी नजर नहीं आ रहा था। आदेश जी ने यतिन को फोन किया। उसने बताया हमें लेंड मार्क बताया । हम वापस लौटकर दूसरी सड़क पर यतिन के बताए लेंड मार्क के आधार पर आगे बढ़कर गंतव्य स्थल तक पहुँच ही गए। सच नई जगह में भटक जाना…भयावह स्थिति हो सकती है !! सबके गंतव्य स्थल तक पहुँचते ही बस भी आ गई।

            अंततः हमारा अंतिम पड़ाव आ गया था...हमें इटली के उत्तरी सिरे पर स्थित शहर मिलान जो लाम्बार्डी की राजधानी भी है, में रुकना था ।

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मिलान


            नितिन ने बताया कि मिलान  इटली का द्वितीय सब अधिक जनसंख्या वाला शहर है। यह इटली की वित्तीय राजधानी के साथ, फैशन और डिजाइन की वैश्विक राजधानी भी है। इस शहर की स्थापना मीडियोलेनम नाम के तहत इनसबरेस द्वारा की गई। ईसा पूर्व 222 में रोमन द्वारा इस पर कब्जा कर लिया गया। रोमन साम्राज्य के आधीन यह शहर समृद्धता की ओर अग्रसर हुआ। बाद में मिलान पर विस्कान्टी, स्फोर्जा और सन 1500 में स्पेनिश तथा सन 1700 में ऑस्ट्रिया का शासन चला । सन 1796 में मिलान पर नेपालियन प्रथम ने विजय प्राप्त की। उसने सन 1805 में मिलान को अपने साम्राज्य की राजधानी बनाया। इस दौरान मिलान यूरोप का मुख्य सांस्कृतिक केंद्र बना। कई साहित्यकार, कलाकारों, संगीतकारों को अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करने का अवसर मिला। द्वितीय विश्व युद्ध के समय यह शहर बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया था। सन 1943 में जर्मनी ने इस पर कब्जा कर लिया। जिसके कारण इसे इटली का प्रतिरोध  झेलना पड़ा। इसके बावजूद यहाँ इटली तथा अन्य देशों से आये अप्रवासी लोग इसे विकास के पथ पर ले गये। दुनिया में आज मिलान विश्व की 28 सबसे समर्थ और प्रभावशाली शहर के रूप में वर्गीकृत है। मिलान को वैश्विक फैशन और डिजाइन के रूप में भी मान्यता प्राप्त है। यह वाणिज्य, खेल, उद्योग, संगीत, साहित्य, कला एवं मीडिया के क्षेत्र में अपनी धाक जमाये हुये है। यह महानगर अपने फैशन घरों , दुकानो और पियाजा डुमो के गैलरिया विट्टोरियो इमानुयल के लिये विशेष रूप से प्रसिद्ध है। शहर की बहुत ही समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा और विरासत है। इसका भोजन अद्वितीय है । पेनटोन...क्रिसमस केक और रिसोट्टो अला मिलानीज जैसे अनेक लोकप्रिय व्यजंनों के लिये प्रसिद्ध है। मिलान ओपेरा और पारंपरिक संगीत के लिये भी प्रसिद्ध है । यहाँ कई महत्वपूर्ण संग्रहालय, राजमहल, चर्च और पुस्तकालय हैं। यह यूरोप के महत्वपूर्ण पर्यटक स्थलों में से एक है। 

       दूसरे दिन हमें पीसा की झुकी मीनार के साथ मिलान के अन्य पर्यटन स्थल भी देखने थे। डिनर के लिये बस रूकी। हम सब डिनर करके अपने होटल उना होटल मालपेंसा मिलान पहुँच गये। 


दूसरे दिन होटल में ब्रेकफास्ट करके हम सदा की तरह चल दिये। आज हमारे ट्रिप का अंतिम दिन था फिर भी हम सब उर्जा से भरे हुये थे। आज हमें विश्व प्रसिद्ध पीसा की मीनार देखनी थी।

           बस के चलते ही पीसा की मीनार पहुंचने से पूर्व  यतिन ने बतलाने लगा कि इटली के टस्कैनी जिले में स्थित काले संगमरमर से बनी, पीसा की झुकी मीनार...लीनिंग टावर आफ पीसा को वास्तुशिल्प का अद्भुत नमूना माना जाता है। इसके निर्माता बोनानो पिसानो ने इसके निर्माण के लिये रोमनेस्क्यू वास्तुशिल्प शैली का अनुसरण किया । इसका निर्माण 12 वीं शताब्दी में हुआ था तथा 14 वीं शताब्दी में इसका निर्माण पूर्ण हुआ। जाहिर है इसके निर्माण में पिसानो के अतिरिक्त अन्य वास्तुशिल्पियों का भी योगदान रहा होगा।  इस मीनार को बनाते समय शायद इसकी नींव में थोड़ी कमी रह गई थी जिसके कारण यह मीनार  भार नही सह पाई जिसके कारण अपने निर्माण के बाद से ही यह मीनार लगातार एक तरफ नीचे की ओर झुकने लगी ।             

