Sunday, January 19, 2020
सुंदर माझे घर
सुंदर माझे घर
दीपेश घर के बरामदे में बैठे-बैठे सूर्यास्त को निहारते-निहारते सोच रहे थे कि आज का दिन न जाने कितनों को खुशियाँ दे गया होगा और न जाने कितनों को गम...कितने अपने जीवन के सुनहरे पलों के साथ झूम रहे होंगे और कितने ही अपने गमों को सूर्यास्त की अनोखी अद्भुत छटा में भुलाने की असफल चेष्टा कर रहे होंगे....। एक ऐसी ही शाम उनके जीवन को अँधेरों से भर गई थी....। न चाहते हुए भी अतीत उनकी आँखों के सामने चलचित्र की भाँति मंडराने लगा था...
नीरा को प्रकृति से अत्यंत प्रेम था...। यही कारण था कि जब दीपेश ने मकान बनवाने का निर्णय लिया तो उसने साफ़ शब्दों में कह दिया वह फ्लैट नहीं वरन् अपना स्वतंत्र घर चाहती है जिसे वह अपनी इच्छानुसार...वास्तुशास्त्र के नियमों के अनुसार बनवा सकेे...। जिसमें छोटा सा बगीचा हो....तरह-तरह के फूल हों...यदि संभव हो तो फल और सब्ज़ियाँ भी लगाई जा सकें ।
यद्यपि दीपेश को इन सब बातों में विश्वास नहीं था किन्तु नीरा का वास्तुशास्त्र में घोर विश्वास था....। उसका कहना था यदि इसमें कोई सच्चाई नहीं होती तो क्याो£ बड़े-बड़े लोग अपने निवास और आफिस वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन करते हुए नहीं बनवाते या वास्तुशास्त्र के नियमों के अनुसार न बना होने पर अच्छे भले घर में सुधार करने के लिये तोड़ फोड़ न करवाते...।
अपने कथन की सत्यता सिद्द करने के लिये विभिन्न अखबारों की कतरने लाकर उसके सामने रख दी थीं तथा इसी के साथ वास्तुशास्त्र पर लिखी पुस्तक के कुछ अंश पढ़कर सुनाने लगी...भारत में स्थित तिरूपति बालाजी का मंदिर शत-प्रतिशत वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन करते हुए बनाया गया है । मंदिर के ईशान्य यानी उत्तर पूर्व दिशा में पानी का तालाब है, आग्नेय यानी दक्षिण पूर्व दिशा में भक्तजन और यात्रियों के भोजन प्रबंधन की व्यवस्था है...। नैऋत्यबयानी पश्चिम दक्षिण दिशा की ओर उँची-उँची पहाड़ियां हैं । मंदिर की ढलान पूर्व व उत्तर दिशा की ओर है… बाग बगीचे भी उसी दिशा में हैं तभी उसे इतनी प्रसिद्धि मिली है तथा चढावे के द्वारा इस मंदिर की जितनी आय होती है उतनी शायद किसी अन्य मंदिर में नहीं होती है ।
हमारा संपूर्ण ब्रहााण्ड पंच तत्त्वों से बना है...जल, वायु, पृथ्वी, अग्नि तथा आकाश के द्वारा हमारा शरीर कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, तथा चर्बी जैसे आन्तरिक शक्तिवर्धक तत्व तथा गर्मी, प्रकाश वायु तथा ध्वनि द्वारा बाह्य शक्ति प्राप्त करता है परंतु जब इन तत्त्वों की समरसता बाधायुक्त हो जाए तो हमारी शक्तियां क्षीण हो जाती है...। मन की शांति भंग होने के कारण खिंचाव, तनाव तथा अस्वस्थता बढ़ जाती है तब हमें अपनी आंतरिक और बाह्य शक्तियों को आत्मिक और निष्पक्ष होकर निदेशित करना पड़ता है जिससे इनमें संतुलन स्थापित होकर शरीर में स्वस्थता तथा प्रसन्नता आये और धन, ख़ुशी, संपन्नता और सफ़लता प्राप्त हो, इन पाँच तत्वों का संतुलन ही वास्तुशास्त्र है ।
