लहू के आँसू पीकर
तमाम उम्र गुजार दी,
अब तो बाग के फूल भी
कांटे बन चुभने लगे है ।
तिल-तिल जलें भी
तो आखिर कब तक,
ज़िंदगी, ज़िंदगी नहीं
सजा बन चुकी है ।
कहने को मिला है
सोने का महल...
पर कैद खाने
कम नहीं ।
जीना आसान नहीं
पढ़ा था किताबों में,
दुश्वार इतना होगा
समझ अब पाये है।
समझोता करते-करते
कब तक जिये हम,
आखिर कोई तो हो
जिसे अपना कह सकें हम।
नहीं मिली ज़िंदगी
मेरे साथ मेरे कर्म ,
पल भर मिली खुशी
संतुष्टि बने मेरी ।
शिकवा- शिकायतें भूल
लम्हा-लम्हा गुजरे
ज़िंदगी के
चंद दिन यूँ ही ।
अंतिम ख़्वाहिश यही,
न रहे बदले की भावना,
न रहे कोई चाहना
मुक्ति मिले निर्दोष दीप सी।
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