Thursday, March 26, 2020

कैसी खामोशी ?

कैसी खामोशी 

यह कैसी दहशत
 कैसा डर कैसी खामोशी 
 छाई आज चुहुँ ओर । 

 इंसान ही इंसान का
 बन बैठा दुश्मन 
छिपा बैठा अपने ही बिल में...।

  हराना है गर 
इस सूक्ष्म वायरस को 
सामाजिक दूरी है 
आज जरूरी । 

 शेखी में गर 
बाहर निकले तुम 
लील जाएगा 
यह क्रूर वायरस जिंदगी ।

 नहीं देखेगा तुम्हारा 
सूट बूट से सजा शरीर 
न छोड़ेगा 
किसी गरीब की कुटिया ।

 सब बराबर हैं इसके लिए 
 बेमतलब के टोटके 
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, 
चर्च भी न बचा पायेंगे तुम्हें...। 

 हाँ जाते-जाते 
 संदेश जरूर दे जाएगा 
देश, जाति, धर्म भाषा से परे 
हम सिर्फ मात्र शरीर हैं ...। 

 शांति से रहो, 
शांति से रहने दो 
वसुधेव कुटुम्बक 
 मात्र शब्द नहीं, सच्चाई है ।

 सुधा आदेश

Monday, March 23, 2020

जीने की नई राह

जीने की नई राह प्रियंका गिल कमरे में बेचैनी से चहलकदमी कर रही थी दिसंबर की कड़क सर्दी में भी माथे पर पसीने की बूंदें झलक रही थी आई थी अपनी बेचैनी कम करने के इरादे से गिलास में पैक बनाकर कमरे में पड़ी आराम कुर्सी पर बैठ गई … राज जिसके घर जाने से ना तो वह स्वयं को रोक पाती थी ना ही वहां से आने के पश्चात सहज हो पातीं थीं । आज उसने जो देखा सुना, उसे महसूस कर वह आश्चर्यचकित थीं... क्या किसी रिश्ते में इतना माधुर्य, एक दूसरे के प्रति चिंता एवं समर्पण भी हो सकता है ? आज प्रियंका राज के घर बिना बताए चली गई थी । संयोग से दरवाजा खुला था । वह बिना घंटी बजाये ही अंदर चली गई । उसने देखा कि राज की पत्नी आरती उससे चाय पीने का आग्रह कर रही है, वहीं उसकी बड़ी बेटी शिखा उसके माथे पर बाम लगा रही है तथा छोटी बेटी शेफाली अपने नाजुक हाथों से उसके पैर दबा रही है । उसे देखते ही राज उठ खड़ा हुआ तथा झेंपती हंसी के साथ बोला , 'जरा बुखार क्या हो गया, तीनों ने घर आसमान पर उठा लिया । चाय के नाम पर काढ़ा पीना पड़ रहा है ।' ' देखिए न, तीन दिन से बुखार है... ऑफिस जाने के लिए मना किया था पर माने ही नहीं, न डॉक्टर को दिखाया... ऑफिस से भी अभी-अभी आए हैं स्वास्थ्य की ओर बिल्कुल भी ध्यान नहीं देते हैं ।' आरती ने राज की ओर देखते हुए शिकायती स्वर में कहा । ' जुकाम की वजह से थोड़ी हरारत हो गई थी । अब इतनी सी बात के लिए डॉक्टर के पास क्या जाना !!' राज ने सफाई देते हुए कहा । सवाल जवाब में छुपे प्यार ने प्रियंका को झकझोर कर रख दिया था । जरा से जुकाम में पत्नी की पति के लिए इतनी चिंता... उसे सुखद एहसास दे गई थी । उसे याद आए वे दिन जब वह मलेरिया से पीड़ित हो गई थी । यद्यपि पूरा स्टाफ उसके स्वास्थ्य के बारे में चिंतित था... डॉक्टर घंटे- घंटे पर फोन कर उसका हाल लेते रहते थे पर उसमें यह अपनत्व और चिंता कहां थी । वह तो अपना अपना कर्तव्य निभा रहे थे । उसकी जगह यदि और कोई भी होता तो उसके साथ भी उनका यही व्यवहार होता । उनका व्यवहार उनकी कुर्सी के प्रति था ना कि उसके प्रति लगाव के कारण...। आज उसका यदि स्थानांतरण हो भी जाए तो ऐसी स्थिति में इनमें से शायद ही कोई उसका हाल चाल पूछने आए । उसने नाम और शोहरत तो बहुत कमा ली थी पर दिल एकदम खाली था । इस पूरी दुनिया में अपना कहने लायक मां-बाप के बाद शायद ही कोई बचा था । अपने अहंकार और अहम के कारण वह स्वयं अपने परिवार से दूर होती चली गई थी । वैसे भी परिवार के नाम पर बस एक चाचा और एक बुआ ही तो थे । जब भी वे आते उसे लगता कि उन्हें उससे कोई काम होगा , तभी आये हैं । धीरे-धीरे उनका आना बंद हो गया । पिछले दस वर्षों से वह उनसे मिली ही नहीं है । राज और आरती के नोंक-झोंक में आज उसे रिश्तों की गर्माहट का अहसास हो चला था । शायद यही कारण था कि मां -पापा दो अलग अलग व्यक्तित्व होते हुए भी सदा साथ -साथ रहे । कहीं ना कहीं उनके बीच प्यार का सेतु अवश्य रहा होगा जिसे पापा का उग्र स्वभाव भी नहीं तोड़ पाया अगर ऐसा नहीं होता तो क्या वह पूरी जिंदगी एक साथ बिता पाते । वही उनके दिलों में छिपे प्यार को पहचान नहीं पाई थी । प्रियंका को आज लग रहा था कि वह पापा की उम्मीदों पर अवश्य खरी उतरी थी पर मन का एक कोना इतना सब पाने के पश्चात भी सूना रह गया था । सीढ़ी दर सीढ़ी सफलता के सोपानों पर चढ़ती, वह स्वयं को आम औरतों से अलग समझने लगी थी जिसके कारण उसका रहन सहन और बात करने का तरीका भी अलग हो चला था । स्त्री सुलभ लज्जा का उसमें लेश मात्र भी अंश नहीं था । पर क्या वह मन के नारीत्व को मार पाई ? यह सच है कि पिता उसके आदर्श रहे थे । वह उन्हीं के समान स्वतंत्र और निर्भीक जीवन व्यतीत करना चाहती थी । वह माँ की तरह बंद दरवाजे के भीतर घुटन और अपमान भरी, चौके चूल्हे तक सीमित जिंदगी नहीं जीना चाहती थी । पर अब लगता है कि पापा ने न माँ के साथ न्याय किया और ना ही उसके साथ ...माँ के ज्यादा उनसे ज्यादा पढ़े होने के कारण वह सदा उन्हें नीचा दिखाते रहे । उनकी सही बात को भी वह अपने पुरूषोचित अहंकार के कारण सदा गलत साबित करते रहे । अपनी कमी को उसके द्वारा पूरी करने की धुन में उन्होंने उसके नारीत्व को तो भी रौंद डाला । बचपन से लड़कों के कपड़े पहनने के कारण उसका स्वभाव भी लड़कों जैसा ही बन गया था । पिताजी के उपदेशों का ही असर था कि जब भी माँ उसके विवाह की बात चलतीं, वह बिगड़ उठती ...। उसे लगता.. क्या वह किसी अनजान आदमी के साथ समझौता कर पायेगी ? क्या वह अपनी पूरी जिंदगी उसके बच्चों को बड़ा करने में बिता देगी ? उसके अपने कैरियर का क्या होगा ? वह विवाह करके अपने कैरियर को तहस-नहस नहीं करना चाहती थी । ना ही अपनी स्वतंत्रता में किसी का दखल चाहती थी । उसे लगता था कि बंधन हमेशा इंसान को कमजोर बनाते हैं । आखिर क्या कमी है उसे , अच्छा पद है, पैसा है , फिर क्यों किसी का आधिपत्य स्वीकारे ? ' एकला चलो रे 'का मूल मंत्र अपनाते हुए उसने स्वयं को विवाह रूपी बंधन से मुक्त रखने का निश्चय कर लिया था । अकेले पुरुष के कम से कम पुरुष मित्र तो बन जाते हैं पर अकेली औरत पुरुष मित्र तो क्या स्त्री मित्र भी नहीं बना पाती । खासतौर पर उसकी तरह ऊँचे पद पर बैठी थी स्त्रियां... स्वयं को श्रेष्ठ समझने के कारण वे आम स्त्रियों से मित्रता कर ही नहीं पातीं यदि किसी से मित्रता करना भी चाहतीं हैं तो उक्त स्त्री के अंदर पनपी ईर्ष्या या अपने पति को खोने का डर मित्रता पनपने ही नहीं देता । आरती उसे इन सबसे अलग लगी । राज से उसे बातें करते देखकर ना तो उसके अंदर ईर्ष्या जागृत हुई और ना ही कभी मन में कोई कड़वाहट जगी । राज भी उससे सहजता से बातें करता था । कभी आफिस की तो कभी कॉलेज के दिनों की... वह भी सदा उन की हंसी मैं शामिल होती थी । शायद यही कारण था कि ऑफिस से आने के बाद, वह कभी बताये या कभी बिना बताए उसके घर पहुंच जाती... दोनों ही स्थितियों में उसका स्वागत होता । जब उसे पता चला कि आरती सी.ए है तो उसने उससे कैरियर के बारे में पूछा तब उसने कहा ,' दीदी , विवाह से पूर्व में एक प्राइवेट कंपनी में अकाउंट ऑफिसर थी लेकिन राज यहाँ और मैं वहाँ.. क्या फायदा ऐसी नौकरी से , जब अलग- अलग रहना पड़े !! इसलिए मैंने नौकरी छोड़ने का निर्णय ले लिया और आज मुझे अपने निर्णय पर कोई पछतावा नहीं है । अभी मेरे लिए अपने कैरियर से ज्यादा बच्चों की उचित देखभाल एवं परवरिश जरूरी है । लेकिन अभी भी आवश्यकता पड़ने पर या राज के बाहर रहने पर ऑफिस मैं ही संभालती हूँ... काम छोड़ा नहीं है । हाँ दायित्वों के कारण कुछ कमी अवश्य आई है ।' पति पत्नी के बीच प्यार , विश्वास और पारदर्शिता पर निर्भर है । राज ने आरती को न केवल अपने अतीत के बारे में सब कुछ बता दिया था वरन वर्तमान में भी उसके साथ पूरी तरह समर्पित था तभी उनमें ना कोई कुंठा थी और ना ही कोई डर । उसे वह दिन याद आया जब वह राज से मिली थी ...उसे इस शहर में आए कुछ ही दिन हुए थे कि उसे अपने सहयोगी पाठक के पुत्र के विवाह के स्वागत समारोह में जाना पड़ा । पार्टी पूरे जोश पर थी । वर-वधू को आशीर्वाद देने के पश्चात खाना खा ही रही थी कि एक जोड़ा उसके सामने आकर खड़ा हो गया । वह कुछ सोच पाती, उससे पहले ही वह व्यक्ति अभिवादन करते हुए बोला,' क्या आपने मुझे पहचाना ? मैं आपका सहपाठी... राजसक्सेना ।' ' ओह ! राज.. बहुत बदल गए हो... कैसे हो ? क्या कर रहे हो आजकल ? ' अचानक फ्लैश की तरह सब कुछ सामने आ गया था । राज उसका सहपाठी था । स्कूल से दोनों का साथ रहा था । उसकी इच्छा सिविल सेवा में जाने की थी वहीं राज सी.