घर में यदि वास्तुदोष है...शयन करने की दिशा, धन संग्रह , तिजोरी रखने की दिशा, गैस के चूल्हे की दिशा, पानी के ढलान की दिशा, पूजा घर की दिशा सही न होने पर वास्तु का तीस से चालीस प्रतिशत ही लाभ मिलता है , वस्तुतः हमारे जीवन में होने वाली हर प्रिय और अप्रिय घटना के पीछे वास्तु का बड़ा हाथ होता है...। वास्तुशास्त्र के बिना जीना यानी नदी के प्रवाह के विपरीत तैर कर अपनी मंजिल तय करना है ।
दीपेश ने देखा कि नीरा एक पैराग्राफ़ कहीं से पढ़ रही थी तथा दूसरा कहीं से...जगह-जगह उसने निशान लगा रखे थे, वह आगे और पढ़ना चाह रही थी कि उसने यह कहकर रोक दिया कि घर तुम्हारा है जैसे चाहे बनवाओ लेकिन स्वयं घर बनवाने में काफी श्रम एवं धन की आवश्यकता होगी जबकि उतना ही बड़ा फ्लैट किसी अच्छी लोकेलिटी में उससे कम पैसों में ही मिल जायेगा।
‘ आप श्रम की चिंता मत करो, वह सब मैं कर लूँगी...। धन का प्रबंध अवश्य आपको करना है वैसे में बजट के अंदर ही काम पूर्ण कराने का प्रयत्न करूंँगी, फिर यह भी कोई आवश्यक नहीं है कि एक साथ ही पूरा काम हो, बाद में भी सुविधानुसार अन्य काम करवाये जा सकते हैं...। अब आप ही बताइये भला फ़्लैट में इन सब नियमों का पालन कैसे हो सकता है अतः मैं छोटा ही सही किन्तु स्वतंत्र घर चाहती हूँ...।’ उसकी सहमति पाकर वह गदगद स्वर में कह उठी थी ।
दीपेश ने नीरा की इच्छानुसार प्लाट खरीदा तथा शुभ महूर्त देखकर मकान का शुभारंभ करवा दिया...। मकान का डिजाइन नीरा ने वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन करते हुए अपनी आर्किटेक्ट मित्र नीतू से बनवाया था । प्लाट छोटा था अतः सबकी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए डुप्लेक्स मकान का निर्माण करवाने की योजना थी...। निरीक्षण के लिये उसके साथ कभी-कभी दीपेश भी आ जाता था तभी एक दिन सूर्य को अस्ताचल में जाते देखकर नीरा भावविभोर होकर कह उठी थी....लोग तो सूर्यास्त देखने पता नहीं कहाँ-कहाँ जाते हैं, देखो कितना मनोहारी दृश्य है हम यहाँ एक बरामदा अवश्य निकलवाऐंगे जिससे चाय की चुस्कियों के साथ प्रकृति के इस मनोहारी स्वरूप का भी आनंद ले सकें । उस समय दीपेश को भी नीरा का स्वतंत्र बंगले का सुझाव अच्छा लगा था ।
नीरा की वर्ष भर की मेहनत के पश्चात् जब मकान बनकर तैयार हुआ तब सब अत्यंत प्रसन्न थे...। खास तौर से नितिन और रीना...उनको अपने-अपने अलग रूम मिल रहे थे....। कहाँ पर अपना पलंग रखेंगे, कहाँ उनकी स्टडी टेबल रखी जायेगी, सामान शिफ्ट करने से पहले ही उनकी योजना बन गई थी । अलग से पूजा घर...दक्षिण पूर्व की ओर रसोई घर तथा अपना मास्टर बैडरूम रूम दक्षिण दिशा में बनवाया था क्योंकि नीरा के अनुसार पूर्व दिशा की ओर मुँह करके पूजा करने से मन को शांति मिलती है वहीं उस ओर मुँह करके खाना बनाने से रसोई में स्वाद बढ़ता है तथा दक्षिण दिशा गृहस्वामी के लिये उपयुक्त है क्योंकि इसमें रहने वाले का पूरे घर में वर्चस्य रहता है...शुभ महूर्त देखकर गृह प्रवेश कर लिया गया था...।
