Monday, September 16, 2024

मेरी नई पुस्तक

 नई किताब

भूल गए हम जिनको

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स्त्रियों को सदा अबला कहा जाता है लेकिन अगर हम अपने देश के समृद्ध और गौरवशाली अतीत पर नजर डालें तो हमें हमारे देश में ऐसी वीरांगनाओं की कमी नहीं मिलेगी जिन्होंने अपने देश के लिए हँसते-हँसते अपने प्राण न्योछावर कर दिये। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे इतिहासकार उनके योगदान के बारे में मौन रहे हैं। इसका कारण शायद यह है कि हमारा देश पहले मुगलों का तथा बाद में अंग्रेजों के आधिपत्य में रहा जिन्होंने हमारी सभ्यता और संस्कृति को कुचलने के साथ हमारे मस्तिष्क को भी कुंद बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

 भारत को स्वतंत्र कराने जितना योगदान पुरुषों का रहा है उतना ही महिलाओं का भी, चाहे वह सन 1857 का स्वतन्त्रता संग्राम रहा हो या बाद का। सन 1857 से पहले भी अनेक वीरांगनाओं ने अपने राज्य को दुश्मनों की नजर से बचाने के लिए हथियार उठाए थे। रानी झाँसी लक्ष्मी बाई का नाम तो हम सब जानते हैं। उनके बारे में बहुत कुछ लिखा गया है किन्तु उसी समय गोरखपुर के निकट तुलसीपुर की रानी ईश्वरी देवी के त्याग और बलिदान के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं।              

 कश्मीर की रानी दिद्दा हो या काकतीय राजवंश की रानी रुद्रमा देवी, मध्य प्रदेश की गोंड़ रानी दुर्गावती हों या कित्तूर की रानी चेन्नमा या फिर आम आदमी के संघर्ष का प्रतीक अजीजन बाई, उदा देवी, नीरा आर्या, सुशीला मोहन और कनकलता बरुआ। सबके मन में एक ही ज्वाला थी, देश भक्ति की ज्वाला। इस ज्वाला ने उन्हें देश के लिए सर्वस्य अर्पण करने का साहस दिया। 

 इन सब विभूतियों के बारे में जानने के लिए मैंने अखबारों, पुस्तकों यहाँ तक कि गुगुल को भी खंगाला। मुझे जानकार आश्चर्य हुआ कि जिस स्त्री को हम सुकुमारी, कोमलांगी समझते रहे हैं वह अदम्य साहस, वीरता और बुद्धिमत्ता का ऐसा संगम है जो पुरुषवादी मानसिकता के साथ उसके बुद्धिचातुर्य तथा बुद्धिबल को भी चुनौती देने में सक्षम है। इसके लिए उसे उचित प्रशिक्षण की आवश्यकता है। मुझे यह जानकार खुशी हुई कि राजकन्याओं को प्राचीन काल से ही, शिक्षा के साथ युद्ध कला का भी प्रशिक्षण दिया जाता था तभी आवश्यकता पड़ने पर वे दुर्गा का रूप लेने भी नहीं हिचकती थीं।     

   इस पुस्तक में मैंने सिर्फ स्त्री वीरांगनाओं की जीवनियों को ही सम्मिलित किया है जिससे कि हमारे समाज में स्त्रियों के बारे में फैली भ्रांत धारणा दूर हो सके। इतिहास के इन अनमोल नगीनों से प्रेरणा लेकर वे अपनी बेटियों को भी बल-बुद्धि में इतना ही समर्थ बनायेँ कि आवश्यकता पड़ने पर वे स्वयं की रक्षा करने में समर्थ हो सकें। 

 आजादी के अमृत महोत्सव से प्रेरणा लेते हुए इस संग्रह में मैंने उन 17 वीरांगनाओं की जीवनियों को संग्रहीत किया है जिनके बारे में हमने कम सुना या जाना है। इनमें से किसी का भी त्याग और बलिदान कम नहीं है। इसीलिए मैंने उन्हें नाम के आधार पर नहीं वरन उनके जन्म के आधार सूचीबद्ध किया है।  

 अंत में यही कहना चाहूंगी कि भारत का एक गौरवशाली अतीत रहा है। यह सच है कि कुछ इतिहासकारों ने अपनी विदेशी शिक्षा के प्रभाव कारण हमारे सुनहरे अतीत से छेड़छाड़ ही नहीं की वरन उसे झुठलाने का भी प्रयत्न किया है। विदेशी शिक्षा का ही प्रभाव है कि आज के युवा अपने देश की संस्कृति और परम्पराओं से दूर होते जा रहे हैं। देशप्रेम की जिस अग्नि ने हमें आजादी दिलवाई, उसका आज नितान्त अभाव हो गया है। आज देश को तोड़ने के षड्यंत्र रचे जा रहे हैं। आज लोग अपने स्वार्थ में इतना ड़ूबे हुए हैं कि उन्हें अपना देश नहीं वरन सिर्फ मैं, मेरा परिवार ही नजर आता है। न हम बच्चों को देशभक्ति का पाठ पढ़ा रहे हैं न उन्हें उचित शिक्षा दे पा रहे है। विदेशी भाषा में ज्ञान देकर हम उन्हें निज देश की प्रगति के लिए नहीं वरन विदेश भेजने के लिए तैयार कर रहे हैं। देश को अटूट रखने के लिए व्यक्ति में, समाज में देशभक्ति की भावना को जाग्रत करना आवश्यक है। आज राष्ट्र कवि मैथिली शरण गुप्त की इन पंक्तियों को आत्मसात करने की आवश्यकता है...भरा नहीं जो भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं, वह हृदय नहीं वह पत्थर है, जिसमें स्वदेश से प्यार नहीं।      

 इन सब विरोधाभासों के बीच भी मोहम्मद इकबाल के निम्न शब्द दिल में आस की नन्ही किरण जगा जाते हैं... 

यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रूमा,सब मिट गए जहाँ से।

अब तक मगर है बाक़ी, नाम-ओ-निशाँ हमारा।

कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी।

सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-ज़माँ हमारा।

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