ए. करके अपनी एक अलग कंपनी खोलना चाहता था । उसे लगता था कि सिविल सेवाओं में आज योग्यता की नहीं वरन चापलूसी करने वाले व्यक्तियों की आवश्यकता है जो स्थितियों के अनुकूल गिरगिट की तरह रंग बदलते रहें जबकि वह सोचती थी अगर व्यक्ति में योग्यता है ,आंतरिक शक्ति है ,कुछ कर गुजरने की क्षमता है तो वह दूसरों से अपनी बात मनवा सकता है । कायर लोग ही दूसरों के सामने घुटने टेकते हैं । मंजिलें अलग -अलग थीं अतः वे अलग हो गए ... फिर भी जब भी समय मिलता, वे अवश्य मिलते । अपनी खुशी, अपने गम एक दूसरे के साथ अवश्य बाँटते । अपनी मंजिल पाने के पश्चात राज ने अपने प्यार का इजहार करते हुए विवाह का पैगाम प्रियंका के पास भेजा था । उसके मन के किसी कोने में भी राज के लिए सॉफ्ट कॉर्नर था पर विवाह रूपी बंधन में बंधकर वह अपना कैरियर नष्ट नहीं करना चाहती थी । उसका तटस्थ सुहाग देखकर राज ने भी उसके द्वारा निर्मित लक्ष्मण रेखा को कभी पार करने की चेष्टा नहीं की थी और वह स्वयं भी सिविल सेवाओं की कोचिंग के लिए दिल्ली चली गई थी जिससे जिसके कारण उनका संपर्क भी टूट गया था । ' मैं तो ठीक हूँ, वही वैसा ही... पर आप वैसी नहीं रहीं ...।' राज ने उसी जिंदादिली से अपनी बात कही । ' मैं वैसी नहीं रही ...।'उसकी बात सुनकर अतीत से वर्तमान में आते हुए प्रियंका ने आश्चर्य से पूछा । ' मेरे कहने का तात्पर्य यह था की अब आप पहले वाली प्रियंका नहीं रही... अब तो मेरे लिए आप प्रियंका गिल हैं, एक जाने-माने हस्ती ...हमारे शहर की कमिश्नर ...।' एक बार फिर उसके स्वर में खुशी झलक आई थी । उसकी बात सुनकर, प्रियंका के चेहरे पर अनायास ही मुस्कान आ गई । इतने दिनों में पहली बार उसे सहज और स्वाभाविक स्वर सुनने को मिला था वरना यस मैम , आपने बिल्कुल ठीक कहा ...जैसे शब्द ही उसे सुनने को मिलते थे । वह कुछ कहती, इससे पहले उसने एक स्त्री से उसे मिलवाते हुए कहा, ' इनसे मिलिये ...यह हैं मिसेज आरती सक्सेना, मेरी धर्मपत्नी ...।' प्यार से अपनी पत्नी की ओर देखते हुए राज ने कहा । ' इन्होंने आपको देखते ही पहचान लिया और मुझे आपसे मिलवाने ले आए ।' आरती ने उसका अभिवादन करते हुए कहा । कहीं कोई ईर्ष्या या द्वेष की भावना उसके स्वर या आंखों में नहीं झलकी जैसाकि आम औरतों की निगाहों में उसने देखा था , जब वह उनके पतियों से बातें कर रही होती थी । आरती उसे बेहद आकर्षक, समझदार एवं सुलझी हुई लगी । वह कुछ उत्तर दे पाती कि वह पुनः बोली, ' दीदी यदि आपको कोई आपत्ति ना हो तो कल का डिनर आप हमारे यहां करें । यह आपको लेने पहुंच जाएंगे ।' ' लेकिन…' प्रियंका समझ नहीं पा रही थी कि वह उनका आतिथ्य स्वीकार करें या ना करें । 'लेकिन वेकिन कुछ नहीं दीदी... आपको आना ही होगा आखिर आप इनकी बेस्ट फ्रेंड रही है । ये जब तब आपका जिक्र करते रहते हैं और आज जब आप मिल ही गई हैं तो आपको हमारा आतिथ्य स्वीकार करना ही पड़ेगा ।' आरती ने जोर देकर कहा । ' ठीक है ।' उसने कह तो दिया था पर उसे लग रहा था कि इनको भी अन्य लोगों की तरह उससे कोई काम तो नहीं है वरना इस तरह आकर मिलना, खाने का आग्रह करना ...अनचाहे विचारों को झटक कर उसने सकारात्मक सोच अपनाई । माँ- पिताजी की मृत्यु के पश्चात पहली बार किसी ने उससे इतनी आत्मीयता से बातें की थीं वरना जो भी लोग मिलते थे ,उनके व्यवहार में चापलूसी ज्यादा रहती थी । किसी से पारिवारिक मित्रता का तो प्रश्न ही नहीं था । वैसे भी उसने स्वयं को सदा रिजर्व रखा था जिससे कि उसका नाम व्यर्थ ना उछले । वैसे भी उसे अपनी ड्यूटी के अलावा इतना समय ही नहीं मिलता था कि वह इधर घर बैठे । जो समय बचता था उसमें वह क्लब में ब्रिज खेलती, ड्रिंक करती तथा देर रात तक लौट कर सो जाती थी । यही उसकी दिनचर्या थी । राज का उससे इतने अपनत्व से मिलना तथा घर बुलाने के लिए आग्रह करना, वह समझ नहीं पा रही थी कि क्या करें ? वह सोच ही रही थी कि नौकर ने राज के आने की सूचना दी । पता नहीं क्यों वह मना नहीं कर पाई तथा साथ चली गई । आरती उसका इंतजार कर रही थी । उसकी दोनों बेटियां भी गाड़ी रुकते ही तुरंत बाहर निकल आईं तथा अभिवादन करते हुए अपना- अपना परिचय दिया । सुरुचि घर के कोने कोने में झलक रही थी । खाना भी लज़ीज़ एवं जायकेदार था । उनका आतिथ्य भोगकर वह घर चली आई थी पर मन वहीं रह गया था । आज सब कुछ है उसके पास.. मान-सम्मान, नौकर चाकर ,गाड़ी, पैसा लेकिन घर नहीं है जहां कुछ पल बैठकर वह तनाव मुक्त हो सके । अपना सुख -दुख किसी से बांट सके । यह वही राज था जिसने उससे अपने प्यार का इजहार करते हुए सदा साथ चलने की इच्छा जाहिर की थी पर उसने मना कर दिया था । वह उसका मित्र अवश्य था पर उसका ड्रीम मैन नहीं । वैसे भी उस समय उसे विवाह बंधन लगता था । पता नहीं क्यों राज के परिवार से उसे इतना लगाव हो गया था कि वह अक्सर उनके घर जाने लगी थी । वे भी उसके आने पर खुश होते । बाहर घूमना, खाना -पीना भी साथ-साथ होने लगा था पर आज की स्वस्थ तकरार ने उसके दिल में एक हूक पैदा कर दी थी...काश ! उसका भी ऐसा ही घर परिवार होता जिसमें एक दूसरे के प्रति इतना लगाव , इतनी चिंता होती । आज उसे अपना पद ही अपना दुश्मन लगने लगा था । वह अलग-थलग पड़ती जा रही थी । वी.आई.पी . का सम्मान तो उसे मिलता था पर दिल के इतना करीब कोई नहीं था जिसे अपना मित्र ,सखा या सहचर कह सके । प्रकृति के विरुद्ध जाने का साहस तो उसने कर लिया था पर आज वह सिर्फ प्रियंका गिल बनकर रह गई है । विभिन्न रिश्ते जिसमें बंधकर इंसान , अपनी जीवन की नैया की कठिन से कठिन घड़ियों को हंसते -हंसते पार कर लेता है वह उनसे दूर थी । उसने अपनी मंजिल भले ही पाली हो पर जीवन की अकेली और रूहों को कैसे पार करेगी जो इस मंजिल के पूरे होने के बाद वृद्धावस्था में आएंगे सोचकर वह सिहर उठी । आज प्रियंका को माँ बहुत याद आ रही थी जो उसके आचार -विचार ,लक्षण एवं विवाह के प्रति नकारात्मक रूप देखकर कहती,' बेटा, तुम ऊँचा अवश्य उठो पर यह मत भूलो कि तुम एक स्त्री हो, नारीत्व से विमुख स्त्री कहीं की नहीं रहती... सच तो यह है कि नारी की शोभा माँ बनने में है । स्त्री चाहे कितनी भी ऊंची क्यों ना उठ जाए , मां बने बिना वह अधूरी ही है । आज उसे माँ के कहे शब्द अक्षरशः सत्य लग रहे थे । शिल्पी और शिखा की मासूमियत ने उसके अंदर के मातृत्व को जागृत कर दिया था । इस उम्र में विवाह .. .अब यह संभव नहीं है ...जिस स्वतंत्रता से वह आज तक रहती आई है उसमें बंदिश क्या वह सह पाएगी ? यह जिंदगी उसने अपने उसूलों पर चलकर बनाई है फिर अफसोस, दुख और निराशा क्यों ? सोचकर वह मन को समझाती पर दूसरे ही पल दूसरा विचार हावी हो जाता ...तो क्या पूरी जिंदगी उसे यूं ही अकेले तन्हाइयों में काटनी पड़ेगी ...। आखिर किसके लिए इतनी मेहनत कर रही है ? जिंदगी निरूद्देश्य नजर आने लगी थी... जब दिमाग में तरह-तरह के विचार हावी हो तो भला नींद कैसे आती ? ड्रायर से नींद की गोली निकाल कर खाई तथा सोने की कोशिश करने लगी.. । दिन कट रहे थे पर फिर भी कभी-कभी मन बेहद उदास होता था । एक दिन अखबार पढ़ते -पढ़ते प्रियंका की निगाह एक लेख पर पड़ी... भारत में भी सिंगिंल पेरेंटिंग का प्रचलन बढ़ा है... अचानक उसे लगा कि उसके एकाकीपन का एक यही हल है , जिसमें ना तो उसे अपने स्व की तिलांजलि देनी होगी और ना ही अपने एकाधिकार पर किसी का आधिपत्य स्वीकार करना पड़ेगा । इससे उसे अकेलेपन से भी मुक्ति मिल जाएगी तथा कोई तो ऐसा होगा जिसे वह सिर्फ अपना कह सकेगी । सच है नकारात्मक विचार जहाँ निराशा का संचार करते हैं वही सकारात्मक विचार आशा का । आशा- निराशा , दुख -सुख तो जीवन में आयेंगे ही पर मनुष्य वही है जो इन सबके बीच भी सामान्य जिंदगी जीने की कोशिश करें । जीने के लिए एक सहज मार्ग तलाश ले । इसी के साथ प्रियंका ने एक निश्चय कर लिया कि वह अनाथ आश्रम से बच्चा गोद लेकर अपने जीवन को नया आयाम देने का प्रयत्न करेगी । वह बच्चा न केवल उसके जीवन के अधूरेपन को दूर करेगा वरन बुढ़ापे में भी जीने का संबल बनेगा । उसकी मासूम हँसी में वह अपने दुख अपनी परेशानियां भूलकर नए दिन का प्रारंभ नवउमंग नवउत्साह के साथ किया करेगी । एकाएक ममत्व का सूखा स्रोत बह निकला । ' एकला चलो रे ' का मूल मंत्र उसने अपने मन से निकाल फेंका । उसी दिन अनाथ आश्रम से बच्चा गोद लेने का निर्णय किया । इस कार्य को अंजाम देने के लिए उसके मुच् दिन बेहद व्यस्तता में गुजरे । आखिर वह दिन भी आ गया जिस दिन उसकी गोद मे नन्ही गुड़िया मुस्कराई । उस अनजान प्राणी को गोद में लेते ही उसके संपूर्ण व्यक्तित्व में पूर्णता का अहसास जग गया । उसकी मासूम मुस्कुराहट ने उसे जीवनदान दे दिया । मन का अवसाद कोसों दूर भाग गया था.. उसे जीने की नई राह मिल गई थी । सुधा आदेश