सब अतिथियों के विदा होने के पश्चात् रात्रि को सोने से पहले दीपेश ने उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा था, ‘आज मैं बहुत खुश हूँ तुम्हारी अथक मेहनत के कारण ही हमारा अपने घर का स्वप्न साकार हो पाया है ।’
‘ अभी तो सिर्फ ईट गारे से निर्मित घर ही बना है अभी मुझे इसे वास्तव में घर बनाना है जिसे देख कर मैं गर्व से कह सकूँ....सुदंर माझे घर....मेरा सुंदर घर...जहाँ प्यार, विश्वास और अपनत्व की सरिता बहती हो, जहाँ घर का प्क प्राणी सिपर्क रात बिताने याा खाना खाने के लिये ही न आये वरन् प्यार के अटूट बंधन में बंधा वह शीघ्र काम समाप्त करके इस घर की छत की छाया के नीचे अपनों के मध्य बैठकर सुकून के पल ढूँढ सके ।’ नीरा ने उसकी ओर प्यार भरी नजरों से देखते हुए कहा ।
नीरा ने ईट गारे की बनी उस इमारत को सचमुच घर में बदल दिया था...। उसके हाथ की बनाई पेंटिंग्स ने घर में उचित स्थानों पर जगह ले ली थी । दीवार के रंग से मेल खाते पर्दे, वाल हैंगिग्स, लैंप न केवल गृहस्वामिनी वके रूचि का परिचय दे रहे थे वरन् घर की शोभा को भी दुगणित कर रहे थे...न केवल ड्राइंगरूम वरन् बैडरूम, किचन वको भी उसने सामान्य साजोसामान की सहायता से अपनी कल्पनाशीलता से आधुनिक रूप दे दिया था साथ ही साथ आगे बगीचे में उसने गुलाब,गुलदाउदी, गेंदा और रजनीगंधा इत्यादि फूलों के पेड़ तथा घर के पीछे कुछ फूलों के पेड़ तथा कुछ मौसमी सब्ज़ियाँ लगाई थी...अपने लगाये पेड़ पौधों की देखभाल नवजात शिशु के समान करती थी....। कब किसे कितनी खाद और पानी की आवश्यकता है यह जानने के लिये उसने बागवानी से संबंधित कई पुस्तकें भी खरीद ली थी...।
दीपेश भी कभी-कभी घर सजाने सँवारने में उसकी इतनी मेहनत लगन देखकर हैरान रह जाते थे । एक बार वह साड़ी खरीदने के लिये मना कर देती थी किन्तु यदि उसे कोई सजावटी या घर के लिये उपयोगी कोई सामान पसंद आ जाता तो वह उसे लिये बिना रह नहीं सकती थी...। उसके ‘ सुंदर माझे घर ’की कल्पना साकार हो उठी थी । धीरे-धीरे एक वर्ष पूरा होने जा रहा था....नीरा इस साधारण से अवसर को कुछ नये ढंग से मनाना चाहती थी...। शोर शराबे के साथ एक साधारण पार्टी का भी आयोजन किया गया था....घर को गुब्बारों और रंग बिरंगी पट्टियों से सजाया गया था....। काम की हड़बड़ी में ऊपर के कमरे से नीचे उतरते समय उसका पैर साड़ी में उलझ गया और वह नीचे गिर गई, सिर में चोट आई थी किन्तु अपनी जिंदादिली के कारण उसने ध्यान नहीं दिया या कहीं पार्टी का मजा किरकिरा न हो जाए इसलिये दर्द की दवा खाकर चुपचाप दर्द को झेलती रही ।
‘ आज मैं बहुत थक गई हूँ अब सोना चाहती हूँ...।’ पार्टी समाप्त होने पर नीरा ने थके स्वर में कहा था ।
‘ जब आलतू फ़ालतू काम करोगी तो थकोगी ही....भला इतना सब करने की क्या आवश्यकता थी ? ’ दीपेश ने सहज स्वर में कहा था ।
‘ ये छोटे मोटे अवसर ही जिंदगी को नया रंग देते हैं...।'
‘ वह तो ठीक है, पर करना उतना ही चाहिए जितना शरीर साथ दे...।’
