एक कोलाहल थमता नहीं
दूसरा आकर तन-मन को
शिथिल कर देता है ..
संज्ञाशून्य हो जाती है
चेतना
बार-बार
मन को यही आक्रोश
मथने लगता है,
आखिर कब तक जलेगी
संसार की निर्मात्री नारी ,
कब थमेगी नृशंषता,
कब तक हमें बेबस चीखें
द्रवित करेगी।
कब इंसान जानवर से
इंसान बनेगा ,
कब तक केंडल मार्च
निकालकर
मन को
सांत्वना देते रहेंगे ?
उत्तर है किसी के पास ...!!
चुप रहकर,
आँख मूंद कर
क्या हम स्वयं
नृशंषता के
भागीदार नहीं बन रहे हैं ?
एक आवाज नहीं,
हजारों आवाज चाहिए
अपराधी को कटघरे तक
पहुंचाने के लिये...
मौत के बदले सिर्फ मौत
इससे कम कुछ नहीं !!
@सुधा आदेश
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