Thursday, March 19, 2020

मृगतृष्णा के पीछे

स्टोरी मिरर मृगतृष्णा के पीछे परिमल की कार ने जब आलीशान बंगले के आहते में प्रवेश किया तो दरबान ने दौडकर सलामी देते हुए दरवाजा खोला । पल्लवी को न देखकर वह थोड़ा चौंका क्योंकि वह सदैव ही कार की आवाज सुनकर अपनी मधुर मोहनी मुस्कान के साथ वह बाहर आ जाती थी । शयनकक्ष में पल्लवी को चादर ओढ़े सोते देख अजीब आशंका से त्रस्त उसने पूछा,‘क्या बात है मैडम, तबियत तो ठीक है ।’ प्यार से वह उसे मैडम कहकर ही पुकारता रहा है । ‘तबियत तो ठीक है किन्तु मन अच्छा नहीं है, सुबह क्या वायदा करके गये थेे याद नहीं है ?’ मुँह फुुलाकर पल्लवी ने उत्तर दिया । ‘ओह ! आई एम वेरी सारी, माई डियर,सच आफिस के काम में इतना व्यस्त हो गया था कि याद ही नहीं रहा । कोई बात नहीं है, कल हम मैडम को पिक्चर दिखाने अवश्य ले जायेंगे ।’ ‘ पिछले पाँच दिनों से यही बात सुन रही हूँ ,न जाने तुम्हारा कल कब आयेगा ?’ तनिक क्रोध में पल्लवी ने कहा । ‘तुम तो जानती ही हो, तुम्हारा यह गुलाम इस जिले का जिलाधिकारी है, कानून और व्यवस्था की सारी जिम्मेदारी मुझ पर है, पल में कहीं भी कोई भी घटना घटने पर मेरा कार्यक्रम भी बनता बिगड़ता रहता है । इस बार होली और बकरा ईद पास-पास होने से व्यस्तता थोड़ी ज्यादा ही बढ़ गई है ।’ ‘ पर मैं अकेली बैठी-बैठी क्या करूँ ?’ ‘क्या कमी है तुम्हे ? प्रत्येक सुख-सुविधा तो है तुम्हारे पास,सिर्फ आदेश देने की देर है आखिर तुम एक जिलाधिकारी की पत्नी हो....एक छोटी रियासत के राजा की रानी ।’ प्यार से उसे अंक में समेटते हुए परिमल ने कहा । ‘परन्तु मुझे तुम्हारा साथ चाहिये....। ये सुख-सुविधायें भी तुम्हारे सामीप्य के बिना अधूरी हैं । क्यों न हम कहीं घूमने चले ? प्रकृति की हसीन वादियों में हाथ में हाथ डालकर घूमेंगे या समुद्र की अठखेलियाँ करती लहरों के मध्य तपती रेत में अपने भविष्य के सपने चुनेंगे...।’ उल्हासित पल्लवी ने उसके सीने के बालों से खेलते हुए कहा । ‘साहब , एस.पी. साहब आये है । ’ अर्दली ने कमरे से बाहर से ही कहा । ‘ उन्हें बिठाओ, मैं अभी आता हूँ ।’ कहते हुए परिमल ने धीरे से पल्लवी को हटाया तथा बाहर चले गये...। पल्लवी को नैनीताल में बिताये हनीमून के दिन याद आयेे जब जीवन में सिर्फ प्यार ही प्यार था न दिन थेे और न रात...। कब सुबह होती थी और कब शाम, पता ही नहीं चलता था । कभी नैनी झील में बोटिंग करते, कभी माल रोड पर हाथ में हाथ डाले निरूउद्देश्य घूमते तो कभी प्रकृति के मनोहारी सौन्दर्य को कैमरे में कैद करने का प्रयास करते....वे सुनहरे दिन न जाने कहाँ खो गये ? समय की अबाध गति को क्या कोई रोक पाया है ? ‘पल्लवी, अराजक तत्वों ने लूट-मार प्रारंभ कर दी है अतः मैं जा रहा हूँ । कब तक लौटूँगा कह नहीं सकता अतः इंतजार मत करना...डर की कोई बात नहीं है ।’ परिमल की आवाज ने अतीत के सुनहरे स्वप्नों को भंग कर दिया था तथा वर्तमान के कठोर धरातल पर परिस्थतियों से जूझने के लिये छोडकर तुरन्त ही चला गया । पल्लवी की आँखों से अश्रुधारा बह निकली । क्या इसीलिये पापा ने उसका विवाह किया था ? परिमल की चौबीस घंटे की डियूटी और वह पिंजडे में कैद एक पंक्षी की तरह जीवन व्यतीत कर रही थी । पिंजडा चाहे कितना ही खूबसूरत क्यों न हो, कैद तो कैद ही है । कई बार लेडीज क्लब जाकर मन बहलाने का प्रयत्न किया किन्तु वहाँ सास पुराण एवं ननद पुराण सुनकर मन घबराने लगता...। हाउजी से उसे प्रारंभ से ही नफरत थी । कालेज से पढ़कर निकली ही थी कि पापा ने योग्य लडका देखकर विवाह कर दिया । परिमल माता-पिता की इकलौती संतान थे । उनकी माताश्री का देहावसान जन्म के पश्चात् ही हो गया था । पिताश्री काॅलेज में प्रिसीपल थे । पिता के व्यक्तित्व के प्रभाव के कारण परिमल भी उन्हीं की तरह अनुशासन प्रिय एवं मेधावी थे । प्रथम प्रयास में आई.ए.एस. की प्रावीण्य तालिका में नाम अंकित होना गौरव की बात थी और शायद इसी योग्यता के कारण उसके करोड़पति पिता ने अनेकों युवकों में से उसे चुना था । अपनी योग्यता, मेहनत एवं कुशलता के कारण चार वर्षो के अंदर ही जिले का स्वतंत्र भार उसे सौंप दिया गया था । जिलाधिकारी के रूप में यहाँ उनकी पहली पोस्टिग थी अतः कार्य के प्रति अत्यन्त उत्साह एवं लगन से पूर्णरूप से समर्पित थे । समस्त नाते-रिश्तेदार,सखी सहेलियाँ उसके भाग्य से ईर्ष्या करती....आई.ए. एस. वर भाग्यशालियों को ही मिलता है । सम्पूर्ण भारत में यही एक ऐसी नौकरी है जो शाही सुख-सम्मान प्रदान करने वाली होती है । वह स्वयं भी परिमल की वाकपटुता एवं व्यक्तित्व से अत्यंत प्रभावित हुई थी किन्तु मालूम नहीं था कि गुलाब काँटों में ही पलता है,वाली कहावत यहाँ चरितार्थ होने वाली है । उसके पिता व्यवसायी हैं । व्यवसाय के सिलसिले में उन्हें अक्सर बाहर जाना पड़ता था अतः उसकी माँ की जिद थी कि वह अपनी पुत्री का विवाह एक नौकरी वाले से ही करेगी चाहे वह क्लर्क ही क्यों न हो....? कम से कम बेटी को वह सुख....सामीप्य तो मिले जिसके लिये वह जीवन भर तरसती रह गई....काश ! माँ देख पाती उनकी बेटी कितनी सुखी है ? पिछले वर्ष ही वाइरल फीवर ने उन्हें मौत के आगोश में सुला दिया था....अंतिम समय में भी पापा बिजनिस टूर पर सिंगापुर गये हुए थे । घड़ी ने बारह बजाकर दूसरे दिन के आगमन की सूचना दी, पता नहीं कब तक आयेंगे परिमल ? सोचते-सोचते न जाने कब आँख लग गई । चिड़ियों की चहचहाहट तथा खिडकी से झांकती सूरज की पहली किरण ने सुबह होने की सूचना दी । परिमल को फोन लगाया...नाॅट रीचेबिल बता रहा था । टेलीफोन अटेन्डेंट को बुलाकर पूछा कि क्या साहब का कोई संदेश आया ? नकारात्मक उत्तर प्राप्त कर मन खिन्न हो उठा किन्तु साथ ही में अजीब आशंकायें मन को घेरने लगी....माना सुरक्षा गार्ड साथ में रहते हैं किन्तु जिन व्यक्तियों के मन में ममता, मोह, प्रेम जैसी भावनाओं का अभाव हो वह कुछ भी कर सकते हैं । मन में उहापोह मची हुई थी कि टेलीफोन अटेन्डेट ने फोन का रिसीवर उसे पकड़ाते हुये कहा , ‘साहब का फोन है ।’ ‘ पल्लवी, तुम्हारा फोन स्विच आफ आ रहा है... मैं शाम तक ही आ पाऊँंगा, काफी दंगा फसाद हुआ है लगभग दस लोग मारे जा चुके हैं, कुछ जख्मी हैं, उन्हें अस्पताल पहुँचाने तथा स्थिति को सामान्य बनने में थोड़ा समय लगेगा अतः दोपहर के खाने पर मेरा इंतजार मत करना ।’ पल्लवी ने फोन उठाया तो वह डिस्चार्ज था...वह शायद उसे चार्जिग में लगाना भूल गई थी । पल्लवी जो कुछ क्षण पूर्व अनेक दुश्चिंताओं से घिरी हुई थी अचानक क्रूर हो उठी । वह यह भी भूल गई कि किन परिस्थितियों एवं कि कारणों ने परिमल को रूकने के लिये मजबूर किया है ? क्रोध में बिना कुछ कहे ही रिसीवर क्रेडिल पर रख दिया । ‘ इंतजार मत करना....’ परिमल के कहे शब्द बार-बार उसके मनमस्तिष्क पर प्रहार करने लगे....कितना सहन करूँ ? जब परिमल को मेरी चिंता नहीं है तो मैं उनकी चिंता क्यों करूँ ? अब मैं यहाँ नहीं रहूँगी, उसे अपनी चचेरी बहन चित्रा एवं महेश जीजू याद आये....वह उनसे से परिमल की तुलना करने लगी यद्यपि परिमल महेश से बीस ही थे किन्तु वह महेश की जिंदादिली की कायल थी । वह ऐसे इंसान थे जो मुर्दो में जान फूँकने की क्षमता रखते हैं । एक समय उसके आदर्श पुरूष रहे थे....उनके जैसे ही पुरूष की कल्पना उसने अपने जीवन साथी के लिये की थी । उसे याद है वह दिन जब वह अपनी प्रिय सखी की आसामयिक मृत्यु के कारण दुखी थी । जीवन की क्षणभंगुरता उसे व्यथित किये जा रही थी । हम एक निर्जीव वस्तु खरीदते हैं तब भी हमें मालुम होता है कि वह कितने वर्ष हमारा साथ देगी लेकिन हमारे अपने जिनसे कुछ क्षण पूर्व हम हँसते खेलते भविष्य के ताने बाने बुन रहे होते है अचानक बिखर जायेंगे, कल्पना भी असंभव लगती है लेकिन ही जीवन का शाश्वत सत्य बन जाता है । उसी समय महेश जीजू एवं दीदी आ गये, उसे उदास देखकर उन्होंने जीवन का रहस्य समझाते हुए चुटकुले सुनाने प्रारंभ कर दिये....कुछ ही देर में सब दुख भुलाकर हँसने लगी थी यहाँ तक कि आँखों से आँसू निकल आये । ‘ जितना रोना है आज ही रो ले किन्तु आज के बाद तुझे कभी रोते हुए नहीं देखना चाहता....इंसान को प्रत्येक स्थिति में सदा प्रसन्न रहना चाहिए ।’ अपना रूमाल निकालकर आँसू पोंछते हुए उन्होंने कहा था । आज की स्थिति में वह चाहकर भी समझौता नहीं कर पा रही है, एकांत उसे काटने दौडता है....दुख और क्षोभ के कारण आँखों में आँसू तैरने लगे थे किन्तु कोई पोंछने वाला नहीं था । तभी बाहर कार के हार्न की आवाज सुनाई पड़ी । उत्सुकता से बाहर झांका तो उसके पापा कृष्णकांतजी उतरते दिखाई दिये । उनके अंदर आते ही वह बच्चों की तरह फूट-फूट कर रो पड़ी, तथा बोली, ‘पापा मेरा यहाँ दम घुटता है, मैं यहाँ नहीं रहूँगी, कुछ दिन और रहना पड़ा तो मैं पागल हो जाऊँगी ।’ ‘क्या हुआ बेटा,परिमल ने कुछ कहा क्या ?’ उसकी मनोव्यथा सुनने के पश्चात् अनुभवी कृष्णकांतजी समझ गये कि परिमल की कोई गलती नहीं है । अपनी माँ की तरह ही नादान बेटी भी परिस्थतियों से समझौता नहीं कर पा रही है । काम छोड़कर कोई घर तो बैठ नहीं सकता....। इस समय उसे समझाना व्यर्थ है , सोचकर वह बोले, ‘मैं कुछ काम से आया था, सोचा तुझसे और परिमल से मिलता चलूँ... उससे तो मिल नहीं पाया, तेरे लिये कुछ सामान है रख ले, मुझे अभी लौटना है । ’ सामान पल्लवी के हाथ में पकड़ाते हुए बोले । ‘ पापा, अब मैं यहाँ नहीं रहूँगी, आपके साथ ही घर चलूँगी ।’ कृष्णकांतजी ने पल्लवी को समझाने की काफी चेष्टा की किन्तु असफल होने पर इतना ही बोले,‘ ठीक है बेटा , तेरी जैसी मर्जी परन्तु परिमल की अनुपस्थिति में बिना उसे बताये चला जाना उचित नहीं होगा ।’ पल्लवी ने तो आँखों पर पट्टी बाँध ली थी....वह कुछ समझने के लिये तैयार नहीं थी एक पत्र परिमल के नाम छोड़कर अपने पापा के साथ चली गई । परिमल शाम को थका-हारा घर लौटा....पल्लवी के बारे में पूछने पर नौकर ने पल्लवी द्वारा लिखित पत्र उसे दिया तथा बोला,‘ मेमसाहब अपने पिताजी के साथ चली गई है ।’ अचानक पल्लवी के जाने से आश्चर्यचकित परिमल ने पत्र खोलकर पढ़ना प्रारंभ किया....बहुत समझौता करने का प्रयत्न किया किन्तु तुम्हारा कार्य के सिलसिले में कई-कई दिनों तक घर से बाहर रहना अब असहनीय हो चला है, एकाकीपन का दुख अब सहा नहीं जाता....जा रही हूँ शायद कभी न आने के लिये...। दुख....कभी दुख देखा है तुमने....जो सहा नहीं जा रहा....!! महलों में पलने वाले दुख क्या जाने.....एक गरीब मजदूर से पूछो दुख क्या होता है ? दिनभर मेहनत, खून पसीना बहाकर भी जो न स्वयं भरपेट खा सकता है और न बच्चों को खिला सकता है....। एक अनाथ बच्चे से पूछो जिसके सिर पर कोई प्यार से हाथ फेरने वाला भी नहीं होता....। गर्मी सर्दी बरसात में फुटपाथ पर रहने वालों से पूछो जिसके पास खुला आसमान है....। तुमने दुख देखा होता तो जाती ही नहीं....। तुम्हारे जैसे लोग कहीं सुख से न स्वयं रह पाते है और न ही दूसरों को रहने देते हैं । आज तुम यहाँ से दुखी होकर वहाँ गई हो....