जब नीरा सुबह अपने नियात समय पर नहीं उठी तब दीपेश को चिंता हुई, ध्यान दिया तो पाया कि वह बेसुध पड़ी थी, चेहरे पर अजीब से भाव थे जैसे रात भर दर्द से तड़फ़ड़ाती रही हो....। डाक्टर को बुला कर दिखाया तो उसे शीघ्र अस्पताल में एडमिट कराने की सलाह देते हुए बोले,‘ लगता है गिरने के कारण सिर में अंदरूनी चोट आई है । सिर की चोट को कभी भी हल्के से नहीं लेना चाहिए । कभी-कभी साधारण सी चोट भी जानलेवा सिद्द हो जाती है....।’ डॉक्टर ने चेक करने के बाद कहा ।
डाक्टर की बात सही सिद्ध हुई लगभग पाँच दिन जिंदगी मौत के साये में झूलने के पश्चात् वह चिर निद्रा मे सो गई...। सभी सगे संबंधी....अडोसी-पड़ोसी इस अप्रत्याशित मौत का समाचार सुनकर हक्के बक्के रह गये....लेकिन विधि के हाथों वे विवश थे....। जीवन के शाश्वत सत्य से मुख मोड़ पाना किसी के लिये भी संभव नहीं था....। संवेदना प्रकट करने के अतिरिक्त वे और कर भी क्या सकते थे ? दीपेश को दुख तो इस बात का था कि ऊपरी चोट के अभाव के कारण उसने उस घटना को गंभीरता से नहीं लिया था अगर उसे रात में ही एडमिट करा देते तो शायद नीरा बच जाती...।
नीरा के पार्थिव शरीर को पंचतत्व में विलीन करने के पश्चात् जब दीपेश ने घर में प्रवेश किया तो नीरा के कुशल हाथों से सजाया सँवारा घर मुँह चिढ़ाता प्रतीत हुआ...। उसके लगाये पेड़ पौधे कुछ ही दिनों में सूख चुके थे...दीपेश समझ नहीं पा रहे थे कि विधि-विधान एवं वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन करने के पश्चात् भी घर वीरान क्यों हो गया ? उनके जीवन में यह तूफ़ान क्यों आया ? उनकी खुशियों को, उनके घर को किसी की नजर लग गई या ईश्वर से ही उनवकी खुशियां देखी नही£ गई । उस समय वह नितिन और रीना को अपनी गोद में छिपाकर खूब रोये तब नन्हीं रीना उनके आँसू पो£छती हुई बोली थी,‘ डैडी, ममा नहीं हैं तो क्या हुआ उनकी यादें तो हैंअब तो हम भी ममा के बिना रहना सीख गये हैं ।’
तब दीपेश को महसूस हुआ था कि चार पाँच दिनों की काल रात्रि ने सुकुमार बच्चों को तूफ़ान से जूझना सिखा दिया है जो बच्चे नीरा के बिना खाना नहीं खाते थे वही आज उनको समझा रहे हैं...।
दीपेश ने बच्चों का मन रखने के लिये आँसू पोंछ डाले थे लेकिन नीरा का चेहरा उनके हृदय पटल पर ऐसा जम गया था कि उसको निकाल पाना उनके लिये संभव ही नहीं हो पा रहा था...। वह घर कैसा जहाँ कहकहे न हों.....ख़ुशियाँ न हों....प्यार न हो....स्वप्न न हों....।
जो घर कभी नीरा की पायल और चूड़ियों की झंकार से गूँजता रहता था वहाँ शमशान जैसी वीरानी छाई हुई थी...। जिस पूजा घर की स्थापना नीरा ने पूर्ण विधि विधान के साथ की थी वह वीरान था....वहाँ अब न दीप जलता था और न ही पूजा की घंटी बजती थी और न ही सुबह शाम प्रसाद बाँटा जाता था ।
दीपेश के माँ-पिताजी नहीं थे अतः नीरा की माँ ने आकर उसकी तितर बितर गृहस्थी को फिर से समेटने का प्रयत्न किया ।
सुबह आरती करते हुए वह घंटी बजा रही थीं कि घंटी की आवाज सुनकर दीपेश चिल्लाये...अपनी मनःस्थिति के कारण शायद वह भूल गए थे कि नीरा की माँ आई हुई हैं ।
‘कौन पूजा कर रहा है ? इस घर में अब पूजा नहीं होगी....जब पूजा करने वाली ही नहीं रही तब पूजा से क्या लाभ ?’
