विलियम वर्ड्सवर्थ अपनी कविता ‘रेनबो’ में कहते हैं -बच्चा ही मनुष्य का पिता है अर्थात आज मनुष्य जो है उसकी आधार शिला बचपन में ही रखी जाती है, जो संस्कार, आदतें या वह बाल्यकाल में सीखता है, वही उसके जीवन पर्यंत रहते हैं।
बच्चे के पहले शिक्षक अभिभावक होते हैं। जिस माहौल में बच्चा पलता बढ़ता है, उसका उसके व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता है। दुःख की बात तो यह है कि अभिभावक बच्चों के ऊपर अपने सपने लाद देते हैं। कभी-कभी तो यह दबाव इतना होता है कि बच्चे में सामाजिकता पनप नहीं पाती। वह रिश्ते-नातों, मित्रों से दूर होता हुआ भावनाशून्य होता जाता है।
वह पुस्तकों का कीड़ा तो बन जाता है किन्तु उसमें व्यावहारिकता नहीं आ पाती। असफलता उसे उद्देलित कर देती है, वह अवसाद का शिकार हो जाता है।
बच्चों को सिर्फ कक्षा में रैंक लाने के लिए ही तैयार नहीं करना चाहिये वरन उसे जीवन के रणसंग्राम से जूझने के लिए भी तैयार करना आवश्यक है। इसके लिए बच्चों को पढ़ाई के साथ उनकी रुचि के अनुसार प्रशिक्षणअवश्य दिलवाना चाहिए। चाहे वह खेल हो या चेस, तैराकी या अन्य कोई।
आज के समय में बच्चों के सर्वांगीण विकास की जिम्मेदारी सिर्फ स्कूल की ही नहीं है वरन अभिभावकों की भी है क्योंकि भावनात्मक विकास से वंचित व्यक्ति व समाज दोनों के लिए घातक बन जायेगा।
सुधा आदेश
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