 जमीन की झुकी हुई तरफ मीनार की ऊँचाई 55.86 है तथा दूसरी तरफ 56.67 है । मीनार की बेस की तरफ चौड़ाई 2.44 मीटर है। इसका अनुमानित वजन 14,500 मीट्रिक टन है। इस मीनार में 296 सीढ़ी हैं। इसके सातवें फ्लोर में उत्तर फेसिंग सीढ़ियाँ हैं। सन1990 में यह मीनार 5.5 डिग्री तक झुक गई थी। यह डर पैदा हुआ कि कहीं एक दिन यह गिर न जाये । मीनार के गिरने के डर से 7 जनवरी 1990 को दर्शकों के लिये बंद कर दिया गया। इसमें सुधार करने के बाद दिसम्बर 2001 को दर्शकों के लिये खोला गया। इसमें किये गए  सुधारों के कारण  इसका झुकाव 3.75 डिग्री हो गया। उस समय  कहा गया कि अब इसका झुकना बंद हो जायेगा तथा कम से कम 300 वर्षो तक इसे कोई खतरा नहीं रहेगा।         

     16 वैज्ञानिकों की टीम ने अपने अनुसंधान में पाया कि यह मीनार पाँच डिग्री के कोण पर झुकी होने के बावजूद भूकंपरोधी है क्योंकि इसकी नींव में नर्म मिट्टी डाली गई है। पीसा की मीनार के आस-पास कैथेड्रल , वैपीस्ट्री तथा कब्रस्तिान भी है ।  इसे Piazza del Duomo UNSECO world heritsge 1987 में घोषित किया गया।मीनार के एक ओर झुकने के कारण ही आज यह विश्व प्रसिद्ध है।

                        बस पार्किग स्थल पर रूक गई । अब हमें  पीसा की मीनार तक पहुंचने के लिए दूसरी बस से जाना था।  तुरंत ही दूसरी बस मिल गई । लगभग दस मिनट में इस दूसरी बस ने हमें उतारा। इसके बावजूद भी लगभग दस मिनट पैदल चलने के पश्चात् आखिर हम मीनार के स्थल तक पहुंच ही गए। 


पीसा की मीनार


बाहर से ही मीनार दिखने लगी  थी। इसे कैथेड्रल का बेल टावर भी कहा जाता है। इस मीनार के गेट के बाहर भारत की तरह ही छोटे-छोटे सामान बेचने के लिये कई लोग खड़े मिले। गेट के अंदर घुसे तो दाहिनी ओर पेड वाशरूम है। हम चारों ओर बने रास्ते पर चलने लगे। मीनार के पीछे हमें एक कैथेड्रल दिखाई दिया। हमें बताया गया कि यह पीसा कैथेड्रल है जो शहर के कैथेड्रल चौक पर बनी कैथेड्रल और बेपेस्टरी ( जहाँ ईसाई धर्म की शिक्षा के समय संस्कार दिया जाता है) के बाद बनी शहर की  तीसरी सबसे पुरानी इमारत है।

            हम आगे बढ़े तो हमें सेंट जान की बेपिस्टरी दिखाई दी जिसका निर्माण पुरानी बेपिस्टरी के स्थान पर सन 1152 में हुआ । Piazza dei Miracoli जिसका अर्थ है चमत्कारों का चौराहा (square of miracle) जिसे साधारणतया Piazza del Duomo कहा जाता है। यह पीसा के 8.87 हैक्टेयर में बसा है। इटली का शहर टुस्कैनी विश्व की मध्ययुगीन कला तथा वास्तुशिल्प के लिये प्रसिद्ध है। इस कैथेड्रल स्कावयर को पीसा के पवित्र स्थलों में माना जाता है। यहाँ पीसा कैथेड्रल, पीसा बेपेस्ट्री, पीसा की मीनार, camposanto monumentale तथा कैथेड्रल म्यूजियम भी है। camposanto monumentale एक ऐतिहासिक इमारत है जो पीसा कैथेड्रल के उत्तरी हिस्से में स्थित है । इसे बारहवीं शताब्दी में बनाया गया था। इसको पवित्र स्थल भी कहा जाता है।  

              पीसा बेपिस्टरी गोथिक शैली में बनी रोमन कैथेलिक गिरजाधर की इमारत है। पुरानी बेपिस्टिरी के स्थान पर इसका निर्माण सन 1152 मे प्रारंभ हुआ। निर्माण कार्य सन 1363 में पूरा हुआ। इसके साथ ही यह कालक्रम के अनुसार दुओमो दी पीसा के पास बनी दूसरी सबसे पुरानी इमारत है। इस बपतिस्मा को Diotisalvi नामक वास्तुशिल्पी ने डिजाइन किया। इस इमारत के अंदर बने दो पिलर में सन 1153 की तारीख में खुदे हस्ताक्षर इसकी तस्कीद करते हैं।

            पीसा कैथेड्रल इटली के पीसा में पियाजा देई मिराकोली में ‘वर्जिन मेरी’ की धारणा को समर्पित मध्ययुगीन रोमन कैथोलिक कैथेड्रल है। यह रोमनस्क वास्तुकला का एक अनूठा उदाहरण है। यह पीसा के आर्कबिशप की सीट अर्थात् सिंहासन है। कैथेड्रल का निर्माण पीसा की शुरूआती मध्ययुगीन दीवारों के बाहर वास्तुकार बुशचेटो द्वारा सन 1063 में प्रारंभ हुआ था। आज का यह चर्च विभिन्न युग में किये गये निर्माणों का प्रतिफल है।