कल वहाँ से दुखी होकर यहाँ आओगी । जिनके जीवन का कोई उद्देश्य नहीं, अर्थ नहीं उन्हें कहीं भी सुख नहीं मिल सकता....। सार्थक जीवन जीने वाले हर हाल में प्रसन्न रह लेते हैं, चाहे कितनी भी परेशानियाँ क्यों न आयें । निराश पल्लव बिना खाये ही आराम में विध्न न डालने का आदेश देकर लेट गया । टेलीफोन की घंटी की आवाज सुनकर वह उठा । सुबह हो चुकी थी मानसिक तनाव एवं थकान से नींद के बावजूद भी सिर भारी-भारी था । फोन उठाया उधर से श्री कृष्णकांत की आवाज सुनकर वह चौंक गया किन्तु मुँह से कोई आवाज नहीं निकली । विवशता भरी आवाज में वह पुनः बोले,‘बेटा, इस नादान लड़की को माफ कर देना । माँ होती तो कुछ समझाती भी, शुरू से जिद्दी रही है कुछ दिन यहाँ रहकर शायद अपनी भूल को समझ सके ।’ कुछ कहना चाहकर भी पल्लव कुछ भी बोल न सका एवं फोन रख दिया । वह जानता था पल्लवी आयेगी अवश्य आयेगी लेकिन ऐसा कब तक चलेगा....? व्यर्थ के तनाव से उसकी कार्य क्षमता भी प्रभावित होने लगी थी । अंदर बाहर के तनाव ने उसे तोड़कर रख दिया था । कहते है दुख बाँट लेने से दिल का बोझ हल्का हो जाता है किन्तु कहता भी तो किससे ? जिसे उसने जी जान से चाहा जब वही उसकी मजबूरी को नहीं समझ पाया तो किसे दोष दे ? बुझे मन से उसने स्वयं को काम में डुबो लिया....जिससे न कोई विचार मन में उठे और न ही किसी की याद आये । पल्लवी भावावेश में अपने पापा के साथ आ तो गई थी किन्तु मन ही मन खिन्न एवं उदास थी । वास्तव में मन वहीं रह गया था, समझ नहीं पा रही थी कि उसने ठीक किया या गलत । परिमल का काम ही ऐसा था कि वह चाहकर भी उसे समय नहीं दे पाता था किन्तु उसे चाहता बहुत था, इस बात का उसे अहसास था । उसे याद आये मधुर मिलन के वह क्षण जब परिमल ने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर कहा था,‘पल्लवी, माँ को मैंने नहीं देखा, प्यार क्या होता है नहीं जानता....पिताजी ने स्नेह की छाया अवश्य प्रदान की किन्तु प्यार से महरूम रखा, बराबर कर्तव्य का एहसास कराते रहे किन्तु उसके मन के मरूस्थल में कभी झाँकने का प्रयास नहीं किया । मुझसे यदि कभी असंयत व्यवहार हो जाये तो भले कान पकडकर समझाना किन्तु मेरे दिल में खिल आये प्यार के अनगिनत फूलों को कभी मुरझाने मत देना । उम्र में तुम मुझसे छोटी हो किन्तु पति-पत्नी का स्थान बराबर का है अतः मेरी गल्तियों, कमजोरियों पर अंगुली उठाने का तुम्हें भी पूरा अधिकार है ।’ सचमुच परिमल ने पिछले छह सालों में उसे कभी शिकायत का अवसर नहीं दिया । विवाह के तीन वर्ष पश्चात् जब वह गर्भवती हुई थी तो उसने खुशी से उछलकर उसे गोद में उठा लिया था किन्तु वह खुशी भी क्षणिक ही रही.....तीसरे महीने में पैर फिसल जाने के कारण गर्भपात हो गया था तथा उसी समय गर्भाशय में आये संक्रमण के कारण डाक्टर ने उन्हें वर्ष भर तक सावधानी से रहने की सलाह दी थी, ऐसे नाजुक क्षणों में भी परिमल ने न केवल शारीरिक वरन् मानसिक बल भी प्रदान किया था । कभी-कभी भावुक होकर कहता... तुम्हें मेरे कारण इतनी परेशानी उठानी पड़ी अब जब तक तुम नहीं चाहोगी हम बच्चे के बारे में सोचेँगे भी नहीं किन्तु जिलाधीश के पद पर पदारूढ़़ होने के पश्चात् वह बदलता जा रहा था या उसकी अत्यधिक व्यस्तता के कारण उसे ही महसूस हो रहा था....। वह समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे ? वह तो अपने महेश जीजू पर आज भी मोहित थी जिन्होंने उसकी सीधी-सादी दीदी को बदल डाला था....रोज क्लब,डांस पार्टियों में उन्हें लेकर जाते थे । गोरी और सुदंर तो वह पहले ही थी किन्तु विवाह के पश्चात् उनके व्यक्तित्व में निरंतर निखार आता जा रहा था और वह घर में बैठे-बैठे लावण्य एवं कमनीयता असमय ही खोती जा रही थी । अपनी मानसिक स्तिथि के कारण उसका यहाँ भी मन नहीं लग रहा था । माँ की मृत्यु के पश्चात् पिताजी ने स्वयं को व्यवसाय में और भी व्यस्त कर लिया था । व्यवसाय को उत्तरोत्तर विकसित करने के उद्देश्य से एक शाखा इंग्लैड में खोल दी थी जिसका भार उन्होंने अपने पुत्र नरेन्द्र को सौंपा था । भाभी भी कुछ दिन पूर्व भाई के पास चली गई जिस एकांत को छोडकर आई थी, वही एकांत यहाँ भी था शायद उससे भी भयावह रूप में । एक बार मन हुआ चित्रा दीदी को फोन कर आने की सूचना दे दे किन्तु दूसरे क्षण उसने सोचा वह उनसे क्या कहेगी जब वे पूछेंगी कि कितने दिनों की छुट्टी लेकर आई है मेरी प्यारी बहना ? कभी उसे लगता कि वह स्वयं से ही नजरें चुराने लगी है । उसके आने का समाचार सुनकर दीदी स्वयं उससे मिलने आई तथा अपनी चिरपरिचित मुस्कान एवं अंदाज के साथ उसे अपने आगोश में लेते हुए कुशलक्षेम पूछने लगीं। पल्लवी के मुख से उसकी व्यथा सुनकर बोली,‘तू कितनी नादान है मेरी बहन, तूने महेश का ऊपरी रूप देखा है आन्तरिक नहीं....यह ठीक है वह मुझे चाहता है शायद पागलपन की हद तक किन्तु उसका प्यार सतही है तभी तो शिप्रा के शीघ्र गर्भ में आने से वह अप्रसन्न हो उठा था तथा आदेशात्मक स्वर में बोला था....गर्भपात करा लो....। एक माँ होकर भला मैं कैसे उसकी बात मान लेती....उसका तर्क था अभी तो हमारे घूमने फिरने और आनंद मनाने के दिन है, अभी से संतान हो जायेगी तो तुम्हारा शरीर बेडौल हो जायेगा तथा बच्चे के कारण हमे मनवांछित एकांत भी नहीं मिल पायेगा । वह यह नहीं समझता कि प्यार शारीरिक न होकर आत्मिक होता है । गर्भावस्था के वह दिन जिन दिनों पति से दूर रहना आवश्यक होते है, मैंने कैसे....तथा कितनी मजबूरी में व्यतीत किये किये , बता नहीं सकती । मुझे चिढाने या सताने के लिये उसने अकेले मित्रों के साथ घूमना, शराब पीना और ताश खेलना प्रारंभ कर दिया था....। शिप्रा हुई तो उसे देखने भी नहीं आया । सास-ससुर आये तो उसकी बेरूखी देखकर उन्हें लगा कि पुत्री हुई है शायद इसीलिये उसका मन खराब हो गया है....। ‘ पुत्री तो घर की लक्ष्मी होती है....। ’ कहकर सासू माँ ने महेश को सांत्वना देने का प्रयत्न भी किया किन्तु उसकी मनःस्थिति को मैं उन्हें कैसे बताती ? थोड़ा रूककर वह पुनः बोली,‘इतना सुंदर घर महेश की मानसिक स्थिति के कारण बिखरने लगा है हँसती हूँ किन्तु दिखावटी । एक बेटी की देखभाल के लिये पूरे समय के लिये नौकरानी रख ली है,ज्यादा से ज्यादा समय उसके साथ व्यतीत करने का प्रयत्न करती हूँ किन्तु फिर भी संतुष्ट नहीं कर पाती....। ’सदैव खिले रहने वाले चित्रा दीदी के चेहरे पर चिन्ता की लकीरें झिलमिलाने लगी थीं । चित्रा दीदी चली गई किन्तु उसके लिये एक प्रश्न छोड़ गई थी....जिनकी ऊपरी चमक-दमक से प्रभावित होकर वह अपने छोटे से आशियाने में आग लगाने का दुस्साहस करने जा रही थी, वहाँ भी असंतोष की चिंगारी विराजमान थी । वास्तव में विवाह का बंधन समझौता ही तो है दो विपरीत लिगियों के मध्य.... विभिन्न परिवेश में पले दो व्यक्तियों के विचार एक जैसे कैसे हो सकते हैं ? दोनों पक्षों को एक दूसरे की आवश्यकताओं एवं मजबूरियों के साथ समझौता करना ही पड़ेगा....यही सामाजिक दायित्व भी है और संबधों में स्थायित्व का तकाजा भी । परिमल तो एक सीधा-सादा कर्तव्यनिष्ठ इंसान है । औरों की तरह न उसमें न कोई बुरी आदत है और न ही कोई शौक , उसका अत्याधिक ख्याल भी रखता है किन्तु अपने अत्यावश्यक कार्यो को छोडकर उसके साथ बैठ भी तो नहीं सकता । एक पत्नी का कर्तव्य पति के कार्य में सहायक बनना है न कि बाधा खड़ी करना....कहा भी गया है कि सफल पुरूष के पीछे स्त्री का हाथ होता है । मायके और ससुराल में उसे जो मानसम्मान मिला है वह परिमल के कारण ही तो... माना आज की नारी सर्वगुणसम्पन्न,सबल एवं आत्मनिर्भर है किन्तु अपनी इन विशेषताओं को सकारात्मक कार्य में लगाये न कि नकारात्मक । एक छोटी सी दरार एक विशाल इमारत को पल भर में खंडहर में बदल सकती है इसका उसे अहसास होने लगा था । पहले यहाँ आती थी तो माँ , भाई और भाभी उसे हाथों हाथ लेते थे तुरन्त उसका मनपसन्द ढेरों सामान आ जाता, खाने में मनपसन्द व्यजंन बनते, एक बार उसने मजाक में कह दिया था,‘लगता है माँ, ससुराल में मुझे कुछ खाने,पहनने, ओढ़ने को नहीं मिलता तभी....। ’ ‘ शुभ-शुभ बोल बेटी,तू सदा सुखी रहे किन्तु कभी-कभी मुझे भी अपने मन की करने दिया कर । माँ ने उसकी बात काटते हुए पनियाली आँखों से उसके मुख पर हाथ रखते हुए कहा था । अब न माँ रही और न ही भाई भाभी, एकदम सूना हो गया है घर और पापा वह तो सदा से व्यस्त ही रहे हैं...। जिस स्थिति की भयंकरता से मुख मोडकर आई थी, वही स्थिति यहाँ भी विराजमान है । पिछली बार जब यहाँ आई थी तो परिमल रोज सुबह शाम फोन पर उससे बातें कर लेते थे किन्तु इस बार बिना मिले आने से शायद वह भी आहत हुए होंगें तभी उन्होंने उसे फोन तक नहीं किया और वह अपने अहम के कारण उन्हें फोन नहीं कर पाई। एकाएक उसे परिमल के साथ बिताये क्षण याद आने लगे … पिछली बार जब एक हफ्ते पश्चात् लौटी थी तो अस्तव्यस्त कमरा देखकर बोली थी,‘ तुम तो अभी बच्चे ही हो जब अपना काम ढ़ंग से नहीं कर पाते तो पूरे जिले की देखभाल कैसे करते होंगे ?’ ‘मेरी देखभाल के लिये तो तुम हो ही फिर मुझे क्या चिंता....? ’ कंटीली मुस्कान के साथ आगोश में लेते हुए उत्तर दिया था । ‘पल्लवी कहाँ हो तुम बेटा ?’ कमरे में आते हुए पापा की आवाज सुनकर वह चौंकी....उसकी अस्तव्यस्त हालत देखकर उसके नजदीक बैठते हुए उन्होंने चिंतायुक्त स्वर में पुनः पूछा, ‘क्या बात है बेटा ? तबियत तो ठीक है न ? डाक्टर को बुलाऊँ ? दीनू कह रहा था कि तुमने आज खाना भी नहीं खाया । ’ ‘पापा, मैं ठीक हूँ, मुझे कुछ नहीं हुआ है । मेरा सितार नीचे उतरवा दीजिए, मैं कल ही लौट रही हूँ । ’ सितार उसकी हाँबी रही है । सितार के सुरों में वह अपने सुख-दुख भूल जाया करती थी । उसने सोच लिया था कि वह निज एकांत को सितार के स्वरों में बांधने का प्रयास करेगी, इसके साथ ही अपनी इन्टीरियर डेकोरेशन की अधूरी पढ़ाई को पूरा करने का प्रयत्न करेगी । जीवन में अगर कोई लक्ष्य हो तो समय की भी कमी पड़ने लगती है । वह तो जिलाधीश कि पत्नी है...उसका भी समाज के प्रति कुछ उत्तर दायित्व है...। वह परिमल से बात कर उसके सहयोग से समाज सुधार के काम...जैसे प्रौढ़ शिक्षा या गरीब बच्चों की शिक्षा के साथ गरीब बच्चों में होने वाले कुपोषण को दूर करने के लिए प्रयास कर सकती है । ‘इतनी जल्दी क्या है बेटा...अब जब आ गई हो तो कुछ दिन और रह लेतीं । ’ ‘ पापा अब जाने दीजिये । परिमल के साथ शीघ्र आऊँगी । ’ उसने नजरें झुकाते हुए कहा । यद्यपि वह जानती थी कि पापा का रूकने का आग्रह औपचारिक है, ऐसी स्थिति में वह भी नहीं चाहते हैं कि वह ज्यादा दिन रुके । ‘ठीक है बेटा, जैसी तेरी इच्छा.... ड्राइवर को कह दूँगा कि वह तुझे छोड़ आये । ’ पापा ने प्यार से सिर पर हाथ फेरते हुए कहा । उनके स्वर और मुख पर संतोष के चिन्ह स्पष्ट दिखाई देने लगे । अत्यंत उत्कंठा से वह दूसरे दिन का इंतजार करने लगी....उसने निश्चय कर लिया था कि वह आगत भविष्य में मृगतृष्णा के पीछे अब और नहीं भागेगी....यथार्थ के कठोर धरातल पर ही अपने स्वप्नों को तराशेगी ....संवारेगी । सुधा आदेश

