Sunday, June 28, 2020

रोप दें कुछ पौधे प्यार के

कुछ शब्द चित्र...

चलो रोप दें पौधे प्यार के

बेचैनियां बहुत इस दिल में, गिले शिकवे भी बहुत,
चलो रोप दें दिल में कुछ पौधे प्रेम के बंधु ।

नव पल्लव इन पौधों के जब्ज कर ही लेंगे नफरत बहुत,
चलो भूलकर कुछ कही अनकही बातें गले मिल तो लो बंधु ।

मत भूलो यहाँ कुछ नहीं तुम्हारा, है महत्व बोली का बहुत,
चाहे कोई कुछ भी कहे, न बोलो कटु शब्द बंधु ।

तुम रहो या न रहो, याद आयेंगे तुम्हारे शब्द,तुम्हारे कर्म बहुत,
कर्म को ही पूजा बनाकर लक्ष्य,चलते ,बढ़ते चलो बंधु ।

जिंदगी को यूँ व्यर्थ जाया न करो,माना जीवन बहुत,
हर पल को जियो, जिंदगी खुदा की नेमत है बंधु ।

सीमा पर तैनात प्रहरियों से देशभक्ति सीखो बहुत,
नमन कर वीरता को उनकी, श्रद्धा सुमन अर्पित कर याद कर लो बंधु ।

@ सुधा आदेश

Thursday, June 18, 2020

उपन्यास अंततः-2

अंततः -2 आज से 30 वर्ष पूर्व की दिसंबर माह की सर्द सुबह थी । मैं और मेरी छोटी बहन श्वेता कॉलेज जाने की तैयारी कर रही थीं तथा माँ पूर्णिमा रसोई घर में नाश्ता बना रही थीं । उसी समय घंटी बजी माँ ने कहा , ' कृष्णा देखना तो कौन आया है ?' दरवाजा खोला तो आनंदी दादी को खड़ा पाया । आनंदी दादी हमारी दादी की अभिन्न मित्र ही नहीं हमारी पड़ोसन भी थीं जिन्हें हम सब भी दादी ही बुलाया करते थे । ' प्रणाम दादी ।' ' खुश रहो बेटा, तुम्हारी माँ कहाँ हैं ?' 'दादी, माँ किचन में हैं । माँ दादी आई हैं ।' कहकर मैं अंदर चली गई । आनंदी दादी किचन में चली गईं तथा माँ से कहा, ' पूर्णिमा बहू , मेरी ननद शिवानी तथा ननदोई नरेन्द्र का पुत्र शशांक जो अमेरिका में नौकरी कर रहा है , एक महीने के लिए भारत आया हुआ है । मैं उसे बचपन से जानती हूँ । अगर बात बन गई तो राज करेगी तेरी बेटी... सबसे अच्छी बात तो यह है नरेंद्र भी सेवामुक्ति के पश्चात यहीं इंदिरा नगर में आकर बस गया है ।' ' माँ नाश्ता.. ।' वे दोनों बात कर ही रही थीं कि मैंने और श्वेता ने कॉलेज जाने के लिए तैयार होकर किचन में प्रवेश करते हुए कहा । ' हाँ बेटा, नाश्ता तैयार है ...यह लो ।'कहते हुए माँ ने दोनों को एक-एक पेट पकड़ाई फिर आनंदी दादी की ओर उन्मुख होकर कहा ,' चाची , आप भी नाश्ता करके जाइएगा । मनीष सुबह की सैर के लिए गए हैं । आते ही होंगे उनसे भी बात कर लीजिएगा ।' ' नहीं बहू ,अभी बहुत काम बाकी है । तू तो जानती ही है आज मेरा सोमवार का व्रत है । मंदिर से लौट रही थी तो सोचा कि तुझे बताती जाऊँ । तुझे तो पता ही है तेरे सुदेश चाचा को सुबह 9:00 बजे तक नाश्ता चाहिए । समय के बड़े पाबंद हैं फौज से रिटायर हुए समय बीत गया पर फौजी तेवर आज भी बरकरार हैं और फिर आकांक्षा भी आई हुई है डिलीवरी के लिए । उसकी भी तबीयत ठीक नहीं चल रही है । अच्छा चलती हूँ फिर आऊँगी तब आराम से बातें करेंगे । अब तो भरपेट मिठाई की खानी है । अपनी श्वेता है ही ऐसी जो भी देखेगा देखता ही रह जाएगा ।' ' चाची ...।' माँ ने बेचैनी से कहते हुए कृष्णा और श्वेता की ओर नजर घुमाई तो पाया वे दोनों उनकी बातों से बेखबर एक दूसरे से बातें करते हुए नाश्ता कर रही हैं । संतोष की सांस लेते हुए वे आनंदी चाची को छोड़ने के लिए बाहर आई तथा धीरे से उनसे कहा.. ' चाची, कृष्णा बड़ी है और आप श्वेता की बात कर रही हैं।' 'दुनियादारी सीख बहू , बड़ी नहीं तो छोटी ही सही... विवाह तो करना ही है । वैसे भी ऐसा रिश्ता बार-बार नहीं मिलता । ' 'चाची आपने तो कभी दोनों में भेदभाव नहीं किया फिर आज क्यों ?' व्यथित होकर माँ ने कहा । ' बहू, इंसान को कभी कभी व्यवहारिक बनना पड़ता है । मैंने शशांक की माँ मिताली से पहले कृष्णा के बारे में बात की थी पर वह तैयार नहीं हैं । उन्हें गोरी लड़की चाहिए तब मैंने उनसे श्वेता की बात की तब मिताली ने कहा ठीक है देख लेते हैं । अगर लड़के को लड़की पसंद आ गई तो रिश्ता कर लेंगे । चिंता ना कर बेटी, तेरी कृष्णा है ही इतनी गुणी कि एक दिन उसके गुणों का पारखी भी मिल जाएगा ।' व्यथित स्वर में उन्होंने उत्तर दिया तथा चली गईं । ' अच्छा ममा हम भी चलते हैं । आज प्रैक्टिकल है , आने में शायद देर हो जाए ।' मैंने अपना बैग उठाकर बाहर जाते हुए कहा। ' ममा, मुझे भी आज आने में देर हो सकती है । कल मेरी सहेलियाँ कालेज के पश्चात ' कभी-कभी ' मूवी देखने का कार्यक्रम बना रही थीं अतः जाना ही पड़ेगा ।' श्वेता ने इठलाते हुए कहा । ' शीघ्र आने का प्रयत्न करना । समय ठीक नहीं है...।' चलते समय माँ के शब्द हमारे कानों से टकराये । सुधा आदेश क्रमशः