            पीसा के नये वर्ष को बताने के लिये कैथेड्रल में एक सिस्टम इजाद किया गया जिसके तहत 25 मार्च को 12 बजे कैथेड्रल के दक्षिण तरफ बनी गोल खिड़की से एक प्रकाशपुंज एक ऊँची शेल्फ पर बने संगमरमर के अंडे पर पड़ता है। संगमरमर का अंड़ा नये जीवन का प्रतीक है लेकिन सन 1750 में नववर्ष पहली जनवरी को मनाया जाने लगा। गुफा के क्रेंद्र में रखे दीपक को गैलीलियो का दीपक कहा जाता है। एक किंवदन्ती के अनुसार वैज्ञानिक गैलीलियो ने गुफा की छत से उत्सर्जन को देखते हुये पेंडुलम के आइसोक्रोनिज्म के सिद्धांत को जन्म दिया था।

           विश्व प्रसिद्ध पीसा की मीनार  को देखने के पश्चात् हम बाहर आये। बाहर कई लोग छोटे-छोटे सामान बेचने के लिये खड़े हुये थे। वह हम सबसे समान खरीदने का आग्रह करने लगे। उन्हें देखकर लग रहा था कि गरीबी यहाँ भी कम नहीं है । वैसे भी ट्रिप प्रारम्भ होने के समय ही हमारे टूर मैनेजर यतिन ने हमें चेतावनी दी थी कि आप अपने समान का ख्याल रखिएगा,यहाँ चोरियाँ बहुत होतीं है। यह बात सच ही सिद्ध हुई...हमें बाद में पता चला कि हमारी एक सहयात्री श्रीमती देसाई के पर्स से किसी ने लगभग 300 यूरो निकाल लिए हैं जो उन्होंने मिलान में शॉपिंग के लिए निकले थे। उन्हें यह ट्रिप बेहद मंहगा पड़ गया। 

इस बार हमारे लंच का इंतजाम  मीनार के पास में बने रेस्टोरेंट में ही था। हमने लंच लिया तथा  मिलान के कुछ प्रसिद्व स्थानों को देखने के पश्चात् हम डुओमो कैथेड्रल मिलान पहुँचे। यह कैथेड्रल सेंट मेरी को समर्पित किया गया है। इसे बनाने में छह शताब्दियाँ लग गईं थीं। यह आर्कविशप मिलान की सीट अर्थात् यहाँ विशप बैठकर अपना प्रवचन देते हैं। यह इटली का सबसे बड़ा चर्च तथा यूरोप में तीसरा तथा दुनिया का चौथा सबसे बड़ा चर्च है।

            स्फरोजा कैसल

      हमारी बस ने ‘ स्फरोजा कैसल ’ के निकट हमें उतारा । यतिन ने बताया कि इसे टोरे डेल फिलारेट के नाम से भी जाना जाता है। 14 वीं शताब्दी के किले के खंडहर को डयूक फ्रांसेस्को स्फोर्जा ने 15 वीं शताब्दी में इसे महल में बदलवाया। बाद में इसमें कई परिवर्तन हुये। 14 वीं शताब्दी में इसे कैसिलो दी पोर्टा के नाम से भी जाना जाता था। यह एक आयताकार संरचना है।  इसके चारों कोनों में चार टावर है। इसकी  दीवार काफी मोटी  है।  सन1447 में यह नष्ट हो गया था। सन1450 में फ्रांसेस्को स्फोर्जा ने अपने निवास के लिये महल का पुनर्निमाण प्रारंभ किया। सन 17 वीं शताब्दी में यह यूरोप का सबसे बड़ा किला था। अठारवीं शताब्दी के अंत में तथा उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में  लूका बेल्टरामी ने इसका पुनः निर्माण करवाया। केंद्रीय टावर की डिजाइन पर काम करने के लिये एक मूर्तिकार एवं वास्तुकार फिलारेट नियुक्त किया गया। इसके कमरों को चित्रित करने के लिये लियोनार्डो दा विंसी की सेवायें ली गई। उन्होंने बरनारकिनो जेनेले और बरनारडिनो बूटीनोन के साथ मिलकर इस महल की साजसज्जा को रूप दिया। कई बार टूटने बनने के पश्चात् आज ‘महल स्फोर्जा ’ प्राचीन कला के संग्रहालयों, संगीत उपकरणों के संग्रहालय, मिश्र के संग्रहालय, मिलान के पुरातत्व संग्रहालय, एचीसप बरजटेरिली प्रिंट संग्रह, एप्लाइड आर्ट के कार्यो का संग्रह, एंटीक फरनीचर और लकड़ी की मूर्तियों के संग्रहालय में बदल गया है ।

            ‘ स्फरोजा कैसल ’ के घंटाघर के सामने ही चौराहे पर स्थित खूबसूरत झरना है ‘ फोनटाना दी पियाजा कैसिलो ’ इसको देखते हुये हम आगे बढ़े । सड़क के एक ओर दुकानें थीं तथा दूसरी ओर कोई नाटक हो रहा था । यतिन को फोलो करते हुये यह सोचकर आगे बढ़ते गये कि लौटते हुये देखेंगे। अब हम पियाजा डयुमो में स्थित galleria vittorio emanuele shopping gallery पहुँचे। यह इटली का सबसे पुराना एवं प्रसिद्ध चार तल में बना शहर के बीचोबीच स्थित शापिंग माल है । यह मिलान शहर का लैंडमार्क भी है। इसका नाम इटली के पहले राजा विक्टर इमेनुयल द्वितीय के नाम पर पड़ा है । इसको सन1861 में डिजाइन किया तथा इसका निर्माण सन1865 से सन1867 तक वास्तुकार ग्यूसेपी मेनगोनी द्वारा किया गया। मिलान शहर समृद्ध सांस्कृतिक विरासत वाला शहर है। पियाजा डेल डूयोमो इटली के मिलान शहर के बीच में स्थित मुख्य कैथेड्रल चौराहा है। यह चौराहा सांस्कृतिक, सामाजिक तथा कलात्मकता के लिये प्रसिद्ध है। यह मिलान की महत्वपूर्ण व्यावसायिक गतिविधियों के साथ पर्यटकों के भी आकर्षण का केन्द्र है। यह चौराहा 14 वीं शताब्दी में बना है किंतु धीरे-धीरे समय के साथ इसमें कई परिवर्तन हुये । आज इसका जो स्वरूप है वह वास्तुकार ग्यूसिपी मेनगोनी के डिजायन तथा परिश्रम के कारण है ।