Sunday, March 15, 2020

माटी की सुगंध

माटी की सुगंध मिसेज नमिता चौधरी बंगले के आहते में बेचैनी से चहल कदमी कर रहीं थीं । आज सुबह स्वप्न में न जाने ऐसा क्या देख लिया था कि मन विचलित हो उठा था । यद्यपि वह जानती थी कि स्वप्न, स्वप्न ही होते हैं । उनका यथार्थ से कोई संबंध नहीं होता लेकिन फिर भी मन में एक अज्ञात भय उथल- पुथल मच आने लगता है और खासतौर से तब जब इंसान अकेला होता है । देवेश किसी केस के सिलसिले में दो दिन के लिए बाहर गए थे । उनसे फोन पर बात करनी चाहिए तो पता चला कि वह निकल चुके हैं। बच्चे विदेश में सेटल हैं बड़ा बेटा निनाद न्यूजर्सी की एक बड़ी कंपनी में कार्य कर रहा है तथा बेटी निवेदिता तथा दामाद परेश इंग्लैंड में कंप्यूटर इंजीनियर हैं । दोनों ही दूर हैं किससे अपने मन की बात कहे । नामिता को आज भी याद है जब निनाद ने विदेश जाने की बात की थी तब उसने अपने अकेलेपन की दुहाई देते हुए जाने से मना किया था तब उसने कहा था,‘ माॅम, आज दूरी कोई मायने नहीं रखती, यदि पैसा है तो कोई कभी भी कहीं भी आ जा सकता है ।' लेकिन ग्रीन कार्ड न बन पाने के कारण वह पिछले चार वर्षों से नहीं आ पाया है...। आज सुबह से दो बार उसने फोन पर बात करने का प्रयास भी किया लेकिन कोई फोन उठा ही नहीं रहा था । टेलीफोन आंसरिंग मशीन पर भी संदेश छोड़ दिया था लेकिन अभी तक किसी ने भी फोन नहीं किया था । मन परेशान हो उठा तो वह उठकर चहल कदमी करने लगी ...यह उसकी पुरानी आदत है । बच्चे अगर बाहर गए होते तथा उन्हें आने में देर हो जाती तो वह बार-बार उठ कर बाहर देखती या जब तक आ नहीं जाते वही घूमती रहती थी । देवेश उसकी इस आदत का मजाक यह कहकर बनाते कि क्या तुम्हारे इस तरह बाहर खड़े रहने से बच्चे जल्दी आ जायेंगे…। .तब बात कहती, ' इस समय आप यदि एक माँ के अंदर चल रहे झंझावात को देख पाते तो शायद ऐसा नहीं कहते । इन विचित्र क्षणों में अपनी मानसिक स्थिति से मैं इतनी मजबूर हो जाती हूँ कि न चैन से बैठ पाती हूँ और न ही किसी काम में मन लगा पाती हूँ शायद अनहोनी की आशंका से भयभीत होकर । जानती हूँ कि यदि कभी अनहोनी घटना घटित हुई भी तो दूर रहकर शायद ही हम कुछ कर पाएं लेकिन फिर भी ना जाने क्यों एक अव्यक्त भय मन में सदैव समाया रहता है ।' कुछ दिन पूर्व ही बहू शिवानी का ई मेल आया था, लिखा था,‘ मम्मीजी, मुझे एक अच्छा जाॅब मिल गया है, मेरा तथा निनाद का आफिस पास ही है अतः मैंने ज्वाइन कर लिया है...। जाते समय हम दिव्या को क्रेच में छोड़ देते हैं तथा लौटते हुए ले लेते हैं...। यहाँ के क्रेच बहुत अच्छे हैं, बच्चों की प्रत्येक सुविधा को देखकर उनका निर्माण किया जाता है, एकदम घर जैसा ही वातावरण ही मिलता है, अतः कोई असुविधा नहीं हो रही है ।' बहु के मेल को पढ़कर लगा कि आज के युवा अपने अस्तित्व को लेकर इतने जागरूक हो गये हैं कि उन्हें अपने मासूम बच्चे के मनोभावों को कुचलने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं होता....भला क्रेच में भी घर जैसा वातावरण मिल सकता है…!! लेकिन इसमें बच्चों का भी कोई दोष नहीं है भौतिकता वादी परिवेश ने लोगों की इच्छाएं , आवश्यकताएं इतनी बढ़ा दी है कि जब तक पति-पत्नी दोनों काम न करें शायद घर का खर्च चलाना भी कठिन हो जाए । फिर आज स्त्री केवल घर की चारदीवारी में घुट कर रहना पसंद नहीं करती वरन समय के साथ-साथ वह भी उड़ना चाहती है । अपनी योग्यता और क्षमता का उपयोग करना चाहती है । आत्मनिर्भर बनना चाहती है । केवल वही क्यों घर के लिए त्याग करती रहे । घर केवल उसका ही नहीं वरन पुरुष का भी है । अतः दोनों को ही घर की छोटी या बड़ी ,आर्थिक हो या सामाजिक समस्याओं को मिलजुलकर हल करना होगा और शायद उसकी या धारणा अनुचित भी नहीं है । लेकिन स्त्री पुरुष की महत्वाकांक्षा और अहम के टकराव में बच्चों की मासूम भावनाएं आहत हो रही है इसकी ओर शायद किसी का भी ध्यान नहीं है । उसे दिव्या का ख्याल आया, जब वह गई थी तब छह महीने की थी, अब तो खूब बातें करती होगी। न जाने क्रेच में उसे कैसा लगता होगा ? नमिता को महसूस हो रहा था कि आज की स्थिति और उनके समय की स्थिति में कितना अंतर आ गया है....। उनके समय में लोग अपने लिये नहीं वरन् दूसरों के लिये जीते थे....। दूसरों की खुशी के लिये अपनी खुशी, अपने हितों का बलिदान करने में भी नहीं हिचकते थे तभी तो देवेश की माँ के पैरालिसिस होने पर देवेश के पिताजी के आग्रह पर उसके पिताजी ने उसका हाथ देवेश के हाथ में सौंप दिया था । देवेश और उसके पिताजी दोनों एक ही आफिस में काम करते थे तथा अच्छे मित्र थे...। देवेश उस समय लाॅ कर रहे थे तथा वह इंटर में थी....दोनों ही पढ़ना चाहते थे पर माँ पिताजी की आज्ञा के सामने दोनों ने ही सिर झुका दिया था । वस्तुतः देवेश के पिताजी ने देवेश का विवाह इसलिये शीघ्र किया था क्योंकि उन्हें लगा था कि घर में बहू आ जाने से पत्नी की बीमारी से हुई अव्यवस्था में न केवल सुधार आयेगा वरन् पत्नी तथा दो छोटी पुत्रियों की देखभाल भी उचित रूप से हो पायेगी...। नमिता ने अपनी जिम्मेदारियों को तहेदिल से स्वीकारा था तथा किसी को भी शिकायत का मौका नहीं दिया था और न ही अपनी परेशानियों का जिक्र कभी देवेश से किया था । घर की जिम्मेदारियों के कारण उसे उस समय अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी लेकिन देवेश को घर की चिंताओं से मुक्त कर सदा पढ़ने के लिये प्रेरित करती रही थी...। उसकी सहनशीलता और धैर्य का ही परिणाम था कि देवेश जुडीशियल मजिस्टफेट की परीक्षा में सफल रहे थे....उनकी सफलता से प्रसन्न होकर उसके श्वसुर ने उसे ढेरों आशीश देते हुए कहा था.... ‘पत्नी के सत्कर्मो....सद्गुणों का प्रभाव तो पति की सफलता में पड़ना ही था । पति की सफलता में पत्नी का हाथ होता है....आज तुमने एक बार फिर सिद्ध कर दिया है ।’ उससे तथा उसके धीर गंभीर स्वभाव से वह काफी प्रभावित थे । उनके अनुसार उसके कारण ही उनकी गृहस्थी सुचारू रूप से चल पाई थी....खुशी तो उन्हें इस बात की थी कि उन्हें अपने निर्णय पर पछताना नहीं पड़ा था । नमिता की नन्दें मीरा और नीरा उस समय मात्र आठ और दस वर्ष की थीं । उनकी समस्याओं को उसने कभी भाभी बनकर तो कभी मित्र बनकर सुलझाया था....। यहाँ तक कि विवाह पर आवश्यकता पड़ने पर उसने अपने गहने भी सहर्ष दे दिये थे....प्रतिदान में उसे उनसे उतना ही मान-सम्मान और प्यार दुलार मिला था । विवाह में गहने लेते समय श्वसुर ने कृतज्ञता से कहा था,‘ बेटा, जब भी स्थिति सुधरेगी, तुझे गहनों से लाद देंगे...।’ ‘ पिताजी हमें तो आपका प्यार और आशीर्वाद ही चाहिए....गहनों और कपड़ों का क्या, वह तो जितने भी हों कम ही हैं ।’ उसने नम्रता से उत्तर दिया था । ‘ काश, ऐसी बेटी समान बहू सबको मिले तो हर घर ही स्वर्ग बन जाए ।’ प्रेम से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा था लेकिन लाख छिपाने पर भी वह अपनी भर आई आँखों को उससे छिपा नही सके थे । लेकिन उनका प्यार और आशीर्वाद ज्यादा दिन कहाँ रह पाया था....। छोटी ननद नीरा के विवाह के कुछ दिन पश्चात् ही उनका सीवियर हार्ट अटैक में निधन हो गया । माँजी तन से तो पहले ही लाचार थी अब मन से भी बुरी तरह टूट गई....। बस इतना संतोष था कि पिताजी अपनी पूरी जिम्मेदारियाँ पूरी कर गये थे....किंतु यह भी एक शाश्वत सत्य है कि बेटा बहू चाहे जितनी भी सेवा कर लें, पति का स्थान तो नहीं ले सकते...। पहले तब भी व्हील चेयर पर बैठकर अपना थोड़ा बहुत कार्य कर भी लेती थीं लेकिन अब तो वह बिस्तर से उठना ही नहीं चाहती थीं....शायद जीवन की लालसा ही समाप्त हो गई थी । देवेश की पोस्टिंग बनारस होने के कारण पैतृक घर किराये पर उठाकर माँजी को भी अपने साथ ले आये....। माँजी का अपनी जगह छोड़कर आने का बिल्कुल भी मन नहीं था किंतु वह इस अवस्था में अकेली कैसे रह पाती इसलिये साथ आ तो गई थी लेकिन सदा अनमयस्क रहतीं । थोड़ी-थोड़ी बात पर नाराज हो जाती तब उन्हें तथा देवेश को उन्हें बच्चों की तरह मनाना पड़ता था । उसी समय निनाद का जन्म हुआ....। उसकी दोनों ननदें बधाई देने आई थीं । विदाई के समय उन्होंने उन्हें यथाशक्ति साड़ी, अंगूठी तथा दोनों जीजाजी के लिये सूट का कपड़ा दिया था । दोनों रूठकर बोली,‘ भइया, यह क्या....? आज डैडी नहीं हैं तो हमारी इस घर में कोई इज्जत ही नहीं रही....। बस एक साड़ी और एक अंगूठी देकर ही मुक्ति पा ली, ससुराल में जाकर हम क्या मुँह दिखायेंगे ?’ उनकी बात सुनकर माँजी ने तुरंत अपनी चैक बुक निकाल कर दोनों को पाँच-पाँच हजार का चैक काटकर देते हुए कहा था,‘ दिल क्यों छोटा करती हो, अभी मैं हूँ न, मेरे रहते तुम्हें कभी शर्म से मुँह नहीं छिपाना पड़ेगा....। इनसे जमाई राजा के लिये एक-एक चेन खरीद लेना ।’ माँजी के शब्दों तथा चेहरे पर आये भावों को पढ़कर देवेश बहुत आहत हुए थे....। क्रोध भी आया था माँ पर....आखिर जितनी हैसियत है उतना ही तो देंगे...।प्रेम से जितना भी दिया जाए , ले लेना चाहिए, माँगकर लेना तो इंसानियत नहीं है....। उन्हें समझाना तो दूर तुरंत चैक काटकर दे दिया....देना ही था तो बाद में किसी अन्य तरीके से दे देती या उन्हीं के हाथ से दिलवातीं....। माँ से उनकी हालत छिपी तो नहीं है...। उनकी पेंशन का एक चौथाई हिस्सा तो उनकी दवा में ही खर्च हो जाता है...। तब उसने ही देवेश की दुखती रग पर यह कहकर मलहम लगाया था कि आप दें या माँजी क्या फर्क पड़ता है किंतु आहत वह भी हुई थी....। अनजाने में मन में दरार आती जा रही थी....। अब वह पहले जैसी नहीं रही थी जितना भी करो सदा दोष निकालती ही रहती थीं ....। खासतौर पर तब, जब बेटियाँं आ जातीं । वे तीनों एक हो जाती तथा वह अलग-थलग पड़ जाती....दो बैड रूम के छोटे से घर में उन्हें ही बाहर ड्राइंगरूम में सोना पड़ता था....। वे दोनों तो मेहमान थीं अतः उनकी सुख-सुविधा का ख्याल रखना हमारा कर्तव्य था...। माँ के अनपेक्षित व्यवहार से उसे दुखी देखकर देवेश कहते, ‘ माँ बीमारी के कारण चिड़चिड़ी होती जा रही हैं....वैसे भी नीरा-मीरा कुछ समय के लिये आती हैं अतः ध्यान मत दो....बस अपना कर्तव्य किये जाओ....।’ कर्तव्य तो वह कर ही रही थी पर माँ जी के बदलते स्वभाव को देखकर उसे लगता था कि उसका वर्षो का त्याग, तपस्या और बलिदान सब व्यर्थ होते जा रहे थे....वह चाहकर भी उनके व्यवहार में परिवर्तन का कारण समझ नहीं पा रही थी...। बात उन दिनों की है जब निवेदिता होने वाली थी....पता नहीं क्यों उस समय थोड़ा भी ज्यादा काम करने पर वह थक जाती थी....। उसी समय माँजी की तबियत ज्यादा खराब हो गई, उनको देखने नीरा और मीरा आ गई । एक दिन खेल-खेल में निनाद ने नीरा की पुत्री पल्लवी को गिरा दिया, एकदम बिफर पड़ी थी नीरा....‘ इस घर में मेरे और मेरे बच्चे की कोई कद्र नहीं है....भाभी में इतनी भी तमीज नहीं है कि बच्चे को कैसी शिक्षा दी जाए ।’ आफिस से उसी समय लौटे देवेश के कानों में नीरा के शब्द पड़े, अत्यंत आहत हुए थे तथा बोले,‘ नीरा, यह तुम्हारी वही भाभी हैं जिसे तुम कभी मेरी प्यारी भाभी....