‘ बेटा, पूजा लाभ और नुकसान के लिये नही वरन् मन की शांति एवं घर की शांति के लिये की जाती है ।’
‘ माँजी, यदि ऐसा ही है तो इस घर की शांति क्यों भंग हुई । नीरा तो नियमित रूप से इनकी पूजा अर्चना करती थी ।' दीपेश ने वृतृष्णा से कहा ।
‘ बेटा,जाने वाले के साथ जाया तो नहीं जा सकता । जीवन तो जिन ही है । अभी उम्र ही क्या है तुम्हारी । फिर से घर बसा लो,बच्चों को माँ तथा तुम्हें पत्नी मिल जायेगी, आखिर मैं कब तक साथ रहूँगी ?’ दीपेश की मानसिकता को ध्यान में रखकर उनके प्रश्न का उत्तर टालते हुए संयमित स्वर में माँ ने कहा था । दीपेश के प्रश्न का उत्तर उनके पास भी नहीं था ।
‘ पापा, आप नई माँ ले आइए, हम उनके साथ रहैंगे....।’ नन्हा नितिन जो नानी की बात सुन रहा था ने भोलेपन से कहा । उसकी बात का समर्थन रीना ने भी कर दिया ।
दीपेश सोच नहीं पा रहा था कि बच्चे अपने मन से इतनी बड़ी बात उससे कह रहे हैं या माँजी ने ही उनके नन्हे से मन में नई माँ की चाह भर दी है...। वरना ये मासूम बच्चे क्या जाने नई माँ । वह जानता था कि वह अपने हृदय से नीरा की स्मृतियों को कभी मिटा नहीं सकता फिर क्या दूसरा विवाह कर वह उस लड़की के साथ अन्याय नहीं करेगा जो उसके साथ तरह-तरह के स्वप्न संजोये इस घर में प्रवेश करेगी....क्या वह दो मासूम बच्चों को माँ का प्यार दे पायेगी....?
दो महीने पश्चात् जाते हुए जब माँजी ने दुबारा दीपेश के सामने अपना सुझाव रखा तो वह एकाएक मना नहीं कर पाया । उसका मन आठ वर्षीय रीना को अपनी नानी माँ के साथ काम करते देखकर बेहद आहत हो जाता था । कुछ ही दिनों में वह बेहद बड़ी लगने लगी थी....। उसकी चंचलता कहीं खो गई थी....। यही हाल चार वर्षीय नितिन का था जो नितिन अपनी माँ को इधर-उघर दौड़ाये बिना खाना नहीं खाता था वही अब जो भी मिलता बिना नानूकुर के खाने लगा था ।
बच्चों तक का परिवर्तित स्वभाव दीपेश कोे मन ही मन खाये जा रहा था अतः माँजी के प्रस्ताव पर जब उसने मन की दुश्चिंतायें बताई तो वह बोलीं …
‘ बेटा, यह सच है कि तुम नीरा को भूल नहीं पाओगे । नीरा तुम्हारी पत्नी थी तो मेरी बेटी भी थी...। जाने वाले के साथ जाया तो नहीं जा सकता लेकिन किसी के जाने से जीवन तो समाप्त नहीं हो जाता । बेटा जीवन एक समझौता है । जीवन में अनेक समझौते कभी-कभी अनिच्छानुसार करने पड़ते हैं । तुम्हें अपने लिये भले ही पत्नी की आवश्याकता न हो लेकिन इन बच्चों को माँ की आवश्यकता है ।अपने लिये न सही बच्चों के भविष्य के लिये तुम्हें समझौता करना ही पड़ेगा...। सभी विमातायें एक जैसी नहीं होती...किसी संबंध के बारे में पूर्वधारणा बनाकर चलना गलत है ।’