            यह शापिंग सेंटर पियाजा डेल डयुमो और पियाजा डेल स्काला को जोड़ता है। इस शापिंग काम्पलेक्स के मध्य में अष्टकोणीय शीशे का गुम्बद है तथा इसके दो आच्छादित मार्ग लोहे की छड़ो पर लगे मेहराब के आकर में बने हैं जिन पर लगा शीशा न केवल इनकी खूबसूरती बढ़ा रहा है वरन् मार्ग को कवर कर रहा है जिससे इस गैलरी में घूमने वाले लोग धूप, पानी से बचे रहें ।


            डुओमो कैथेड्रल मिलान  


       शॉपिंग गैलरी देखते हुए हम डुओमो कैथेड्रल जिसे कम्यून डी मिलानो कैथेड्रल भी कहा जाता है,गये। इसे बनाने में छह शताब्दियाँ लग गईं। यह दुनिया का तीसरा तथा दुनिया का चौथा सबसे बड़ा कैथेड्रल है। यह कैथेड्रल 183,000 स्कावयर मीटर में बना आयताकार संरचना है। यह ‘ सेंट मेरी ’ को समर्पित है । आर्कविशप मारियो डेलपिनी इसके मुखिया हैं । गोथिक शैली में बना यह इटली का सबसे बड़ा चर्च है । सन 1386 और सन 1577 के बीच निर्मित इस इमारत की मीनार की चोटी पर मिलान के लोगों ने मादुनिना की स्वर्ण प्रतिमा ( छोटी मेडोना ) के रूप में स्थापित की ।

डुओमो कैथेड्रल 158 मीटर लंबा, 92 मीटर चौड़ा तथा 108 मीटर ऊँचा है। इसमें 40,000 लोग बैठ सकते हैं। इसके गुम्बद की ऊँचाई 65.6 मीटर है। यह कैंडोग्लिया मार्बल का बना है। मार्बल का रंग गुलाबी, सफेद तथा हल्का ग्रे है। द्वितीय विश्व युद्ध में इसके क्षतिग्रस्त होने के बाद नेपालियन ने इसका पुनरूद्धार करवाया था। इस कैथेड्रल में 90 से अधिक परनाले तथा 3,400 मूर्तियाँ हैं। दोनों साइड में गलियारों के कारण यह दूसरे अन्य कैथेड्रल के मुकाबले चौड़ा है। मेहराबदार खंभों के टेक, पिरामिड शिखरों तथा मीनारों से बना यह केथेड्रल भव्य इमारत है। इसकी खूबसूरती को निहारते हुये, कुछ पल यहाँ बिताकर हम बाहर आये। कैथेड्रल के साइड में नीचे के तल पर वाशरूम है। सीढ़ियों द्वारा या लिफ्ट द्वारा यहाँ नीचे जाया जा सकता है।

            बाहर निकलकर हम पुनः galleria vittorio emanuele shopping gallery में आ गये। कुछ लोग शापिंग करने लगे। हम भी एक दो दुकानों में गये पर ऐसा कुछ नहीं लगा जिसे खरीद जाए या जो अब हमारे भारत में नहीं मिलता हो।गैलरी से बाहर निकल कर हम बाहर के खुले स्थान में आये तथा यहां की चहल-पहल देखने लगे। तभी चौराहे पर बनी एक आकृति पर नजर गई।  वहाँ हमारे ग्रुप के कई लोग खड़े थे। पास गए तो देखा मालिनी और पल्लव खड़े होकर फ़ोटो खिंचवा रहे थेवहीं रागिनी और रोहित अपनी बारी का इंतजार कर कर रहे थे। अनायास ही मन में आया क्या आज की नाव पीढ़ी भी इन सब बातों में विश्वास करती है ?


वहां हो रही बातचीत से पता चला कि जमीन के मध्य अष्टकोणीय हिस्से में चार मौजेक पर बनी आकृति इटली की चार  राजधानियों...टियूरिन, फ्लोरेंस, रोम तथा मिलान के ‘ कोट आफ आर्म ’ को प्रदर्शित कर रही हैं । परंपरागत रूप से कहा जाता है जो व्यक्ति टयूरिन के प्रतीक पर बनी बैल के गुप्तांग पर एड़ी के सहारे तीन बार खड़ा होता है तो आने वाला समय उसके लिये शुभ संदेश लेकर आता है। जीवन में गुडलक आये इसलिये काफी लोग इस पर खड़े हो रहे थे। इसकी वजह से इस जगह का कुछ हिस्सा क्षतिग्रस्त भी हो गया है । सच अंधविश्वास हमारे भारत में ही नहीं दुनिया में हर जगह व्याप्त है ।