अच्छी भाभी कहते हुए नहीं थकती थीं....। अपने सारे दुख-सुख आकर उसे बताती थी....यहाँ तक कि तुम्हारे विवाह में इसे अपने गहने देने में भी उसे संकोच नहीं हुआ था....। पिछले कुछ वर्षो में ऐसा क्या हो गया कि तुम्हें उसमें दोष ही दोष नजर आने लगे हैं ।’ ‘ तब वह नई-नई इस घर में आई थीं, हमसे प्यार जताकर वह हमसे हमारी माँ छीनना चाहती थीं, गहने दिये तो क्या हुआ....कौन सा अहसान कर दिया....सभी की भाभियाँ करती हैं ।’ ‘ तुम्हारी भी ननद हैं, देखूँगा तुम अपनी ननद के लिये कितना करती हो?’ बौखलाकर कह उठे थे देवेश । उस समय माँजी ने नीरा का पक्ष लेते हुए देवेश को ही बुरा भला कहा था....नीरा उसी दिन शाम की बस से दुबारा न आने की कसम खाते हुए चली गई । मीरा जब तक रही शीतयुद्ध जैसी ही स्थिति रही....यद्यपि नमिता ने अपनी तरफ से शीतयुद्ध को तोड़ने की हर संभव प्रयत्न किया पर असफल ही रही थी...। तब उसे लगा था इंसान अपने अहंकार में कभी-कभी इतना स्वार्थी क्यों हो जाता है कि वर्षो का प्यार, स्नेह और अपनत्व को क्षण भर में भुलाकर दूसरों को तड़पने के लिये छोड़ देता है....माना उनके पास उसकी ससुराल के समान सुख-सुविधायें नहीं थी लेकिन घर तो वहीं था जिसमें उसने अपना बचपन गुजारा था...। मन में एक बार दरार पड़ जाए तो उसे मिटाना बहुत ही कठिन होता है....शायद यही कारण था कि वे दोनों आई भी तब आई जब माँजी ने भी इस संसार से संबंध तोड़ लिये....। तेरहवीं भी नहीं हुई थी कि पिता की संपत्ति पर अपना हक जमाने लगी....आखिर पिता की संपत्ति पर लड़कियों का भी तो हक होता है....। मीरा यद्यपि ज्यादा ही समझदार थी अब उसे लगने लगा था कि माता-पिता के बाद भाई-भाभी से ही मायका बनता है अतः वह नीरा के विचारों से सहमत नहीं हो पाई थी लेकिन देवेश ने दोनों को आमने सामने बिठाकर ,पूरा हिसाब किताब दिखाकर, उसके दो भाग कर दिये थे, अपने लिये कुछ भी नहीं रखा था...। मीरा के मना करने पर देवेश ने कहा था,‘ रूपया, पैसा जमीन जायदाद सब क्षणभंगुर है, स्थाई है तो सिर्फ प्यार, स्नेह और अपनत्व....जो पिताजी का है, वह हम सबका है....अतः बड़ा होने के नाते, मैं तुम दोनों में बराबर-बराबर बाँटता हूँ...। मना मत करो वरना मुझे दुख होगा...। एक आग्रह और है....हो सके तो बीती बातों को भुलाकर प्रेम और स्नेह के पक्के धागों में बंध जाओ क्योंकि यही धागे इंसान को बड़ी से बड़ी मुश्किलों को पार करने में सहायता देते हैं ।’ देवेश की बातों को सुनकर नीरा भी पिघल गई तथा रोते हुए हिस्सा लेने से मना करने लगी तब देवेश ने उसके सिर पर हाथ पर फेरते हुए प्यार से कहा था,‘ रो क्यों रही है पगली, मैं कोई बँटवारा थोड़े ही कर रहा हूँ, बड़ा भाई होने के नाते पिता की संपत्ति का हिस्सा ही तो उपहार में दे रहा हूँ ।’ देवेश के इस बलिदान से परिवार में फिर से एकता हो गई थी । प्रत्येक रक्षाबंधन तथा भइया दौज पर दोनों आती और हम से जो भी बन पड़ता, उनको देते । समय पर देवेश की तरक्की होती गई, रूतबे के साथ-साथ कार्यभार भी बढ़ता गया....आज वे हाईकोर्ट के जज के पद पर सुशोभित हैं । फोन की निरंतर बजती घंटी ने उसकी विचारतंद्रा को भंग कर दिया । फोन अमेरिका से निनाद का था....,‘ ममा, हम ठीक हैं....चिंता की कोई बात नहीं है.... मैं जानता था तुम चिंता करोगी....इसलिये मैंने शिवानी को मना किया था एक्सीडेंट के बारे में बताने को ....अब टाँके भी कट गये हैं आज से हम दोनों ने आफिस ज्वाइन कर लिया है ।’ निनाद से बात कर दिल को सुकून मिला....।। नमिता को अपनी बेचैनी का कारण अब पता चला । पुत्र या पुत्री विश्व के किसी भी कोने में क्यों न हों, कुछ भी अनहोनी होने पर माँ को अपनी आंतरिक शक्ति , छठी इन्द्रिय द्वारा आभास मिल ही जाता है । पास होते तो वह जा सकती थी किंतु इतनी दूर ...मन मसोसकर रह जाना पड़ता है । उसे याद आया नन्हा निनाद बीमार होने पर उसे जरा भी अपने पास से हटने नहीं देता था । वह लगभग सात वर्ष का था , उसे बुखार आ गया । उसी समय उसे अति आवश्यक कार्य से बाहर जाना पड़ा । वह उसे सुलाकर नौकर को उसके पास बिठाकर निकली तथा एक घंटे में ही वापस आ गई किंतु इसी बीच निनाद की आँख खुल गई । उसने जो हाय तौबा मचाई कि नौकर घबरा गया । निनाद का बुखार भी बढ़ गया था । उसके आने पर निनाद क्रोधित होकर बोला था… ' आप और जाइए घूमने, आपको हमारी कोई चिंता ही नहीं है ।अब आप हमसे बात भी नहीं कीजिएगा । हमको हाथ भी मत लगाइएगा । ' वास्तव में उसने काफी देर तक उसे हाथ भी नहीं लगाने दिया था । देवेश को पता चलने पर वह भी काफी बिगड़े थे और आज चाहकर भी वह नहीं जा सकती । तभी देवेश की कार के रूकने की आवाज सुनकर नौकर को चाय बनाने का आदेश देते हुए दरवाजा खोला, चेहरे पर छाई उदासी को देखकर वह पूछ बैठे,‘ क्या बात है, बहुत उदास लग रही हो ?’ निनाद को चोट लगने की बात सुनकर वह व्यथित हो उठे । रूपया, पैसा, नाम,शोहरत होते हुए भी इतनी दूर जा न पाने की विवशता उनके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रही थी....बात करनी चाही पर लाइन बिजी होने के कारण बात भी नहीं हो सकी । ‘ परेशान क्यों हो रहे हैं, वहाँ तो यहाँ से ज्यादा सुविधा है, फिर वह अकेला तो नहीं है, उसकी देखभाल के लिये शिवानी तो है ही...।’ उनको परेशान देखकर नमिता ने कहा । ‘ नमिता, मैं समझ नहीं पा रहा हूँ, हमारी युवा पीढ़ी विदेश की ओर क्यों भाग रही है....!! माना हमारे देश में विदेश की तुलना में सुख-सुविधायें कम हैं लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं कि हम अपनी ही जमीन से नाता तोड़ लें...।’ ‘ आप इतना क्यों सोचते हो....सबकी अपनी-अपनी सोच है, वैसे भी जो जितना उड़ेगा, उतना ही सफल होगा ।’ ‘ उड़ना है तो उड़ो, लेकिन अपनी जमीन पर पर ही, इतनी भी छलांग न लगाओ कि अपने देखने के लिये भी तरसते रह जायें ।’ तभी फोेन की घंटी टनटना उठी, आवाज कमिश्नर के सेक्रेटरी की थी,‘ साहब आप कब आ रहे हैं, यहाँ सभी आपका इंतजार कर रहे हैं ।’ ‘ ओह, मैं तो भूल ही गया था, अभी आधे घंटे में आ रहा हूँ ।’ ‘ नमिता तैयार हो जाओ, हमें मंत्रीजी के सम्मान में दिये जा रहे भोज में सम्मिलित होने जाना है ।’ ‘ आप जाइये मेरा मन नहीं है ।’ ‘ मन तो मेरा भी नहीं है लेकिन कुछ सामाजिक बाध्यताओं का पालन तो करना ही पड़ेगा और फिर अभी तो तुम कह रही थीं कि निनाद ठीक है, चिंता की कोई बात नहीं है । चलो, तुम्हारा मन भी ठीक हो जायेगा....पूरे दिन घर में बोर होती रहती हो...। न जाना भी उचित नहीं होगा....न जाने लोग क्या सोचें ।’ उस समय नमिता को महसूस हुआ कि थोड़ी देर पूर्व जब देवेश चिंतित थे तब वह उन्हें समझा रही थी और अब उसके अनमयस्क होने पर वह उसे समझाने का प्रयास कर रहे हैं....। सच है उम्र के इस पड़ाव में पति-पत्नी सिर्फ पति-पत्नी ही न रहकर दुख-सुख मे एक दूसरे को संबल प्रदान करते हुए एक अच्छे मित्र....सहचर बन जाते हैं । नमिता जानती थी कि मना करने का कोई अर्थ नहीं है....। यदि जाना है तो जाना ही है अतः तैयार होने चली गई किंतु विवशता भरे दिल ने सोचने को मजबूर कर दिया....यह नौकरी भी क्या चीज है... जब बड़े घर की आवश्यकता होती है तो छोटे घर मिलते है और जब बच्चों के व्यवस्थित होने के पश्चात् जब पति-पत्नी रह जाते हैं तब गाड़ी, बंगला,शोफर तथा सदा सेवा के लिये नौकर की भी सुविधा मिलने लगती हैं । नित होने वाली पार्टियों में जाना भी आवश्यक हो जाता है जबकि बढ़ती उम्र के साथ होती तरह-तरह की बीमारियों के कारण खाने-पीने में भी परहेज करना पड़ता हैं और जब खाने की उम्र होती है तब घर की जिम्मेदारियों के कारण न तो बाहर खाने और न ही घूमने जा सकते थे । हल्की जरी के बाॅडर वाली आसमानी साड़ी पहनकर नमिता बाहर आई तो देवेश प्रसंशात्मक नजरों से कहते हुए कह उठे,‘ कौन कह सकता है कि तुम दो जवान बच्चों की माँ हो ?’ ‘ हटो, आप भी...।’ वाक्य अधूरा छोड़कर अचानक ही नमिता बीस वर्षीया युवती की तरह शर्मा उठी । दो वर्ष ऐसे ही पंख लगाकर उड़ गये....देवेश की सेवानिवृत्ति का दिन भी आ गया....। निनाद भी महीने भर की छुट्टी लेकर आया हुआ था । वह काफी दिनों से कह रहा था कि पापा आप हमारे साथ आकर रहिए....पर हमेशा काम का बहाना बनाकर टाल देते थे किन्तु इस बार उसके आग्रह को ठुकराने का कोई बहाना भी नहीं था । सदैव के लिये जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था लेकिन देश-विदेश घूमने की इच्छा अवश्य थी अतः उसके साथ चले आये । वहाँ पहुँचकर लगा कि सचमुच काफी विकसित देश है लेकिन फिर भी वहाँ की दौड़ती भागती जिंदगी से अपने देश की सीधी साधी जिंदगी अच्छी लगती...। कम से कम लोगों के पास एक दूसरे के लिये समय तो है । कभी-कभी घर उन्हें घर नहीं होटल लगता जिसमें सुख-सुविधाओं की सारी चीजें तो उपस्थित थीं लेकिन उन्हें भोगने वाला कोई नहीं था । हफ्ते के पाँच दिन सुबह से शाम तक ऐसे दौड़ते भागते कि देखकर आश्चर्य होता था । छुट्टी के दो दिन में पूरे हफ्ते के बचे काम निबटाये जाते तथा शापिंग की जाती, कभी कहीं घूमने जाना होता तो वीक एन्ड में ही जाते । घर के जिन कामों को करना हम भारतीय अपने हाथों से करना निकृष्ट समझते हैं, उन्हें दोनों पति-पत्नी बिना किसी हीन भावना के निबटाते क्योंकि नौकररूपी शख्स रखना उनके लिये कठिन ही है । नन्ही दिव्या के कारण ही थोड़ा मन लगा हुआ था । दादा-दादी के कारण उसे क्रेच में रहना नहीं पड़ रहा था अतः वह खुश थी...। कभी नमिता उसे लोरी गाकर सुलाती तो कभी कहानी सुनाकर....। बच्ची के साथ बच्चा बनकर उन्हें असीम खुशी मिलती....। सच कहें तो इस अनजान जगह में वही उनके जीने का सहारा थी । तभी उसकी छोटी से छोटी फरमाइश पूरी करने में वह न तो हिचकिचाते और न ही झुंझलाते । दीपावली आने वाली थी....नमिता ने पूजा का सामान मँगाने के लिये निनाद को लिस्ट पकड़ाई तो वह बोला,‘ माँ, यहाँ दिये घर में नहीं लगा पायेंगे और न ही पटाखे छुड़ा पायेंगे । इस अवसर पर छुट्टी न होने के कारण हम भारतीय सप्ताहांत में एक जगह इकट्ठे होकर त्यौहार मना लेते हैं तथा एक दूसरे से मिलना भी हो जाता है....हाँ घर में थोड़ी बहुत पूजा करना हो तो कर लेना ।’ निनाद का उदासीन भाव से कहना नमिता को विचलित कर गया, कहीं कुछ दरक गया मन में....। विदेशों में आकर जहाँ हम भारतीय वहाँ के रीति रिवाज अपनाते जा रहे हैं वहीं कहीं अपनी संस्कृति को भूलते तो नहीं जा रहे....। उसे याद आये वह दिन जब वह दीपावली के महीने भर पूर्व ही घर की साफ सफाई प्रारंभ हो जाती थी । वहीं हफ्ते भर पूर्व ही विभिन्न पकवान बनने प्रारंभ हो जाते थे । सबके लिये नये कपड़े बनते,मिट्टी के दिये के साथ-साथ बिजली के बल्बों से घर जगमगा उठता था । देवेश को पटाखे छुड़ाने का अत्यंत ही शौक था । निनाद और वह मिलकर न जाने कितने ही रुपये आतिशबाजी में उड़ा देते थे किर भी अनंत को संतोष नहीं होता था....