दीपेश को मौन पाकर वह फिर बोली,‘ तुम कहो तो नंदिता से तुम्हारी बात चलाऊ । तुम तो जानते ही हो नंदिता नीरा की मौसेरी बहन है उसके पति का देहान्त एक कार एक्सीडेंट में हो गया था । उसका वैवाहिक जीवन कुछ महीनों का ही रहा है । वह भी तुम्हारे समान ही अकेली है, स्त्री होने के साथ-साथ एक पुत्री अर्चना की माँ होने के नाते वह तुमसे भी ज्यादा विवश और बेसहारा है...। देवांग की मृत्य के बाद उसने भी स्वयं को एक कमरे में कैद कर लिया है...वह स्वयं उस आघात को झेल चुकी है अतः हो सकता है तुम दोनों आपस में सामंजस्य बैठा सको ।'
गमों के सहारे आखिर कब तक जिया जा सकता है....संपूर्ण ब्रहमांड पर अपने प्रभाव का दावा करने वाला मनुष्य यहीं आकर विवश हो जाता है....। जीवन की क्षणभंगुरता उसे आहत कर डालती है....भविष्य के संजोये स्वप्न जब एक झटके में टूट जाते हैं तब वह सोचने लगता है कि वह क्यों और किसके लिये जिए....क्यों कमायो इतनी धनदौलत....क्यों बचत करे....? जब एक दिन सब कुछ ऐसे ही एक झटके में छोड़कर जाना है लेकिन समय नाम की दौलत इंसान के जख्मो£ पर मरहम लगा वकर उसे इस अवसाद की अँधेरी रात से उबार ही देती है तथा मनुष्य फिर प्राची की नवीन किरणों के साथ नये जीवन का प्रारंभ कर देता है ।
माँजी की इच्छानुसार दीपेश ने घर बसा लिया था लेकिन फिर भी न जाने क्यों जिस घर पर कभी नीरा का एकाधिकार था उसी घर पर नंदिता का अधिकार होना वह सहन नहीं कर पा रहा था ।
नंदिता ने उसे तो स्वीकार कर लिया था किन्तु वह बच्चों को स्वीकार नहीं कर पा रही थी । वैसे दीपेश भी क्या उस समय अर्चना को पिता का प्यार दे पाये थे...। घर में एक अजीब सा असमंजस.....अविश्वास की स्थिति पैदा हो गई थी । वह अपनी बच्ची को लेकर ज्यादा ही भावुक हो उठती थी....। एवलक बार अर्चना को खिलाते-खिलाते रीना के पैर में ठोकर लग गई जिससे अर्चना गिर गई उसके माथे पर हल्की सी चोट आ गई थी....यद्यपि चोट रीना के भी आई थी लेकिन नंदिता ने उस मामूली सी घटना को ऐसे पेश किया कि उन्हें भी लगा कि सारी गलती रीना की ही है ।
अस्पताल जाने से पूर्व उस दिन पहली बार उनका हाथ रीना पर उठा था....। उसका बाद में उन्हें पछतावा भी बहुत हुआ था लेकिन तीर से निकला बाण तथा मुँह से निकले शब्द कभी वापस नहीं लौटते....। बच्चे सहम गये थे किन्तु अब नंदिता की सुबह बच्चों की शिकायत से प्रारंभ होती और उनकी ही शिकायत से ही समाप्त होती....।
नंदिता को लगता था उसकी बेटी को कोई प्यार नहीं करता है....। घर में अशांति, अविश्वास,तनाव और खिंचाव देखकर बस एक बात दीपेश के मनमस्तिष्क को मथती रहती थी कि वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन कर बनाया यह घर प्रेम, ममता और अपनत्व का स्त्रोत क्यों नहीं बन पाया, आंतरिक और बाह्य शक्तियों में समरसता स्थापित क्यों नहीं हो पा रही हैं, क्यों उनकी शक्तियां क्षीण हो रही है ? उनमें क्या कमी है ? अपनी आंतरिक और बाह्य शक्तियोंको निदेशित कर , उन संतुलन स्थापित कर क्यों वह न स्वयं प्रसन्न रह पा रहे हैं और न ही दूसरों को प्रसन्न रख पा रहे हैं ?