            अब लौटने का समय हो रहा था। हम जिस रास्ते से आये थे उसी से अपने गंतव्य स्थान पर लौटने लगे। बीच में कुछ आवाजें सुनाई देने लगीं। हम वहाँ गये तो देखा वहाँ कोई शो चल रहा है, हमें वह विशेष पसंद नहीं आया। सामने ही खूबसूरत फब्बारा फोनटाना दी पियाजा कैसिला दिख रहा था। चलते-चलते हम उसके पास पहुँच गये। कुछ देर उसे निहारते रहे, कुछ फोटो खीचीं। अभी भी शॉपिंग में व्यस्त हमारे सहयात्री नहीं आये थे। हमने ‘स्फरोजा कैसल ’के सामने पड़ी बेंच पर बैठना उचित समझा।

            सभी यात्रियों के आने पर हमारी बस चल दी तथा डिनर करके हम अपने होटल पहुँच गये। आज हमारी इस ट्रिप की आखिरी रात थी कल वापस सबको अपने-अपने घर लौटना था। किसी की फ्लाइट सुबह की थी किसी की दोपहर को तो किसी की रात्रि की। जो सुबह जाने वाले थे उनसे हमने उसी समय विदा ली। कल साढ़े ग्यारह बजे चैक आउट करना था अतः जिनकी रात्रि की फ्लाइट थी उनके लिये हमारे टूर मैनेजर यतिन ने मिलान माल ले जाने का प्लान बना दिया। 

    यहीं पर यतिन ने हमें एक-एक फॉर्म दिया जिसमें हमें अपने ग्रुप की परफॉर्मेंस के बारे में लिखना था। हम सबका अनुभव अच्छा था अतः सभी ने 5 स्टार रेटिंग दी।

            दूसरे दिन सुबह नाश्ता करके प्लान के मुताबिक ग्यारह बजे होटल के हॉल  में पहुँच गये। अभी भी काफी लोग थे। हमने आपस में एक दूसरे का नम्बर लिया तथा एक दूसरे से जुड़े रहने की चाह व्यक्त की। चैक आउट के पश्चात् हम मिलान माल पहुँचे। शाम पाँच बजे हमें यहाँ से निकलना था। 

      ।मिलान माल काफी बड़ा था पर अब ऐसे माल भारत में भी बड़े शहरों में बहुत बन गये हैं अतः कोई विशेष नहीं लगा। घूमने लगे तो सोचा अपने पोते पोती...आयुषी, आरूष के लिये कुछ खरीद लें। दोनों के लिये एक-एक ड्रेस खरीदी। फिर वहाँ स्थित फूड मार्केट में वहाँ बिक रहे सामान का भारत में बिकते सामान के मूल्य की तुलना करने के उद्देश्य से वहाँ गये। मूल्य के हिसाब से लगभग बराबर ही था। तभी नजर वहाँ एक ओर रखी पौधों की नर्सरी पर गई। हम उस स्थान पर गये। गमलों में बैगन, हरी मिर्च, टमाटर इत्यादि के पौधे लगे थे जिन पर फल भी लगे थे। ये बोनसाई पौघे देखने में बहुत अच्छे लग रहे थे। वहाँ से बाहर निकले, घड़ी देखी तो दो बज रहे थे। अभी तीन घंटे और बिताने थे। कुछ और नहीं सूझा तो एक काफी शाप में बैठ गये। कॉफी के साथ वेज बर्गर खाया। अभी भी समय था समय पास करने के लिये एक उचित स्थान देखकर वहाँ पड़ी बेंच पर बैठकर लोगों की चहल-पहल  देखने लगे।

            पाँच बजते ही हम बस में बैठकर अपने गंतव्य स्थल की ओर चल दिये। मिलान एअरपोर्ट पहुँचकर हम सबने एक बार फिर एक दूसरे से विदा ली एक दूसरे से विदा लेते हुए आंखें नाम।हो आईं थी। बोझिल मन से हम सब अपने-अपने चैक इन काउंटर की ओर बढ़ गये। सचमुच बहुत ही अच्छा ट्रिप रहा। इस ट्रिप से जहाँ भिन्न-भिन्न जगह घूमे, तरह-तरह की जानकारी प्राप्त की वहीं हमने अच्छे मित्र भी पाये। यतिन ने दोस्ती के अटूट बंधन को अटूट रखने के लिए हम सबको एक वाट्सअप ग्रुप से जोड़ दिया।

            अंत में इतना ही कहना चाहूँगी कि जब मन चाहे निकल जाइए घूमने... न सिर्फ उस जगह की  सभ्यता और संस्कृति को जानने, समझने के लिये वरन मन के बंद दरवाजे खोलने के लिये भी। कर्तव्यों के बोझ तले तन-मन को संजीवनी देने का इससे अच्छा तरीका और कोई नहीं है । 

 

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            इक्कीस  दिन पश्चात जब हम  अपने यूरोप टूर से लौटे, तो तन-मन से एकाकार थे...पर मन अनुप्रिया की वजह से परेशान था। वह न अपने पापा का फोन उठा रही थी और न ही अपने भाई आदित्य का...। आखिर इला के आग्रह पर वे अनुप्रिया से मिलने गये...। उनको देखकर अनुप्रिया ने रूखे स्वर में कहा,“ पापा,आप अंदर आ सकते हैं पर ये नहीं...ये कभी भी मेरी माँ का स्थान नहीं ले सकतीं।”

           अनुप्रिया की आंखों में इला के लिए तिरस्कार की भावना तथा इला को अपराधबोध से ग्रस्त देखकर आदेश जी ने लौटने का निर्णय कर लिया। अनुप्रिया और उसकी बेटी आयुषी के लिए लाई गिफ्ट उनके हाथ में ही रह गई। 

