नींव के पत्थर हैं ये
तराशों इन्हें
मुरझा न जायें
सम्भालो इन्हें।
आज विज्ञान ने भी सिद्ध कर दिया है कि बच्चों में संस्कारों की जड़ें माँ की कोख में ही पड़ने लगती हैं। बच्चों के साथ समय बिताने, उनके मासूम प्रश्नों का उत्तर देने, उन्हें नैतिक ज्ञान की शिक्षा देने का काम बच्चे की पहली शिक्षक माँ का है, उससे बच्चे आज वंचित हैं। आज के आपाधापी के युग में अधिकतर माता-पिता के पास अपने बच्चों के लिए समय ही नहीं है।
शिक्षा प्रणाली भी बच्चों को व्यावहारिक या नैतिक शिक्षा देने की बजाय किताबी शिक्षा ही देती है। एकल परिवार तथा एक ही बच्चे की अवधारणा ने पारिवारिक ढांचे को छिन्न-भिन्न कर दिया है। अकेला बच्चा अपनी बात कहे भी तो किससे कहे? बच्चों को अपने स्वप्न पूरा करने का माध्यम बनाने की बजाय उन्हें अपने स्वप्न स्वयं देखने और उन्हें पूरा करने का हौसला दीजिए।
बच्चों की सफलता-असफलता सिर्फ उसकी ही नहीं, पालकों की भी है। व्यर्थ दोषारोपण करने की बजाय उनके मानसिक स्तर पर उतर कर उनकी समस्याओं को समझ कर उनका मार्गदर्शन करें, उन्हें आपने ध्येय में सफलता प्राप्त करने के लिए कर्मठता का महत्व समझायें तभी वे बच्चों को शानदार जीवन के लिए तैयार करने के साथ जिम्मेदार नागरिक बना पाएंगे।
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