Tuesday, June 16, 2020

सच्चाई





सच्चाई


सच्चाई मंदिरों में शंख बजते रहे , 
बाहर लूटमार होती रही 
 तुम वातानुकूलित कक्ष में  
चैन की बांसुरी बजाते रहे । 

 बीज किसने बोया, 
 पेड़ किसने सींचा फल कौन खायेगा…
 पर्दे के पीछे ही छिपा रहा 
 अकलमंदी पर तुम अपनी मुस्कुराते रहे ।

 ईश्वर के घर देर है अंधेर नहीं 
निर्विवाद सत्य को भूल 
 सफलता पर अपनी तुम 
सदा इतराते रहे । 

 धर्म और जाति की लेकर आड़ 
भाइयों को भाइयों से लड़ा कर 
 कब्रों उनकी खड़ी कर ऊंची अट्टालिकाएं
 सुखद भविष्य के सुनहरे स्वप्न देखते रहे ।

 टूट कर बिखरे जब 
स्वप्न समेटने में जा पहुंचे 
 दीन-हीनों के पास
 बेरुखी से होकर त्रस्त उनकी 
 विवशता पर नीर बारंबार बहाते रहे । 

 सुधा आदेश

Tuesday, June 9, 2020

सासू माँ की बहू के नाम पाती

प्रिय… क्या कहूँ तुम्हें बेटी या बहू… 

आज एक वर्ष होने या रहा है तुम्हारे विवाह को ...तुम्हें इस अवसर पर ढेरों आशीर्वाद । ईश्वर तुम्हें सदा सुखी रखे । यह सच है जब मैंने तुम्हें पहली बार देखा था तो मेरे दिल ने कहा था… यही है जो तेरे घर सहेजकर ,तेरे घर की परम्पराओं को जीवित रख पायेगी… मैंने निर्णय लिया और बेटे ने अनुमोदन कर दिया ...जबरदस्ती नहीं मन से क्योंकि तुम थीं ही नाजुक, भोली, खूबसूरत… मैं जानती हूँ कि एक डाली से टूटकर दूसरी डाली से जुडन्स आसान नहीं होता । एक स्त्री के लिए तो सब कुछ बदल जाता है । नया परिवेश में स्वयं को ढालना, नए रिश्तों को निभाना आसान नहीं होता पर मुझे खुशी है तुमने हर रिश्ते में मिठास घोलकर हमारे घर को स्वर्ग बना दिया है । बेटा, तुम मेरे घर की लक्ष्मी, सरस्वती हो पर मैं चाहती हूँ कि अगर कभी तुम्हें लगे कि तुम्हारे साथ अन्याय हो रहा है तो दुर्गा बनकर उसका प्रतिकार अवश्य करना क्योंकि कुंठित मन स्वयं तो दुखी रहेगा , दूसरों को भी सुख नहीं दे पाएगा । मैं आज तुमसे यही कहना चाहती हूँ कि तुम्हारे हर निर्णय में , मैं सदा तुम्हारे साथ रहूँगी । सदा खुश रहो मेरी बेटी… 

 तुम्हारी सासू माँ