उनके लौटने के लिए पैर मुड़े ही थे कि दरवाजा बंद करने की जोरदार आवाज ने उनके मनमस्तिष्क को कुंद कर दिया था । सच तो यह था कि अनुप्रिया के रूखे स्वर ने आदेशजी  को भी अपराधबोध से भर गया था। आदित्य को जब अनुप्रिया के व्यवहार का पता चला तो उसने उसे फोन किया। अनुप्रिया के फोन नहीं उठाने पर उसने उसे मैसेज किया...“ तुम इला आँटी को माँ नहीं समझना चाहती तो मत समझो, पापा की केयर टेकर समझकर ही उन्हें अपना लो...आखिर पापा जब उनके साथ रहना चाहते हैं तो हम उन्हें रोकने कौन होते हैं।”

            आदित्य का मैसेज देखने के बावजूद अनुप्रिया को नहीं मानना था, वह नहीं मानी...। न वह अपने पापा  का फोन उठाती और न ही अपने भाई का…। अनुप्रिया को समझाने में असफल होने पर आदित्य  ने अभिषेक  से बात की तो उसने कहा कि वह भी उसे समझाने की चेष्टा कर रहा है पर उसने होंठ सिल लिये हैं सच तो यह था कि सिर्फ अभिषेक ही उनके बीच बातचीत का एकमात्र  सेतु था। 

इला के सारे प्रयासों के बावजूद आदेश सहज नहीं हो पा रहे थे। वह हमेशा खोये-खोये से रहते। कभी-कभी कहते, “ इला, मुझे पता नहीं था कि यह लड़की इतनी हठी होगी वरना मैं विवाह ही नहीं करता। कम से कम तुम्हें दुखी करने के अपराध से तो बच जाता।”

            उस दिन इला बहुत दुखी हुई थी वहीं आदेशजी ने स्वयं को अंतःकवच में कैद कर लिया था। उसे अपना अस्तित्व गौण लगने लगा था। क्या यही एक स्त्री की नियति है ? वह चाहकर भी अपने प्रश्न का उत्तर नहीं ढूंढ पा रही थी। उनके रिश्तों में ठंडापन आता जा रहा था। दिन रात सदा की तरह होते पर अपने तीन कमरे के फ्लैट में बंद वे हंसना ही भूल गए थे।         

            एक दिन रात लगभग एक बजे के करीब आदेशजी ने उसे जगाया तथा कहा, “इला मुझे अच्छा नहीं लग रहा है जरा मेरी दवा का डिब्बा उठाकर देना।”

            इला जल्दी से दवा का डिब्बा उठाकर लाई। सुदर्शन ने एक दवा निकाली तथा जीभ के नीचे रख ली तथा तकिये को पीठ के पीछे लगाकर बैठ गये। उनकी हालत देखकर इला ने अस्पताल चलने के लिये कहा...। पहले तो उन्होंने मना किया फिर तैयार हो गये। इला ने गाड़ी निकाली तथा उन्हें अस्पताल लेकर गई। अस्पताल पहुँचने  पर इला ने जल्दी मेडिकल हेल्प मिल जाये,इसलिए इमरजेंसी में देखी करवाना श्रेयस्कर समझा। चेकअप के पश्चात् डॉक्टर ने उसे बताया कि आदेशजी को हार्ट अटैक आया है। उन्हें तुरंत आई.सी.यू. में ले जाया गया।  अभी तक इला ने स्वयं को संयत रखा था किन्तु आदेशजी को आई.सी.यू. में भर्ती देखकर वह घबड़ा गई। उसने सर्वप्रथम आदित्य को फोन किया। उसकी बात सुनकर उसने कहा,”आंटी, आप घबड़ाईयेगा मत, हम तुरंत आ रहे है।” 

            इला को पता था कि आदित्य जितना भी जल्दी चलेगा,दस बारह घंटे से पहले नहीं आ पायेगा। पूना से डायरेक्ट फ्लाइट नहीं थी उसे मुंबई या दिल्ली होकर ही लखनऊ आना होगा। आदित्य  को अनुप्रिया को बताने के लिये कहने के बावजूद उसने अनुप्रिया को फोन मिलाया...। उसके फोन नहीं उठाने पर उसने अभिषेक को फोन मिलाकर सारी बातों से अवगत करा दिया, उसने उसे आने का आश्वासन दिया।

            भइया-भाभी को बता ही रही थी कि नर्स ने उसे दवाओं का पर्चा लाकर दिया तथा कहा, “आप इन्हें शीघ्र मंगा लीजिये। मरीज को देनी हैं।”

            फोन रखकर, अस्पताल की डिस्पेंसरी से दवा खरीदते हुये इला सोच रही थी कि इन बड़े और मंहगे अस्पतालों में दवा का इंतजाम भी अस्पताल वाले स्वयं क्यों नहीं करते, अगर पेशेंट का केयर टेकर न हो तो...? वह दवा लेकर आई.सी.यू. तक पहुंची तो नर्स ने आकर उससे दवायें लीं और अंदर चली गई। उसने आदेशजी  से मिलने की इच्छा जताई तो इमर्जेन्सी में बैठे व्यक्ति ने कहा, “अंदर जाने की इजाजत नहीं है। विजिटिंग समय में आप मिल सकती हैं।”

            तब तक भइया-भाभी भी आ गये...।भाभी ने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा, “घबराइये मत दी, सब ठीक जायेगा।”

