Friday, July 19, 2013
मन
मन
मन सा चंचल,मन सा दुर्गम, मन सा गतिशील,
मन सा स्थिर जग में जड़ या चेतन कोई नहीं है...
मन हँसे तो जग हँसे, मन कलपे तो जग कलपे...
मन की अबाध गति को आज तक कोई नहीं समझ पाया है...कभी बड़ी से बड़ी घटना पर मन कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करता तो कभी छोटी सी घटना दुख के सागर में डुबो देती है...मन तो मन है फिसला तो हँसी का कारण बन गया, अगर सत्कर्म में लीन रहा तो जहाँ को एक नई रोशनी दे गया...सबसे बड़ी बात, मन जैसा चाहे वैसा होता रहे तो सब ठीक वरना एक चिंगारी आक्रोश की दुनिया को तहस-नहस करने की क्षमता रखती है ।सुख-दुख को महसूस करने वाला मन ही वास्तव में मन कहलाने का अधिकारी है...मन में उमड़ते-घुमड़ते विचारों से भरा पूरा मन कभी अपने निकटस्थ संगी साथियों को अपनी बात बताते हुए कहता है प्लीज किसी से न कहना...तो कभी सामाजिक विषमता,रूढ़िवादिता तथा ढकोसलों से आहत मन, परम्पराओं को चुनोती देता अपनी चुनी रह पर चलते हुए कह उठता है, आई डोंट केयर...।
समाज में व्याप्त टूटन,घुटन,संत्रास,भेदभाव,अविश्वास तथा विश्वासघात का मन मूकदर्शक बंता जा रहा है...दर्द है मन के संवेदनशून्य होने का...एक दूसरे की भावनाओं को न समझ पाने का...सामाजिक अव्यवस्था के प्रति आक्रोश ने मन को सदा उद्द्वेलित किया है...दर्द से जीवन की उत्पत्ति होती है,इससे भला कोन अपरिचित है...बस यहीं से रचनाकर की यात्रा प्रारम्भ होती है...।
सुधा आदेश
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