Thursday, December 4, 2014

ख़्वाहिश

लहू के आँसू पीकर तमाम उम्र गुजार दी, अब तो बाग के फूल भी कांटे बन चुभने लगे है । तिल-तिल जलें भी तो आखिर कब तक, ज़िंदगी, ज़िंदगी नहीं सजा बन चुकी है । कहने को मिला है सोने का महल... पर कैद खाने कम नहीं । जीना आसान नहीं पढ़ा था किताबों में, दुश्वार इतना होगा समझ अब पाये है। समझोता करते-करते कब तक जिये हम, आखिर कोई तो हो जिसे अपना कह सकें हम। नहीं मिली ज़िंदगी मेरे साथ मेरे कर्म , पल भर मिली खुशी संतुष्टि बने मेरी । शिकवा- शिकायतें भूल लम्हा-लम्हा गुजरे ज़िंदगी के चंद दिन यूँ ही । अंतिम ख़्वाहिश यही, न रहे बदले की भावना, न रहे कोई चाहना मुक्ति मिले निर्दोष दीप सी।

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