            जीवन में पहली बार इला भाभी के कंधे पर सिर रखकर रो उठी थी...। मन का अंतर्दन्द्व उसे चैन ही नहीं लेने दे रहा था...। कहीं आदेशजी की यह हालत उसके साथ विवाह करने की वजह से तो नहीं हो गई है...!! वह अनुप्रिया को  नहीं मना पाये, कहीं यही बात तो उन्हें बेचैन नहीं कर रही है...!! एक बार उन्होंने कहा भी था…"इला, मैं सब कुछ सह सकता हूँ पर बच्चों के चेहरे पर दुख नहीं...।"

           उनके यूरोप से लौटे लगभग छह महीने हो गये थे। विशाखा ने उनका फोन नहीं उठाया था जबकि वह लगभग रोज ही उसे फोन करते थे...विशाखा के फोन न उठाने पर उनके चेहरे पर अव्यक्त तनाव छा जाता था। वह पूछती भी तो आदेश जी  कोई उत्तर नहीं देते थे जिसके कारण उनके अपने संबंध भी सहज नहीं हो पा रहे थे। वह उनका दुख समझ रही थी लेकिन   समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या करे ? और आज ये हालत !!

            विजिटिंग आवर में इला  आदेशजी से मिलने गई। डॉक्टर के अनुसार उनकी कंडीशन स्टेबिल थी किन्तु आदेशजी के  मुँह पर आक्सीजन मास्क, हाथ में सेलाइन चढ़ाने के लिये लगी डिप तथा हार्ट की कंडीशन मानीटर करने के लिये जगह-जगह लगे तारों को देखकर वह विचलित हो उठी। उसने आदेशजी के सिर पर हाथ रखा तो उन्होंने क्षणांश के लिये आँखें खोली फिर बंद कर लीं। 

वह उनके बेड के पास रखी चेयर पर बैठ गई। उन्हें निहारते हुए उसके मन में हलचल मची हुई थी…सच तो यह था कि आदेशजी की इस अवस्था के लिये वह स्वयं को ही दोषी मानने लगी थी। आज बार-बार उसके मन में आ रहा था कि क्यों उसने जल्दबाज़ी में विवाह कर लिया ?  क्या उसे और आदेशजी को अनुप्रिया की सहमति प्राप्त करने तक इस विवाह को टाल नहीं देना चाहिए था ? अब जब पानी सिर से गुजर चुका है, वह समझ नहीं पा रही थी कि कैसे क्या करे ? अगर वह आदेशजी की जिंदगी से हट जाए तो…हाँ यही ठीक रहेगा...।

            आदेशजी की हालत देखकर उसने मन ही मन निर्णय ले ही लिया कि अगर अनुप्रिया उनके संबंध को मान्यता देती है तब तो ठीक वरना वह पिता पुत्री के बीच दीवार नहीं बनेगी। उसने आदेशजी से प्यार किया है वह उनकी यादों के सहारे रह लेगी पर उनके दुख या तनाव का कारण नहीं बनेगी। घड़ी ने विजिटिंग आवर समाप्त होने की घोषणा की, इसके साथ ही उसे बाहर आना पड़ा।

            शाम लगभग पाँच बजे के करीब आदित्य और तृप्ति, अनुप्रिया और अभिषेक भी आ गये। आदित्य, तृप्ति  तथा अभिषेक उसके पास आकर अपने पापा का हाल-चाल लेने लगे वहीं अनुप्रिया दूर खड़ी हो गई मानो वह उसके लिए अजनबी हो। अनुप्रिया का रुख देखकर वह आदित्य, तृप्ति तथा अभिषेक से बातें करते हुए असहज महसूस कर रही थी। इस सबके बावजूद वह स्वयं अनुप्रिया की खींची लक्ष्मण रेखा को तोड़ कर,आगे बढ़कर अनुप्रिया से बात करना चाहती थी पर स्थिति की नजाकत समझकर उसने स्वयं को रोक लिया। विजिटिंग आवर शुरू हो गया था अतः उसने  पर्स से 'पास' निकालकर आदित्य को देते हुये अपने पापा से मिलकर आने के लिये कहा।

            पहले आदित्य मिलने गया। लगभग पाँच मिनट बाद बाहर निकलकर उसने अनुप्रिया को अंदर जाने के लिये कहा। अनुप्रिया अंदर गई...पापा की दशा देखकर उसकी आँखें भर आई तथा सुबकते हुये उसने उनके मस्तक पर हाथ रखा...। उसका स्पर्श पाकर उन्होंने आँखें खोली। उसे देखते ही उनकी आँखें भर आईं। वह कुछ कहना चाहते थे पर शब्द ठीक से नहीं निकल पा रहे थे अंततः उन्होंने अपने दोनों हाथ जोड़ दिये मानो वह उससे क्षमा माँगना चाहते हों...।

            “प्लीज, आप उन्हें कोई तनाव मत दीजिये। अभी ये किसी तनाव को झेलने की स्थिति में नहीं हैं...। वह तो इनकी पत्नी इन्हें समय पर ले आईं थीं वरना इन्हें बचा पाना भी कठिन होता। अब आप बाहर जाइये।” उसी समय डिप बदलने आई नर्स ने पेशेंट की मनोदशा देखकर उसे किनारे ले जाते हुये कहा।