आज वही निनाद इतना उदासीन हो गया है...। नमिता को सदा ही पटाखों पर इतना पैसा खर्च करना अपव्यय लगता था, उसके विरोध करने पर देवेश कहते,‘ इंसान कमाता किसलिये है, खुशियाँ प्राप्त करने के लिये ही न, और यदि मुझे इससे खुशी मिलती है तो मैं इसे अपव्यय नहीं समझता ।’ बच्चों के जाने के पश्चात् भी वह हर वर्ष पटाखे खरीदते थे लेकिन वह स्वयं न छुड़ाकर अनाथाश्रम में दे आते....। उनके द्वारा दिये पटाखों और मिठाई को पाकर बच्चों के चेहरे पर जो खुशी झलकती, वह उन्हें अत्यंत सुकून पहुँचाती थी । नमिता के कहने पर कभी फुलझड़ी छुड़ा लेते तथा कहते,‘ नमिता, अब तो रस्म ही निभानी है, अकेले रहकर भी कहीं दीवाली मनाई जाती है....!! वास्तव में दीपावली तो मन की उमंग,उल्लास,प्रेम और सद्भाव का त्यौहार है यदि मन में प्रसन्नता है तो हर दिन हर रात दीवाली है वरना दीवाली एक काली अँधियारी रात के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है ।’ यहाँ रहकर तो रस्म अदाइगी भी नहीं हो पाई । मन व्यथित हो उठा था....अपने देश की मिट्टी की सुगंध उन्हें विचलित करने लगी थी....पीढ़ी अंतराल था या पीछे छूटे रिश्तों का अपनापन, वे दोनों ही वहाँ के वातावरण में सहज अनुभव नहीं कर पा रहे थे । कुछ दिन बेटी दामाद...निवेदिता और विकास के पास जाकर रहे पर वहाँ भी वही भाग दौड़, मन उब गया था....। पता नहीं इंसान पैसे के पीछे इतना पागल क्यों है....? भारत में तो एक कमाता है....चार खा लेते हैं पर यहाँ तो सब कमाते हैं....। किसी के पास किसी के लिये समय ही नहीं है....बच्चे भी मीट्रिक करने के पश्चात् अपना खर्च स्वयं उठाने लगते हैं.... शायद यही नजरिया उन्हें अपनों से दूर ले जाता है....। आखिर वापस लौटने का अपना फैसला सुना दिया । पहले तो निनाद और शिवानी ने रोकने की कोशिश की लेकिन उनकी जिद देखकर लौटने की टिकट बुक करा दी । जैसे-जैसे लौटने के दिन पास आते जा रहे थे उनकी प्रसन्नता बढ़ती जा रही थी । अपने सभी रिश्तेदारों तथा परिचितों के लिये उपहार ले जाना चाहते थे अतः हफ्ते भर तो वह एक डिपार्टमेंन्टल स्टोर से दूसरे डिपार्टमेंन्टल स्टोर के चक्कर काटते रहे फिर भी शापिंग पूरी होने का नाम नहीं ले रही थी । एक दिन निनाद और शिवानी आफिस गये हुए थे, अचानक देवेश बोले,‘ न जाने क्यों आँखों के आगे अँधेरा छाता जा रहा है.....। दिल घबड़ा रहा है....। देखते ही देखते पूरा शरीर पसीने से नहा गया । निनाद को फोन किया किंतु जब तक कोई आ पाता....पंक्षी पिंजड़ा छोड़कर उड़ गया....। वह चीख-चीख कर रोई पर इस बेगाने देश में कोई उनकी आवाज सुनने वाला ही नहीं था । निनाद और शिवानी के आने तक उनकी चीखें भी बंद हो गई थी....। कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं थी । डाक्टर ने आते ही उन्हें मृत घोषित कर दिया । निनाद और शिवानी भी स्तब्ध रह गये थे । निवेदिता को फोन किया तो वह फोन पर ही रो पड़ी...। निनाद ने शवगृह की वैन को बुलाकर, अपने दो चार मित्रों के साथ अंतिम संस्कार कर दिया । सब कुछ कितना शांत और सहज था....न कोई सांत्वना देने वाला और न ही कोई आँसू पोंछने वाला...। कहते हैं इंसान मौत को नहीं वरन् मौत इंसान को खींच लाती है....दो दिन बाद ही वह अपने देश की धरती पर पैर रखने वाले थे किंतु विधि के विधान को कौन टाल पाया है....? पूरी दुनिया को अपनी अपनी मुट्ठी में कैद करने का स्वप्न देखने वाला इंसान यहीं आकर मजबूर हो जाता है । टिकट कैंसिल करवाये गये । तीसरे दिन हवन संस्कार कर सामान्य काम-काज ऐसे शुरू हो गये मानो कुछ हुआ ही न हो....निवेदिता तथा विकास भी आये....निवेदिता को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि डैडी नहीं रहे....कुछ दिन पूर्व डैड जब उसके घर से आये थे तब उसने सोचा भी नहीं था कि वह उन्हें आखिरी बार देख रही है....उसके आने से स्मृतियों के घाव तेज हो गये किंतु फिर भी सूनी आँखें सूनी ही रही....वह भी कुछ दिन रहकर चली गई । घर में रह गई नमिता और यादें जीवन साथी की....दिन होता, रातें होती किंतु आँखों से नींद गायब हो गई थी । कभी अपरिचितों की तरह निहारती रह जाती दिव्या का प्यार भरा आवाहन भी उसके दिल की सूखी नदिया में हिलोर पैदा करने में असमर्थ हो गया था । उनकी ऐसी हालत देखकर निनाद और शिवानी भी समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें ? अनेक डाक्टरों को दिखाया लेकिन कोई रोग हो तो समझ में आये....आखिर मनोरोग विशेषज्ञ से सलाह ली, उन्होंने केस स्टडी करने के पश्चात् कहा,‘ इस जमीन ने इनके पति को निगल लिया है अतः यहाँ रहना इन्हें अभिशाप लगने लगा है....स्थान परिवर्तन से शायद इनकी स्थिति में कुछ सुधार आ पाये ।’ ‘ माँ, भारत चलोगी...।’ एक दिन निनाद ने पूछा । ‘ सच कह रहा है, मुझे मेरे देश ले चलेगा....बहुत याद आती है तेरे पिताजी की, वे वहाँ मिल जायेंगे ।’ कहते हुए वह बच्चों की तरह खिल उठी । सचमुच भारत पहुँचकर उन्हें जीवनदान मिल गया । उनके आने का समाचार सुनकर नीरा ,मीरा तथा अनेक रिश्तेदार और परिचित आये....। महीनों से रूके आँसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे.....। लगता था कि सूखी नदी में बाढ़ आ गई है, उस बाढ़ के साथ मन के गिले शिकवे, दुख बहते चले जा रहे थे....। अपने चारों ओर अपने हमदर्दो की भीड़ देखकर उन्हें लग रहा था कि इतनी बड़ी दुनिया में वह अकेली नहीं हैं । घर की एक-एक ईट में उन्हें देवेश की झलक दिखाई देती, उन्हें सदा अपने पास ही पाती तो उनका दर्द कम हो जाता । उनका पुराना नौकर नंदू मालकिन-मालिकिन कहते उनकी सेवा में लगा रहता वहीं उसकी पत्नी चमेली कभी उनके हाथ पैर दबाती तो कभी उनके सिर में तेल लगाने लगती....। नंदू और चमेली उनके पुराने नौकर ही नहीं उनके घर के सदस्य जैसे ही थे....। नमिता ने भी समय-समय पर उनकी सहायता की थी तथा अपने घर के सर्वेन्ट रूम में उनके रहने इंतजाम कर दिया था । उनके प्रयासों के कारण ही उनके बच्चे पढ़कर अच्छी नौकरी में लग गये थे पर वे दोनों ही अपने बच्चों के पास न रहकर उनके पास ही रहना चाहते थे....उनका कहना था जीवन की सवेरा जिनके साथ बिताया उन्हीं के साथ साँझ भी बितायेंगे । ‘ ममा, अब चलो, यहाँ सबसे तो मिल लीं ।’ माँ की ठीक स्थिति देखकर एक दिन निनाद ने कहा । ‘ बेटा, तू जा मैं यही रहूँगी ।’ ‘ ममा, तुम अकेली कैसे रहोगी....? तुम्हारा स्वास्थय भी ठीक नहीं रहता....फिर यहाँ तुम्हारी देखभाल कौन करेगा ?’ ‘ अरे, पगले, मैं अकेली कहाँ हूँ....इस घर में तेरे डैडी की यादें बसी हुई हैं....अड़ोसी-पड़ोसी नाते रिश्तेदार सब तो यहीं हैं, मेरी सेवा के करने के लिये नंदू और चमेली हैं ही....और अब मुझे किस चीज की आवश्यकता है ?’ नमिता ने सहज स्वर में कहा । ‘ लेकिन ममा....,’ ‘ देख बेटा, जिद मत करना, उनकी यादों के सहारे जीवन काट लूँगी पर जिस धरती ने मेरा सुहाग छीन लिया, उस धरती पर फिर कदम नहीं रखूँगी....वैसे भी बेटा, अपने देश की माटी जैसी सुगंध और कहीं नहीं है....मैं चाहती हूँ कि मेरी नश्वर देह उसी देश की माटी में समर्पित हो जहाँ के अन्न जल से यह फली फूली है...। समय पंख लगाकर उड़ रहा था....। रूपये पैसे की कोई कमी नहीं थी....पर फिर भी अकेलापन काट खाने को दौड़ता था....। देवेश की मृत्यु के पश्चात् वह अकेली रह गई थी....आखिर कब तक अड़ोसी पड़ोसी उनका दुख बाँटते....। वैसे सब सुख के साथी हैं, .दुख तो इंसान को अकेले ही काटना पड़ता है....। स्वयं पर नजर डाली तो पाया....वह अभी चुकी नहीं हैं....। चाहे तो बहुत कुछ कर सकती हैं....वरना उनका खाली तन-मन शीध्र ही शिथिल होता जायेगा....। अचानक उसने एक निर्णय ले लिया था कि अब वह श्रीमती मेहता....चीफ जस्टिस मेहता की बेबा बनकर नहीं वरन् नमिता मेहता बनकर जीयेगी....। पहले तो यह न करो वह न करो की बंदिश थी....। अब सब बंदिशें देवेश के जाने के साथ ही समाप्त हो गई हैं....उन्होंने कभी फैशन डिजाइनर का कोर्स किया था पर पहले समय की कमी के कारण तो बाद में स्टेटस के कारण अपनी हाॅबी को पूरा नहीं कर पाई थीं...। नमिता अपनी हाॅबी को पूरा करने में जुट गई । प्रारंभ में उन्हें कुछ परेशानी हुई पर धीरे-धीरे सब सहज होता गया । अपनी सहायता के लिये नमिता ने दो लड़कियाँ रख ली थीं....। थोड़े से समय के अंदर ही उसने अपने ही घर के हाॅल में अपनी ड्रेसेज की प्रदर्शनी आयोजित की....। रिसपान्स इतना अच्छा मिला कि वह स्वयं आश्चर्यचकित रह गई....। सारी की सारी ड्रेसेस बिकने के बाद उसे कई अच्छी रेडीमेड कपड़ों की दुकानों से आडॅर मिल गये....। इन आडॅर को पूरा करने के लिये अपना स्टाफ बढ़ाना पड़ा....अंततः उसने अपना बुटिक खोल लिया...। कई बार निनाद और शिवानी ने उसे अपने पास आने के लिये कहा पर उसके पास समय ही कहाँ था जो जाती....। प्रियेश के होने के समय पुरानी सारी बातों को भुलाकर उसने जाना भी चाहा पर उन्हीं दिनों उनके शहर की एक लड़की अपूर्वा मिस इंडिया चुन ली गई । उसे मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता में भाग लेने जाना था, उसने अपनी ड्रेसेज बनाने का जिम्मा उसे सौंपा था अतः जा नहीं पाई...। बीच-बीच में निनाद और निवेदिता आकर मिल जाते....। उन्हें माँ को इस उम्र में इतनी मेहनत और लगन से काम करते देखकर आश्चर्य होता था....तब उन्हें लगता सच काम करने की कोई उम्र नहीं होती....वस्तुतः इंसान तन से नहीं मन से बूढ़ा होता है । वैसे लगभग हर दिन ही निनाद फोन करता रहता था लेकिन पिछले एक हफ्ते से उनका फोन खराब पड़ा था....। टेलीफोन डिर्पाटमेंन्ट में कई बार कंप्लेंट करने के बावजूद अभी तक ठीक नहीं हुआ था । उसका मोबाइल भी चार्ज नहीं हो रहा था शायद बैटरी खराब हो गई थी । उसे भी बदलवाना था । निनाद की कोई खबर न मिलने पर नमिता परेशान थीं....आखिर निनाद को मैसेज देने के लिये उसने कम्प्यूटर में ई-मेल साइट खोली ही थी कि स्क्रीन पर उसका मैसेज दिखाई दिया....माॅम, मैं इंडिया आ रहा हूँ...शायद हमेशा के लिये....। माँ मैं दिव्या और प्रियेश को अपनी धरती पर अपनी संस्कृति के साथ पालना चाहता हूँ....माना यहाँ रूपया....पैसा, सुख सुविधा सब कुछ है पर संस्कार नहीं....। जानती हो माँ, कल दिव्या डेंटिग पर जा रही थी ,शिवानी ने पूछा तब उसने बताया....। न जाने देने पर उसने खूब हाय तौबा मचाई....। हम सबकी यहाँ यही स्थिति है न अपनी मानसिकता छोड़ पाते है और न वहाँ की मानसिकता अपना पाते हैं । आखिर ऐसे दोराहे पर कब तक खड़े रहेंगे...? मैंने सोच लिया है अब और नहीं रहूँगा....कहीं बहुत देर न हो जाए इसलिये हमने भारत लौटने का निर्णय ले लिया है ।’ पढ़कर नमिता की आँखों में आँसू भर आये....खुशी या गम में यह आँखें पता नहीं क्यों भर आती है....? लिखा....आ जाओ बेटा, यहाँ भी काम की कोई कमी नहीं है....। तुम्हारी धरती, तुम्हारी जमीन तुम्हारा इंतजार कर रही है... लिखकर उसने मेसेज भेज दिया था । कंप्यूटर बंदकर कुर्सी पर बैठे-बैठे आँखें बंद कर ली....आखिर शाख का पंक्षी शाख पर लौट ही आया....निज माटी की सुगंध उन्हें खींच ही लाई, सोचकर उन्होंने संतोष की सांस ली । सुधा आदेश