नई माँ की अपने प्रति बेरूखी देखकर रीना और नितिन रिजर्व हो गये थे....किंतु बड़ी होती अर्चना ने दिलों की दूरी को पाट दिया था । वह नंदिता की बजाय रीना के हाथ से खाना खाना चाहती उसी के साथ सोना चाहती तथा उन्हीं के साथ खेलना चाहती थी....। रीना और नितिन की आँखों में अपने लिये प्यार और सम्मान देखकर नंदिता के रूख में भी परिवर्तन आने लगा था....। बच्चों के निर्मल स्वभाव ने उसका दिल जीत लिया था या अर्चना को रीना और नितिन के साथ सहज और स्वाभाविक रूप में खेलता देखकर उसके मन का डर समाप्त हो गया था ।
एक बार फिर से दीपेश को भी लगने लगा था कि उनके घर पर छाई अवसाद की छाया हटने लगी है....रीना कालेज में आ गई थी तथा नितिन और अर्चना भी अपनी-अपनी कक्षा में प्रथम आ रहे थे लेकिन एक दिन नंदिता ऐसी सोई कि फिर उठ ही नहीं सकी....। शायद उनके भाग्य में पत्नी सुख बदा ही नहीं था...पहले दो बच्चे थे अब तीन बच्चों की जिम्मेदारी थी लेकिन फर्क इतना था कि पहले बच्चे छोटे थे तथा अब बड़े हो गये थे । अपनी देखभाल स्वयं कर सकते थे....अपना बुरा भला सोच और समझ सकते थे ।
रीना ने अपने नाज़ुक कंधों पर घर का बोझ उठा लिया था....। अब तो दीपेश स्वयं भी रीना के साथ-साथ रसोई तथा अन्य कामों में हाथ बँटाते तथा नितिन और अर्चना को भी अपना-अपना काम करने के लिये प्रेरित करते....घर की गाड़ी एक बार फिर चल निकली थी किन्तु इस बार के आघात ने उन्हें इतना एहसास अवश्य करा दिया था कि किसी के रहने या न रहने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता....दिन रात उसी गति के साथ होते हैं....समय का चक्र उसी गति के साथ चलता रहता है....। सुख-दुख के बीच में हिम्मत न हारना ही व्यक्ति की सबसे बड़ी जीत है ,वस्तुतः वक्त किसी के लिये नहीं रूकता....। जो वक्त के साथ चल सका वही जीवन के रणसंग्राम में विजयी होता है....।
इस एहसास और भावना ने दीपेश के अंदर के अवसाद....डिप्रेशन को समाप्त कर दिया था तथा अब वह आफिस के बाद का सारा समय बच्चों के साथ बिताते या नीरा द्वारा बनाये बगीचे की साज सँभाल में वक्त व्यतीत करते । उससे बचे समय में अपनी कल्पनाओं और भावनाओं को कोरे कागज़ पर उकेरते....कभी वह गीत बनकर प्रस्फुटित होतीं तो कभी काव्य और कहानी बनकर....तब उन्हें पहली बार....वियोगी होगा पहला कवि ,आह से निकला होगा गान....पंक्ति में सच्चाई नजर आई थी ।
शीघ्र ही दीपेश की रचनायें प्रतिष्ठित पत्रा पत्रिकाओं में स्थान पाने लगी थी । अब उन्हें लगने लगा था कि जीवन जीने का मकसद मिल गया है....। समय पर बच्चों के विवाह हो गये और वे अपने-अपने घर संसार में रम गये....। दीपेश की लेखनी में अब परिपक्वता आ गई थी....।
पेंट करवाने के लिये एक दिन दीपेश ने अपने कमरे की अलमारी खाली की तो कपड़े में लिपटी एक डायरी मिली....डायरी नीरा की थी । उसे खोल कर पढ़ने का लोभ छिपा नहीं पाये....। जैसे-जैसे वह पढ़ते गये नीरा का एक अलग ही स्वरूप उनके सामने आया....। एक कवयित्री का रूप....पूरी डायरी कविताओं से भरी थी....एक कविता....‘ सुदंर माझे घर ’ की पंक्तियां थी....
