Friday, July 24, 2015

संभावना

संभावनाओ का जब हो जाए अंत तब भी एक संभावना उपजती है आखिर इंसानी प्यास कब बुझी है ? इंसानी प्यास एक जिजीविषा है जीने की विषम परिसतिथियों में वरना न इंसा होता न यह दुनिया होती । गम और उदासी की लपेटे चादर, मन मस्तिशक के कर कपाट बंद इंसा न स्वयं जी पाएगा न किसी को जीने देगा । याद रखना सदा छोटी – छोटी बात पर रोता कल्पता इंसान मन में वितृष्णा भर देता है । वही लबों पर हंसी की छोटी सी लहर अँधेरों में भी प्राची की नवकिरण का एहसास करा जाती है । निर्भर है तुम पर मिटा दो अपनी दुनिया निज हस्तों से या रजो-गमों से बेखोफ जुट जाओ मंजिल की तलाश में ।

No comments:

Post a Comment