Tuesday, March 3, 2020

अनबूझ पहेली है जीवन

अनबूझ पहेली है जीवन जीवन एक ऐसी पहेली है जिसका उत्तर ढूंढते ढूंढते पूरी उम्र गुजर जाती है पर फिर भी उसका उत्तर इंसान को नहीं मिल पाता । रिश्तो के चक्रव्यूह में फंसा मानव ना सबको खुश रख पाता है और ना ही स्वयं खुश रह पाता है । अक्सर ऐसा होता है कि हम अड़ोसी पड़ोसी से तो स्नेहिल व्यवहार करते हैं पर जहाँ खून के रिश्तो की बात आती है हम उनसे बिना यह जाने अपेक्षा करने लगते हैं कि हम स्वयं उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतर भी पा रहे हैं या नहीं । बस यही से रिश्तों में दरार पैदा होने लगती है । जरा जरा सी बात पर दोषारोपण करना आम बात होती जाती है । इसी के साथ तकरार प्रारंभ हो जाती है । इस तकरार में यदि कोई किसी अनुचित बात पर अपनी प्रतिक्रिया प्रकट करता है तो उसे घमंडी, अहंकारी कहा जाता है ...अगर कोई संस्कारी व्यक्ति रिश्तो का सम्मान करते हुए चुप रहता है तो उसे नासमझ या कमजोर मान लिया जाता है . ..उसका मानसिक शोषण करने से भी तथाकथित अपने ही बाज नहीं आते । स्थिति तब भयावह हो जाती है जब व्यक्ति अपने पालकों के प्रति निःस्पृह हो जाता है । उसे उनके दुख दिखाई नहीं देते या यूँ कहिए वह उनका भार उठाने हेतु अपने सुखों की बलि नहीं चढ़ाना चाहता । दोनों ही स्थितियां एक सच्चे ईमानदार पारिवारिक एवं सामाजिक मूल्यों के प्रति समर्पित व्यक्ति के लिए असह्य हैं । इंसान को इन समाजिक परिस्थितियों के बीच रहते हुए जीवन यापन करना पड़ता है । एक सच्चा और निस्वार्थ इंसान रिश्तो को बनाए रखने के लिए खून के घूंट पीकर भी न सिर्फ रिश्ते निभाता है वरन उन्हें बचाए रखने के लिए सर्वस्व अर्पित करने का प्रयास करता है क्योंकि उसके लिए रिश्ते दुनिया की सर्वश्रेष्ठ अमानत है । कुछ लोग कहते हैं सम्मान खोकर , रिश्ते निभाना स्वयं को स्वयं की नजरों से गिराना होता है पर सच तो यह है अगर ऐसा करके भी हम रिश्तो को बचा पाए तो यह इंसान की हार नहीं जीत ही होगी..आखिर अपनों के बीच मान अपमान कैसा ? अगर जीवन में रिश्ते ही नहीं रहे तो जीवन, जीवन नहीं पाषाण बन जाएगा । पाषाण तो बन ही गया है मानव, ऐसे रिश्ते निभाते निभाते । तभी उसे अपनों के दुख दिखाई नहीं देते तथा दूसरों के सुखों से ईर्ष्या होती है । संवेदनहीनता की पराकाष्ठा इतनी हो गई है कि वह कामयाबी का रास्ता स्वयं अपने परिश्रम से नहीं वरन दूसरों की राह में रोड़ा अटका कर पाना चाहता है । शायद वह यह समझकर भी नहीं समझना चाहता कि जो कामयाबी मेहनत से प्राप्त नहीं की जाती वह स्थाई नहीं होती । कुतर्कों के जाल में फंसे ऐसे इंसान अपनी शारीरिक क्षमता सकारात्मक कार्यों के बजाय नकारात्मक कार्यों में जाया करने से बाज नहीं आते । यह तो हुई इंसान की संवेदनहीनता की बात ...पर हमारे समाज में आज भी कुछ परंपराएं , प्रथायें, अंधविश्वास इस कदर व्याप्त है कि जाने-अनजाने कितने ही मासूमों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है पर फिर भी वे ऐसी घटनाओं को दैवी प्रकोप मानते हैं । ऐसे व्यक्ति डॉक्टर के पास जाने की बजाय , गाँव के ओझा के कहने पर झाड़-फूंक का सहारा लेते हैं । समाज में व्याप्त इस घुन से तभी निजात पाई जा सकती है जब देश के कोने -कोने में शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार हो । शिक्षा न केवल व्यक्ति को सभ्य एवं सुसंस्कृत बनाती है वरन उनके विचारों में परिपक्वता लाकर दुनिया को देखने , समझने एवं तदनुसार आचरण करने के नजरिए में भी बदलाव लाती है । अगर हममें से प्रत्येक इंसान एक अनपढ़ को शिक्षित करने का बीड़ा उठा ले तो समाज में व्याप्त अशिक्षा से मुक्ति पाई जा सकती है । प्रत्येक इंसान के जीवन में कभी-कभी कुछ ऐसे भी पल आते हैं जब इंसान निराशा में डूब जाता है । उसे अपने आगे पीछे अंधेरा ही अंधेरा नजर आने लगता है । निराशा और सिर्फ निराशा ही उसके जीवन का हिस्सा बनती जाती है । ऐसे समय में यह न भूलें कि दिन-रात जीवन चक्र के हिस्से हैं । अंधेरा कितना ही घना क्यों ना हो कुछ समय अंतराल के पश्चात प्रकाश, अंधकार को चीरकर तन- मन को प्रफुल्लित कर ही देता है । कभी भी किसी भी परिस्थिति में अपना हौसला टूटने मत दीजिए क्योंकि जब जीवन का एक रास्ता बंद होता प्रतीत होता है तब कोई दूसरा रास्ता अवश्य खुल जाता है अतः अपनी सूझबूझ के साथ दूसरा रास्ता खोजने का प्रयत्न कीजिए मंजिल ना मिले हो ही नहीं सकता । माना पथ है कंटकाकीर्ण, मंजिल है दूर हौसला हो गर बना ही लेंगे आशियाना अपना । सुधा आदेश

आंदोलित है मन

आंदोलित है मन जैसा मैंने अब तक सुना समझा और जाना है, लेखक संवेदनशील होता है । शायद यही कारण है दुनिया में घटती कोई भी अच्छी घटना उसे सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करती है वहीं बुरी घटनाओं की नकारात्मक ऊर्जा उसके तन-मन को आंदोलित कर देती है ...पर पिछले कुछ दिनों की घटनायें मन को आंदोलित कर रही हैं...क्या लेखक वामपंथी या दक्षिणपंथी होता है ? क्या अपनी विचारधारा के चश्मे से ही वह समाज में व्याप्त अनाचार और दुराचार के विरुद्ध लेखनी चलाता है... वरना सबका साथ सबका विकास का नारा देने वाली सरकार द्वारा दोनों सदनों में पारित विधेयक का ऐसा विरोध...ऐसी हिंसा !!! माना ऐसी हिंसाएं पहले भी होती रही हैं क्योंकि कोई भी समाज अचानक असहिष्णु नहीं होता । विचारणीय प्रश्न यह है कि इन हिंसाओं से फायदा किसे होता है ? आम आदमी को अपनी रोजी -रोटी से ही फुर्सत नहीं है वे इन आंदोलनों में भाग ले ही नहीं सकते । यह कौन स्वार्थी तत्व हैं जो हमारे देश के सामाजिक ढांचे को तोड़ने के साथ सामाजिक एकरसता को छिन्न- भिन्न करने में लगे हैं । अगर हमें देश को विकास के रास्ते पर ले जाना है तो इन स्वार्थी तत्वों को पहचान कर इन्हें नेस्तनाबूद करना होगा । किसी एक व्यक्ति या दल पर हिंसा का ठीकरा फोड़ने से काम नहीं चलेगा । एक बात और क्या ऐसी घटनाएं पहले इस देश में नहीं हुई थीं ? क्या समाज में अचानक असहिष्णुता पैदा हो गई? जनसमाज तो वही है जो आज से दशकों पूर्व था । एक आदमी अचानक देश में अराजकता कैसे फैला सकता है ? अगर ऐसा हुआ है तो उसमें उस आदमी या दल का नहीं वरन समाज का दोष है । समाज एक दिन में नहीं बनता, उसे बनने में सदियाँ लग जाती है । यह सच है कि हर व्यक्ति अपनी-अपनी विचारधारा अपनाने को स्वतंत्र है पर लेखक का दायित्व आम जन से अलग है । उसे निष्पक्ष रहते हुए समाज के उत्थान तथा भाईचारे के महत्व को ध्यान रखते हुए अपनी लेखनी को बल प्रदान करना चाहिए । लेखक को समाज को जोड़ने का प्रयत्न करना चाहिये न की तोड़ने का । आज मुझे यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी समाज को जोड़ने की बजाय अपनी करनी से देश में नफरत भड़काने का कार्य कर रहे हैं । सदियों से हम आपस में ही लड़ते रहे...शायद इसी कारण हमें गुलाम रहना पड़ा । जो देश या देशवासी अपनी मूल जड़ों से नाता तोड़ लेते हैं, अपनी ही संस्कृति पर गर्व करने के बजाय उसका मज़ाक बनाते है वह देश या समाज कभी उन्नति नहीं कर सकता । शायद अपनी इसी कमजोरी के कारण ही हम पिछड़े रह गए..। हमारे देश को दो दलीय व्यवस्था होनी चाहिये...कांग्रेस ने 60 वर्षो तक इस देश में शासन किया है फिर भी हम पिछड़े है...आखिर क्यों ? किसी दल का विरोध करते हुए यह मत भूलिये कि कोई भी व्यक्ति चाहे वह नरेंद्र मोदी हो या कोई और , जब तक सबको साथ लेकर नहीं चलेगा,शासन नहीं कर पाएगा । एक को संतुष्ट करने के प्रयास में दूसरे को असंतुष्ट कर सामाजिक भेद-भाव की प्रवृत्ति असहिष्णुता को ही जन्म देगी जो किसी भी देश और समाज के लिए घातक है । सुधा आदेश

Monday, March 2, 2020

मन की बात

मन की बात हमारा देश प्राचीन विराट सांस्कृतिक विरासत एवं परंपराओं वाला देश है । इस देश में कण-कण में भगवान व्याप्त हैं , की मात्र अवधारणा ही नहीं है , पूजने की परंपरा भी रही है । जहाँ हमारे शास्त्रों में पुरुष रूप में ब्रह्मा, विष्णु ,महेश पूजनीय हैं वहीं स्त्री रूप में लक्ष्मी , सरस्वती और दुर्गा भी है । पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव में पिछले कुछ वर्षों से हमारी युवा पीढ़ी दिग्भ्रमित होती जा रही है । वह अपनी प्राचीन परंपराओं को अक्षुण्ण रखने की बजाय उन्हें तोड़ने पर आमदा है । वह भूल रही है कि किसी देश की पहचान उसकी सांस्कृतिक धरोहरों से होती है जब धरोहरें ही नहीं रहीं तो देश कहाँ बचेगा !! जिस देश में रानी लक्ष्मीबाई ,अहिल्याबाई होलकर जैसी वीरांगनायें, इंदिरा गांधी ,सुचेता कृपलानी, सुषमा स्वराज जैसी राजनीतिज्ञ, अरुंधति राय, किरण बेदी, चंद्रा कोचर इंदिरा नूई जैसी प्रशासनिक, कल्पना चावला ,सुनीता विलियम जैसी भारतीय मूल की अंतरिक्ष यात्री, पी.टी. ऊषा , मैरी कॉम, पी.वी. सिंधु जैसी अनेक खिलाड़ी तथा लोपामुद्रा , गार्गी जैसी अनेक विदुषियां हुई हैं, उस देश में 'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ ' जैसा नारा जहाँ आश्चर्यचकित करता है वही मन को दुखी भी कर देता है । यह जानते हुए भी कि नारी हमारी सृष्टि की अनुपम कृति है ,वह जीवनदायिनी है... उसके बिना संसार संभव ही नहीं है । हम क्यों नहीं उसके हृदय के कोमल तन्तुओं को समझ पाते ? क्यों सदा उसे उपभोग की वस्तु समझते रहे ? जब चाहा उसे सीने से लगा लिया जब चाहा बेरहमी से उसकी भावनाओं को कुचल दिया । शायद कोई भी इस प्रश्न का उत्तर ना दे पाए कि हमारी मानसिकता में बदलाव कब क्यों और कैसे आया । माना समाज के कुछ लोग पूरे समाज का दर्पण नहीं हुआ करते पर यह भी सच है कि आज नकारात्मक विचार ही पूरे समाज में हावी है । तीन चार वर्ष की बच्ची से लेकर सत्तर वर्ष की स्त्री भी इन नर पिचाशों की हवस से बच नहीं पा रही हैं । पुरुषों के सौ गुनाह भी माफ है ...समाज में प्रचलित इस उक्ति के कारण पुरूष तो घिनोना से घिनोना काम करके भी बच निकलता है पर स्त्री को संपूर्ण जीवन अनकिए अपराध की सजा भुगतनी पड़ती है । समाज भी स्त्री को ही दोषी ठहराता है ...मसलन अकेली क्यों जा रही थी ? अब स्त्रियां ही अपने हाव-भावों से पुरुषो को निमंत्रण दे तो पुरुष बेचारा क्या करे ? ना जाने कितनी ही बेसिर पैर की बातें और दलीलें ...। आखिर ऐसा क्यों ? क्या इस संसार में पुरुषों को ही अपनी इच्छा अनुसार जीने का हक है ,स्त्रियों को नहीं ? आखिर यह कैसी सामाजिक व्यवस्था है जिसमें स्त्री -पुरुष को एक ही गाड़ी के दो पहिए कहने के बावजूद , उनमें भेद किया जाता है । लड़के के होने पर खुशियां तथा लड़की के होने पर मातम मनाया जाता है । इन सब बातों के लिए सिर्फ समाज को या पुरुषों को दोष देने से काम नहीं चलेगा ...कहीं ना कहीं इसके लिए स्त्रियां भी दोषी हैं । लड़कियों को तो वे हजार पहरे में रखती हैं । यह न करो , वह न करो की तमाम बंदिशें लगाती हैं जबकि लड़कों को वे खुली छूट देती हैं । लड़कों को वे मर्यादा में रहने और नैतिकता का पाठ पढ़ाने में चूक जाती हैं । अगर वे लड़के-लड़की में भेद करना बंद कर दें लड़कियों के साथ लड़कों को भी नैतिकता और सदाचार की उचित शिक्षा दें तो वह दिन दूर नहीं समाज की मानसिकता बदलने के साथ लड़कियों के प्रति कटुता अनाचार दुराचार की प्रवृत्ति में कमी आ जाये । इसके साथ ही युवावस्था में कदम रखती लड़कियों से विनम्र निवेदन है कि वह स्वयं को प्रदर्शन की वस्तु न बनायें । माना सौंदर्य व्यक्ति की खूबसूरती में चार चाँद लगाता है पर सुंदरता का भोंडा प्रदर्शन वितृष्णा ही पैदा करता है । प्रदर्शन करना है तो अपने आंतरिक सौंदर्य एवं अपने अंतर्निहित योग्यता का करें । स्वयं को इतना सबल एवं योग्य बनाए कि लोग आपकी योग्यता से प्रभावित होकर स्वयं आपकी प्रशंसा के लिए बाध्य हों । इसके साथ ही अपने आत्मसम्मान के साथ कभी समझौता ना करें । अगर कभी आपको ऐसा लगे कि आपका मानसिक या शारीरिक शोषण हो रहा है तो उसे चुपचाप सहन करने की बजाय उसके विरुद्ध आवाज़ उठायें ।। यह न भूलें कि जब तक आप स्वयं का सम्मान नहीं करेंगी , कोई दूसरा भी आपका सम्मान नहीं करेगा । नारी परिवार की धुरी है वह जैसा चाहे वैसे ही समाज का निर्माण कर सकती है । कहते हैं बच्चे का पहला शिक्षक माँ होती है । अगर शिक्षक की मानसिकता ही दोषपूर्ण भेदभाव वाली होगी तो बच्चे का स्वस्थ विकास नहीं हो पाएगा । बच्चा ही अगर प्रदूषित मानसिकता का होगा तो स्वस्थ समाज का निर्माण संभव ही नहीं है । जब तक समाज स्वस्थ नहीं होगा तब तक स्वस्थ देश की कल्पना अकल्पनीय ही होगी । अंत में इतना कह इतना ही कहना चाहूँगी अगर हम स्वयं की मानसिकता को बदलने में कामयाब हो पाए तो समाज स्वयं ही बदल जाएगा । लड़कियाँ भार नहीं उपहार हैं , सृष्टि की रचयिता घर की बहार हैं । मत कुचलो, समझो महत्व उनका तुम्हारा गुलशन इनसे ही गुलजार है…। मानो या न मानो जीत ही लेंगी जंग अपनी सामर्थ्य उनमें, आज नहीं वे लाचार हैं । सुधा आदेश