सच्चाई
बाहर लूटमार होती रही
तुम वातानुकूलित कक्ष में
चैन की बांसुरी बजाते रहे ।
बीज किसने बोया,
पेड़ किसने सींचा
फल कौन खायेगा…
पर्दे के पीछे ही
छिपा रहा
अकलमंदी पर तुम
अपनी मुस्कुराते रहे ।
ईश्वर के घर
देर है अंधेर नहीं
निर्विवाद सत्य को भूल
सफलता पर अपनी
तुम
सदा इतराते रहे ।
धर्म और जाति की
लेकर आड़
भाइयों को भाइयों से लड़ा कर
कब्रों उनकी
खड़ी कर ऊंची अट्टालिकाएं
सुखद भविष्य के
सुनहरे स्वप्न देखते रहे ।
टूट कर बिखरे जब
स्वप्न
समेटने में जा पहुंचे
दीन-हीनों के पास
बेरुखी से होकर
त्रस्त उनकी
विवशता पर नीर
बारंबार बहाते रहे ।
सुधा आदेश
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