संभावनाओ का
जब हो जाए अंत
तब भी एक
संभावना उपजती है
आखिर इंसानी प्यास
कब बुझी है ?
इंसानी प्यास
एक जिजीविषा है
जीने की विषम
परिसतिथियों में
वरना न इंसा होता
न यह दुनिया होती ।
गम और उदासी की
लपेटे चादर,
मन मस्तिशक के
कर कपाट बंद
इंसा न स्वयं जी पाएगा
न किसी को जीने देगा ।
याद रखना सदा
छोटी – छोटी बात पर
रोता कल्पता
इंसान मन में
वितृष्णा भर देता है ।
वही लबों पर
हंसी की
छोटी सी लहर
अँधेरों में भी
प्राची की नवकिरण का
एहसास करा जाती है ।
निर्भर है तुम पर
मिटा दो अपनी दुनिया
निज हस्तों से
या रजो-गमों से बेखोफ
जुट जाओ
मंजिल की तलाश में ।
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