            अनुप्रिया बाहर निकलते हुये सोच रही थी कि आदित्य  ठीक ही कह रहा था कि पापा को एक हमउम्र साथी की आवश्यकता है। वह क्यों नहीं समझ पा रही थी कि माँ के निधन  तथा उन दोनों के विवाह के पश्चात् पापा बेहद अकेले हो गये हैं। ऐसी स्थिति में अगर इला आंटी से उन्हें भावनात्मक संरक्षण मिल रहा है तो उसे आपत्ति क्यों हो रही है ? उसे पापा का उसे बार-बार फोन करना तथा उसके घर के दरवाजे से मायूस होकर लौटना याद आने लगा। एकाएक उसे लगा कि कहीं पापा की यह स्थिति उसकी अवहेलना की चरम परिणति तो नहीं...!!  तभी पापा की आँखें उसे देखकर भर आईं थीं। शायद इसीलिये कुछ न कह पाने की स्थिति में उन्होंने उसकी ओर देखते हुये अपने दोनों हाथ जोड़ दिये थे!! 

   वह इतनी हृदयहीन कैसे हो गई? पापा तो उसे बेहद चाहते हैं फिर वह उनकी भावनाओं का सम्मान क्यों नहीं कर पाई? वह अंदर ही अंदर टूटते रहे और वह बेरहम उस टूटन के दर्द को महसूस ही नहीं कर पाई...। वह नहीं समझ पाई कि जब वह उनके बार-बार फोन करने पर फोन नहीं उठाती थी तब वह कितना उदास होते होंगे...। कहीं पापा की इस अवस्था का कारण वह स्वयं तो नहीं? हाँ वही उनकी इस स्थिति के लिए उत्तरदाई है। अंतर्मन की आवाज सुनकर वह कह उठी… नहीं-नहीं अब वह स्थिति को और बिगड़ने नहीं देगी। पापा ने उसके और आदित्य के लिये अपनी पूरी जिंदगी न्यौछावर कर दी। माँ के निधन के पश्चात उन्होंने उन्हें माता-पिता दोनों का प्यार दिया है, अब वह फिर से अपनी जिंदगी जीना चाहते हैं तो उसे आपत्ति क्यों हैं?  वह अपनी भूल सुधार करेगी...। वह तुरंत इला के पास गई तथा उसका हाथ पकड़कर, उसे आई.सी.यू. की ओर ले जाते हुये कहा, “माँ, आप ही पापा को ठीक कर सकती हैं।”

            आदित्य, तृप्ति और अभिषेक आश्चर्य से अनुप्रिया में आये परिवर्तन को देख रहे थे। वह नर्स टोकने के बावजूद उनके केबिन में चली गई तथा पापा के हाथ में इला का हाथ पकड़ाते हुये कहा,”प्लीज पापा, मुझे क्षमा कर दीजिये।आपकी जितनी अच्छी देखभाल माँ कर सकती हैं उतनी मैं और आदित्य नहीं। आप दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। आप शीघ्र स्वस्थ होइये। देखिये माँ ने अपनी क्या हालत बना ली है!!”

            कहते हुए उसने पापा के एक हाथ में माँ का हाथ रख दिया...। आदेश जी के चेहरे पर आश्चर्य के भाव उभरे पर दूसरे ही क्षण चलसंतुष्टि का भाव लिये उन्होंने दूसरा हाथ अनुप्रिया की ओर बढ़ा दिया...। उनके सीने से लगते हुये अनुप्रिया सोच रही थी कि काश! यह फैसला वह पहले ले लेती तो आज यह दिन देखना न पड़ता। हम बच्चे ही अगर पालक के मनोभावों को नहीं समझेंगे तो कौन समझेगा? आखिर हर उम्र में इंसान को अपनी जिंदगी अपनी तरह से जीने का हक है। देर आये दुरुस्त आये...अब सब ठीक होगा। अपनों का प्यार इंसान में जीने की चाहत जगा देता है, पापा के चेहरे पर छाई संतुष्टि ने इस निर्विवाद सत्य से आज उसका परिचय करवा दिया था।

          वहीं इला सोच रही थी अनुप्रिया ने उसके मन के बदरंग हो आए इंद्रधनुष में अनेकों रंग भर दिये हैं। सच अजब रंग हैं जिंदगी के…कभी सुख कभी दुख यह जीवन के शाश्वत सत्य हैं। सुख में जो न बौरायें, दुख में जो न घबराए, इसके साथ ही जो जीवन के इन रंगों के बीच सामंजस्य बिठा लेता है, वह जिंदगी जी लेता है। अनायास ही उसने अनुप्रिया को गले से लगा लिया। अनुप्रिया भी बिना किसी प्रतिरोध के उसके गले से ऐसे लग गई मानो बहुत दिनों के पश्चात बिछड़ी हुई माँ बेटी का मिलन हो रहा हो। 

उन दोनों का मिलन देखकर आदेश जी के चेहरे पर छाई खुशी की  सीमा नहीं रही। अपराध बोध से मुक्ति के एहसास के साथ उन्हें ऐसा लग रहा था मानो वह कोई सपना देख रहे हों। सपना टूट न जाए इसलिए उन्होंने अपनी आँखें बंद कर लीं थीं पर मन कह रहा था…सच जिंदगी के भी कई रंग होते हैं पर सबसे प्यारा रंग है रिश्तों में अपनेपन का, प्यार का विश्वास का…इला और अनुप्रिया को गले मिलते देखकर उन्हें ऐसा महसूस हो रहा था कि प्यार का यह रंग कभी नहीं छूटेगा।

       

सुधा आदेश    

 समाप्त