क्षितिज के उस पार की
सुखद ,सलौनी दुनिया को
अपने घर के आँगन में
उतारना चाहती हूँ,
एक सुंदर घर
बसाना चाहती हूँ,
जहाँ तुम हो
जहाँ में हूँ,
और हों हमारे
सुंदर, सलौने मृगछौने…
तिथि देखी तो विवाह की तिथि से एक माह बाद की थी....। दीपेश ने पूरी डायरी पढ़ ली । कम उम्र में ही उसकी प्रतिभा तथा भावनाओं की अभिव्यक्ति ने उन्हें भावविभोर कर दिया तथा उसी समय उन्होंने नीरा की कविताओंका संकलन करवाने का निश्चय कर लिया....।
एक महीने के अथक परिश्रम के पश्चात् दीपेश ने नीरा की चुनी हुई कविताओं को संकलित वकर पुस्तवक वके रूप में प्रकाशित करवाने हेतु प्रकाशक को दे दी....। प्रकाशन का काम अंतिम चरण तक पहुँच चुका था ।
फोन की घंटी ने उसकी विचार तंद्रा को भंग किया....नितिन का फोन था....‘ पापा, आप कैसे हैं....? अपनी दवाइयां ठीक समय पर लेते रहिएगा....। आप हमारे पास आ जाइये....आपके अकेले रहने से हमें चिंता रहती है । ’
‘ बेटा, मैं ठीक हूँ, तुम चिंता मत किया करो....। वैसे भी मैं तुम से दूर कहाँ हूँ,जब भी इच्छा होगी, मैं आ जाऊँगा ।’
बच्चों की चिंता जायज थी लेकिन वह इस घर को कैसे छोड़कर जा सकते हैं जिसकी एक-एक वस्तु में खट्टी मीठी यादें समाई हुई हैं.....साथ गुजारे पलों का लेखा जोखा है । एक दो बार बच्चों के आग्रह पर गये भी हैं लेकिन कुछ ही दिनों पश्चात ही उनके अपने घर के बरामदे से दिखते इस अनोखे सूर्याास्त की सुखद सलौनी लालिमा का आकर्षण उन्हें खींच लाता था....सच तो यह था सूर्यास्त की मनोहारी लालिमा उनकी प्रेरणा स्त्रोत बन गई थी...। उसी से उन्होंने जीवनदर्शन पाया था कि जीवन भले ही समाप्त हो रहा हो लेकिन आस कभी नहीं खोनी चाहिए क्योंकि प्रत्येक अवसान के बाद सुबह होती है....मृत्यु के बाद जीवन का आर्भिभाव होता है...। उनकी कितनी ही रचनाओं का आर्भिभाव यहीं इसी कुर्सी पर बैठे-बैठे हुआ था....।
सूर्या कब का विश्राम करने जा चुका था उसकी जगह चंद्रमा की शीतल, सुहानी किरणों ने ले ली थी...ठीक उसी तरह जैसे दीपेश के जीवन की तपती रेत को कभी नीरा ने अपने प्रेम से सींचा तो कभी नंदिता ने....। यह बात और है कि उनके हृदय पटल पर सदा नीरा ही छाई रही....। वह नंदिता के साथ कभी न्याय नहीं कर पाये, इस बात का अफ़सोस उन्हें जीवन भर रहेगा....। शायद नंदिता भी ऐसा ही महसूस करती रही हो....। उनके साथ जीवन बिताते हुए वह मन से उन्हीं की तरह पहले प्यार से ही जुड़ी रही हो लेकिन यह भी सच है कि उन दोनों ने जिन कर्तव्यों के पालन के लिये समझौता किया था वह उसमें खरे उतरे थे....।
वह अंदर जाने के लिये मुड़े ही थे कि स्कूटर की आवाज ने उन्हें रोक लिया....अरविंद....प्रकाशक के आदमी ने उनके हाथ में पांडुलिपि देते हुए मुख पृष्ठ के लिये कुछ चित्र दिखाये....। एक चित्र पर उनकी आँखें ठहर गई.....घर के दरवाजे से निकलती औरत....और वहीं कलात्मक अक्षरों में लिखा हुआ था....‘ सुंदर माझे घर ’
चित्र को देखकर दीपेश को एकाएक लगा....मानो नीरा ही घर के दरवाजे पर उसके स्वागत के लिये खड़ी है...। वह नीरा नहीं वरन् उसकी कल्पना का ही मूर्त रूप था....दीपेश ने बिना किसी अन्य चित्र को देखे उस चित्र के लिये अपनी स्वीकृति दे दी ।
दीपेश जानते थे कि आने वाले कुछ दिन उसके लिये बेहद महत्वपूर्ण होंगे...। पांडुलिपि का अघ्ययन कर पुनः प्रकाशक को देना था....। किसी विशिष्ट व्यक्ति से मिलकर लोकार्पण के लिये तारीख तय करनी थी तथा बच्चों तथा अपने सभी सगे संबंधियों को भी सूचना देनी थी...। नीरा की कल्पनाओं को साकार करने का उनका यह छोटा सा प्रयास भर ही हो पर शायद अपनी अर्धागिनी को श्रद्धांजलि देने का एक सच्चा और सार्थक रूप अन्य कुछ हो भी नहीं सकता था ।
सुधा आदेश
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