Tuesday, March 3, 2020
अनबूझ पहेली है जीवन
अनबूझ पहेली है जीवन
जीवन एक ऐसी पहेली है जिसका उत्तर ढूंढते ढूंढते पूरी उम्र गुजर जाती है पर फिर भी उसका उत्तर इंसान को नहीं मिल पाता । रिश्तो के चक्रव्यूह में फंसा मानव ना सबको खुश रख पाता है और ना ही स्वयं खुश रह पाता है । अक्सर ऐसा होता है कि हम अड़ोसी पड़ोसी से तो स्नेहिल व्यवहार करते हैं पर जहाँ खून के रिश्तो की बात आती है हम उनसे बिना यह जाने अपेक्षा करने लगते हैं कि हम स्वयं उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतर भी पा रहे हैं या नहीं । बस यही से रिश्तों में दरार पैदा होने लगती है । जरा जरा सी बात पर दोषारोपण करना आम बात होती जाती है । इसी के साथ तकरार प्रारंभ हो जाती है । इस तकरार में यदि कोई किसी अनुचित बात पर अपनी प्रतिक्रिया प्रकट करता है तो उसे घमंडी, अहंकारी कहा जाता है ...अगर कोई संस्कारी व्यक्ति रिश्तो का सम्मान करते हुए चुप रहता है तो उसे नासमझ या कमजोर मान लिया जाता है . ..उसका मानसिक शोषण करने से भी तथाकथित अपने ही बाज नहीं आते । स्थिति तब भयावह हो जाती है जब व्यक्ति अपने पालकों के प्रति निःस्पृह हो जाता है । उसे उनके दुख दिखाई नहीं देते या यूँ कहिए वह उनका भार उठाने हेतु अपने सुखों की बलि नहीं चढ़ाना चाहता ।
दोनों ही स्थितियां एक सच्चे ईमानदार पारिवारिक एवं सामाजिक मूल्यों के प्रति समर्पित व्यक्ति के लिए असह्य हैं । इंसान को इन समाजिक परिस्थितियों के बीच रहते हुए जीवन यापन करना पड़ता है । एक सच्चा और निस्वार्थ इंसान रिश्तो को बनाए रखने के लिए खून के घूंट पीकर भी न सिर्फ रिश्ते निभाता है वरन उन्हें बचाए रखने के लिए सर्वस्व अर्पित करने का प्रयास करता है क्योंकि उसके लिए रिश्ते दुनिया की सर्वश्रेष्ठ अमानत है । कुछ लोग कहते हैं सम्मान खोकर , रिश्ते निभाना स्वयं को स्वयं की नजरों से गिराना होता है पर सच तो यह है अगर ऐसा करके भी हम रिश्तो को बचा पाए तो यह इंसान की हार नहीं जीत ही होगी..आखिर अपनों के बीच मान अपमान कैसा ? अगर जीवन में रिश्ते ही नहीं रहे तो जीवन, जीवन नहीं पाषाण बन जाएगा ।
पाषाण तो बन ही गया है मानव, ऐसे रिश्ते निभाते निभाते । तभी उसे अपनों के दुख दिखाई नहीं देते तथा दूसरों के सुखों से ईर्ष्या होती है । संवेदनहीनता की पराकाष्ठा इतनी हो गई है कि वह कामयाबी का रास्ता स्वयं अपने परिश्रम से नहीं वरन दूसरों की राह में रोड़ा अटका कर पाना चाहता है । शायद वह यह समझकर भी नहीं समझना चाहता कि जो कामयाबी मेहनत से प्राप्त नहीं की जाती वह स्थाई नहीं होती । कुतर्कों के जाल में फंसे ऐसे इंसान अपनी शारीरिक क्षमता सकारात्मक कार्यों के बजाय नकारात्मक कार्यों में जाया करने से बाज नहीं आते ।
यह तो हुई इंसान की संवेदनहीनता की बात ...पर हमारे समाज में आज भी कुछ परंपराएं , प्रथायें, अंधविश्वास इस कदर व्याप्त है कि जाने-अनजाने कितने ही मासूमों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है पर फिर भी वे ऐसी घटनाओं को दैवी प्रकोप मानते हैं । ऐसे व्यक्ति डॉक्टर के पास जाने की बजाय , गाँव के ओझा के कहने पर झाड़-फूंक का सहारा लेते हैं । समाज में व्याप्त इस घुन से तभी निजात पाई जा सकती है जब देश के कोने -कोने में शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार हो । शिक्षा न केवल व्यक्ति को सभ्य एवं सुसंस्कृत बनाती है वरन उनके विचारों में परिपक्वता लाकर दुनिया को देखने , समझने एवं तदनुसार आचरण करने के नजरिए में भी बदलाव लाती है । अगर हममें से प्रत्येक इंसान एक अनपढ़ को शिक्षित करने का बीड़ा उठा ले तो समाज में व्याप्त अशिक्षा से मुक्ति पाई जा सकती है ।
प्रत्येक इंसान के जीवन में कभी-कभी कुछ ऐसे भी पल आते हैं जब इंसान निराशा में डूब जाता है । उसे अपने आगे पीछे अंधेरा ही अंधेरा नजर आने लगता है । निराशा और सिर्फ निराशा ही उसके जीवन का हिस्सा बनती जाती है । ऐसे समय में यह न भूलें कि दिन-रात जीवन चक्र के हिस्से हैं । अंधेरा कितना ही घना क्यों ना हो कुछ समय अंतराल के पश्चात प्रकाश, अंधकार को चीरकर तन- मन को प्रफुल्लित कर ही देता है । कभी भी किसी भी परिस्थिति में अपना हौसला टूटने मत दीजिए क्योंकि जब जीवन का एक रास्ता बंद होता प्रतीत होता है तब कोई दूसरा रास्ता अवश्य खुल जाता है अतः अपनी सूझबूझ के साथ दूसरा रास्ता खोजने का प्रयत्न कीजिए मंजिल ना मिले हो ही नहीं सकता ।
माना पथ है
कंटकाकीर्ण,
मंजिल है दूर
हौसला हो गर
बना ही लेंगे
आशियाना अपना ।
सुधा आदेश
No comments:
Post a Comment